काली चमड़ी बनाम गोरी चमड़ी का विवाद कोई नया नहीं है. न ही ये सिर्फ भारत की बिमारी है. इसे विश्वव्यापी महामारी कहें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा क्यूंकि इसी काली चमड़ी गोरी चमड़ी के विवाद में अमेरिका आग की लपटों में झुलस गया था. ऑस्ट्रेलिया में तो काली चमड़ी के लोगों को इंसान मानना ही उचित नहीं समझा जाता. अभी हाल ही में ब्रिटेन में एक सिख युवक की पिटाई के पीछे भी काली चमड़ी गोरी चमड़ी की मानसिकता ही काम कर रही थी. इस लिहाज से अगर कहें कि गिरिराज सिंह जी भी उसी काली चमड़ी गोरी चमड़ी की बिमारी के शिकार हैं, तो कतई ग़लत नहीं होगा.
परन्तु सवाल उठता है कि दुनिया के हर कोने में ये बिमारी इतनी आम क्यूँ है? आखिर क्यूँ कोई किसी व्यक्ति की तुलना उसके गुणों की बजाय उसकी चमड़ी से करने लगता है.
दरअसल टीवी या सिनेमाई मीडिया इस बात के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है जहां दिन-रात काले रंग को गोरा करने का विज्ञापन चलता रहता है. सरकार को इस तरह के विज्ञापनों को तुरंत बंद करना चाहिए. ऐसे विज्ञापन न सिर्फ ग्राहकों को धोखा देते हैं, बल्कि रंगभेद को बढ़ावा देने वाले भी होते हैं. इन विज्ञापनों की प्रकृति और सन्देश तो किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं हैं.
आधुनिक होने का ढोंग करने वाले बोलीवुड की असली सच्चाई यही है कि यहां कई अभिनेता-अभिनेत्रियों की लाख प्रतिभा होने के बावजूद सिनेमा के परदे पर उन्हें गोरा करके ही पेश किया जाता है. ऐसे लोगों में मिथुन दा से लेकर रेखा तक जाने-माने कलाकार हैं. काले लोगों को ये इंडस्ट्री जानी लीवर के किरदार के काबिल ही समझती है.
परन्तु सिर्फ मीडिया को दोष देना सही नहीं है. राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला की सोच सुन्दरता से सम्बन्ध रखती है, परन्तु इसका नस्लीय भेदभाव से कोई सम्बन्ध नहीं है. भारतीय समाज इन रंगों को पूर्ण तो नहीं, पर काफी हद तक उदारता से आत्मसात करता रहा है. परन्तु मीडिया की आक्रामकता ने भारत में भी इस बिमारी को महामारी बनाने में अपनी भूमिका निभाई है.
काली चमड़ी का काला असर
सोच नस्लीय न हो तो सुन्दर होना या सुन्दर वस्तु पाने की चाह रखना, सुन्दर देखना या सुन्दरता दिखाना किसी भी तरह से अनुचित नहीं कहा जा सकता. इस अर्थ में जायें तो हम पाएंगे कि भारतीय समाज में बड़ी गहराई से ये बात समाई हुई है. किसी भी शादी के पहले लड़के-लड़की का आपस में एक दूसरे को देखने की परम्परा में काली चमड़ी गोरी चमड़ी का बड़ा ही महत्वपूर्ण रोल होता है. गोरी चमड़ी न होने पर किसी लडकी को क्या-क्या झेलना पड़ता है ये दर्द सिर्फ उस लड़की से जाना जा सकता है जिसकी सगाई-शादी सिर्फ इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि वह काली है. कई मामलों में तो स्थिति आत्महत्या के प्रयास तक भी चली जाती है.
इस रंग का असर शादी-विवाह से आगे बढ़कर नौकरी तक को भी प्रभावित करता है. सरकारी संस्थानों को अलग रखें तो बाकी जगहों पर काले लोगों को फ्रंट सीट का कामकाज प्रायः नहीं ही दिया जाता है. कॉस्मेटिक इंडस्ट्री, विमानन क्षेत्र या हॉस्पिटैलिटी क्षेत्र में तो काली लड़कियों के नौकरी पाने के चांस न के बराबर ही होते हैं. प्राइवेट सेक्टर में गोरी लडकियों के नौकरी पाने के अवसर काली लड़की की तुलना में दस गुना ज्यादा होते हैं. इसके अलावा इन्हें जो जॉब मिलती भी है, वह कम योग्यतापूर्ण या कम वेतनमान वाला होता है.
काली चमड़ी को गोरा करने के बाज़ार के आंकड़े
इसी कारण से इस बात पर कोई आश्चर्य तब नहीं होता जब बाज़ार में काली चमड़ी को गोरी चमड़ी में तब्दील करने का बाज़ार अरबों डॉलर का हो चुका है. इस वैज्ञानिक तथ्य को जानते समझते हुए भी कि काली चमड़ी को गोरा नहीं किया जा सकता, कम्पनियां काली चमड़ी को गोरी में तब्दील करने का दावा कर अरबों खरबों का व्यापार कर रही हैं.
ये जानकर हैरानी होती है कि जिस समय पूरी दुनिया में मंदी छाई हुई थी उस समय भी कॉस्मेटिक का ये कारोबार 10 से 14 फ़ीसदी की दर से आगे बढ़ रहा था और खूब फल-फूल रहा था. एक सर्वे के मुताबिक वैश्विक रूप से औसतन हर महिला 144 अमेरिकन डॉलर यानी आठ हज़ार रूपये से ज्यादा का खर्च अपने सुन्दर होने पर खर्च करती है. इस बात से जरा भी हैरानी नहीं होनी चाहिए कि कुल कॉस्मेटिक बाज़ार में 27 फ़ीसदी हिस्सा सिर्फ त्वचा का रंग बदलने का दावा करने वाली क्रीम का होता है. दुसरे नंबर पर 20 फ़ीसदी बाज़ार बालों को रंगने की कॉस्मेटिक का है.
भारत की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत विश्व के उन पांच टॉप देशों में स्थान रखता है जहां कॉस्मेटिक पर सबसे ज्यादा खर्च किया जाता है. इस मामले में पुरुष महिलाओं से लगभग बराबरी पर ही हैं. यहां एक सामान्य पुरुष 500 रूपये तक का सामान सौन्दर्य प्रसाधनों में खरीदता है जबकि महिला 500 से एक हज़ार रूपये तक खर्च कर डालती है. परन्तु पुरुष वर्ग अकेले परफ्यूम में ही 2000 रूपये से अधिक खर्च कर देता है.
ना उम्र की सीमा हो
सौन्दर्य उत्पादों को खरीदने में स्वाभाविक रूप से 15 से 35 वर्ष आयु वर्ग के लोग प्रमुख हैं. इनका इस बाज़ार में 50 फ़ीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी है. पर ऐसा नहीं है कि इन चीजों का जादू दूसरे वर्गों पर नहीं हो रहा हो. अन्य वर्ग भी खूब बढ़ चढ़कर इनका उपभोग कर रहा है. यहाँ तक कि 55 वर्ष से अधिक की उम्र के वृद्ध लोग भी इस बाज़ार के 5 से 10 फ़ीसदी ग्राहक होते हैं.
समाधान:
हकीकत ये है कि उच्च शिक्षा और सामाजिक जागरूकता ही इस समस्या का समाधान हो सकता है. इस समाज में काली लड़की की शादी होना चाहे जीतनी भी बड़ी समस्या हो, लड़की के सरकारी नौकरी पाते ही ये रंग गोरे रंग से भी ज्यादा आकर्षक होते देखा जाता है. परन्तु अगर नस्लीय सोच को ख़त्म करना हो तो देश को एक नहीं हज़ार गाँधी चाहिए.
–अमित शर्मा