लिमटी खरे
सरकार चाहे केंद्र की हो राज्य की, सियासी दल चाहे जो भी हो, जनसेवक किसी भी मानसिकता का हो, हर कोई अपने आप को देश और समाज के उत्थान के प्रति अपने आप को पूरी तरह से समर्पित बताने से नहीं चूकता है। अपनी घोषित प्राथमिकताओं के प्रति ये सारे के सारे ठेकेदार कितने संजीदा हैं इस बात का पता देश की सबसे बड़ी अदालत के द्वारा प्राथमिक विद्यालयांे की दुर्दशा को देखकर लगाई गई जबर्दस्त फटकार से लगाया जा सकता है। केंद्र और राज्य के लिए शर्म की बात है कि पहली कक्षा से पांचवी कक्षा तक के बच्चों को वे बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं। देश के जनसेवक और लोकसेवक निहित स्वार्थों मंे पूरी तरह उलझकर रह गए हैं, यही कारण है कि देश के शिक्षण संस्थान बद से बदतर स्थिति को प्राप्त होते जा रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्राथमिक विद्यालयों की दुर्दशा पर विभन्न राज्यों की सरकारों को आड़े हाथों लेते हुए फटकार लगाई है। सरकारों के लिए डूब मरने वाली बात है कि जिस मामले में उन्हें संज्ञान लेना चाहिए उस मामले में न्यायालय द्वारा उन्हें कड़ी फटकार के साथ दिशा निर्देश जारी करने पड़ रहे हैं। शिक्षा आज व्यवसाय बन चुका है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। कुकुरमुत्ते के मानिंद गली गली में स्कूल खुल चुके हैं। केंद्र सरकार के निर्देशों के बाद भी सरेआम कैपिटेशन फीस ली जा रही है। कमीशन के चक्कर में दुकान विशेष से शाला का गणवेश और कोर्स की किताबें लेने मजबूर किया जा रहा है। इन सब बातों को रोकने के लिए पाबंद जिलों में तैनात जिला शिक्षा अधिकारी सरेराह लूटने वाले इन शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन के एजेंट के बतौर काम करने लगे हैं।
अमूमन हर शाला में बच्चों से बिल्डिंग फंड, विकास शुल्क, कंप्यूटर शुल्क, क्रीड़ा शुल्क, पुस्तकालय शुल्क आदि की मद में भारी भरकम राशि ली जाती है। जिला शिक्ष अधिकारी अगर शालाओं मंे जाकर नए बने किन्तु जर्जर शाला भवन, बिना कांच की खिड़कियां, खराब बिना इंटरनेट कनेक्शन वाले कंप्यूटर, पथरीले खेल के मैदान, बिना किताबों वाले पुस्तकालय देखें तो वास्तविक स्थिति काफी हद तक सामने आ सकती है। विडम्बना ही कही जाएगी कि चंद सिक्कों की खनक के आगे जिलों में तैनात शिक्षा अधिकारियों द्वारा नौनिहालों का भविष्य और अपना ईमान ही गिरवी रख दिया जाता है।
शहरों में आबादी के बोझ के कारण निजी तौर पर संचालित शिक्षण संस्थानों ने अपने शाला भवन आबादी से काफी दूर बना रखे हैं। घर से दस पांच किलोमीटर दूर शाला भवन में पहली से लेकर पांचवी दर्जे तक का बच्चा ठंड के दिनों में किस तरह दिन काटता होगा यह सोचकर ही सिहरन पैदा हो जाती है। हद तो तब होती है जब ठंड के मौसम में बिना कांच वाली खिड़कियों से सर्द गलाने वाली हवाओं के झौंके कक्षा के अंदर प्रवेश करते हैं। आसपास खेतों में होने वाली सिंचाई भी मौसम को और अधिक ठंडा बना देती है। निष्ठुर शाला प्रबंधन तब भी अपनी शाला को अलह सुब्बह ही लगाने का हिटलरी फरमान वापस भी नहीं लेता है।
बहरहाल एक जनहित याचिका की सुनवाई पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने संज्ञान लिया है। सुप्रीम कोर्ट आॅफ इंडिया ने मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखण्ड़ झारखण्ड, पंजाब सहित 13 सूबों को फटकार लगाते हुए उनके राज्यों के प्राथमिक विद्यालयों में एक माह की समयावधि में पेयजल और छः माह के अंदर ढांचागत सुविधाएं मुहैया करवाने के निर्देश दे दिए हैं। सर्वोच्च न्यायायल की फटकार के बाद वास्तविक स्थिति सामने आ गई है कि राज्यों की सरकारें देश के नौनिहालों की पढ़ाई लिखाई और सुविधाओं के प्रति कितनी संजीदा हैं।
राज्यों की सरकारें अपने और कंेद्रीय स्तर पर संचालित होने वाले सरकारी स्कूलों के साथ तो दोयम दर्जे का व्यवहार कर रही हैं। जिलों में तैनात जिलाधिकारी, प्रभारी अधिकारी उप जिलाधिकारी और जिला शिक्षा अधिकारियों द्वारा भी इस दिशा में ध्यान न दिया जाना आश्चर्यजनक ही है। जिलों में निजी तौर पर संचालित होने वाली शिक्षण संस्थाओं द्वारा शिक्षा को व्यवसाय बनाकर पालकों को सरेआम लूटा जा रहा है। यह निश्चित तौर पर सरकारों का सिर शर्म के साथ झुकाने वाली बात है कि हजारों की तादाद में प्राथमिक शालाओं की फेहरिसत आज भी जिंदा है जिसमें पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं है। जहां पानी ही नहीं है वहां तो शौचालय, बिजली, पंखो, फर्नीचर तो दूर की कौड़ी होगी।
प्राथमिक स्तर के अलावा हाई और सेकन्ड्री स्तर पर तो और भी कमियां हैं। यह तो मूल समस्या है ही मगर शिक्षकों की कमी सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरी है। एक तो शिक्षकों की कमी उपर से शिक्षकों को जन गणना, परिवार कल्याण, पल्स पोलियो जैसे कामों में बतौर बेगार कराने से शिक्षकों द्वारा पढ़ाई के काम में दिलचस्पी नहीं ली जाती है। अनेक राज्य तो एसे भी हैं जहां शिक्षकों के रिक्त पदों की संख्या हजारों में है। कंेद्र सरकार की महात्वाकांक्षी योजना ‘सर्व शिक्षा अभियान‘ में शिक्षकों की कमी के चलते भी जो आंकड़े और कागजी खाना पूरी सामने आ रही है उससे प्रतीत होता है कि नौकरशाह और जनसेवक मिलकर जनता को सरेआम बेवकूफ बनाने पर ही आमदा हैं। देश के नीति निर्धारकों को इस बात को समझना ही होगा कि इस तरह से आंकड़ों की बाजीगरी कर वे देश के भविष्य के साथ किस कदर खिलवाड़ कर रहे हैं।
बच्चों के कल्याण का कथित तौर पर ठेका लेकर समाज सेवा का दंभ भरने वाली सामाजिक संस्थाएं और गैर राजनीतिक दल भी इस गंभीर मसले पर चुप्पी ही साधे बैठे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता दिनों दिन गिरती जा रही है। शिक्षा को लेकर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा नित नए प्रयोग किए जाते रहे हैं। जब जिस शासक का मन चाहा उसने अपने हिसाब से शिक्षा का स्वरूप ही बदल दिया। शिक्षा को प्रयोगशाला बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता है। नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ ने राष्ट्र, पालक, बच्चों, समाज आदि के साथ सरेआम धोखाधड़ी की जा रही है जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। मोटी चमड़ी वाले शासकों पर अब अनैतिक बातों के खिलाफ होने वाली चीत्कार का कोई असर नहीं होता है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि शिक्षा का व्यवसायीकरण हर हाल में रोकना ही होगा। शिक्षा को पैसा कमाने का व्यवसाय समझना निश्चित तौर पर अनुचित है। किसी ने सच ही कहा है कि अगर समूचे कुंए में ही भांग घुली हो तो मोहल्ले या गांव का तो भगवान ही मालिक है।
किसी भी देश का भविष्य बच्चे होते है. आजादी के बाद से सबसे कम ध्यान अगर दिया गया है तो वह है बुनियादी सिक्षा. जिस प्रकार से जनसँख्या बढ़ी है, हर तरफ तरक्की हुई है, बुनियादी, प्राथमिक सिक्षा अभी भी उपेक्षित है. देश के किसी भी कोने में चले जाइए, ग्रामीण छेत्रो में सिक्षा का स्तर बहुत नीचा है. बुनियादी सुविधाओ की कमी है. पीने का पानी, बेठने की जगह को तो छोडिये सौचघर भी नहीं है. जर्जर खंडहरों में बच्चे पढ़ते है जहाँ बरसात में पानी टपकता है, खिडकिय टूटी है या है ही नहीं. बहुत ही दयनीय स्तिथि होती है. लाखो, करोडो खर्च करने के बाद भी करोडो बच्चे ऐसी स्तिथि में पढ़ते हो तो देश का हाईटेक होना बेमानी है. किसी जिले के क्लेकटेरेट में दिन भर में जितना भ्रष्टाचार होता है उससे किसी एक तहसील के २-४ गाँव के स्कूल में ने भवन बने जा सकते है. किन्तु सरकार इस और पूरी तरह से उदासीन है.
हर विकसित देश में बड़े बड़े संसथान निजी होते है किन्तु प्राथमिक सिक्षा सरकार अपने पूर्ण नियंत्रण में रखती है और उसे अपने हर निर्णय में प्रधानता देती है किन्तु हमारे यहाँ लगता है की बस व्यवस्था चल रही है तो चलती रहे, हमारे बच्चे तो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे है, हमें क्या करना है.
धन्यवाद श्रीमान खरे जी. आप ऐसे मुद्दे उठाते रहिये, कभी तो सरकार जागरूक होगी.
Bhai tumne to kamal ka lekh likha hai. Lekin Agar Hum Sach mein ise sakar karna chahaten hain to hamein khud kadam udtana hoga.