विवेक कुमार पाठक
भला एक दिन का मुख्यमंत्री कभी कोई बनता है। ऐसा हो सकता है नहीं हो सकता है ये बहस का विषय है मगर भारतीय सिनेमा ने एक दिन का मुख्यमंत्री जनता को दिखला दिया है। एक दिन का मुख्यमंत्री एक दिन में कैसे धड़ाधड़ काम करता है। फाइलें निबटाता हैए अतिक्रमण हटवाता हैए गुण्डों से लड़ता हैए भष्ट्र अफसर को सस्पेंड करता है और पूरी ताकत से बड़े घोटालेबाज अपने पूर्ववर्ती भ्रष्ट सत्ताधीश पर रेड डालता है। जनता के सपनों वाला ऐसा अवतारी मुख्यमंत्री हम सब नायक फिल्म के परदे पर तीन घंटे तक देख चुके हैं। फिल्मों का यही कमाल है। यहां हीरो की तरह हीरो जैसे राजनेता भी पर्दे पर शिवाजीराव के रुप में उम्मीदें जगा देते हैं। नायक फिल्म के ईमानदार मुख्यमंत्री कुछ पल के लिए ही सही मगर समाज में अच्छे राजनेताओं के लिए उम्मीदें जगाते हैं।
अच्छा या बुरा हर तरह का विचार देने उस पर मनन और उसके आमजनमानस तक विस्तार में सिनेमा का कोई सानी नहीं। जैसे समाज में तमाम तरह के पात्र हैं वैसे फिल्मी पर्दे पर हर तरह के पात्र स्थान पाते हैं। सियासत और राजनेता समाज में पावर का केन्द्र है। फिल्मों में भी उन्हें यही स्थान प्राप्त है। जैसे आम जनमानस में राजनीति और कई राजनेताओं के व्यक्तित्वों में मूल्यों के धराशायी होने पर चर्चा अनवरत जारी है वैसे ही फिल्में भी कई दशकों से राजनीति की कमियों और उसमें गिरावट को पर्दे पर उतारती हैं। भारतीय राजनीति में दशकों से उत्तरप्रदेशए बिहारए पश्चिम बंगाल से लेकर कई राज्यों में बाहुबलि चुनावी माला अपने प्रभाव से पहनते रहे हैं। फिल्मों में भी यह खूब देखने को मिलता है। फूल बने अंगारे फिल्म में प्रेम चोपड़ा खलनायक राजनेता के किरदार में प्रेम चोपड़ा चुनाव में गड़बड़ी कर सत्ता पा जाते हैं। इस जुल्म की शिकार नायिका रेखा को पति की हत्या के बाद अंगारे बनकर भ्रष्ट राजनीति पर प्रहार करना पड़ता है। फिल्मों में राजनेताओं का यह खलनायक रुप निरंतर बढ़ रहा है।
दरअसल सिद्धांतों से भीड़ भरे लोकतंत्र में सत्ता का तिलक लगवाना दुश्कर काम है। गोविन्दा अभिनीति खुद्दार फिल्म यही दिखाती है। सरोकार और सिद्धांतपरक राजनेता को हराकर भ्रष्ट और बर्खास्त पुलिस दरोगा मंत्री बनकर सिद्धांतों का मखौल उड़ाता है। खैर फिल्मों की ये बात सबसे खूबसूरत है कि इन तमाम अन्यायों के बाबजूद अंत में नायक की जीत सारी बुराइयों को बौनी साबित करने वाली होती है।
राजनीति में किस तरह के लोग निरंतर अपने प्रभाव और धन के जरिए मजबूत होते जा रहे हैं हिन्दी फिल्में लगातार इसे उजागर करती हैं। मनोज वाजपेयी की शूल फिल्म में दबंग मंत्री किस कदर सत्ता के जरिए ईमानदार पुलिस वाले का उत्पीड़न करता है परदे पर दिखाती है। प्रकाश झा की फिल्म गंगाजल बात करती है कि सत्ता में मजबूत लोग पुलिस को किस कदर पंगु बनाकर रखते हैं और उनका विरोध कितना मुश्किल व खतरनाक होता है।
फिल्में राजनेताओं को केवल विलेन ही नहीं बनातीं वे उनमें जब तक अच्छाइयां भी सामने लाती हैं। जॉन अब्राहम की फिल्म पोखरन अच्छाई को सामने लाती ऐसी ही एक संदेशपरक फिल्म है। अपने पहले प्रयास में असफल खुफिया अधिकारी को पोखरन परीक्षण के लिए किस कदर का प्रोत्साहन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया था। ये फिल्म इशारों में ही काफी कुछ कहती नजर आती है। महान धावक उड़नसिख मिल्खा सिंह पर केन्द्रित भाग मिल्खा भाग फिल्म में भी खेलों के प्रति तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का उजला पक्ष दिखाया गया है। तिरंगा फिल्म भी राजनीति के लिए आशावाद जगाती है। फिल्म में आतंकवादियों के निपटारे में सख्त ग्रहमंत्री के किरदार में आलोकनाथ दर्शकों को पसंद आए होंगे।
चर्चित रहे ओ लाल दुपट्टे वाली गीत वाली फिल्म आंखें में भी हमने एक आदर्श मुख्यमंत्री की झलक देखी थी। 90 के दशक में आयी इस फिल्म में करोड़ों के कर्जदार नटवरलाल को सलाखों के पीछे पहुंचाने मुख्यमंत्री राजबब्बर परिवार सहित गोलियों से छलनी हो गए थे मगर खलनायक तेजेश्वर से संघर्ष करते रहे।
फिल्में राजनीति के मौजूदा स्वरुप पर सवाल उठाते हुए संघर्ष में वैकल्पिक मार्ग भी दिखाती हैं। मणिरत्नम की युवा फिल्म इस दिशा में यादगार है।
सामान्य युवा राजनीति की दिशा अपने संघर्ष से किस कदर बदल सकते हैं युवा फिल्म का माइकल और उसकी युवा टोली संदेश देती है। ये फिल्म छात्र राजनीति और उसके आदर्श स्वरुप को बयां करती है।
फिल्मों में अच्छाई और बुराई का ये सिलसिला समय समय पर नए कलेवर में सामने आता है। ख्यात निर्देशक प्रकाश झा की फिल्में राजनीति के छिपे हुए चेहरे पर कटाक्ष करती हैं। कटरीना कैफ और रणबीर कपूर अभिनीति राजनीति में अपनी सत्ता की विरासत को बचाने रिस्ते नाते बौने कर दिए जाते हैं। अमरीका से आया युवा पुस्तैनी कुर्सी का मोह नहीं छोड़ पाता और राजनीति को पल पल जीवने वाले उसके परिवार में संवेदना से परे होकर हर निर्णय सत्ता को स्थायी बनाए रखने के लिए लिया जाता है।
राजस्थानी पृष्ठभूमि वाली गुलाल में ये कड़वा सच अलग रंगों के साथ दिखा है तो मधुर भंडाकर की रवीना टंडन अभीनीत सत्ता में भी इसी कमजोरी पर प्रहार है। झा की राजनीति और इस फिल्म में महिला नेतृत्व और उसके समक्ष आने वाली चुनौतियों को दिखाया गया है। ये फिल्में बताती हैं कि घरेलू महिलाएं पहले पहले सियासत का रास्ता अपने परिवार की इच्छा और राजनैतिक हितों को बचाने अपनाती हैं मगर बाद में ये कायम नहीं रहता। महिलाओं का निजी विचार भी इस बीच आकार लेता है।
सरोकार वाले नेताओं के लिए राजनीति का रास्ता कितना मुश्किल है और उसके सिद्धांत और उसूलों को समर्थकों से लेकर उसकी संतान भी कितना बड़ा बोझ मानते हैं प्रकाश झा की फिल्म अपहरण इस बात को उठाती है। नायक अजय देवगन दरोगा की नौकरी में पिता की सिफारिश और सहयोग न मिलने के कारण अपहरण उद्योग के दलदल में फंस जाता है और इसके लिए अपने सरोकारी बाबूजी पर वक्त पर साथ न देने के लिए प्रश्नचिन्ह भी लगाता है। राजनीति पर पूर्ण या आंशिक केन्द्रित रक्तचरित्रए तेजस्विनीए सरकारराज ए इंदु सरकार जैसी फिल्में निरंतर बन रही हैं। इनमें अब बायोपिक फिल्में भी नयी पेशकश हैं। मुंबई में शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे पर जल्द ही हम नवाजुद्दीन सिद्दकी को एक अलग अवतार में देखेंगे। इस फिल्म से पहले महान राजनेता महात्मा गांधीए सुभाषचंद्र बोसए सरदार पटेल आदि पर महान फिल्मों का भारतीय सिनेमा में सृजन हो चुका है। राजनीति सत्ता का सर्वोच्च केन्द्र होती है सो यहां देव और असुर की तरह अच्छे और दागदार चेहरे हमेशा निर्णायक स्थिति में आने के लिए संघर्ष करते रहेंगे। इस संघर्ष का निर्णय आमजनता को करना होता है इस विषय में सबसे अच्छी बात यही है। हिन्दी सिनेमा राजनीति में अच्छाई और बुराई दोनों को पर्दे पर दिखाता है। ऐसे में हम आशा करते हैं कि शिवाजीराव जैसे चरित्र वाले राजनेता नायक बनकर जनता के सामने आते रहेंगे।