ईश्वर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों का सदा सर्वदा का साथी और रक्षक है

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ishwar तर्क और युक्ति के आधार से यह सिद्ध किया जा सकता है कि इस संसार का रचयिता और पालक ईश्वर है। जो लोग इस विचार से सहमत न हों, उनका यह दायित्व बनता है कि वह इसका प्रतिवाद वा वैकल्पिक उत्तर युक्ति व तर्क पूर्वक दें। हमारा अनुमान है कि इसका अन्य कोई उत्तर नहीं हो सकता। कहने के लिए तो तथाकथित बुद्धिजीवी व कुछ वैज्ञानिक कह दिया करते हैं कि यह संसार अपने आप बना है और स्वतः ही चल रहा है। ईश्वर नाम की कोई चेतन व सर्वव्यापक पृथक सत्ता इसको नहीं चली रही है। उनको जब इस मिथ्या सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिए कहा जाता है तो वह इसे सिद्ध नहीं कर पाते और मौन धारण कर लेते हैं। मौन रहने का अर्थ ही है कि यह उनका कपोल कल्पित विचार है जो किसी ठोस कारण व प्रमाण पर आधारित नहीं है। हम जानते हैं कि संसार में मुख्यतः दो प्रकार के पदार्थ, तत्व या सत्तायें हैं। पहली चेतन सत्ता है व दूसरी जड़। प्रकृति जड़ है और ईश्वर व जीव चेतन हैं। जड़ प्रकृति से किसी सार्थक व सप्रयोजन रचना के लिए किसी बुद्धियुक्त चेतन सत्ता की आवश्यकता होती है। यदि रचना करनेवाली चेतन सत्ता नहीं है तो रचना व कार्य नहीं हो सकता। हम अपने रसोई घर का उदाहरण ले सकते हैं। घर में रोटी बनाने का सभी सामान है। परन्तु रोटी तभी बनेगी जब एक चेतन सत्ता अर्थात् रोटी बनाने का जानकार उन सब वस्तुओं का सदुपयोग कर विधि के अनुसार रोटी का निर्माण करें। इसी प्रकार सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति एक जड़ तत्व है जो रोटी के समान ही इस कार्य सृष्टि का उपादान कारण है। यदि चेतन निमित्त कारण नहीं होगा तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती। यह ब्रह्माण्ड किसी एकदेशी, अल्प ज्ञानी व अल्प सत्ता के द्वारा नहीं रचा जा सकता। इसकी रचना के लिए एक सर्वदेशी वा सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि रचना का ज्ञान रखने वाली सत्ता की आवश्यकता है। इन सभी गुणों से पूर्ण सत्ता को ईश्वर कहते हैं। इस सत्ता का प्रमाण समाधि में इसका प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होने पर मिलता है। महर्षि दयानन्द सहित उनके पूर्ववर्त्ती अनेक ऋषि व योगी ध्यान व समाधि द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार कर चुके हैं। आज भी अनेक योगी ध्यान की साधना करते हैं और उनमें से कुछ ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल भी होते हैं। यदि किसी वैज्ञानिक, नास्तविक व हठी स्वभाव के व्यक्ति को यह बात अस्वीकार्य लगे तो उसे योगदर्शन के अनुसार ध्यान व समाधि का अभ्यास करना चाहिये और यौगिक जीवन के अनुसार सभी यम व नियमों का पूर्ण पालन करना चाहिये तो उनकी शंका दूर हो जायेगी। सृष्टि की रचना विषयक वैदिक विचार व सिद्धान्तों को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सबसे सरल व सुलभ ग्रन्थ हैं। इनकी सहायता से भी सृष्टि की रचना में ईश्वर की भूमिका व उसके निमित्त कारण होने को भलीभांति जाना जा सकता है।

 

इस लेख में हम चर्चा कर रहे हैं कि ईश्वर सभी प्राणियों का रक्षक है। जब हम अपने अस्तित्व पर विचार करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि हमारा जन्म यद्यपि माता-पिता से हुआ अवश्य है परन्तु सन्तान के शरीर की रचना व उसमें जीवात्मा का प्रवेश माता-पिता नहीं कराते। यह कार्य कौन करता है, उसी को ईश्वर कहते हैं। हम स्वयं भी पिता है और हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि पिता अपनी सन्तान के भौतिक शरीर का निर्माता व उसमें आत्मा का प्रवेश कराने वाली सत्ता नहीं है। यदि ईश्वर ने यह कार्य किया है, यह सत्य सिद्ध है, तो वह अवश्य ही हमारी रक्षा भी करेगा। इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक रचनाकार अपनी सभी रचनाओं की स्वयं ही रचना करता है। अतः इस सृष्टि व इसके प्राणियों की रचना ईश्वर से होने के कारण इनकी रचना का दायित्व ईश्वर पर ही है जो कि सर्वशक्तिमान होने से यह कार्य सुगमता से करने में पूर्ण समर्थ है। हम देखते हैं कि माता-पिता अपनी सन्तान को जन्म देते हैं और उसकी यथासम्भव रक्षा भी करते हैं। आचार्य अपने शिष्य को ज्ञान देता है और शिष्य पर किसी भी प्रकार की आपत्ति आने पर आचार्य उसकी सभी प्रकार से रक्षा करता है। ईश्वर ने हमें उत्पन्न किया वा हमें इस संसार में भेजा है, तो रक्षा का दायित्व भी उसी के ऊपर है। ईश्वर ने ही हमारे प्राणों के लिए स्वास्थ्यप्रद वायु को बनाया और उसे पूरी पृथिवी पर उपलब्ध कराया है। इसी प्रकार उसने हमारी आंखों को देखने में सहायता के लिए सूर्य का निर्माण किया जो न केवल हमारे आंखों को सार्थक करता है वहीं अनेकानेक हितकारी प्रयोजनों को भी सिद्ध करता है। इसी प्रकार जल शरीर की आवश्यकता है। ईश्वर ने ही जल की रचना कर उसे उपलब्ध कराया है और उसके शरीर में प्रवेश के लिए मुखान्द्रिय की रचना की है। यह सब कार्य ईश्वर ने हमारे शरीर व हमारी रक्षा के लिए ही किये हैं। यदि विचार को जारी रखा जाये तो यह सिद्ध होता है कि ईश्वर अनेकानेक प्रकार से हमारी रक्षा करता है। यदा-कदा अपथ्य के कारण हम रोगी हो जाते हैं, तब ऐसे समय में हमारे शरीर की आन्तरिक शक्तियां रोग को ठीक करने में लग जाती हैं। यदि हम रोगकाल में अन्न का भोजन त्याग दें और गोदुग्ध व कुछ फलों या तरकारियों की तरी वा प्रव पदार्थ का ही प्रयोग करें तो हम ठीक हो जाते हैं। बड़े रोगों से बचाव के लिए ईश्वर ने ओषधियां भी बना कर उपलब्ध कराई हुईं है जिनका ज्ञान हमें वेदों से होता है। इसके साथ हि वेदों के साक्षात्दर्शा चरक, सुश्रुत व धन्तन्तरी आदि ऋषियों ने वेदों के आधार व अपने विवेक से आयुर्वेद के ग्रन्थों को हमें उपलब्ध कराया है जो हमें निरोग रखने में सहायक हैं जिससे हमारी रक्षा होती है।

 

‘जाको राखे साइयां मार सके न कोए, बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होय।’ यह पंक्तियां हमने जीवन में अनेक बार सुनी हैं। इन पंक्तियों के शब्द पूरी तरह सत्य प्रतीत होते हैं। हमारे अपने अनुभव भी इससे पूरी तरह से मिलते जुलते हैं। अनेक अवसरों पर हमारे प्राणों की रक्षा किसी दैवीय सत्ता द्वारा हुई है। यह सर्वव्यापक ईश्वर द्वारा ही की जाती है। ऐसी घटनायें घटती रहती हैं जहां मनुष्य मौत के मुंह से भी बाहर सुरक्षित निकल आता है। महर्षि दयानन्द जी के जीवन की रक्षा भी अनेक बार हुई जब वह विपत्तियों में थे। विपत्तियों में मनुष्यों की रक्षा को ईश्वर की कृपा और उनके अपने-अपने प्रारब्ध को ही माना जा सकता है। कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार यह विषय जटिल है जिसे इसे मनुष्य पूरी तरह जान व समझ नहीं पाता। ईश्वर न्यायकारी है और उसके ही नियमों के अनुसार जीवन में अनेक विपरीत अवसरों पर मनुष्यों की रक्षा होती प्रत्यक्ष देखी जाती है। हम भी एक बार अपने दो पहिये के वाहन सहित एक खड़ी बस के पीछे से बस के दोनों पहियों के बीच से होते हुए अगले पहियों के पास जाकर रूके थे। कुछ ही क्षण बाद जब हमें अपने जीवित होने का अहसास हुआ तो वह बस स्टार्ट होकर चल पड़ी क्योंकि बस के चालक व उसके यात्रियों को दुर्घटना का ज्ञान नहीं हो सका था। हमने स्वयं को और अपनी दोपहिया गाड़ी को बचाने का प्रयास किया और बस हमारे ऊपर से निकल गई। हजारों की भीड़ ने यह दृश्य देखा तो उन्हें यह चमत्कार ही लगा। उस घटना में बिना किसी प्रकार की हानि के सुरक्षित बचना हमें ईश्वर की रक्षा व कृपा के अतिरिक्त अन्य कुछ लगता नहीं है।

 

वेदों में तो ईश्वर को जीवात्मा का सनातन साथी, मित्र, बन्धु, सखा, रक्षक, माता, पिता, आचार्य आदि कहा गया है। उसकी रक्षा से ही हम हर क्षण जीवित व सुखी होते हैं। वेद मन्त्र कहता है कि ‘यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम’ अर्थात् उस ईश्वर का आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है और उसको न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःखों का हेतु है। अतः हमें उस सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति करनी चाहिये। ईश्वर के विषय में वेद के यह शब्द पूर्ण सत्य हैं। इस पर विश्वास करने व इस भावना के अनुससार जीवन व्यतीत करने से लाभ ही होगा, हानि किेंचित नहीं होगी। यदि इसको न मानकर जीवन व्यतीत करेंगे तो हमें भारी हानि उठानी पड़ सकती है। किसी को भय मुक्त करना भी रक्षा की ही एक विधा है। यजुर्वेद के 36/22 मन्त्र में ‘यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।।’ कहकर सर्वव्यापक ईश्वर स्वयं ही अपने स्तोता वा उपासक को न केवल मनुष्यों व पशुओं से ही अपितु उसे सभी स्थानों पर भयमुक्त करने का विधान कर रहे हैं। इस प्रसंग में एक महत्वपूर्ण बात यह जानने योग्य है कि ईश्वर सदा सर्वदा जीवात्मा के साथ रहता है। वह अनादि काल से जीवात्मा का हर पल और हर क्षण का साथी है और अनन्त काल तक रहेगा। वह सर्वशक्तिमान है, अतः उससे अधिक अच्छी हमारी पूर्ण रक्षा और कोई नहीं कर सकता। ईश्वर जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता, वह सदा से हमारा साथी व मित्र है व सदा रहेगा। यह जानकर हमें अभय व निश्चिन्त होकर उसकी स्तुति व उपासना करनी चाहिये और जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करना चाहिये। इन्हीं शब्दों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

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