ये खेले ख़त्म करो बस्तियां डुबोने का

0
195


निर्मल रानी
हमारे देश में वर्षा ऋतु दस्तक देने जा रही है। प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी भारत विशाल के किसी क्षेत्र से बाढ़ के समाचार प्राप्त होंगे तो कहीं से सूखा पडऩे की ख़बरें आएंगी। कहीं कम वर्षा रिकॉर्ड की जाए गी तो कहीं मानसून का जलवा कुछ ज़्यादा ही दिखाई देगा। परंतु वर्षा के इस प्राकृतिक उतार-चढ़ाव के अतिरिक्त एक ख़बर जो प्राय: इसी वर्षा ऋतु में लगभग सभी शहरी क्षेत्रों में ख़ासतौर पर समान रूप से सुनाई देती है वह है शहरी क्षेत्रों का जलमग्र हो जाना। कभी-कभी बिना बारिश के भी यह नज़ारा शहरी इलाकों में देखा जाता है। यहां इस बात का जि़क्र करना भी ज़रूरी है कि बरसात के दौरान आने वाली बाढ़ या उस दौरान होने वाले जलभराव की तुलना में शहरी क्षेत्रों में आए दिन होने वाला जलभराव तुलनात्मक दृष्टि से कहीं अधिक प्रदूषित,गंदा,दुर्गंधपूर्ण तथा बीमारियां फैलाने वाला होता है। इसका प्रमुख कारण यही है कि शहरी इलाक़ोँ में लगभग प्रत्येक नाले व नालियां प्लास्टिक,पॉलीथिन,कांच,कबाड़ व बोतलों आदि से पटे पड़े होते हैं। और सोने में सुहागा तो यह कि इन जाम नालों व नालियों की सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों को भी उस समय सफ़ाई में भारी मशक्कत का सामना करना पड़ता है जबकि इन्हीं सरकारी नालियों अथवा नालों पर हमारे ‘देशभक्त’ व ‘धर्मपरायण’ नागरिकों ने अतिक्रमण कर क़ब्ज़ा जमाया होता है। ऐसे तमाम नाले व नालियां हैं जो किसी गैरकानूनी अतिक्रमण की वजह से पूरी तरह से साफ़ नहीं हो पातीं।
कुछ दिन पूर्व राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की एक शहरी बस्ती में सीवरेज प्रणाली जाम हो जाने की वजह से सीवर का गंदा मलयुक्त पानी गलियों में भर गया और लोगों के घरों में घुसने लगा। और भी कई जगहों से इस प्रकार की खबरें आती रहती हैं। अब हम स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि जिन गली-मोहल्लों में सीवर व नाले-नालियों का पानी भरा हो और वही पानी लोगों के घरों में घुस रहा हो उस बस्ती के लोगों का जीवन क्या किसी नर्क से कम होगा? परंतु यह हमारे देश की एक ऐसी हकीकत है जिससे हमें आए दिन रूबरू होना पड़ता है। परंतु हमारे देश की सरकारें,यहां का प्रशासन तथा इन बदतर हालात को सहन करने वाली जनता ऐसे हालात से स्थाई मुक्ति पाने की कोशिश भी नहीं करती। हमारे देश में प्रत्येक मकान व दुकान का मालिक अपने-अपने घर व दुकान के आगे की कुछ न कुछ ज़मीन जिसपर नाली या नाला बह रहा है उसे अपने क़ब्ज़े में ज़रूर लेना चाहता है। शायद यह देश के नागरिकों की परंपरा या संस्कारों में शामिल हो चुका है। भले ही उसके अपने पास पांच सौ,हज़ार या दो हज़ार गज़ का बड़े से बड़ा प्लॉट अथवा भवन क्यों न हो परंतु जब तक वह भूस्वामी सरकारी नाले अथवा नाली की दो-चार फुट ज़मीन पर अपना चबूतरा अथवा अपनी गाड़ी के निकलने-चढऩे के लिए स्लोप या सीढिय़ां नहीं बनाएगा तब तक उसे संतुष्टि नहीं होती। इसलिए निश्चित रूप से शहरी जलभराव में नगरवासी इसके लिए सबसे बड़े जि़म्मेदार हैं न कि सफाई कर्मचारी या प्रशासन के लोग।
शहरी बस्तियां डूबने का एक सबसे बड़ा कारण शहरों में बेतहाशा बेरोक-टोक बिकने वाले पॉलीथिन,पाऊच तथा पानी की बोतलें आदि हंै। आजकल हमारे देश में खान-पान के बदलते चलन के अनुसार आज शहर का शायद ही कोई ऐसा नागरिक हो जो अपने घर मेें किसी भी वस्तु के दो-चार-दस पाऊच न लाता हो। नूडल्स,चिप्स,नमकीन,बिस्कुट,बच्चों को लुभाने वाले खाद्य पदार्थ,बनियान,अंडरवियर,रूमाल, शैंपू,तेल,सॉस,गुटका, तंबाकू, चाय की पत्ती,घी,तेल,रिफाईंड ऑयल लगभग सभी खाद्य मसाले और ऐसी अनेक वस्तुएं पॉलीथिन अथवा प्लास्टिक पैक में धड़ल्ले से बिक रही हैं। ज़ाहिर है यह चीज़ें इस्तेमाल के बाद कूड़े की शक्ल में सडक़ों पर आती हैं और हल्की होने के कारण उडक़र नालियों में पहुंच जाती हैं। धीरे-धीरे इन्हीं अवांछित वस्तुओं का ढेर पानी के बहाव को रोक देता है और पानी सडक़ों पर बहने लगता है। यदि इसी पानी की मात्रा अधिक हो जाए तो यही पानी घरों में घुसने में भी देर नहीं लगाता। इस पूरे प्रकरण में जहां हमारी सरकार व प्रशासन इस प्रकार की मिट्टी में न मिल पाने व न गल पाने वाली पैकिंग को रोकने का प्रयास नहीं करता, पॉलिथिन पर सख्ती से पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाता वहीं दूसरी ओर हमारे देश का ‘प्रबुद्ध’ नागरिक भी अपने हाथों से फेंके गए अपने इस विनाशकारी कबाड़ को निर्धारित स्थानों पर फेंकने की तकलीफ नहीं करता। न ही वह अपने घर के समाने की नाली से अपने ही हाथों से फेंका गया पॉलीथिन या कोई दूसरा प्लास्टिक पाऊच बाहर निकाल फेंकने की तकलीफ उठाता है।
सवाल यह है कि इन हालात में क्या यह संभव है कि ‘बस्तियां डुबोने का यह खेल कभी खत्म भी हो सके? यदि सरकार शासन व प्रशासन की इस बात में ज़रा भी दिलचस्पी है कि देश का आम नागरिक,सुख-शांति के साथ स्वस्थ तरीके से अपना जीवन बसर करे तो उसे ऐसी प्रत्येक अवांछित व नुकसान पहुंचाने वाली सामग्रियों को तत्काल प्रतिबंधित कर देना चाहिए। चंडीगढ़ व शिमला जैसे स्थान इस बात की जीती-जागती मिसाल हैं कि यहां पॉलीथिन प्रतिबंधित होने के बाद नाले व नालियों से होने वाली गंदे जल की निकासी में पहले से कहीं अधिक सुधार आया है। फिर आिखर राष्ट्रीय स्तर पर इसी प्रकार के कानून क्यों नहीं बनाए जाते? दूसरा सवाल यह भी कि जो ‘धर्मपरायण’ लोग सुबह-सवेरे उठकर पूजा-पाठ करते हंै, अपने ईश्वर,अल्लाह तथा वाहेगुरु को याद करते हंै तथा धूप-बत्ती जलाकर अपना कारोबार शुरु करते हैं और सुबह-सुबह अपने आराध्य से अपने कारोबार में मुनाफे व बरकत की दुआएं मांगते हैं वे यह क्यों नहीं देख पाते कि सुबह-सवेरे वही लोग सरकारी ज़मीन पर नाजायज़ कब्ज़ा जमाते हंै, अतिक्रमण करते हैं, नालों व नालियों की सफाई में बाधा पहुंचाते हैं तथा ट्रैिफक के सुचारू संचालन में पहुंचने वाली बाधा के भी जि़म्मेदार होते हंै। जिस समय वह अतिक्रमण कर रहे होते हंै तब उन लोगों की समझ में यह बात क्यों नहीं आती कि नालियों व नालों के जाम होने की वजह से सडक़ों पर बहने वाला गंदा,बदबूदार तथा बीमारियों का वाहक बनने वाला यह प्रदूषित जल उसके अपने घर व दुकान में भी घुस सकता है?
दरअसल हमारे मस्तिष्क में अभी तक शायद यही भरा हुआ है कि हम उस देश के वासी हैं जो कभी विश्वगुरु अथवा सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। बस हम केवल उसी काल्पनिक अतीत की माला जपते रहते हैं और सच्चाई से ठीक उसी तरह मुंह मोड़े रहते हैं जैसेकि बिल्ली के समक्ष कबूतर अपनी आंखें बंद कर यही सोचता है कि जब हम बिल्ली को नहीं देख रहे तो बिल्ली भी हमें नहीं देख रही होगी। हमें ऐसी सोच से उबरने की ज़रूरत है। जब तक हम धरातलीय वास्तविकताओं को नहीं पहचानेंगे,सच्चाई को स्वीकार नहीं करेंगे, सही व ग़लत के अंतर को नहीं समझेंगे, अपनी ज़िम्मेदारियों को महसूस नहीं करेंगे तब तक हम सरकार अथवा प्रशासन पर उंगली उठाने या उससे अधिक उम्मीदें पालने का भी अधिकार नहीं रखते। लिहाज़ा यदि हमें बस्तियां डुबोने के खेले को ख़त्म करना है तो अपने-आप को अपनी पारंपरिक लालच भरी अतिक्रमणवादी सोच व ऐसी आदतों से भी उबारना होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here