गाय पर बढ़ता विवाद

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cowप्रमोद भार्गव

दादरी के बिसाहड़ा गांव में गोमांस खाने की अफवाह का मामला अभी पूरी तरह ठंडा भी नहीं हुआ था कि दिल्ली के केरल भवन में गोमांस परोसे जाने का विवाद गहरा गया। यहां हिंदू सेना के कुछ लोगों ने रसोई में घुसकर हंगामा भी किया। जांच में यह तय हुआ कि केरल भवन में गोमांस नहीं परोसा जा रहा था। ‘बीफ‘ परोसे जाने का संदेह ‘बीफ‘ शब्द की व्यापकता के परिप्रेक्ष्य में हुआ। भविष्य में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो,इसलिए जरूरी है कि इस शब्द की सीमा को पुनः परिभाषित किया जाए। तीसरा विवाद राष्ट्रिय स्वंय सेवक संघ के प्रमुख अंग्रेजी पत्र ‘आर्गेनाइजर‘ में छपे एक लेख को लेकर गहराया है,जिसमें वैदिक काल में गोमांस सेवन को लेकर उपजे विवाद की जड़ ब्रिटिश राज की गंदी राजनीति है। क्योंकि ब्रितानियों ने चंद भारतीय लेखकों को इतिहास नए सिरे से लिखने और लोक में व्याप्त धर्म ग्रंथों के मनवतावादी स्वरूप को विकृत करने के लिए रखा और बदले में बड़ी धनराशि का भुगतान किया। स्वतंत्र भारत में इस षड्यंत्र को वामपंथी इतिहासकारों और साहित्यकारों ने भी खूब खाद-पानी दिया। गोमांस खाने के विषय में चौथी अहम् सूचना सरकारी क्षेत्र के राष्ट्रिय नमूना सर्वेक्षण 2011 की रिपोर्ट से आई है,जिसमें बताया है कि करीब 8 करोड़ भारतीय बीफ खाते हैं। और फिर बीफ का निर्यात तो बड़ी मात्रा में हो ही रहा है। साफ है हम एक ऐसे प्राणी के वंशनाश में लागे हैं,जो हमारी कृषि अर्थव्यवस्था और दुग्ध-क्रांति की धुरी है।

गाय वैसे तो दुनिया के हर एक देश में महत्वपूर्ण है। क्योंकि उसकी उपयोगिता एक साथ कृषि,दूध गोबर और उसके मूत्र से बनी औषधि से मिलने वाले स्वास्थ्य-लाभ से जुड़ी है। भारत में ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में करोड़ों लोगों की आजीविका का साधन गाय है। तय है, तमाम तकनीकि और यांत्रिक विकास हो चुकने के बावजूद गाय की महिमा अपनी जगह कायम है। भारतीय संस्कृति और संस्कारों में प्रकृति के उन वरदानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की गई है,जो हमें जीवन-यापन के लिए कुछ देते हैं। इसलिए वैदिक वांगमें से लेकर पौराणिक ग्रंथों और राष्ट्रवादी साहित्य सृजन में गाय को एक स्वर से माता के रूप में संबोधित किया गया है। यही नहीं प्रदाता के प्रति कृतज्ञ भाव बना रहे,इसीलिए नदियों,पहाड़ों,वृक्षों और विषैले जीव-जंतुओं तक को पूजने की परंपरा भी भारतीय जनमानस में अनवरत है। जाहिर है,जिस पारिस्थितिकी तंत्र को बिगड़ते देख हम जलवायु परिवर्तन की आज चिंता कर रहे हैं,उसका संतुलन काल-कालांतर तक बना रहे इस दृष्टि से ही हमारे दूरद्रष्टा ऋषि-मुनियों ने प्रकृति के सा्रेतों और जैव विविधता के उपभोग को नियंत्रित बनाए रखने के उपाय धर्म और संस्कृति से जोड़कर किए थे। गोया,गाय भारतीय सभ्यता और संस्कृति के स्वरूप से ही नहीं राष्ट्रबोध से भी जुड़ी गई है। इसीलिए गाय का आर्थिक जीवन के स्वरूप निर्माण में भी अहम् भूमिका का निर्वाह होता चला आ रहा है।

किंतु दुर्भाग्य यह रहा कि प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य के प्रति जो हमारी वर्तमान बौद्धिक समझ है,वह संस्कृत ग्रांथों के गूढ़ अध्ययन से विकसित होने की बजाय,भारतीय संस्कृति के विरोधियों और हमलावर धर्मावलंबियों व जातियों की सुनियोजित प्रचार व सरंक्षण योजना से उपजी है। जिनकी पृष्ठभूमि में अपने सांस्कृतिक मूल्यों और भाशा को थोपना रहा है। जिससे भारतीय समाज हीनता के बोध से ग्रसित हो और विदेशी दासता का गुलाम बनता चला जाए। इन मंशाओं को अपने अनुरूप ढालने के लिए ही वेद,उपनिषद्,पुराण और अन्य भारतीय धर्मशास्त्रों की आक्रमणकारियों ने अपने अनुकूल व्याख्याएं कराईं। इस हेतु ब्राह्मणों से संस्कृत सीखी और शास्त्र पढ़ने के प्रयास किए। जिन ब्राह्मणों ने अंग्रेजों की क्रूर मंशा का आभास कर लिया और ज्ञानार्जन कराने से आनाकानी की,उन्हें दंडित भी किया गया। बावजूद मैक्समूलर और मैकाले अपने मंतव्य में न केवल सफल हुए,बल्कि उनकी पाशचात्य स्थापनाओं को हम आजादी के 68 साल बाद भी सिर पर ढोए गौरवान्वित हो रहे हैं। अंग्रेज और उनके द्वारा पोषित तथाकथित विद्वानों की देनें हैं कि वैदिक युग में गायों की बलि दी जाती थी। यज्ञ हिंसा के कर्मकांड थे और विभिंन्न धार्मिक आयोजनों में उद्दण्डता व उच्छृंखलताएं प्रचलन में थीं और विभिन्न जाति समुदाय एक दूसरे के प्रति घोर असहिष्णु थे। इन्हीं थोपी गई अवधारणाओं का परिणाम है कि गोमांस खाने के विरोध से संबंधित कोई भी मामला आने पर अकसर वामपंथी मानसिकता से ग्रस्त लेखक लिख देते हैं कि भारत में शातब्दियों से लोग गोमांस खाते रहे हैं।

हालांकि हिंदू सेना और सनातन संगठन,जैसे हिंदुत्ववादी संगठन वही हथकंडे अपना रहे हैं,जो विदेशी हुक्मरानों ने भारतीय समाज का दमन और अपमान करने के लिए अपनाए थे। जिससे की बहुसंख्यक हिंदू समाज की आत्मा आहत हो और उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचे। यही अतिवाद यदि हम गैर कानूनी ढंग से गोमांस खाने वालों पर थोपते हैं तो यह सर्वथा अस्वीकार है। दादरी और केरल भवन में यही हुआ। इस बर्ताव से अच्छा है हम विधि सम्मत बात करें और गाय के प्रति गोमांस-भक्षियों को जागरूक बनाएं। कुरान-शरीफ में भी गो-हत्या का कोई अनिवार्य विधान नहीं है। बावजूद कुछ मुस्लिम शासकों ने गो-वध को अपना महत्वपूर्ण अधिकार मना। जाहिर है,इसका सीधा अर्थ गाय को माता मानने वालों का आपमान करना था। किंतु ऐसे भी बहुत मुस्लिम बादशाह हुए,जिन्होंने गो-वध पर सख्त प्रतिबंध लगाए। इनमें बाबर,अकबर,जहांगीर,हैदरअली और अहमद शाह जैसे बादशाह शामिल हैं। यही नहीं सांप्रदायिक तनाव के अपवादों को नजरअंदाज कर दें तो भारतीय आम मुसलमान भी गोरक्षा के विरोधी नहीं रहे। गाय के प्रति मुसलमानों की उदार भावना 1857 के प्रथम स्वंतत्रता संग्राम में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुई है। फिरंगी सेना में शामिल हिंदू और मुस्लिम सैनिकों को यह जानकारी मिली कि बंदूक में डालने वाली कारतूस का आवरण गाय और सूअर के चमड़े से बना है और उसे दातों से खोलना पड़ेगा तो गाय के संरक्षण के भाव में देशव्यापी हिंदू-मुस्लिम एकता परिलक्षित हुई। यहीं से अंग्रेज विरोधी संयुक्त अभियान ने आकार लिया।

फिरंगियों को देश से जोड़ने में संयुक्त अभियान के रूप में गांधी ने अंग्रेजी की साजिश को ताड़ लिया था। नतीजतन उन्होंने गोरक्षा आंदोलन को नया मोड़ देते हुए,उसे स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ दिया। आजादी के बाद गाय और उससे जुड़ी कृषि व्यवस्था के महत्व को संविधान निर्माता डाॅ भीमराव अंबेडकर ने भी समझा। लिहाजा उन्होंने संविधान के अनुच्छेद-49 में भारत सरकार को ‘गायों,बछड़ों और हरेक किस्म के दुधारू मवेशियों के सरंक्षण और संवर्धन के साथ-साथ उनके वध पर प्रतिबंध लगाने के लिए भी पहल करने को कहा है।‘ साथ ही संविधान के अध्याय चार में जो नीति-निर्देशक सिंद्धांत सुनिश्चित किए गए हैं,उनके मूलभूत कर्तव्यों के अनुच्छेद 51-ए;जीद्ध में सभी भारतीय नागरिकों से वनों,झीलों और नदियों के साथ प्राकृतिक संपदा का संरक्षण करने और जीवित प्राणियों के प्रति दयालुता का भाव रखने की उम्मीद भी जताई है। इस नाते भी गाय समेत अन्य दुधरू मवेशियों का संरक्षण जरूरी है। संविधान की इस भावना के दृष्टिगत केरल,पश्चिम बंगाल व पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़कर देशभर में गोमांस प्रतिबंधित है।

केरल-भवन में हिंदू सेना के हंगामें और दिल्ली पुलिस के हस्तक्षेप के बाद यह तथ्य भी सामने आया है कि ‘बीफ‘ का शाब्दिक अर्थ भ्रामक है। साथ ही भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह अनेक विसंगतियों को जन्म दे रहा है। दरअसल अंग्रेजी में ‘बीफ‘ शब्द का अर्थ केवल गाय का मांस होता है,जबकि भारत में इसी शब्द के पर्याय में भैंस,बैल,सांड और अन्य पालतु पशुओं का मांस भी शामिल हैं। जांच के बाद पता चला है कि केरल भवन की रसोई में जो मांस परोसा जा रहा था,वह भैंस का था। केरल सरकार ने पहले ही अपनी व्यंजन-सूची से गोमांस हटा दिया है। ऐसी भ्रामक स्थिति आगे निर्मित न हो इसलिए भारत सरकार मांस ब्रिकी से संबंधित शब्दों और उनके शाब्दिक आर्थों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने की जरूरत है। जिससे बीफ के मायने केवल ‘गोमांस‘ से जोड़कर न देखे जाएं। साथ ही,गाय के महत्व को कृषि अर्थव्यस्था और व्यापक ग्रामीण समाज की आजीविका से जोड़कर भी दर्शाने की जरूरत है,जिससे गोमांस खाने वाले गाय आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति जागरूक हो।

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  1. गाय रक्षकों का विरोध कुछ सीमा तक अपनी जगह ठीक है , लेकिन एक सवाल यह भी है कि जब गाय हमारी इतनी पूज्यनीय है तो हम उसे सड़कों पर घूमने व चरने के लिए क्यों छोड़ देते हैं ?गौ वंश की सुरक्षा करने वाले सकों पर आ कर यह विरोध क्यों नहीं करते ? यात्री लोगों को कितनी परेशानी होती है इस बात का अंदाज उन्हें खुद भी है पर परेशानी की इस सबब को वह स्वीकारने को तैयार नहीं हैं

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