क्या साफ हो पाएगी सियासत में फैली गंदगी

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लिमटी खरे

देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था में न्यायपालिका को ही सबसे ऊपर दर्जा दिया गया है। देखा जाए तो देश का संचालन विधायिका के द्वारा कार्यपालिका के जरिए किया जाता है। देश का लोकतंत्र इन्हीं तीनों पायों पर खड़ा दिखता है। इसके अलावा प्रेस जगत यानी जिसे अब मीडिया की संज्ञा दी जाने लगी है को चौथे स्तंभ का अघोषित दर्जा दिया गया है। सियासी बियावान में अपराधियों, आरोपियों, धनाड्य और ताकतवर लोग जो गलत रास्ते से धन कमाते आए हैं का दबदबा दिखाई देता है। एक समय था जब सियासत करने वालों पर नैतिकता हावी हुआ करती थी और अगर भूल से किसी दागी को आगे कर भी दिया जाता था तो उसे पीछे हटाने में कोई संकोच नहीं किया जाता था, पर अब स्थितियां एकदम उलट ही नजर आती हैं। सांसदों, विधायकों में न जाने कितने इस तरह के हैं, जिन पर दर्जनों संगीन मामले लंबित हैं। धीमी गति से चलने वाली न्यायालयीन प्रक्रिया के चलते साल दर साल मामले लंबित रहते हैं और इनका फैसला नहीं हो पाता। यह राहत की बात ही मानी जा सकती है कि देश की शीर्ष अदालत के द्वारा इस मामले में एक कदम उठाया है। इस कदम का न केवल स्वागत होना चाहिए वरन इसका अनुकरण भी किया जाना चाहिए।

देश की राजनीति में शुचिता किस तरह तार तार हो रही है यह बात किसी से छिपी नहीं है। सियासत में मसल और मनी पावर का जोर जमकर चल रहा है। इस मामले में सफाई की दरकार सालों से महससू की जा रही थी, पर सवाल यही था कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे! चुनाव आयोग के द्वारा समय समय पर दिए गए निर्देशों से कुछ सुधार तो महसूस हुआ पर यह सुधार नहीं के बराबर ही माना जा सकता है। हाल ही में देश की शीर्ष अदालत के द्वारा एक जनहित याचिका के जरिए सियासी दलों को जिस तरह के निर्देश दिए गए उसकी लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही थी।

माना जाता है कि सांसद, विधायक सहित सारे जनप्रतिनिधि किसी न किसी के पायोनियर यानी अगुआ होते हैं। कुछ दशक पहले तक सरकारी कार्यालयों, घरों आदि में स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों सहित बड़े नेताओं के चित्र भी लगा करते थे, ताकि युवा तरूणाई उनके आदर्शों का अनुसरण करे। अस्सी के दशक के बाद सियासत में जिस तेज गति से गिरावट दर्ज की गई है, वह किसी से छिपी नहीं है। देखा जाए तो राजनैतिक दलों को ही दागी उम्मीदवारों से बचकर चलना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे योग्य और साफ सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को ही मैदान में उतारें।

यह बात भी आईने की तरह ही साफ है कि नेताओं की सोच, उनके विचार, चाल चलन और चरित्र से ही राजनीति की दशा और दिशा तय होती है। नेताओं को साफ सुथरी छवि का होने की महती जवाबदेही राजनैतिक दलों की ही है, पर दलों के द्वारा किसी तरह का कदम नहीं उठाए जाने के चलते देश की शीर्ष अदालत को इसके लिए दिशा निर्देश जारी करने पड़े। शीर्ष अदालत ने कहा है कि दागी प्रत्याशी को अगर चुनाव मैदान में उतारा जाता है तो राजनैतिक दल को दो दिन अर्थात 48 घंटे के अंदर जनता को बताना होगा कि उसके द्वारा ऐसा क्यों किया गया!

देश की राजनीति में अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों का आना शुभ संकेत तो कभी भी नहीं माना गया है। इस तरह के तत्वों का बढ़ता प्रभाव लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे से कम नहीं माना जा सकता है। जब कोई सियासी दल किसी दागी उम्मीदवार को मैदान में उतारता है तो बात जीत हार तक ही सीमित नहीं रह जाती है। उस उम्मीदवार को अगर विजय मिलती है तो वह सियासत को अपनी सोच के अनुरूप ढालने का प्रयास किया जाता है। वह जिस तरह के अनैतिक कामों को करता है उसमें सरकारी कर्मचारियों से न केवल प्रश्रय की उम्मीद करता है वरन उनकी संलिप्तता भी करवाने का प्रयास करता है।

आंकड़ों पर अगर गौर किया जाए तो इसकी भयावहता सामने आ सकती है। 2004 में 24 फीसदी, 2009 में 30 प्रतिशत, 2014 में 34 तो 2019 में 43 फीसदी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार चुनाव जीतकर लोकसभा में जा पहुंचे हैं। जिस तरह से यह आंकड़ा बढ़ रहा है उसे देखते हुए यही माना जा सकता है कि अगले आम चुनावों में आधे सदस्य आपराधिक पृष्ठभूमि के हो सकते हैं। यह वाकई चिंता की बात है, जिस पर सियासी दलों को विचार करने की महती आवश्यकता है।

पिछली बार शीर्ष अदालत के द्वारा कमोबेश इसी तरह के निर्देश दिए गए थे। चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशियों को यह बताना जरूरी कर दिया गया था कि उन पर कितने आपराधिक मामले लंबित हैं। इसका प्रकाशन अखबार में कराए जाने के साथ ही साथ वेब साईट पर भी इसकी जानकारी देना अनिवार्य कर दिया गया था, पर इसका पालन पूरी तरह नहीं किया गया था। इसका पालन क्यों नहीं किया गया इस बारे में सियासी दलों के मौन को क्या समझा जाए!

अब सियासी दलों की नैतिकता मानो समाप्त ही हो गई प्रतीत हो रही है तब अंधकार में एक किरण देश की शीर्ष अदालत के निर्देश से प्रस्फुटित होती दिख रही है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा साफ तौर पर कह दिया गया है कि जिताऊ उम्मीदवार का तर्क नहीं माना जाएगा। अगर दागी को टिकिट दिया गया तो 48 घंटे के अंदर दल विभिन्न साधनों के जरिए मतदाताओं को यह बताएगा कि उसने दागी को टिकिट क्यों दिया है। इस तरह साफ साफ निर्देशों के बाद सियासी दलों पर कुछ दबाव बढ़ेगा और टिकिट देने के पहले उन्हें भी उम्मीदवार की पृष्ठभूमि पूरी तरह जानने की जरूरत होगी। सियासी बियावान में तरह तरह के दिग्गज हैं, इसलिए यह भी माना जा रहा है कि दागी उम्मीदवार को क्यों खड़ा किया जा रहा है इसक लिए भी वे अपने हिसाब से इसकी काट अवश्य ही निकाल लेंगे।

देश में चुनाव प्रक्रिया में सुधारों की बात की जाए तो तत्कालीन चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन के कार्यकाल से ही चुनावी प्रक्रिया में सुधार किया गया, इसे पारदर्शी बनाने का प्रयास हुआ। इसके बाद यह बहुत ही धीमी गति से आगे बढ़ी, या यूं कहा जाए कि यह सरकाती ही गई तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। वैसे यह बात भी गौर करने वाली है कि सियासी अखाड़े की सफाई का काम एक दिन में पूरा नहीं हो सकता है, यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है।

शीर्ष अदालत के द्वारा जनहित याचिका पर इस तरह की व्यवस्था दी है। इस तरह की जनहित याचिकाओं का स्वागत किया जाना चाहिए, जिसमें सुधार की गुंजाईश दिखाई दे। वैसे इस मामले में सियासी दलों को सबसे पहले अपनी गिरेबान में झांकने की जरूरत है। अगर सियासी दल ही नैतिकता को अंगीकार कर लें तो अदालतों को निर्देश देने की जरूरत शायद न पड़े। विडम्बना ही कही जाएगी कि लगभग 26 साल पहले एनएन वोहरा समिति के द्वारा राजनीति में अपराधियों की दखल पर अपनी रिपोर्ट दी थी। इसे संसद में पेश किया गया था, पर आज 26 साल बाद सियासी बियावान में अपराधियों की तादाद कम होने के बजाए शनैः शनैः बढ़ती ही जा रही है।

अपराधियों के लिए सियासी दरवाजे बंद करने के लिए सियासी दलों को जवाबदेही का निर्वहन तो करना ही होगा, पर मतदाताओं को भी अपनी जिम्मेदारी समझना होगा! आखिर क्या कारण है कि इतनी तादाद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेता आखिर कैसे जीत पा रहे हैं। न्यायपालिका अपना काम कर रही है, अब जवाबदेही बचती है तो सियासी दलों और मतदाताओं की! उम्मीद है वे भी अपनी जवाबदारी ईमानदारी से निभाएंगे!

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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