भारत में जब प्रतिदिन नये नये घोटालों और भ्रष्टाचार का पर्दफाश हो रहा था
तब अन्ना आंदोलन के रूप में लोगों का गुस्सा फूटा|इसी आंदोलन आंदोलन से एक नयी
राजनीतिक पार्टी का जन्म हुआ-आम आदमी पार्टी|पार्टी गठन के तुरंत बाद संपन्न
हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी को अप्रत्याशित जीत हासिल हुई|त्रिशंकु
विधानसभा के बाद पुन: चुनावों में इस पार्टी ने 'मुझे चाहिये पूर्ण स्वराज' और
'ईमानदार पार्टी को वोट दें' जैसे नारों से चुनावी बिगुल बजाकर एतिहासिक जीत
हासिल की|लेकिन जीत के तुरंत बाद पार्टी के अंदर का गहरा मतभेद उभर कर सामने
आया|
यह आम लोगों की पार्टी थी|इसने अपनी राजनीति की बुनियाद ही इसी पर
रखी कि यह नये तरह से राजनीति करेगी,इसकी राजनीति में शुचिता होगी |सबको अवसर
प्राप्त होगा परंतु जब पार्टी के संस्थापक सदस्य योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषन
ने पार्टी के अंदर लोकतंत्र कायम न रहने व 'सुप्रिमो कल्चर ' बढने पर अपनी बात
रखी तो पार्टी को अपनी यह आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई और इन दोनो को
पी.ए.सी.(राजनीतिक मामलों की कमिटी) से निकाल बाहर किया गया|राजनीतिक पार्टी
के प्रमुख सदस्य को उसी पार्टी के राजनीतिक मामलों की समिति से बाहर निकालने
का अर्थ क्या है ?इसपर अरविन्द केजरीवाल का यह बयान कि 'पार्टी में जो कुछ भी
हो रहा है उससे मैं आहत हूँ ' बहुत बचकाना व स्वयं को इस मामले से बचाने वाला
मात्र लगता है| अगर पार्टी में ऐसा कुछ हो रहा था तो केजरीवाल का सीधे तौर पर
हस्तक्षेप होना चाहिए था परंतु ऐसा नहीं होने से उनकी इस विषय के प्रति इच्छा
जाहिर होती है। अगर केजरीवाल चाचाहते तो बात कर इस समस्या का हल निकाला जा
सकता था परंतु ऐसा वह शायद जरूरी नहीं समझते थे।
योगेन्द्र यादव जब यह कह रहे थे कि यह बहुत आवश्यक है कि पार्टी का
अन्दरूनी लोकतंत्र मजबूत किया जाए तो इसमें गलत क्या था? प्रशांत भूषण ने भी
केजरीवाल की खूबियां बताते हुए कहा कि उनमें कुछ कमियां भी हो सकती हैं,
इसलिए निर्णयों पर उनका एकाधिकार न हो,यह पार्टी के अंदर लोकतंत्र बनाए रखने
एवं एक पार्टी होने की वजह से पार्टी सदस्यों की उचित मांग थी।परंतु पार्टी
के सिद्धांतों पर बात करने वाले इन दो सदस्यों को ही निकाल बाहर किया गया
अर्थात जिन सिद्धांतों को आधार बनाकर पार्टी की स्थापना हुई आज वही सिद्धांत
कायम नहीं हैं।सिद्धांतों का सहारा लेकर 49 दिनों बाद इस्तीफा देने वाले इन
लोगों के सिद्धांत क्या अब ताक पर रख दिये गये हैं? वर्तमान परिस्थितियो को
देखकर कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी की गुटबाजी अब उसके स्थापना के समय के
मूल सिद्धांत एवं नये महत्वाकान्क्षी सिद्धांतों के रूप में नजर आ रहा
है।पार्टी के भीतर पी .ए.सी. से निष्कासित करने पर भी 11 के मुकाबले 8 मतों का
खंडित जनादेश प्राप्त हुआ।यह पार्टी के अंदर हुए ध्रुवीकरण को और उजागर करता
है।
आशीष खेतान का प्रशांत भूषण के पारिवारिक सदस्यों पर हमला यह दर्शाता है कि
पार्टी के सदस्यों के बीच मतभेद का स्तर कहाँ तक जा पहुंचा है।या जब मयंक
गांधी स्वयं को बदनाम करने की साजिश बताते हुए कहते हैं कि ' अबमुझे इतना
बदनाम किया जाएगा कि मैं स्वयं पार्टी छोड दूं या फिर षड्यंत्र कर मुझे पार्टी
से बाहर कर दिया जाएगा।यह देखना दिलचस्प होगा कि मैं कितने दिनों तक इन सब को
सहन कर पाता हूं?'क्या राजनीतिक दलों शुचिता , पारदर्शिता एवं लोकतान्त्रिक
मूल्यों की प्रबल पक्षधर मानी जाने वाली राजनीतिक दल से ऐसी ही अपेक्षाएं हैं?
केजरीवाल, सिसोदिया, खेतान, आशुतोष व दिलीप पाण्डेय पर सत्ता का मद मानो सर चढ
कर बोल रहा है।उन्हें इस बात का ध्यान है कि अगले 5 साल तक दिल्ली में कुछ भी
होने वाला नहीं है।चुनाव पूर्व केवल दिल्ली तक केंद्रित रहने का वादा करने
वाले केजरीवाल फिलहाल दिल्ली से बाहर जाने के प्रयास में हैं।ऐसा करना गलत
नहीं है पर अब केजरीवाल की राजनीतिक महत्वाकान्क्षा अपने पांव पसार रही
है।पार्टी के अंदर बढती गुटबाजी एवं तानाशाही रवैया पार्टी के साथ- साथ लोगों
के शुचिता पूर्ण राजनीति के सुनहरे स्वप्न को तोडती नजर आ रही है।
जे. पी. आन्दोलन से लोगों बहुत उम्मीदें थीं। उसके बाद संपन्न चुनावों में
लोगों ने जयप्रकाश के नाम पर वोट दिया।जनता पार्टी की सरकार बनी एवं मोरारजी
देसाई प्रधान मंत्री बने।परंतु मोरारजी देसाई एवं जयप्रकाश के मध्य सबकुछ ठीक
नहीं चल रहा था।वास्तविकता यह थी कि जिन जयप्रकाश की वजह से मोरारजी प्रधान
मंत्री बने उन्हीं जयप्रकाश की नही सुनते थे।राजनीतिक तनातनी में मोरारजी का
मत हावी हुआ दिखाई दिया और पार्टी की बाल्यावस्था में ही मृत्यु हो गयी।ऐसा ही
कुछ आम आदमी पार्टी के साथ होता नजर आ रहा है। अन्ना आंदोलन के प्रभाव से गठित
पार्टी में उन्हें ही दरकिनार कर दिया गया और अब केजरीवाल सर्वस्व हैं।ऐसी
स्थिति में पार्टी के हालात बहुत स्वस्थ्य नहीं है।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा व कांग्रेस के अतिरिक्त इसी पार्टी में
विकल्प बनने की शक्ति नजर आ रहीथी जो अब क्षीण होती दिख रही है । भाजपा व
कांग्रेस को एक ढर्रे की पार्टी मामानने वाले व आम आदमी पार्टी को नए ढर्रे
की पार्टी आंकने वाले लोगों की मानसिकता में परिवर्तन अब निश्चित है । लोगों
ने राष्ट्र मे नया राजनीतिक परिदृश्य लाने के लिए जितना सहयोग व समर्थन इस
पार्टी को दिया था , वह अब खतरे में है।लोगों को धीरे-धीरे यह पार्टी अन्य
राजनीतिक पार्टियों सी लगने लगी है।ऐसे में आम आदमी पार्टी व इसके संयोजक
केजरीवाल की यह बहुत बङी जिम्मेदारी बनती है कि इन सदस्यों से बात कर पार्टी
के अंदर लोकतान्त्रिक प्रकिया को मजबूत कर , शुचिता को कायम कर लोगों की
आकांक्षाओं पर कुठाराघात न किया जाए। भाजपा में मोदी की लोकप्रियता व कांग्रेस
की खस्ता हालत देखकर , ऐसे लोगों के लिए अन्य राजनीतिक पार्टी को इन दोनों के
विकल्प के रूप में देखना चाह रहे थे, उन्हें बहुत लम्बा इन्तजार करना पङेगा।
--अनुराग सिंह शेखर
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