खुशियों के देश !

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संदर्भः- विश्व ख़ुशी रिपोर्ट 2017

प्रमोद भार्गव

नॉर्वे ने डेनमार्क को पीछे छोड़कर दुनिया के सबसे खुशहाल देश का कीर्तिमान प्राप्त कर लिया है। पिछले साल नॉर्वे चौथे स्थान पर था। रिपोर्ट के मुताबिक यहां के लोगों के बीच परस्पर भरोसा बना हुआ है। लोगों में एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा के बावजूद उदारता कायम है। नॉर्वे के आलावा डेनमार्क, आइसलैंड, स्विट्जरलैंड, फिनलैंड, नीदरलैंड, कनाडा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया और स्वीडन दस ऐसे देश है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा खुशहाल देशों की गिनती में शुमार हैं। जो देश दुनिया के सबसे ज्यादा विकसित देशों में गिने जाते हैं, उनमें जर्मनी सोलाहवें, ब्रिटेन उन्नीसवें, फ्रांस इकत्तीसवें और अमेरिका चौदहवें स्थान पर हैं। 155 देशों की इस सूची में उपसहारा अफ्रीका के कुछ देशों के अलावा सीरिया और यमन सबसे कम खुशहाल देशों में है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत से ज्यादा खुशहाल चीन, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका हैं। भारत का स्थान 122वां है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2012 से विश्व ख़ुशी रिपोर्ट जारी करने की परंपरा डाली है। इसमें प्रति व्यक्ति की सकल घरेलू आय, सामाजिक समर्थन, स्वस्थ जीवन, स्वतंत्रता, उदारता और शासन-प्रशासन पर व्यक्ति का भरोसा जैसे छह बिंदुओं पर 156 देशों में सर्वेक्षण कराया जाता है। बाद में इस सर्वे के अध्ययन के बाद रिपोर्ट जारी की जाती है। कई देशों में ख़ुशी मंत्रालय भी खोले गए हैं। भारत के मध्यप्रदेश में भी ख़ुशी मंत्रालय अस्तित्व में आ गया है। बावजूद यहां किसान और युवा और बुजुर्ग आत्महत्याएं कर रहे हैं। दुनिया में बढ़ते तनाव और अवसाद के चलते ही संयुक्त राष्ट्र ने 20 मार्च को ‘ख़ुशी-दिवस‘ घोषित किया हुआ है।

हमारे पड़ोसी देश भूटान वैश्विक प्रसन्नता के मामले में विलक्षण देश है। आकार और भौतिक संसाधनों के रूप में सीमित होने के बावजूद सकल राष्ट्रिय आनंद के पैमाने पर खरा देश है। यहां आनंद की पहल 1972 में भूटान के चौथे राजा जेष्मे सिंग्ये वांगचुक ने की थी। इस आवधारणा के चलते भूटान की संस्कृति में शताब्दियों से सकल घरेलू उत्पाद वाले भौतिक विकास की बजाय जीवन की गहरी समझ पर आधारित संतोष को अहमियत दी गई। संतोष की इस सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था को वर्तमान में भी सरंक्षित रखा गया है।

आज गरीब हो या अमीर कोई भी खुश नहीं है। कोई बेहिसाब धन-दौलत व भौतिक सुख-सुविधाएं होने के बावजूद दुखी है, तो कोई ऊंचा पद व प्रतिष्ठा हासिल करने के बाद भी दुखी है। कोई छात्र पीएमटी या पीईटी में चयन न होने की वजह से दुखी है तो कोई क्रिकेट में भारत की पराजय देखने से दुखी है। बहरहाल दुख के कारणों का कोई अंत नहीं है। कैरियर बनाने की होड़ और वैभव बटोरने की जिद् ने इसे सघन व जटिल बना दिया है। अपेक्षाकृत कम ज्ञानी व उत्साही व्यक्ति में भी विज्ञापनों के जरिए ऐसी महत्वाकांक्षाएं जगाई जा रही हैं,जिन्हें पाना उसके वश की बात नहीं है ? फिर सरकारी नौकरी हो या निजी कंपनियों की नौकरी, उनमें रिक्त पदों की एक सीमा सुनिश्चित होती है,उससे ज्यादा भर्ती संभव नहीं होती। ऐसे में एक-दो नबंर से चयन प्रक्रिया से बाहर हुआ अभ्यर्थी भी अपने को अयोग्य व हतभागी समझने की भूल कर बैठता है और कुंठा व अवसाद की गिरफ्त में आकर मौत को गले लगाने के उपाय ढूंढने लग जाता है। ऐसे में परिवार से दूरी और एकाकीपन व्यक्ति को मौत के मुंह में धकेलने का काम आसानी से कर डालते हैं। यानी बेहतर जिंदगी मसलन रोटी,कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में फंसे हर शख्स को प्रसन्नचित्त बनाए रखने की जरूरत है। क्योंकि इस दौर में व्यक्ति यदि हताशा और अवसाद के मनोविकार की गिरफ्त में आ गया तो फिर उसकी खंडित हो रही चेतना का उबार पाना कठिन है ? इस लिहाज से व्यक्ति का खुश रहना जरूरी है।

ध्यान, योग, प्राणायम और चिंतन से निराश जीवन को खुशहाली में ढाला जा सकता है। भारतीय सनातन सांस्कृतिक चेतना में अध्यात्म और चिंतन सनातन मूल्य व भाव रहे हैं। इसलिए प्राचीन भारतीय साहित्य में उम्रदराज होने पर मोक्ष के लिए समाधि के उपाय तो हैं,लेकिन किसी व्यक्ति ने निराश होकर आत्महत्या की हो,यह पढ़ने में नहीं आता है। विखंडित हो रहे चित्त को षांत और एकाग्र करने के इन उपायों से ही ‘मन चंगा,तो कठौती में गंगा‘ जैसी मन में उल्लास भर देने वाली लोकोक्तियां उपजी हैं।

दरअसल हमारे ऋषि-मुनियों ने अपनी ज्ञान-परंपरा के अनुभव से हजारों साल पहले ही जान लिया था कि आवश्यकताएं सीमित हैं, जबकि इच्छाएं अनंत हैं। लोग तृष्णाओं की डोर पकड़कर अनंत में छलांग मारते रहते हैं, किंतु हसरत है कि तृप्त नहीं होती। इसीलिए हमारे ऋषियों ने ‘संतोष‘ को व्यक्ति का सबसे बड़ा ‘धन‘ माना है। यही संतोष अचेतन में घुमड़ रहे असंतोष का परिष्कार व शमन करने  का प्रमुख उपाय है। दरअसल विश्व ग्राम के इस भयावह दौर में बहुराष्ट्रिय कंपनियों ने अपने उत्पादों को खपाने के लिए उपभोक्तावाद को जिस तरह से बढ़ावा दिया है, उसमें धर्म, दर्शन और विज्ञान के अर्थ संकीर्ण बना दिए गए हैं। दर्शन पर बौद्धिक विमर्श तो होते हैं, किंतु इनकी व्यावहारिक उपयोगिता के उपाय सामने नहीं आ पा रहे हैं।

धर्म में रूढ़ि और आडंबर को प्रचारित किया जा रहा है। जबकि खासतौर से सनातन धर्म अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत समन्वय है, जिसे आधुनिक वैज्ञानिक संदर्भों में कम ही परिभाषित किया जा रहा है। मानव-शरीर सरंचना के परिप्रेक्ष्य में विज्ञान की पहुंच केवल अस्थि-मज्जा के जोड़ और जैविक रसायनों के घोल तक सीमित है। जबकि मानव शरीर महज जैविक रसायनों का संगठन भर नहीं है, बल्कि उसकी अपनी मनोवैज्ञानिक एवं उससे भी इतर आध्यात्मिक सत्ता भी है, जो मानसिक स्तर पर मानवीय चेतना एवं व्यक्तित्व विकास का प्रमुख आधार तत्व है। सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध बनने की प्रक्रिया के गुण व अवसर इसी अंतर्चेतना में निहित हैं। जो सिद्धार्थ मृत्यु के षोक, बुढ़ापे के दंश और रोग की पीड़ा को देखकर गहन दुख को प्राप्त हो गए थे, वही सिद्धार्थ त्याग और आत्म-चिंतन से ऐसे बुद्ध में परिवर्तित हो गए,जिनका बाद में पूरा जीवन दुखियों के कष्टहरण में बीता। दुखियों के अंतर्मन में ऊर्जा का नव-संचार भरने में बीता।

हमारे मनीषियों ने जीवन को आनंदमयी बनाए रखने के लिए उत्सवधर्मिता से जोड़ा था। इसलिए हमारी भारतीय जीवन-शैली में उत्सव हर जगह मौजूद था। हमारे कार्य में, हमारे यष में हमारी आस्था में, हमारी उपलब्धि में और हमारी पल-प्रतिपल धड़कती जिंदगी में। यहां तक कि जन्म एवं मृत्यु में भी। पारंपरिक उत्सव जहां व्यक्ति को समूह से जोड़ते थे, वहीं जीवन में उत्साह भरने का काम भी करते थे। किंतु आज पाश्चात्य जीवन शैली के प्रभाव ने हमारे भीतर की उत्सवधार्मिता को कमोबेश कमजोर कर दिया है। नतीजतन उत्सव की सामाजिक बहुलता का क्षरण हुआ है। इसके प्रमुख कारणों में एक समाज में सामुदायिक उपलब्धि की बजाय,व्यक्तिगत उपलब्धि को महत्व देना है। इस कारण उत्सवों के समय व्यक्तियों को परस्पर घुल-मिलकर एकाकार होने के जो अवसर मिलते थे,वे लगभग समाप्त हो गए हैं। ऐसे में उत्सव जीवन को लीलामयी बनाने का काम करते थे, किंतु आज एकाकीपन के चलते, मनुष्य समाज से कटता जा रहा है। यह विचार षून्यता व्यक्ति को भीतर से कमजोर बनाने का काम कर रही है। इसीलिए आज व्यक्ति में आंतरिक ऊर्जा की कमी होती जा रही है। ऊर्जा की इस कमी के चलते व्यक्ति जब असफल होने का अनुभव करता है, तो आत्मघाती कदम उठाने को विवश हो जाता है। बहरहाल उत्सवों के जरिए व्यक्ति को सामाजिक बहुलता और सामुदायिक सरोकारों से जोड़ने की जरूरत है।

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