देवी उपासना वैदिक काल से भी प्राचीन – हृदयनारायण दीक्षित

माँ सृष्टि के अणु परमाणु की जननी है। माँ प्रत्येक जीव की आदि अनादि अनुभूति है। माँ की देह का विस्तार ही हम सबकी काया है। हम सबका अस्तित्व माँ के कारण ही है। माँ न होती तो हम न होते। माँ स्वाभाविक ही दिव्य हैं, देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं। सभी लोक, वनस्पति जगत्, कीट, पतंग और समस्त प्राणी माँ का विस्तार हैं। मार्कण्डेय ऋषि ने ठीक ही दुर्गा सप्तशती (अध्याय 5) में ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता’ बताकर ‘नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनमः’ कहकर अनेक बार नमस्कार किया है। माँ का रस, रक्त और पोषण ही प्रत्येक जीव का मूलाधार है। पृथ्वी भी वैसी है। उसके अंगभूतों से सभी जीव निर्मित हैं, वही मूल है, वही आधार है। इस पर रहना, कर्म करना, कर्मफल पाना और अंततः इसी की गोद में जाना सतत प्रवाही जीवनक्रम है। ऋग्वेद के ऋषियों के लिए पृथ्वी माता है। यह माता पृथ्वी धारक है। पर्वतों को धारण करती है, मेघों को प्रेरित करती है। वर्षा के जल से अपने अंतस् ओज से वनस्पतियां धारण करती है। (5.84.1-3) ऋग्वेद में रात्रि भी एक देवी है वे अविनाशी – अमर्त्या हैं, वे आकाश पुत्री हैं, पहले अंतरिक्ष को और बाद में निचले-ऊंचे क्षेत्रों को आच्छादित करती हैं। उनके आगमन पर हम सब गौ, अश्वादि और पशु-पक्षी भी विश्राम करते हैं। प्रार्थना है कि वृको (भेड़ियो) व चोरों को हमसे दूर रखो। मेरी स्तुतियाँ सुनो। (10.127)

प्रकृति की शक्तियां स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं हो सकती। विकासवादी सिध्दांत के अनुसार देवरूप माँ की उपासना – (स्त्रीलिंग आराधना) अतिप्राचीन है। वे इसका कारण समाज की मातृसत्तात्मक व्यवस्था बताते हैं। सृष्टि का विकास जल से हुआ। यूनानी दार्शनिक थेल्स भी ऐसा ही मानते थे। ऋग्वेद में भी इसी धारणा के साक्ष्य हैं। प्रकृति एक सुसंगत संविधान में चलती है। ऋग्वेद में इसका नाम ‘ऋत’ है। अधिकांश विश्वदर्शन में जल सृष्टि का आदि तत्व है। स्वाभाविक ही जल की पूजा और उपासना भी प्राचीन होनी चाहिए। ऋग्वेद में ‘जल माताएं’ आपः मातरम् हैं और देवियां हैं। ऋग्वेद के अपो देवीः और आपों मातरः मातृसत्तात्मक समाज की देन हैं। उन्हें बहुवचन रूप में याद किया गया है। सामाजिक विकास के आदिम काल में ही यहां जल माताओं की उपासना प्रारंभ हो चुकी है। सामाजिक विकास क्रम में मातृ सत्तात्मक से आई देवी पूजा व्यवस्था प्राचीन है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था से आये देवता उसके बाद के हैं। संसार के प्रत्येक जड़ चेतन को जन्म देने वाली यही आपः माताएं हैं:ः ‘विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्रीः’ (6.50.7) ऋग्वेद के बड़े प्रभावशाली देवता हैं अग्नि। इन्हें भी आपः माताओं ने जन्म दिया है ः’तमापो अग्निं जनयन्त मातरः’ (10.91.6) सविता ऋग्वेद के एक अन्य प्रभावशाली देवता है। इनकी भी स्तुति अपां नपातम् कहकर की गई है। (1.22.6)

ऋग्वेद अथर्ववेद में अदिति भी देवी है। वे संपूर्ण सृष्टि का पर्याय है। आदित्य-सूर्य उनके पुत्र हैं। यहां अदिति माता-पिता हैं और अदिति ही पुत्र भी हैं। अदिति जैसा देव प्रतीक (या देवी) विश्व की किसी भी संस्कृति में नहीं है जो कुछ हो चुका – भूत और जो आगे होगा भविष्य वह सब अदिति हैं। अदिति प्रख्यात दार्शनिक अनाक्सिमैंडर की अनंत सत्ता हैं। ऋग्वेद में वाणी की देवी वाग्देवी (10.125) हैं। वे रुद्र और वसुओं के साथ चलती हैं। ऋग्वेद के वाक्सूक्त (10.125) में कहती हैं – मैं रुद्रगणों वसुगणों के साथ भ्रमण करती हूँ। मित्र, वरुण, इंद्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ। मेरा स्वरूप विभिन्न रूपों में विद्यमान है। प्राणियों की श्रवण, मनन, दर्शन क्षमता का कारण मैं ही हूँ। मेरा उद्गम आकाश में अप् (सृष्टि निर्माण का आदि तत्व) है। मैं समस्त लोकों की सर्जक हूँ आदि। वे ‘राष्ट्री संगमनी वसूनां – राष्ट्रवासियों और उनके संपूर्ण वैभव को संगठित करने वाली शक्ति – राष्ट्री है’। (10.125.3) यहां वाणी ही रुद्र ब्रह्म आदि सब कुछ है। उसका उद्गम आकाश है। यही बात ऋग्वेद में अन्यत्र (1.164.39) भी है ऋचो अक्षरे परमे व्योमन-अक्षर-ऋचाए परम व्योम में रहती हैं। वाणी ही व्यक्त संसार में प्रकट रूपों प्रतिरूपों को ‘नाम’ देती है।

ऋग्वेद में ऊषा भी देवी हैं। सविता तेज हैं। सूर्य इस तेज की अभिव्यक्ति हैं और ऊषा सूर्योदय के पूर्व का सौंदर्य। ऋग्वेद के एक सूक्त (1.124) में ऊषा की स्तुति में कहते हैं ये ऊषा देवी नियम पालन करती हैं। नियमित रूप से आती हैं और मनुष्यों की आयु को लगातार कम करती हैं। (वही मंत्र 2) मानी बात है, प्रत्येक ऊषा (प्रभात) नई है। प्रत्येक ऊषा का आगमन उम्र का एक-एक दिन कम करता है। फिर कहते हैं, ऊषा स्वर्ग की कन्या जैसी प्रकाश के वस्त्र धारण करके प्रतिदिन पूरब से वैसे ही आती हैं जैसे विदुषी नारी ऋत-नियम मार्ग से ही चलती है। (वही, 3) ऊषा आनंदित करती हैं। वे देवी हैं, इसीलिए उनकी स्तुतियाँ हैं, वे सबको प्रकाश आनंद देती हैं। अपने पराए का भेद नहीं करतीं, छोटे से दूर नहीं होती, बड़े का त्याग नहीं करती। (वही, 6) यहां समत्व दृष्टि की सीधी चर्चा है। ऊषा देवी हैं। समद्रष्टा हैं। भेदभाव नहीं करतीं लेकिन स्तोता उनसे भेदभाव की भी स्तुतियाँ भी करते हैं हे ऊषा आप कृपण लोभी को न जगाए। लेकिन श्रमशील कर्मठों को जगाए। आप यज्ञकर्मी श्रमशील/दानदाताओं को धन दें। (वही 10, 12) ऋग्वेद में जागरण की महत्ता है इसलिए संपूर्ण प्राणियों में सर्वप्रथम ऊषा ही जागती हैं। (1.123.2) फिर उन्हें भग और वरण की बहिन बताते हैं और सभी देवों में प्रथम स्तुति योग्य – सूनृते प्रथम जरस्व। (वही, 5) प्रार्थना है कि हमारे मुख दिव्य स्तुति गान करे। बुध्दि सत्कर्मों को प्रेरित करे। (वही, 6) ऊषा सतत् प्रवाह है। आती हैं, जाती हैं फिर आती हैं। जैसी आज आई हैं, वैसे ही आगे भी आएंगी और सूर्य देव के पहले आएगी। (वही, 8) भारत का लोकजीवन देवी उपासक है। वह सब तरफ माता ही देखता है। देवी उपासना काल से भी प्राचीन है। यहां पृथ्वी माता हैं ही। इडा, सरस्वती और मही भी माता हैं, ये ऋग्वेद में तीन देवियां कही गयी हैं – इडा, सरस्वती, मही तिस्रो देवीर्मयो भुव। (1.13.9) एक मंत्र (3.4.8) में ‘भारती को भारतीभिः’ कहकर बुलाया गया है – आ भारती भारतीभिः। यहां भारतीभिः भरतजनों की इष्ट हैं। फिर कहते हैं सजोषा इडा देवे मनुष्ये – इडा देवी मनुष्यों देवों के साथ यज्ञ अग्नि के समीप आयें और सरस्वती वाक्शक्ति के साथ पधारें। सरस्वती पहले नदी हैं, माता हैं। बाद में वे ज्ञान की देवी हैं, माता तब भी हैं। यज्ञ संस्कृति होने के कारण भारत कहने से अग्नि का बोध होने लगा – त्वं नो असि भारता अग्ने (2.7.5) तस्मा अग्निर्भारत (4.25.4) यज्ञ में मंत्र पाठ के कारण ऋषियों की वाणी को भारती कहा गया। यज्ञ की विभिन्न क्रियाओं को देवी रूप कल्पित करके उन्हें होत्रा, इडा आदि नाम दिए गये। इडा यज्ञ कर्म की प्रतीक है, यज्ञ की अग्नि भारत है, यज्ञ में काव्य पाठ करने वालों की वाणी भारती है। लेकिन मन की चंचलता कर्म साधना में बाधक है। मन की शासक देवी का नाम ‘मनीषा’ है। ऋषि उनका आवाहन करते हैं प्र शुकैतु देवी मनीषा। (7.34.1) प्रत्यक्ष देखे, सुने और अनुभव में आए दिव्य तत्वों के प्रति विश्वास बढ़ता है, पक्का विश्वास प्रगाढ़ भावदशा में श्रद्धा बनता है। ऋग्वेद में श्रद्धा भी एक देवी हैं, श्रद्धा प्रातर्हवामहे, श्रद्धा मध्यंदिन परि, श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः – हम प्रातः काल श्रद्धा का आवाहन करते हैं, मध्याह्र में श्रद्धा का आवाहन करते हैं, सूर्यास्त काल में श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्धा हम सबको श्रद्धा से परिपूर्ण करें। (10.151.5) यहां श्रद्धा जीवन और कर्म की शक्ति हैं, श्रद्धा से ही श्रद्धा की याचना में गहन भावबोध है। इस श्रद्धा का मतलब अंधविश्वास नहीं है। श्रद्धा विशेष प्रकार की दिव्य चित्त दशा है और प्रकृति की विभूतियों में शिखर है – श्रध्दां भगस्तय मूर्धनि। (10.151.1) देवी प्रत्यक्ष ऊर्जा है। देवी उपासना प्रकृति की विराट शक्ति की ही उपासना है। मूर्ति, बिम्ब और प्रतीक नाम ढेर सारे हैं – दुर्गा, महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी या सिद्धिदात्री आदि कोई नाम भी दीजिए। देवी दिव्यता हैं। माँ हैं। सो पालक हैं। भारत स्वाभाविक ही नवरात्रि उत्सवों के दौरान शक्ति उपासना में तल्लीन है।

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  1. मानव स्वभाव आदर्श वैदिक सार्वभौमिक है पाया में एक, क्या कभी अवतार रूपों गुरु और वही कर रहे हैं एक और.

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