
वाजिद अली
भारत विकसित राष्ट्र की तरफ अग्रसर है और आने वाले 25 से 30 सालों में उन देशों के सामने कठिन चुनौती रखने वाला है जो आर्थिक महाशक्ति की होड़ में सबसे आगे हैं,और यह तभी सम्भव है जब पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं का भी विकास के क्षेत्रों में अहम् योगदान हो,आज भारतीय महिलाओं ने अपने जागरूकता का परिचय देते हुए उन सभी क्षत्रों में अपना लोहा मनवाया है जो अब तक उनके लिए अछूता रहा है,पुरषों के साथ महिलाओं ने अपने परिपक्वता का परिचय देते हुए राजनीती से लेकर खेल के मैदान तक, लेखनी से लेकर सिनेमा तक पुरुषों के सामने कठिन चुनौतियाँ प्रस्तुत की है और पुरुषों ने बखूबी महिलाओं की उपस्थिति को चुनौती की तरह स्वीकृति प्रदान किया है, लेकिन वही अगर कन्या भ्रूण हत्या,बालविवाह, बालिकाओं एवम् महिलाओं की तस्करी, बलात्कार तथा दहेज उत्पीड़न के आकड़ों पर गौर करे तो भारत के विकास की दर कुंद नज़र आती है और विकसित राष्ट्र का भी सपना धूमिल नज़र आता है,
भारत के पिछले 30 सालों के आकड़ों पर नज़र दौड़ाएं तो कन्या भ्रूण हत्या का आंकडे हतप्रद करते है पिछले 30 सालों में 40 से 42 लाख के बीच कन्या भ्रूण हुई है, पुरुषों और महिलाओं के बीच आई अनुपात की गिरावट इसका जीत जगता उदाहरण है।भारत में महिलाओं एवम् नाबालिग बालिकाओं की तस्करी दूसरा सबसे अधिक होने वाला अपराध है,राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार 2014 से लेकर अब तक बच्चीयों के तस्करी के मामले में 65 से 70 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा बाल विवाह के आंकड़ों पर नज़र दौड़ाएं तो मध्यप्रदेश अकेले एक ऐसा प्रदेश है जहाँ 25 हज़ार बालविवाह प्रतिवर्ष होते है,भारत सरकार के सेम्पल रजिस्ट्रेशन सर्वे रिपोर्ट के अनुसार बाल विवाह में पहले की अपेक्षा 85 फीसदी की गिरावट आई है लेकिन उपर्युक्त आंकड़े कुछ और ही दर्शाते रहे हैं।भारत के सभी धर्मों एवम् जातियों में घरेलू हिंसा जैसी भयावह बीमारी विद्ममान है,परिवार तथा समाज के सम्बन्धों में ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार तथा अपमान घरेलु हिंसा का मूल कारण है। लोग व्यस्त दिनचर्या के कारण अवसाद के शिकार हो रहें है जिससे घरेलु हिंसा का ग्राफ दिन प्रतिदिन तेज़ी से बढ़ रहा है,महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा अंतरास्ट्रीय महिला दशक (1975-1985) के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे कानून का रूप दिया।
एक अध्ययन के अनुसार भावनात्मक घरेलू हिंसा का शिकार 96% महिलाएं होती है, इसके अलावा 85% महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार होती है, जबकि 71% आर्थिक हिंसा का शिकार होती हैं और 42% महिलाये यौन अत्याचारों का शिकार होती है।
इन उपर्युक्त घटनाओं के अलावा बलात्कार एवम् दहेज उत्पीड़न की घटनाएं समाज के लिए गले का घेघ बन गया है,दहेज रूपी दानव ने समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है जहाँ से निकलने की राह कठिन नहीं नामुमकिन सा प्रतीत होने लगा है, समाज को इस बात का कभी खौफ ही नहीं रहा है की दहेज लेना और देना दोनों अपराध है, तभी तो बेहिचक कहीं भी इसकी चर्चाएं शुरू हो जाती हैं, आज अगर महिलाओं की ससुराल में स्थिति बद से बदतर हुई है उसका सबसे बड़ा कारण दहेज रहा है,कन्याओं को मायके में कदम रखते ही दहेज को लेकर ताने सुनने का सिलसिला शुरू होता है और वर्षों वर्षों तक चलता रहता है जो कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेता है, क्योंकि बहु भी सास बन जाती है और अपने परम्परा का बखूबी निर्वहन करती है। बलात्कार की घटनाओं ने महिलाओं को ही नहीं भारतीय समाज को कलंकित किया हैं, एक बे बाद एक हो रही घटनाओं ने पुरे समाज को शर्मशार किया है ।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में रोजाना 92 बलात्कार की घटनाएं होती है, जिसमे राजधानी दिल्ली का स्थान सबसे ऊपर है, 2015 के लेखा जोखा ध्यान टिकायें दिल्ली में लगभग 90 लाख महिलाएं हैं और यहाँ बलात्कार के लगभग 1900 मामले बाहर आये,ये वे मामले हैं जिनकी रिपोर्ट थाने में दर्ज हुई, बलात्कार के आंकड़े और भी भी भयावह हो सकते अगर सारे मामले खुल कर बाहर आते, कुछ तो चारदिवारी के अंदर दबा दिए जाते है, और दबाये भी क्यों न जाये हमारा समाज जो महिलाओं एवम् लड़कियों के इज़्ज़त प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखता है।
अब प्रश्न खड़ा होता है कि क्या उपर्युक्त असमाजिक आकड़ों के साथ हम आने वाले समय में आर्थिक महाशक्ति का हिस्सा बन सकते है, इस बात को हम नकार नहीं सकते बिना महिलाओं के कदम ताल मिलाये हम भारतवर्ष के उन युवाओं के सपनों के महल को नहीं खड़ा कर सकते जो हम आने वाले 25 से 30 बर्षों में देखना चाहते है, लेकिन महिलाओं के प्रति इन कुरूतियों का क्या जो समाज में अपना पाँव जमा चुकी है उन्हें कैसे ख़त्म करेगें,इस पर गहन विचार करने की जरूरत है, हम भारतीय युवाओं का दायित्व बनता है की समाज में जो महिलाओं के प्रति जो असमाजिक तत्व विद्ममान है उसको ख़त्म करने का प्रयास करें, ये जटिल समस्याएं समाप्त करना इतना आसान नहीं है, फिर भी शुरू कर के तो देखा जाये, अगर राजा राममोहन रॉय जी ने यही सोच कर हाथ पर हाथ धरे बैठे होते की सती प्रथा समाज में एक प्रचलन बन चूका है और इसको ख़त्म करना नामुमकिन है तो आज भी और समस्याओं की तरह यह भी अजगर की तरह मुंह खोले खड़ा होता, लेकिन उन्होंने शुरू की और आज वह हमारे समाज से गायब है,तो हम भी शुरू करें और समस्या के समाधान के लिए तत्प्रता दिखाएँ। #महिला दिवस