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विलियम जोन्स का  षड्यंत्र

बौद्धिक संपदा
बौद्धिक संपदा

डॉ. मधुसूदन

सारांश:
(१) छद्म संस्कृत धर्म ग्रंथ रचा जाए।
(२) इसाइया की वाणी (Gospel) का संस्कृत अनुवाद किया जाए।
(३) पर उसकी  निराशा:==> रोम के मिशन द्वारा, हिन्दू मतांतरित नहीं होंगे।
(४) मनु स्मृति में प्रक्षेपित अंश डालना।
(५) ग्रंथों को भारत से बाहर भिजवाना (चोरी?)

(एक) धर्म को नष्ट, और इतिहास को विकृत करने का सुनियोजित प्रयास:

इसका स्पष्ट प्रमाण विलियम जोन्स के १७८४ में वॉरन हेस्टिंग्ज़ (गवर्नर जनरल ऑफ इण्डिया) को, लिखे गए पत्र में और साथ संलग्न ४७ पृष्ठ के निबंध में मिलता है।
इस पत्राचार में वह उसकी योजना का विवरण देता है।
हिन्दुओं के हृदय में गहराई से, अंकित  धार्मिक श्रद्धा को कैसे नष्ट किया जाए?
यही उसके षडयंत्र का उद्देश्य था।

(दो) विलियम जोन्स की योजना:

(१) एक छद्म संस्कृत धर्म ग्रंथ रचा जाए, जिसमें ईसा मसीह की महानता दिखाई जाए।
(२) इसाइया की वाणी (Gospel) का संस्कृत अनुवाद किया जाए।
इसे पुरातन संस्कृत  धर्म ग्रंथों की शैली में लिखा जाए। इस में,
इसामसीह  एक दैवी (अवतार ) के, जन्म लेने की प्राचीन भविष्य वाणी हो।
(३) और चतुराई से इस  साहित्य को शिक्षित समाज में वितरित किया जाए।
(४) जिस के फलस्वरूप वें (हिन्दू) वैदिक धर्म को त्यज कर इसाइयत के प्रति श्रद्धान्वित होंगे।
संदर्भ:
Asiatic Researches Vol. 1. pg 234-235 (First Published in (1788)

(तीन ) विलियम जोन्स की हताशा:
बहुत प्रयास करने के पश्चात आगे जोन्स  कहता है;  कि भारत में उस समय ईसाइयत   को फैलाने में काफी अवरोध है(था)। प्रारंभ का उसका उत्साह और शीघ्रता से  इसामसीह  का ध्वज लहराने का दृढ विश्वास, निराशा में बदल जाता है।
अतः विलियम जोन्स कहता है। …We may assure ourselves, that ….Hindus will never be converted by any mission from the church of Rome, or from any other church;
* हम गठ्ठन बाँध ले, कि, रोम के किसी भी मिशन द्वारा, या अन्य कोई चर्च द्वारा, हिन्दु मतांतरित नहीं होंगे।
{ Asiatic Researches Vol. 1. pages 234-235. Published in 1788.)

(चार) क्रियान्वयन का आंशिक  इतिहास,, संक्षेप में।

१७८४-जनवरी:
एशियाटिक सोसायटी ऑफ (कलकत्ता)  बेंगाल की स्थापना।
गवर्नर वॉरन हेस्टिंग्ज़ इस सोसायटी का आर्थिक आश्रयदाता था;
और विलियम  जोन्स अध्यक्ष था।

१७८४
इस वर्ष के अंत में विलियम जोन्स ने ४७ पृष्ठों का निबंध लिखा। जो,
प्रस्तुत आलेख का आधार भी है।

१७८६ -२ फरवरी:
भारोपीय भाषाओं का मूल संस्कृत न होकर कोई (कपोल कल्पित) प्रोटोलॅन्ग्वेज को सभी भारोपीय भाषाओं का मूल बताया गया।–>संदर्भ विलियम जोन्स का अध्यक्षीय भाषण।
इस (छद्म सिद्धान्त )  के कारण ( दूसरा छद्म सिद्धान्त) आर्यों की भारत में घुसपैठ के लिए
(छद्म )भूमि तैयार की गयी।

१७९३
१० वें वार्षिक अध्यक्षीय भाषण में, जोन्स हमारा प्राचीन इतिहास नकारता है। इस उद्देश्य से, संस्कृत को मूल भाषा नकार कर, प्रोटो लॅन्ग्वेज को लातिनी, ग्रीक और संस्कृत की स्रोत भाषा मानता है। पर प्रोटो लॅन्ग्वेज को ढूंढ नहीं पाता। पर, संस्कृत को मूल भाषा के आदर से वंचित करता है।

(पाँच) उदाहरण (लेखक का)

जैसे एक गौ (प्रोटो लॅन्ग्वेज) आयी थी घास खाकर चली गयी।
घास कहाँ है? गौ खा गयी।
गौ कहाँ है? चली गयी।
न घास है, न गौ है। कोई प्रमाण नहीं। पर आप हमारी (प्रोटो लॅन्ग्वेज) बात मान लीजिए।
ऐसा ही तर्क वह देता है। (और सारे विद्वान, कुछ भारतीय भी यही मानते हैं।)

(छः) संस्कृत की श्रेष्ठता
पर संस्कृत की श्रेष्ठता को जोन्स (मनोमन) जानता है। विवश होकर, स्वीकार तो करना ही पडता है।
फिर इस समस्या का भी तोड (ऊपर दिखाया वैसा)निकालता है।  प्रोटो लॅन्ग्वेज को मूल भाषा मानकर और लातिनी, ग्रीक को भी संस्कृत के तुल्य मानता है; और समस्या  सुलझा लेता है। संस्कृत को मूल मानता तो लातिनी और ग्रीक दोनों हीन हो जाती।
जब लौकिक संस्कृत इतनी पूर्ण भाषा है, कि उसके व्याकरण में पाणिनि के समयसे
आज तक के इतिहास में,  एक बार भी बदलाव की आवश्यकता ही नहीं प्रतीत हुयी।

ई. पूर्व २००० में तो युरप के पास न  कोई भाषा थी; न लिपि थी।
और  लातिनी और ग्रीक दोनों, ३ -३ बार सुधारी गयी। लिपि में भी अक्षर जोडे गए।

(सात)संस्कृत की श्रेष्ठता

(१) संस्कृत की श्रेष्ठता को विलियम जोन्स ही क्या, और  कोई मान्यता प्राप्त विद्वान भी नकार नहीं सकता। आज उसकी श्रेष्ठता संगणकों के परिचालन में उपयोग से भी सिद्ध होती है।
(२) और हमारी  पारिभाषिक शब्दावली की निर्माण क्षमता से भी प्रमाणित होती है।
(३) उसके संदर्भ रहित वाक्य रचना से सिद्ध होती है। (बहुतों को यह संकल्पना भी समझ में आती नहीं)
(४) और(ब्राह्मी)और देवनागरी की सर्व श्रेष्ठ लिपियों से भी स्वीकार करनी पडती है।
(५) साथ हमारे दशमलव सहित अंको से भी स्वीकार ही करनी पडती है। जिस पर सारा संसार चलता है।

(आठ)घटना क्रम से छद्म उद्देश्य को जाने:

निम्न घटना क्रम के अनुक्रम से ही  आप को एक तर्क के अंतर्गत सोचना होगा। (यह तथ्यात्मक अंश, इसी  रूप में,  किसी पुस्तक से नहीं लिया गया है। पर तर्क पर आधारित है।)
निम्न घटना क्रम इतिहास में मिलता है। आप को किस प्रकार से हमारी बौद्धिक सम्पदा भारत से बाहर भेजी गयी; इसका संकेत देने का यह प्रयास है। पीछे की मानसिकता आप को ताडनी होगी। (जिसका मेरा भाष्य प्रस्तुत है।)

घटना (एक)
गीता से या उसके कर्म योग से जोन्स प्रभावित था, उस योग में यशस्वी होने की कुंजी देख कर उसका अंग्रेज़ी अनुवाद वॉरन हेस्टिंग्ज़ की आर्थिक सहायता से करवाकर इंग्लैण्ड भेजा गया। कर्म योग के प्रयोग से, वहां के समवायों (कार्पोरेशनों) के प्रबंधक सफल हुए।
हम गीता को केवल सबेरे पाठ कर उसका कर्मयोग का प्रयोग  भूल गए, और असफल रह गए।

अनुवाद की, आर्थिक सहायता भी (हमारी ही तो थी।) वॉरन हेस्टिंग्ज़ ने क्या इंग्लैण्ड से उपलब्ध कराई थी?

घटना (दो)
सारे भारत से हस्तलिखित संस्कृत पाण्डु लिपियाँ, रॉयल एशियाटिक सोसायटी की यंत्रणा से संग्रह करने के बहाने खरीद कर लाई गयी। ध्यान रहे: सारे के सारे सोसायटी के  सदस्य
अभारतीय (युरोपियन) थे। संस्कृत जाननेवाला एक भी विद्वान इन ३० में नहीं था।
{पर भोली जनता ने सोचा, क्या माई बाप सरकार है; हमारी पाण्डु लिपियाँ संभाल कर रखती है।}

घटना (तीन)
चुन चुन कर पाण्डु लिपियाँ गुप्त रूपसे (?) कॅम्ब्रिज और ऑक्सफर्ड भेजी गयी
जो शायद घटिया प्रतीत हुयी; उन्हें नहीं भेजा गया।

घटना प्रमाण (चार)
आज भी ओक्स फर्ड के प्रवेश कक्ष में एक खुदा (? )हुआ चित्र है। जिसमें तीन पण्डित भूमिपर जोन्स के पैरों निकट और जोन्स आसन पर बैठ लिख रहा है। ज्ञान देनेवाले पण्डित नीचे और आसन पर शिष्य जोन्स? क्या दृश्य है? किस संस्कृति में ऐसा होता है?

घटना (पाँच)
दो विद्वान, डॉ. हॅरिस और डॉ. ब्लुमफिल्ड १८ वी शती में जर्मनी जाकर ७ वर्ष व्याकरण और प्रातिशाख्य सीखकर आये थे। वें काशी नहीं, पर जर्मनी गए? यह क्या दिखाता है? अनुमान कीजिए।

(नौ)अनुमान का प्रमाण

अनुमान (एक)
हमारी पाण्डु लिपियों से (विशेषतः मनु स्मृति से) खिलवाड किया गया। इस लिए मनु स्मृति में विपरित अर्थ वाले श्लोक मिलते हैं। और स्मृति के भी अलग अलग संस्करण मिलते हैं।
भारत में फूट डालने का ऐसा प्रयास लगता है।

जब हमारा साहित्य हस्त लिखित था, तो, यह संभव हुआ।

Commonsense से ही पता लगता है; कि, ऐसे परस्पर विरोधी अर्थ जब मिलते हैं; तो किस अर्थ को प्रमाणित माना जाए? A Concise Encyclopedia of Authentic Hinduism के लेखक प्रकाशानन्द सरस्वती इस के भी प्रमाण देते हैं।

अनुमान प्रमाण (दो)

The Manu Smriti……It  has been cleverly fabricated at many places with: the alteration of the wordings of a verse, addition of a verse, or adding a whole section of fabricated verses in a chapter. But one thing is certain that, except the killing of an animal and the meat eating fabrications the rest of the writings of the book are in original form because those people had no interest in our philosophical or leela-related descriptions.
From:(Concise Encyclopedia of Authentic Hinduism )

मनुस्मृति में बदलाव किए गए: (भावार्थ)

मनुस्मृति को, अनेक स्थानों पर, चतुराई से छंदों के शाब्द बदलकर, या प्रकरणों में बिलकुल नए श्लोक समूह घुसाकर दूषित किया गया है। एक बात स्पष्ट दिखती है, कि, पशु बलि और मांस  भक्षण के अतिरिक्त अन्य भाग मूल रूप में रखा गया है।  उन मिथ्या रचयिताओं को हमारे लीला संबंधी और दर्शन विषयक विवरणों में कोई रूचि नहीं थी।

लेखक मधुसूदन मनता है, कि, ऐसे प्रक्षेपित श्लोक डालना ही सरल था।
इस दृष्टि से निम्न प्रबोधक श्लोक देखने पर आप सुनिश्चित हो जाएंगे।

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्‌॥ (५-४८)

अर्थ: जीवों की हिंसा किए बिना कहीं भी मांस उत्पन्न नहीं हो सकता और जीवों को मारना स्वर्गका देनेवाला भी नहीं है। इस लिए मांस को त्याग देना चाहिए।

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेतिघातकाः ॥

अर्थ: अनुमति देनेवाला, काटनेवाला, मारनेवाला, मोल लेनेवाला और बेचनेवाला,पकानेवाला, लानेवाला और खानेवाला ये (सारे पातकी) घातक होते हैं।

मूल श्लोक बदलना उनके बस में नहीं था। पर विपरित अर्थ के श्लोक आप को दूषित मनु स्मृति में मिल जाएंगे।

लेखक विषय को आलेख की सीमा में संक्षिप्त रख कर विराम देता  है।