जब से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की नियुक्ति हुई है तब से भाजपा के कार्यकर्ताओं में जान आ गई है। पार्टी में सक्रियता भी आई है। पार्टी की सक्रियता से वरिष्ठ नेताओं में भी सक्रियता दिखाई पड़ती है। उसके बाद जैसे-जैसे समय बीत रहा है, यू.पी. कि चिन्ता सब में हैं। प्रदेश से लेकर केन्द्रीय नेतृत्व में भी चिन्ता साफ झलकती है। इस समय भाजपा के लिए समय अनुकूल है। पर वह आपसी अन्तर्द्वन्द एवं खींचतान में फंसी है। अधिकांश नेता ”अपनी डफली अपना राग” अलाप रहे हैं। जिसके कारण पार्टी में जो धार आनी चाहिए वह नहीं आ रही है। वर्तमान सरकार के खिलाफ जिस संघर्ष एवं आन्दोलन की आवश्यकता है वह पार्टी कर पाने में असमर्थ लग रही है। आज भी बहुत से मुद्दे उसके पास हैं, जिनको लेकर वे जनता के बीच जा सकते हैं और लोगों का विश्वास अर्जित कर सकते हैं। किन्तु आपसी कलह व बिखराव के चलते सत्तादल से निपटने में जिस जज्बात एवं साहस की जरूरत है उसकी कमी महसूस की जा रही है। प्रदेश में उमा भारती की वापसी की चर्चा पर प्रदेश के कार्यकर्ताओं में कुछ आशा की किरण अवश्य जगी थी, लेकिन प्रदेश के धुरंधर नेताओं की अपनी प्रसिध्द परांगमुखता एवं निजी स्वार्थवश उमा को प्रपोज करने से रोक रहे हैं। ऐसा करके वे सभी तत्व एक प्रकार से पार्टी का अनहिल ही कर रहे हैं, क्योंकि सपा, बसपा, कांग्रेस इन सभी पार्टियों से निपटने के लिए उमा भारती ही उपयुक्त एवं सक्षम नेत्री हैं। उनकी अदभुत नेतृत्व क्षमता, वाक्पटुता एवं प्रशासनिक क्षमता से सब वाकिफ हैं। भीड़ बटोरने की कूवत भी उसमें है। लेकिन, प्रदेश के नेता उनका उपयोग तो करना चाहते हैं लेकिन भावी मुख्यमंत्री या प्रदेश की बागडोर सौंपने के लिए राजी नहीं हैं।
जब से केन्द्रीय नेतृत्व ने कलराज मिश्र को भावी मुख्यमंत्री घोषित करने का संकेत दिया है, एवं उनके ही नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा की है तब से पार्टी के एक बहुत बडे धड़े के नेताओं एवं यूपी के अधिकांश कार्र्यकत्ताओ को निराशा ही हाथ लगी है, क्योंकि इस समय प्रदेश को नए नेतृत्व की जरूरत है जो सभी को साथ लेकर चलने की सामर्थ्य एवं भावी रणनीति तय करने में सक्षम हो। कलराज मिश्र की व्यक्तिगत छवि तो बहुत अच्छी है लेकिन सांगठनिक स्तर पर पकड़ ढ़ीली है। जिस बसपा के ब्राह्मण कार्ड के मुकाबले उनको प्रपोज किया गया है, उसमें भी वह फिट नहीं बैठते हैं, क्योंकि 2007 विधानसभा चुनाव के समय भी कलराज मिश्र काफी सक्रिय थे और ब्राह्मणों के मध्य कार्य के लिए विशेष रूप से लगे थे, लेकिन तब उनकी सक्रियता का कोई फायदा पार्टी को नहीं मिला। उनके नाम से जब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में मतैक्य है तो कार्र्यकत्ताओं की तो बात ही छोड़िये।
पार्टी का कार्यकर्ता जानता है कि कलराज एवं राजनाथ सिंह के ही चलते जब भाजपा प्रदेश में सत्ता में थी तो पार्टी की बहुत छीछालेदर हुई थी। इन्हीं जैसे नेताओं के चलते ही पार्टी में गुटबाजी को बढ़ावा मिला और आज तक भी कायम है। जिसको समाप्त करने के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रयास करते रहते हैं लेकिन उनको सफलता नहीं मिलती है। भाजपा को अगर प्रदेश में अपनी स्थिति सुधारना है तो किसी नए नेतृत्व की तलाश करनी होगी एवं आपसी कटुता को त्याग कर उसके नेतृत्व में चुनाव लड़ना होगा। एक तरह से प्रदेश भाजपा में अहं इतना हावी हो गया है कि बड़बोले नेताओं के सिर वह बोल रहा है। प्रदेश में सरकार केवल सवणर्ाें के माध्यम से नहीं आ सकती हैं। उसके लिए समाज के हर वर्गों को जोड़ना पड़ता है।
आज प्रदेश वरुण गांधी जैसे नेतृत्व की चाहत रखता है जो समय आने पर ईंट का जवाब पत्थर से दे सकने में सक्षम हो। प्रदेश के कार्यकर्ता नेताओं की कारगुजारियोें से आजिज आ चुके हैं। नया नेतृत्व निश्चित ही सब में उमंग भरता है। लेकिन भाजपा वही पुराना घिसा-पिटा नेतृत्व लाना चाहती है, जिसे कार्र्यकत्ता पसंद नहीं करेंगे।
केन्द्रीय नेतृत्व को भी यूपी की यह चिंता सता रही है कि गुटबाजी में फंसी भाजपा अभी हाल में होने वाले निकाय एवं विधान सभा चुनावों में सत्तारूढ़ बसपा का मुकाबला कैसे कर पायेगी। भाजपा को मुस्लिम प्रेम भी ले डूबेगा, क्योंकि 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की पराजय का प्रमुख कारण मुस्लिम दरियादिली था। क्योंकि जिन सिध्दान्तों को लेकर वे चले थे जिसके बल पर सत्ता में आये थे सत्ता में आने के बाद उन सारे मुद्दों को भूल गये थे और चुनाव के समय इमामों सें फतवे जारी कराये गये थे एवं उनके साथ चुनाव प्रचार किये थे, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा था। अगर वही भूल फिर की गई तो भाजपा रसातल में चली जायेगी।
वर्षों से सूखे और भुखमरी की मार झेलने वाले बुंदेलखंड में एक बार फिर चुनावी दस्तक सुनाई देने लगी है। चुनाव का समय आते ही सभी दलों के नेताओं को बुंदेलखंड लुभाने लगा हैं। उस चेहरे को तलाशाने का नाटक किया जा रहा है जो बुंदेलखंड की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। कांग्रेस को यह चेहरा मायावती का लगता है तो मायावती को कांग्रेस का। कांग्रेस पैसे के बल पर बुंदेलों का दिल जीतना चाहती हैं तो मायावती की नजर में बुंदेलखंड की दुर्दशा के लिए केन्द्र और उत्तर प्रदेश की पूववर्ती सरकार जिम्मेदार हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों का न रुकने वाला दौर जारी है।
30 अप्रैल को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बांदा पहुंचकर माया सरकार से बुंदेलखंड के लिए दिए गए पैकेज का हिसाब मांगा तो कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने बुंदेलखंड में गरीबी, भुखमरी, सूखा, आत्महत्याओं आदि समस्याओं के लिए राज्य सरकार को दोषी करार देने के साथ ही 2012 के विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा दिया। इस मौके पर उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी आदि कई नेता भी मंच पर विराजमान थे। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री के दौरे के बाद कई अन्य दलों के नेता भी यहां अपनी ताकत और नब्ज टटोलने आ सकते हैं। भाजपा और सपा कतई यह नहीं चाहती हैं कि बुंदेलखंड में उनकी ताकत कम दिखे। बसपा के लिए फायदे की बात यह है कि यह (बुंदेलखंड) उसके दो दिग्गज मंत्रियों नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा का इलाका है और राजनैतिक रूप से यहां बसपा अन्य दलों के मुकाबले काफी सशक्त है।
विभिन्न राजनैतिक दल बुंदेलों का विश्वास जीतने की कोशिश जरूर कर रहे हैं लेकिन लगता नहीं है कि उनकी यह कोशिश रंग लाएगी। प्राकृतिक सम्पदा सम्पन्न और सुविधाओं के लिहाज से बेहद पिछड़े बुंदेलखण्ड का अभी तक विकास नहीं हो पाया है तो इसके लिए यहां की जनता केन्द्र और प्रदेश सरकार दोनों को ही दोषी मानती है। विडम्बना के शिकार इस भू-भाग को वाजिब हक देने के पैरोकार लोगों की नजर में यह गहमागहमी सिर्फ चुनावी हलचल भर है और अलग राज्य के रूप में गठन ही इसके विकास का एकमात्र रास्ता है। बुंदेलखण्ड की लड़ाई के लिये उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के समर में कूदने जा रहे बुंदेलखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष राजा बुंदेला नेताओं के दिखावे से काफी दुःखी हैं। उनका तो साफ-साफ कहना है कि चुनावी सुगबुगाहट के चलते राजनीतिक पार्टियों को एक बार फिर बुंदेलखण्ड की याद आ गई है। कांग्रेस ने रैली कर इसकी शुरुआत कर दी है और अब इस होड़ में अन्य पार्टियां भी जुट जाएंगी। एक बार फिर नए-नए वादे किये जाएंगे और आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलेगा। वोट लिये जाएंगे और इससे उठने वाले गुबार के खत्म होने के बाद बुंदेलखण्ड फिर उसी मुफलिसी की हालत में दिखाई देगा, जिसमें वह अर्से से सिसक रहा है। इस क्षेत्र का विकास तभी होगा जब बुंदेलखण्ड को अलग राज्य का दर्जा मिलेगा।
बहरहाल, 30 अप्रैल को बांदा में कांग्रेस की रैली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पार्टी महासचिव राहुल गांधी ने बुंदेलखण्ड क्षेत्र के लिये दिये गए विशेष पैकेज का जिक्र करते इस क्षेत्र के विकास की गति धीमी होने के लिये गैर-कांग्रेसी सरकार और उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार को जिम्मेदार ठहराया तो बुंदेलखण्ड की संस्कृति, इतिहास और कला पर अनेक किताबें लिख चुके साहित्यकार अयोध्या प्रसाद चुप नहीं रह पाए। उन्होंने बुंदेलों की धरती पर खुशहाली के लिये सरकारी योजनाओं के ईमानदारी से क्रियान्वयन पर जोर देतु हुए कहा कि किसी भी सरकार की ओर से दिये गए पैकेज का अगर यहां सही इस्तेमाल किया जाए तो स्थिति जल्द ठीक हो सकती है। उन्होंने कहा कि आज जो राहुल गांधी कह रहे हैं वही बात उनके पिता राजीव गांधी भी कहा करते थे। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी सरकारी धन के एक रुपए में से सिर्फ 10 पैसे ही पात्र लोगों तक पहुंचने का सच स्वीकार कर चुके हैं। बात पैसे की ही नहीं है। यही हाल नेताओं का भी है। वह आते हैं बुंदेलखंडवासियों की समस्याओं को सुनते और बड़े-बड़े वायदे करते हैं। जनता बेचारी भ्रमित हो जाती है। वह यह भूल जाती है कि राजनीति के खेल का यही दस्तूर होता है। जनता बेवकूफ बनने और नेता बनाने के लिए होता है।
बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर की ही कि जाए तो यह साफ लगता है कि अपने सम्बोधन के दौरान प्रधानमंत्री विकास के मुद्दे पर कोई सियासत नहीं करने की बात कह जरूर रहे थे लेकिन बुंदेलखंड पैकेज की स्क्रिप्ट सियासत की स्याही से ही लिखी गई थी। कांग्रेसियों के भाषणों से तो ऐसा ही लग रहा था कि बुंदेलखंड पैकेज राहुल गांधी की कोशिशों से ही मिल पाया है। मंच पर मौजूद सभी नेता इस पैकेज का श्रेय राहुल गांधी को देने की होड़ में लगे थे। वहीं राहुल एंड कम्पनी बुंदेलखंड की दुर्दशा का ठीकरा माया सरकार पर फोड़ती रही। मानों गैर-कांग्रेसी सरकारों से पहले बुंदेलखंड पूरी तरह से खुशहाल था। एक तरफ प्रधानमंत्री और कांग्रेसी पैकेज के नाम पर अपनी पीठ थपथपाने में लगे थे तो दूसरी तरफ विपक्ष सवाल खड़े कर रहा था कि चुनाव के समय ही क्यों पैकेज की याद आई।
एक तरफ नेतागण बुंदेलों को सपने दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ बुंदेलखंड की समस्याओं को करीब से जानने वालों का साफ-साफ कहना था कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुल 24 जिलों में फैले बुंदेलखण्ड के विकास के लिये इन दोनों सूबों की जनता को साथ लेकर एक समन्वय समिति बना कर ही बुंदेलखंड की समस्या का कुछ हल निकाला जा सकता है। बुंदेलखण्ड में मौजूदा राजनीतिक हलचल से क्षेत्र के लोगों को हमेशा की तरह निराशा ही हाथ लगेगी। बुंदेलखण्ड के लिये योजनाएं बनाने वालों में से ज्यादातर लोग यहां की भौगोलिक परिस्थितियों से नावाकिफ हैं, जिससे क्षेत्र के लिये सटीक योजनाएं नहीं बन पातीं। क्षेत्र के विकास के लिये योजनाओं का सोशल ऑडिट होना चाहिये; ताकि सच्चाई सामने आ सके। बुंदेलखण्ड में शिक्षा के प्रसार की दिशा में प्रयास कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता रवीन्द्र कुरेले का कहना है कि जब उत्तराखंड, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ का अलग राज्य के रूप में गठन किया जा सकता है तो बुंदेलखण्ड को पृथक सूबे का दर्जा देने में किसी को क्या तकलीफ है। कुरेले ने कहा कि सरकारों की ओर से एक-दूसरे पर दोषारोपण से बुंदेलखण्ड में विकास की उम्मीदें और कमजोर होंगी। उन्होंने आरोप लगाया कि इस भू-भाग की ऐसी हालत के लिये केन्द्र, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश की सरकारें जिम्मेदार हैं और वे नहीं चाहतीं कि अलग बुंदेलखण्ड राज्य का गठन हो। उन्होंने कहा कि बुंदेलखण्ड के लोगों को पैकेज नहीं बल्कि अपना राज्य चाहिये।
उधर, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व प्रदेश चुनाव अभियान समिति के प्रमुख कलराज मिश्र ने केन्द्र की मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि पैकेज देकर केन्द्र ने कोई एहसान नहीं किया है। विकास के लिए राज्यों को पैकेज देना केन्द्र का दायित्व बनता है। कांग्रेस का एजेंडा विकास नहीं वोट है। सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बांदा दौरे तथा उनके 200 करोड़ के पैकेज की घोषणा को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाला करार देते हुए कहा कि बसपा और कांग्रेस दोनों ही बुंदेलखंड के लोगों का हमदर्द बनने का झूठा दिखावा कर रहे हैं, जनता इनकी सच्चाई जानती है, जो पैसा केन्द्र से आयेगा उसे बुन्देलखंड पर ही खर्च किया जायेगा, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। बसपा सरकार को तो पार्कों-मूर्तियों के निर्माण से ही छुट्टी नहीं मिल रही है। प्रदेश अध्यक्ष ने दोनों ही सरकारों को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि केन्द्र व राज्य सरकार की संवेदनहीनता के कारण ही बुन्देलखंड के किसान परेशान हैं। इस पैकेज से उसे कोई लाभ मिलने वाला नहीं।
पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव एक बड़े राजनैतिक बदलाव की ओर संकेत कर रहे हैं, यह दावा किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथियों का वर्चस्व टूटा तो तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। असम में कांग्रेस अपनी सरकार को बचाने में कामयाब रही वहीं कर्नाटक और आंध्र के उपचुनाव के परिणाम कांग्रेस को चेतावनी दे रहे हैं।
इन परिणामों को लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास, परिवर्तन की बयार, भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनादेश आदि कह कर महिमामंडित किया जा रहा है। असम छोड़ कर सभी राज्यों में होने वाला परिवर्तन प्रथमदृष्टया ऐसा आभास भी देता है। कुछ लोग इसे दिल्ली में अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुई अहिंसक क्रांति की फलश्रुति के रूप में भी प्रस्तुति कर रहे हैं और इसके पूरे देश में दोहराये जाने का दावा कर रहे हैं। अन्य अनेक राजनैतिक और सामाजिक नेता और संगठन, जो बदलाव के निजी अभियान चला रहे हैं, का उत्साह भी इन परिणामों से बढ़ा है।
पश्चिम बंगाल में हुए सत्ता परिवर्तन के संकेत पहले ही दिखने लगे थे लेकिन इतनी जबरदस्त जीत की उम्मीद स्वयं ममता बनर्जी को भी नहीं थी। वामपंथी कुशासन के विरुद्ध ममता एक प्रतीक बन गयी थीं। इस ऐतिहासिक विजय का पूरा श्रेय उनकी अनथक मेहनत और जुझारूपन को है। यह उनकी नितांत व्यक्तिगत जीत है जिसे बंगाल की जनता ने अपना समर्थन देकर पूरा किया।
वस्तुतः यह संघर्ष राष्ट्रीय दल और पूंजीवादी व्यवस्था का हिस्सा होने के नाते कांग्रेस अथवा राष्ट्रवादी विचार के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय जनता पार्टी का राजनैतिक संकल्प होना चाहिये था जिसे ममता ने अपने हौंसले और जिद की दम पर हासिल किया है। परिवर्तन की यह लड़ाई अन्य राज्यों से अलग और उल्लेखनीय है। अन्य राज्यों की तरह यहां न तो मतदाताओं को उपहार बांटे गये थे और न ही बाजार द्वारा गढ़े गये विकास के लुभावने नारों का ही इस्तेमाल किया गया था।
“मां, माटी और मानुष के सम्मान” जैसी कोमल संवेदना में भी परिवर्तन की ऊर्जा छिपी है इसे ममता ने न केवल पहचाना, बल्कि उसे राजनीति से दूर गांव-गली तक पहुंचाया भी। विकास के नाम पर अपनी मुनाफाखोरी को आवश्यक साबित करने वाले बाजार की शक्तियों को तो वे सिंगूर और नंदीग्राम के समय ही आइना दिखा चुकी थीं।
हालांकि राइटर्स बिल्डिंग में प्रवेश करने की आतुरता में ममता ने भी कुछ समझौते किये हैं। आने वाला समय ही बतायेगा कि उन्हें इसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस आतुरता में उन्होंने जहां एक ओर माओवादियों-नक्सलवादियों का सहारा लिया है तो दूसरी ओर पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों, उद्योगपतियों आदि से भी हाथ मिलाया है। बड़ी मात्रा में मुस्लिम मत भी उनके खाते में गये हैं जिनमें बांग्लादेशी घुसपैठियों की भी काफी संख्या है। कल तक अपनेआप को कलाकारों, साहित्यकारों, समाजशास्त्रियों, शिक्षाशास्त्रियों आदि के रूप में प्रस्तुत करने वाले अनेक कॉमरेडों ने भी समय की नजाकत को देखते हुए ममता की विरुदावली गानी शुरू कर दी थी। जश्न खत्म होने पर वे भी अपना इनाम मांगेंगे। इन सबको एक साथ साध पाना, साथ ही मतदाताओं की आकांक्षाओं को पूरा करना, यह सरल काम नहीं है।
जनता जब इतना स्पष्ट जनादेश देती है तो लम्बे समय तक धैर्य रखने को तैयार नहीं होती। उसे अब परिवर्तन के नारे से नहीं बहलाया जा सकता। परिवर्तन होता दिखना भी जरूरी होता है। इसलिये ममता को सच का सामना करने के लिये भी तैयार हो जाना चाहिये।
राज्य का खजाना खाली है और समस्याओं का अंबार लगा है। कम्युनिस्ट कैडर द्वारा उगाही के अर्थशास्त्र और नीतिगत भ्रष्टाचार को वाम गठबंधन द्वारा जिस प्रकार संस्थागत रूप दिया जा चुका है उसका तिलस्म तोड़ना कोई हंसी-खेल नहीं है। अगर ममता इसे जारी रहने देती हैं तो वे अपने मतदाताओं का विश्वास खो देंगी। यदि वे इसे उखाड़ फेंकने की कोशिश करेंगी तो लाखों कम्युनिस्ट कैडर को बेरोजगार कर अपने खिलाफ अराजकता की आंधी को आमंत्रित करेंगी। इसका तीसरा और सबसे खतरनाक किन्तु प्रायः अवश्यंभावी पहलू है उनके अपने ही कार्यकर्ताओं का भारी दवाब।
जब भी ऐसे व्यापक परिवर्तन हुए हैं, देखने में आता है कि सत्ता संभालने वाले दल के कार्यकर्ता, जो लम्बे समय तक अपने नेता के कहने पर संघर्ष करते हैं, लाठी-गोली खाते हैं, अपने कैरियर दांव पर लगाते हैं, इस स्थिति में सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगते हैं। मंत्री, विधायक, सांसद बनाये जाने की सीमा होती है। वह सबको नहीं दी जा सकती। तब मांग उठती है भ्रष्टाचार के उस तंत्र को उखाड़ फेंकने के बजाय उसे बनाये रखने और उसके पायेदारों के रूप में डटे पिछले सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को हटाकर नये सत्ता में आये दल के कार्यकर्ताओं को वहां स्थापित करने की।
यह वह क्षण होता है जब अधिकांश नेतृत्व राजनैतिक मजबूरी के चलते अपने समर्थकों के सामने नतमस्तक होता है और भ्रष्ट व्यवस्था को अभयदान मिल जाता है। यही वह क्षण होता है जब किसी भी परिवर्तन की निरर्थकता की इबारत का पहला अक्षर लिखा जाता है। यही वह क्षण होता है जब समझौते न करने के कारण ऊंचाई और प्रतिष्ठा पाने वाला व्यक्ति समझौता कर अपनी पहचान गंवाता है। इसके आगे समझौते ही उसकी नियति बन जाते हैं। और यदि वह समझौते नहीं करता, तो अपने उन कार्यकर्ताओं की नाराजगी मोल लेनी होती है जो पूरे संघर्ष में कदम-कदम पर उसके साथ खड़े थे।
पश्चिम बंगाल में समस्याएं बेहद विकराल है। पड़ोसी देश से होने वाली घुसपैठ से ममता कैसे निपटेंगी। भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, सामाजिक संघर्ष, नक्सलवाद जैसी चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं। ममता के पास विश्राम का समय नहीं होगा। तुरंत परिणाम पाने की जनाकांक्षा उन्हें लगातार दवाब में रखेगी। लेकिन अपने जीवट के बल पर ममता इस जनाकांक्षा को तृप्त कर पायेंगी, उनके व्यक्तित्व को जानने वाला कोई भी यह विश्वास व्यक्त कर सकता है। यह ममता की सफलता के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश में बन रहे परिवर्तन के वातावरण को बनाये रखने के लिये भी बेहद जरूरी है।
तमिलनाडु और पुड्डुचेरी की राजनीति आमतौर पर एक जैसे रुझान प्रदर्शित करती रही है। द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच सत्ता का लेन-देन भी चलता रहा है। दोनों ही दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। पिछली बार जब तमिलनाडु की जनता ने जयललिता को सत्ता से बेदखल किया था तो उनकी अकूत सम्पत्ति और तुनकमिजाजी के किस्से हफ्तों तक पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियां बनते रहे थे। करुणानिधि के कुनबे ने उनके कीर्तिमान को तोड़ा है।
तमिलनाडु के सत्ता परिवर्तन को किसी भी तरह परिवर्तन की बयार साबित नहीं किया जा सकता। ज्यादा से ज्यादा इसे राज्य की जनता के सामने विकल्पहीनता की खीझ का प्रकटीकरण मान सकते हैं। उनके सामने दो बुराइयों में से एक को चुनने का विकल्प रखा गया था और उन्होंने सामने मौजूद बुराई को हटा कर दूसरी के लिये रास्ता बना दिया। करुणानिधि के सहारे केन्द्र में कांग्रेसनीत गठबंधन चल रहा है। अभी तक के सबसे बड़े टूजी घोटाले में द्रमुक के मंत्री राजा के साथ ही करुणानिधि की बेटी भी शामिल हैं। उन्हें विस्थापित कर सत्ता में आने वाली जयललिता को भी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने में ऐतराज नहीं है। यह सिद्धांतों की नहीं सुविधाओं की राजनीति है।
केरल का चुनाव भी हालात के बदलने का विश्वास नहीं दिलाते। कम्युनिस्ट पार्टी की भीतरी लड़ाई में उसकी कुछ सीटें कम हुई हैं। लेकिन फिर भी कांग्रेस को मिली 38 सीटों के मुकाबले 45 सीटे लेकर माकपा उससे कहीं आगे है। सच तो यह है कि दिल्ली में सांप्रदायिकता को गाली देने वाली कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ती है। अपने दम पर बहुमत के लिये आवश्यक 71 सीटों से कांग्रेस बहुत पीछे है किन्तु 2006 में 7 सीटों के मुकाबले 2011 में 20 सीटें पाकर मुस्लिम लीग ने गठबंधन को सत्ता तक पहुंचा दिया।
असम के चुनावों में तरुण गोगोई की तीसरी बार विजय को कांग्रेस उपलब्धि की तरह प्रस्तुत कर रही है। राज्य की जनसांख्यिकी का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि वहां की राजनीति अब असम के मूल निवासियों के हाथों से प्रायः निकल चुकी है।
अधिकांश विधानसभा क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठिये चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की स्थिति में आ चुके हैं। कांग्रेस ने इन घुसपैठियों को बड़े जतन से पाला है। उन्हें रहने को जमीनें, नागरिकता, पहचान पत्र आदि सुलभ कराये हैं। साथ ही उन्हें यह भी याद दिलाये रखा जाता है कि यदि कोई और सरकार आयी तो उनकी आव-भगत में कमी हो सकती है। हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि कुछ समय पहले एक राष्ट्रीय चैनल पर मध्य आसाम में फहराते पाकिस्तान के झण्डे के वीडियो प्रसारित होने वाद भी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। घुसपैठ पर यदि कोई नियंत्रण नहीं किया गया तो संभव है कि अगले चुनावों में असम विधानसभा से व्यावहारिक रूप से प्रतिपक्ष गायब ही हो जाय।
इन परिस्थितियों में हालिया चुनाव परिणामों को किसी परिवर्तन का संकेत समझ लेना गलतफहमी से ज्यादा नहीं हो सकता । लेकिन इन परिणामों के निहितार्थ का केन्द्र की राजनीति के संदर्भ में विष्लेषण करने पर दो चेतावनियां उभरती हैं। पहली, केन्द्र में सत्ता संभाल रही कांग्रेस ने सारी सीमाएं तोड़ कर मुस्लिम तुष्टीकरण की जिस रणनीति पर काम किया उसके परिणाम अब दिखने लगे हैं। धुर दक्षिण में केरल से लेकर पूर्व में असम तक वह मुस्लिम समर्थन जुटाने और उसके बल पर सरकार बनाने में कामयाब रही है। निश्चित ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को खुश करने के लिये जिस तरह दिग्विजय सिंह ने ओसामा की मौत पर संवेदना प्रकट की है वह बताता है कि कांग्रेस अपनी तुष्टीकरण की नीति के अगले चरण में कहां तक जा सकती है। इसमें यह चेतावनी छिपी है कि अब अन्य राजनैतिक दल भी इस मंत्र को आजमायेंगे और देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र इस तुष्टीकरण की बलि चढ़ेगा।
दूसरी चेतावनी प्रतिपक्ष के सबसे बड़े दल भाजपा के लिये है जो इन चुनावों में अपना पिछला प्रदर्शन भी न दोहरा सकी। निस्संदेह यह उसके लिये आत्ममंथन का अवसर है। देश की धर्मनिरपेक्षता पर कोई आंच न आये यह प्रतिपक्ष की भी जिम्मेदारी है। यदि केन्द्र में सत्तारूढ़ दल इस राष्ट्रीय चरित्र को ही बदल देने पर आमादा है तो प्रतिपक्ष को अपनी भूमिका निभानी ही होगी।
लाखों की संख्या में आम जनता और आगे -आगे चलती ममता बनर्जी। बंगाल की असल नायिका। जी नहीं ये कोई फिल्मी दृश्य नहीं है। जैसा कि आपने इधर की कई फिल्मों में देखा है। ये असल दृश्य है। ये ममता के बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में शपथग्रहण के बाद बंगाल के प्रसिद्ध राइटर्स बिल्डिंग तक पैदल चल कर जाने का दृश्य है।
ये जनज्वार जनता की इच्छाओं और दबी हुई आत्मशक्ति का परिचायक है। ममता बनर्जी ने राजभवन से महाकरण तक की यात्रा पैदल तय कर इसी भाव को अभिव्यक्ति दी है। साथ ही ममता क्या घोषणाएं करेंगी मुख्यमंत्री होने के बाद ऐसी किसी ख़बर के आने के पहले ये ख़बर आई है कि ममता मुख्यमंत्री होने के बाद सबसे पहले एक बलात्कृत स्त्री से मिलेंगी। आप इसे लोकप्रिय स्टंट कह सकते हैं पर ये जन भावों की अभिव्यक्ति है। एक महिला मुख्यमंत्री का सबसे पहले एक पीड़ित महिला से मिलने का कार्यक्रम स्त्री संवेदना और सह-अनुभूति का सुंदर नमूना है। ये उम्मीद हम ममता से ही कर सकते थे।
ममता की उपलब्धियां जन संघर्ष के साथ-साथ स्त्री संघर्ष का भी प्रेरणादायी उदाहरण है। ममता को किसी की विरासत नहीं मिली। किसी का वरद्हस्त भी नहीं मिला। राजनीतिक पायदान पर आगे बढ़ने के लिए ये अनिवार्य अर्हता है पर ममता ने इन सबको झुठलाते हुए न केवल अपने लक्ष्य को हासिल किया है बल्कि जन-जन के भावों को अभिव्यक्ति दी है। यहां तक कि इस बार के सहयोगी गठबंधन कांग्रेस की भी यह स्थिति थी कि उसने ममता के साथ कई जगह चुनावी मंच साझा नहीं किया। पर ममता सारे प्रतिरोधों को पार कर गई।
ममता ने अपने अब तक के रवैय्ये के अनुसार ही पैदल चलकर महाकरण जाना तय किया। आखिरी समय तक पत्रकार और मीडियाकर्मी क़यास लगाते रहे कि वो पैदल जाएंगी या सरकारी कन्वॉय में गाड़ी से। बंगाल के इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना है। असंख्य लोग उन्हें देखने के लिए धक्का-मुक्की कर रहे हैं और मीडिया कर्मी ये नहीं तय कर पा रहे कि वो वी आई पी लिफ्ट द्वारा अपने दफ्तर जाएंगी या सीढ़ियों से। कैमरे को पता नहीं ऑब्जेक्ट कहां है। सीधा प्रसारण दिखा रहे चैनलों को भी ये नहीं पता था कि वे गाड़ी से नहीं, पैदल जाएंगी। अतः ‘सीधा प्रसारण’ भी सीधे नहीं दिखा पाया कि ममता किस तरह चलकर जा रही हैं। क्योंकि कैमरे उस अनुसार नियोजित नहीं थे। यह अनियोजन ही जनता की और ममता की ताक़त है। कई जगह बैरिकेड टूट गए। राज भवन जहां हर समय 144 धारा रहती है वहां आज साधारण जनों की भीड़ देखी जा रही है।
ये वही ममता हैं जिनको स्त्री नेत्री होने के कारण कई तरह से अपमानित किया गया। कई तरह के अपशब्द और दुष्प्रचार किए गए। राजनीति; ताक़त, वर्चस्व और जोर आजमाइश की जगह है। उसमें एक स्त्री का इस मुकाम पर पहुंचना बहुत बड़ी बात है। ममता का प्रतिपक्ष साधारण पार्टी नहीं है। एक संगठित, नियंत्रित और सुचालित पार्टी है। जिसका तीन दशक से ज्यादा बंगाल पर शासन रहा है। हारने के बाद भी जिसके पास 41 प्रतिशत वोट है। ऐसे में ममता का न तो रास्ता आसान था और न ही चुनौतियां आसान हैं। पर इसमें कोई संदेह नहीं ममता की उपलब्धि बहुत बड़ी है! बंगाल जो सबसे जागरुक राज्य होने का दावा करता है, को पहली महिला मुख्यमंत्री चुनने में 54 वर्ष लग गए! कह सकते हैं पार्टियों ने विकल्प नहीं दिया था । पर जनता को जैसे ही विकल्प मिला जनता ने अपनी राय जाहिर कर दी। ममता ने प्रतिरोध का ही केवल विकल्प नहीं तैयार किया बल्कि जेंडर का भी विकल्प तैयार किया है। राजनीति की दुनिया में स्त्री मुहावरों और प्रतिरोध की शक़्लें तभी तैयार हो सकती हैं जब महिला नेत्रियां अपने महिला होने की जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी याद रखें। ममता की कैबिनेट बैठक की बाद की घोषणाओं की अभी अपेक्षा है। नेत्री के साथ-साथ घोषणाओं और कार्यों को भी खराद पर चढ़ना है। सलाम ममता! सलाम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री!
अर्थात-‘जिस राजा के सचिव, वैद्य और गुरू राजा के भयवश या उसे खुश रखने के लिए उसके सम्मुख उसके मन की और चिकनी-चुपड़ी बातें बोलते हों, उस राजा के राज्य, शरीर और धर्म का सर्वनाश हो जाता है।’ (रामचरितमानस)
ठीक इसी प्रकार, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी राहुल गांधी के एक ऐसे सचिव प्रतीत हो रहे हैं; जो केवल अपने नेता को प्रसन्न रखने के लिए ही बोलता है। दिग्विजय जैसे अपने सचिव सदृश व्यक्ति के बचनों में राहुल को सत्य दिखता है। यदि ऐसा नहीं होता तो राहुल दिग्विजय के तर्कों के आधार पर ग्रेटर नोएडा के भट्टा व पारसौल गांव के संदर्भ में 74 लोगों को मारे जाने का दावा क्यों करते ? भट्टा व पारसौल गांव में जो कुछ भी दिग्विजय ने पत्रकारों से कहा था, वही बातें राहुल ने प्रधानमंत्री के समक्ष दुहरायी।
दरअसल, इस मामले को लेकर राहुल सोमवार को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मिलने पहुंचे। इस दौरान उन्होंने दिग्विजय की बातों को ही दुहराया। उन्होंने डॉ. सिंह से कहा कि भट्टा व पारसौल में कम से कम 74 शवों की राख बिखरी पड़ी है। उन्होंने दावा किया कि इसके बारे में गांव के सभी लोगों को जानकारी है। राहुल ने पुलिस कार्रवाई में कथित रूप से जले हुए शव और किसानों एवं उनके परिवार के लोगों के खिलाफ हिंसा की तस्वीरें भी दिखाई थी। उन्होंने कई स्थानीय महिलाओं के साथ बलात्कार होने की बात भी दुहरायी और यह भी कहा था कि स्थानीय लोगों की निर्ममता से पिटाई की गयी है।
लेकिन राहुल के इन दावों की हवा निकलती दिख रही है। दोनों गांवों में से एक भी व्यक्ति राहुल के दावों की पुष्टि करने को तैयार नहीं है। भट्टा व पारसौल गांव के लोगों का कहना है कि उन्होंने महिलाओं से बलात्कार संबंधी खबरें सुनी है लेकिन वे इसका दावा नहीं कर सकते। इस संदर्भ में ग्रामीण सिर्फ इतना ही बता रहे हैं कि पुलिस ने उनकी पिटाई की थी।
विदित हो कि 11 मई को राहुल गांधी प्रशासन को धता बताते हुए बाइक पर सवार होकर भट्टा व पारसौल पहुंचे थे। इस दौरान काफी राजनीतिक ड्रामा हुआ था। उनका साथ देने दिग्विजय सिंह भी उपस्थित थे। कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी भी हुई थी। वहां से लौटने के बाद सोमवार को राहुल ने 8 स्थानीय लोगों के साथ प्रधानमंत्री डॉ. सिंह से मुलाकात की। इन 8 स्थानीय लोगों में वीरेन्द्री देवी भी शामिल थी। वीरेन्द्री का कहना है कि उसे ऐसी किसी महिला के बारे में जानकारी नहीं है जिसके साथ दुष्कर्म हुआ हो। वीरेन्द्री ने बताया कि पुलिस ने कुछ महिलाओं की पिटाई जरूर की थी। पुलिस ने उसकी बेटी खुशबू की भी पिटाई की थी। वीरेन्द्री ने बताया कि उसने प्रधानमंत्री को यह नहीं बताया था कि भट्टा व पारसौल गांव से मिली राख में हडि्डयां मिली थी। वीरेन्द्री ने यह भी कहा कि वह प्रधानमंत्री के साथ अंग्रेजी में हो रही बातचीत को समझ नहीं पाई। आश्चर्य की बात यह है कि राहुल के साथ प्रधानमंत्री से मिलने वाले 8 किसानों में से 7 भूमिगत हो गये हैं।
राहुल के इन दावों के बाद गौतमबुद्ध नगर जिला प्रशासन भी हरकत में आ गया और भट्टा व परसौल गांवों से मंगलवार को राख के कुछ सैंपल एकत्रित कर जांच के लिए आगरा भेजे गये। मेरठ के कमिश्नर भुवनेश्वर कुमार ने बताया कि गांव के पांच स्थानों से राख का सैंपल केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला इसलिए भेजा गया है; ताकि उसमें विस्फोटकों की जांच हो सके। हालांकि, उन्होंने इस जांच के पहले ही कह दिया कि राख में मानव कंकाल मिलने से संबंधित आरोप बेबुनियाद हैं। हालांकि सत्यता क्या है, जांच रिपोर्ट आने के बाद स्वतः स्पष्ट हो जाएगा। मेरठ के पुलिस महानिरीक्षक ने कहा कि गांव का कोई भी सदस्य गायब नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि 23 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, 17 घायल हैं और दो की मौत हो गई है। इसके अलावा सभी लोग गांव में ही हैं।
वहीं, कांग्रेस राहुल के समर्थन में खड़ी हो गई है। पार्टी का कहना है कि किसानों पर पुलिस फायरिंग मामले की न्यायिक जांच होनी चाहिए। किसानों को जब तक न्याय नहीं मिलेगा, कांग्रेस अपना आंदोलन बंद नहीं करेगी। विदित हो कि ग्रेटर नोएडा के किसान अपनी जमीनों की मुआवजा राशि बढ़ाने की मांग को लेकर पिछले करीब 4 महीने से गांव में धरने पर बैठे थे। धरनारत किसानों ने रोडवेज के कुछ कर्मचारियों को बंधक बना लिया था। प्रशासन बंधकों को मुक्त कराने के लिए 7 मई को भट्टा पारसौल गांव पहुंचा था, इसी दौरान किसानों व सुरक्षा बलों के बीच हिंसक झड़प हुई थी। इसमें पीएसी के 2 जवानों सहित चार लोगों की मौत हो गयी थी।
अब प्रश्न उठता है कि “कांग्रेस का भविष्य” और देश के भावी प्रधानमंत्री कहे जाने वाले राहुल गांधी क्या अपनी पार्टी के विनाश तक दिग्विजय जैसे लोगों के कर्णप्रिय लगने वाले वचनों को सुनते रहेंगे; या फिर कुछ अपनी भी बुद्धि लगायेंगे। क्योंकि निराधार और “तोतारटंत” बातें व्यक्ति की छवि तो बिगाड़ती ही हैं, विनाश की ओर भी उन्मुख करती हैं।
निस्संदेह, इस महीने दुनिया को हिलाकर रख देने वाली घटना एबटाबाद के ठिकाने से ओसामा बिन लादेन की बेदखली वाली रही, जहां वह पिछले कुछ समय से रह रहा था। करण थापर आक्रमक अंदाज में टीवी इंटरव्यू करने वाले एंकर के रुप में जाने जाते हैं। सीएनएन-आईबीएन पर उनका साप्ताहिक कार्यक्रम ‘डेविल्स एडवोकेट‘ प्रसारित होता है। उनका पिछला इंटरव्यू जनरल मुशर्रफ के साथ था जिसमें उन्होंने जनरल से यह उगलवा लिया कि यदि वे वर्तमान में पाकिस्तान के शासक होते तो जो कुछ हुआ है उसके लिए वे माफी मांग लेते। लेकिन अपने स्वभाव के मुताबिक थापर बार-बार कुरदने पर भी मुशर्रफ से इससे तनिक ज्यादा यह स्वीकार नहीं करा पाए कि यह घटना पाकिस्तान के लिए गुप्तचर असफलता के चलते शर्मिन्दगी वाली है।
यद्यपि शेष दुनिया के लिए कुछ तथ्य साफ दृष्टव्य हैं:
तथ्य-1
ओसमा बिन लादेन इस स्थान पर पाक सेना प्रमुख कयानी और आइ.एस.आई. प्रमुख शुजा पाशा की जानकारी और स्वीकृति के बिना नहीं छुप सकता था। और यदि बिन लादेन सन 2005 से इस भवन में रह रहा था तो इसका निर्णय निश्चित रुप से जनरल मुशर्रफ द्वारा लिया गया होगा।
तथ्य-2
यह धारणा भी है कि जिन लोगों ने बिन लादेन को एबटाबाद कैंटोंमेंट शहर में रखने का निर्णय किया उन्होंने वांछित आतंकवादी की स्वास्थ्य सम्बंधी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा होगा। सैन्य अस्पताल का डाक्टर किसी अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञ की तुलना में एक ऐसे मरीज के लिए ज्यादा गारंटी वाला सिध्द हो सकता है जो मरीज के ईलाज के साथ-साथ उसकी पहचान को भी गुप्त रखे।
तथ्य-3
अमेरिका ने सार्वजनिक रुप से कहा है कि उन्होंने 40 मिनट के इस ऑपरेशन के बारे में पाकिस्तान को तब ही सूचित किया जब वे बिन लादेन के शव और उसके ठिकाने से जो ले जाना जरुरी था, ले गए थे। सीआईए के मुखिया लियोन पनेट्टा ने ‘टाइम‘ पत्रिका को बताया है कि पाकिस्तान को गुप्तचर जानकारी इसलिए नहीं बताई गई कि हमें डर था कि पाकिस्तानी इसके बारे में ओसामा बिन लादेन को बता देंगे।
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति से थापर के लम्बे इंटरव्यू के कुछ अंश इस प्रकार हैं:
करण थापर: मैं इस तरह से पूछना चाहता हूं। आज, जैसाकि आप भी जानते हैं कि पाकिस्तान में नाराजगी और गुस्सा है कि इसकी हवाई सीमा का उल्लंघन किया गया, इसकी संप्रभुता लगभग दो घंटे के लिए अतिक्रमण होती रही, अमेरिकी सैनिक एक घर के आंगन में उतरे और ओसमा बिन लादेन को मारा तथा बगैर किसी की जानकारी में आए बगैर किसी रुकावट के चले गए। अनेक पाकिस्तानियों के लिए इससे पाकिस्तान की रक्षा तैयारियों और इसकी अपनी सीमाओं की रक्षा करने की क्षमता को लेकर चिंतनीय और गंभीर सवाल उठते हैं। एक पूर्व सेनाध्यक्ष होने के नाते आज आप इन चिंताओं के बारे में क्या कहेंगे?
परवेज मुशर्रफ: मुझे यह स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं है कि सभी गुप्तचर राडार का हमारा ध्यान आपकी तरफ केंद्रित है और इस तरफ क्योंकि पहाड़ों तथा विषम भू-भाग, दुर्गम भू-भाग के चलते टोही कवरेज प्रभावी नहीं है।
करण थापर: आप जो उत्तर दे रहे हैं उससे यह अर्थ निकलता है कि पाकिस्तानी सेना, वायु सेना और इसकी तैयारियों की पोल खुल गई ?
परवेज मुशर्रफ: क्या आपको मुंह पर तमाचा, पोल खुलना जैसे इन शब्दों का प्रयोग करते समय आनन्द नहीं आ रहा? ठीक है, आज यह शर्मिन्दगी वाली स्थिति है।
करण थापर: आप खुले तौर पर स्वीकार रहे हैं कि यह शर्मिन्दगी है। अनेक लोग कह रहे हैं कि यह शर्मिन्दगी से ज्यादा अपमानजनक है क्योंकि आखिरकार पाकिस्तान सिर्फ सेना वाला देश नहीं हैं अपितु एक परमाणु राष्ट्र है। क्या यह अपमानजनक नहीं है?
परवेज मुशर्रफ: आप क्यों इन विशेषणों में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हो? चलिए इसे भूल जाएं, यह शर्मिन्दगी वाली स्थिति है।
करण थापर: जनरल मुशर्रफ मुझे बताएं कि पाकिस्तान में नाराजगी और उपद्रव के लिए जिम्मेदार लोगों को क्या हटना नहीं चाहिए?
परवेज मुशर्रफ: हां, मुझे लगता है कि उनके जाने की जरुरत है और यह पता लगाकर कि कौन इसके जिम्मेदार हैं, को दण्डित किया जाना चाहिए।
करण थापर: जनरल पाशा के बारे में क्या है, पाकिस्तान में अटकलें लग रहीं है कि वह अपना पद छोड़ने पर विचार कर रहे हैं, सेना ने अधिकारिक रुप से घोषित किया है कि ऐसा कुछ मामला नहीं है क्या आपको लगता है कि आईएसआई का प्रमुख होने के नाते उन्हें नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर इस्तीफा दे देना चाहिए?
परवेज मुशर्रफ: वह सर्वाधिक योग्य अफसर हैं और मुझे नहीं लगता कि उन्हें इस्तीफा देना चाहिए।
करण थापर: जनरल कयानी के बारे में क्या है ? वे सेनाध्यक्ष हैं और यदि पाकिस्तान की रक्षा तैयारियां तथा सीमाओं को इतना खुला अतिक्रमण हुआ है तो क्या जनरल कयानी को कुछ जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए ?
परवेज मुशर्रफ: तटस्थ कमाण्डर के रुप में, मैं कहता हूं कि जिम्मेदारी तो ऊपर है, यदि हम ऊपर की ओर देखें तो यह ऊपर से नीचे आती है। इसे जांच के लिए छोड़ दीजिए और कार्रवाई बाद में की जाएगी।
करण थापर: एक तरफ तो आप कह रहे हैं कि जिम्मेदार लोग हटने चाहिएं लेकिन आप उनमें से कईयों को छोड़ रहे हैं, जैसे जनरल पाशा और कयानी के त्यागपत्र की संभावनाओं को। क्या आपको लगता है कि इन दोनों व्यक्तियों को देश से माफी मांगनी चाहिए।
परवेज मुशर्रफ: यह फैसला उनको करने दीजिए।
करण थापर: अब आपने बहुत सधा और नपा हुआ उत्तार दिया है कि यह फैसला उन पर छोड़ दीजिए। यदि आप उनकी स्थिति में होते तो क्या आप माफी मांगते ?
परवेज मुशर्रफ: मैं शायद गुप्तचर एजेंसियों की तरफ से माफी मांगता क्योंकि यह एक बड़ी गलती है,और एक प्रकार से यह बड़ी शर्मिन्दगी है। हो सकता है, हां और तब राष्ट्र को आश्वस्त करता कि हम जांच करेंगे तथा यह पता लगाएंगे कि गलती कैसे हुई? ”
मेरा मानना है कि जनरल को यह अहसास होना चाहिए कि इस प्रकरण में वाशिंगटन निश्चिंत था कि यह गलती नहीं है अपितु वह इसे एक सुनियोजित दोगलेपन और विश्वासघात का कदम मानता है।
इसकी जड़ में, यह गुप्तचर असफलता नहीं है। जिस शर्मिंदगी की स्थिति में पाकिस्तान ने अपने को पहुंचाया है उसके मूल में दो कारण हैं:
पहला, पाकिस्तान द्वारा किसी भी तरह से कश्मीर को हथियाने का जुनून। और यह भी कि वह इसे पाने में 1947 में कबाईलियों के दु:स्साहसी अभियान या उसके पश्चात भारत के विरुध्द छेड़े गये तीन युध्द; और यहां तक कि उसके पश्चात् तीन आतंकवादी संगठनों के माध्यम से ‘प्रच्छन्न युध्द‘ (प्रोक्सी वार) जारी रखने के निर्णय, जिनका निशाना भारत के विरुध्द है – के बावजूद वह सफल नहीं हो पाया ।
इसमें आश्चर्य नहीं कि, एनडीए के शासन के दौरान भारत में अमेरिका राजदूत राबर्ट ब्लैकविल ने एनडीटीवी को बताया कि पाकिस्तान और अमेरिका के बीच विश्वास टूट चुका है। उन्हें इस पर यकीन करना मुश्किल है कि ओसामा की उपस्थित के बारें में पाकिस्तान अनजान था।
वस्तुत: 1 मई, 2011 के बाद से पाकिस्तान की परिस्थितियां बिलकुल अवांछनीय है। अमेरिकी उन पर भरोसा नहीं कर सकते। और न ही अन्य राष्ट्र जो आतंकवाद के विरुध्द लड़ रहे वैश्विक गठबंधन के अंग है। विडम्बना है कि अलकायदा और उसके साथी तक भी इस पर असमंजस में होंगे कि पाकिस्तान पर कितना भरोसा किया जाए।
9 मई को ब्रिटेन के अग्रणी समाचारपत्र ‘गार्जियन‘ में एक चौंका देने वाली रिपोर्ट प्रकाशित हुई है कि सन् 2001 में ही जब बिन लादेन अमेरिका के द्रोण हमले से किसी प्रकार बचकर अफगानिस्तान की टोरा बोरा पहाड़ियों में छुप गया तब राष्ट्रपति बुश और पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ में यह गुप्त समझौता हुआ था कि यदि अमेरिकी किसी भी समय लादेन को को ढूंढ निकालेंगे, और वह ठिकाना संयोग से पाकिस्तान हुआ तो अमेरिकी आकर उसका ले जाएंगें।
समझौते के मुताबिक पाकिस्तान इस पर शोर तो मचा सकेगा परन्तु उन्हें रोकेगा नहीं। ठीक यही हुआ है 11 मई को अमेरिकी नेवी सील्स द्वारा किए गए ऑपरेशन में !
सरकार ने एक बार फिर पेट्रोल की कीमत बढ़ाकर दुनिया के देशों के सामने अपने इंडिया की नाक ऊंची कर दी। जब भी कभी सरकार को लगता है कि देश की नाक नीची हो रही है वह पेट्रोल की कीमत बढ़ाकर उसे ऊंचा कर देती है। अपने देश की जनता भी सरकार के इस देशभक्तिपूर्ण कृत्य से भली-भांति परिचित है। देश की नाक ऊंची करने के इस धर्मनिरपेक्ष ढंग को वह खूब पसंद करती है। उसके लिए ये सरकारी हेप्पी मोमेंट्स होते हैं। इसलिए पेट्रोल की कीमतें बढ़ने पर कहीं कोई हल्ला-गुल्ला नहीं होता। जनता जानती है कि ले-देकर सरकार देशहित में एक अदद यही तो काम करती है। जो विपक्ष में बैठे हैं उनका मन भी ललचाता रहता है ये सोचकर कि कब कुर्सी मिले और कब वे पेट्रोल की कीमत बढ़ाकर देशहित का पुण्य कमाएं। हर सरकार की एक ही तमन्ना होती है। देश सेवा करने की। सो भी पेट्रोल की कीमत बढ़ाकर। जो सरकार जितनी धार्मिक होती है,वह उसी अनुपात में पेट्रोल की कीमत बढ़ाती है। कभी सरकार का जो वार्षिक धर्म हुआ करता था अब वह धर्म मासिक हो गया है। इसीलिए अब सरकार अपने धर्म का प्रचार भी नहीं करती है। चुपके से औसतन हर महीने ही वह पेट्रोल की कीमत बढ़ा देती है। अब देखिए ना कि सरकार अपनी योजनाओं के प्रचार के लिए कितने-कितने करोड़ों रुपये खर्च करती है। सिर्फ यह बताने और जताने के लिए कि उसने जनता की भलाई के लिए क्या-क्या काम किया। केवल पेट्रोल की कीमत बढ़ाने का उसका धार्मिक काम ऐसा है कि इसके प्रचार में उसे फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं करनी पड़ती और जनता तक उसका सुकृत्य फूल की खुशबू की तरह अपने आप पहुंच जाता है। पेट्रोल की कीमत बढ़ाने के कारनामे की खुशबू इतनी मुकद्दस और पाकीजा है कि श्रद्धा से पूरे मुल्क की जनता का सर सरकार के आगे सरकारी हैंडपंप के हैंडिल की तरह अपने आप झुक जाता है। पहले जब हमारे देश के लोग शिक्षित कम थे तो वे पेट्रोल की कीमत बढ़ाने का विरोध करते थे। और धरने-प्रदर्शन पर आमादा हो जाते थे। अब हमारा लोकतंत्र मेच्योर हो गया है। जनता वैश्विक संस्कृति में सराबोर हो चुकी है। वह जान गई है कि पेट्रोल की कीमत बढ़ाने का मतलब है देश का स्टेंडर्ड बढाना। अब हालात ये हैं कि अगर कभी खुदा-ना-खास्ता सरकार पेट्रोल की कीमत बढ़ाने में कहीं चूक गई तो जनता ही बेकाबू हो जाएगी। वह सरकार को कोसेगी कि कितनी निकम्मी सरकार है कि पेट्रोल की कीमत बढ़ाने जैसा महत्वपूर्ण काम तक नहीं कर सकती। लोग पेट्रोल छिड़ककर आत्मदाह करने लगेंगे। पेट्रोल के भावुक सहयोग से वे खुशी-खुशी बस्तियां जलाने लगेंगे। चूंकि गुस्सा सरकार से है इसलिए प्राइवेट वाहनों को छूए बिना वे सरकारी वाहनों की होली ही जलाएंगे। सरकार जानती है कि पेट्रोल के दाम न बढ़ाने पर देश में बगावत हो जाती है। या करवा दी जाती है। सरकार को शक है कि इराक में और इजिप्त मे शायद बगावत की जड़ पेट्रोल ही हो। वह अपने शाइनिंग इंडिया को तबाह नहीं करना चाहती। इसलिए देशहित में पेट्रोल के दाम मौका देखते ही बढ़ा देती है। और इतने बढ़ा देती है कि चार लीटर पेट्रोल कैसे खरीदा जाए इसी सोच में आदमी दार्शनिक बन जाता है। और कार या स्कूटर चलाते समय भी वह बस यही सोचता रहता कि पेट्रोल का जुगाड़ कैसे हो। इस गंभीर चिंतन में वह उस चौराहे को ही भूल जाता है जहां उसे मुड़ना होता है। सड़क पर लगे मीलों लंबे डिवाइडर को भुनभुनाते हुए पार करके जब वो किसी तरह यू टर्न के मोड़ पर पहुंचता है तो वहां डाइवर्जन के बोर्ड के साए में तांडव करता ट्रेफिकिया यातायात नियम की अनुशासनी तलवार से ड्राइवर का सर कलम कर बकरा ईद का लुत्फ उठाता है। समय और पेट्रोल की बरबादी से उसका जिया धकधक करने लगता है। और वह अपना आपा खोकर बकबक करने लगता है। ट्रेफिक सिपाही को उस समय ऐसा ही कुत्सित आनंद मिलता है जैसा कि जानलेवा बजट पेश करते समय वित्तमंत्री को मिलता है। नागरिक बिलबिलाता है। वित्त का चित्त उसका पित्त बढ़ाता है। गुस्से मे उसका पेट रोल करने लगता है। पेटरोल करने की इसी दुर्घटना को बाजार में पेट्रोल कहा जाता है। जहां उपभोक्ता अपना पेट काटकर टंकी में पेट्रोल भरवाता है। जी हां, पेट्रोल की कीमत बढ़ाते ही सरकार का सम्मान दुनिया की नजर में पचास ग्राम और बढ़ जाता है। हम इस अखंड और प्रचंड इंतजार में है कि संवेदनशील सरकार पेट्रोल की कीमत अब फिर कब बढ़ाती है।
सत्ता के संचालन की लोकतांत्रिक प्रणाली; इस सृष्टि की सर्वोच्च शासन व्यवस्था मानी गई है। क्योंकि अब तक शासन के संचालन की जितनी भी पद्धतियां ज्ञात हैं उनमें लोकतांत्रिक प्रणाली सर्वाधिक मानवीय होने के कारण सर्वोत्कृष्ट है। यह एक ऐसा तंत्र है जिसमें इकाई राज्य के सभी जन की सहभागिता अपेक्षित है। इस तंत्र में न तो कोई आम है और न ही कोई खास, बल्कि लोकतांत्रिक सत्ता की निगाह में सभी समान हैं। लोकतांत्रिक देश यानी सभी जन की सहभागिता से निर्मित तंत्र।
भारत इस सर्वोत्कृष्ट शासन प्रणाली का जन्मदाता है। कुछ लोग ब्रिटेन को भी मानते हैं; पर यह सत्य नहीं है, भले ही भारत को आजादी मिलने तक देश के सभी रियासतों में राजतंत्र रहा हो और इस राजतांत्रिक पद्धति से सत्ता संचालन का सिलसिला अयोध्या के राजा दशरथ के शासनकाल के बहुत पहले से चलता रहा हो, फिर भी जनता के प्रति सत्ता की जवाबदेही के परिप्रेक्ष्य में भारत ही लोकतांत्रिक प्रणाली का जन्मदाता कहा जाएगा।
दशरथ पुत्र मर्यादापुरुषोत्तम राम का शासन राजतांत्रिक होते हुए भी लोकतांत्रिक था। क्योंकि उनके राज्य की सत्ता जनता के प्रति पूर्ण-रूपेण जवाबदेह थी। उनकी पत्नी सीता पर अयोध्या के मात्र एक व्यक्ति ने आलोचना की थी, राजा राम ने इसको गंभीरता से लिया और राजधर्म का पालन करते हुए सीता को जंगल में भेज दिया। यहां सवाल यह नहीं है कि राम ने सीता के प्रति अपने पति धर्म का पालन किया या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि आलोचना करने वाले की संख्या मात्र एक थी, फिर भी कार्रवाई कठोर हुई। उनके जैसा संवेदनशील राजतंत्र अब तक देखने या सुनने को नहीं मिला है। वह एक ऐसा तंत्र था जो लोकतंत्र से भी बढ़कर था। हांलाकि, राज्य के राजा का चयन सत्ता उत्तराधिकार की अग्रजाधिकार विधि के तहत होता था। यानी राजा का ज्येष्ठ पुत्र सत्ता का उत्तराधिकारी। उस समय मतदान प्रक्रिया की कहीं कोई चर्चा भी नहीं थी।
अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था कि यदि किसी इकाई राज्य की सत्ता, उस इकाई राज्य की जनता द्वारा चुनी गई हो, जनता के हित में कार्य करती हो और जनता के लिए समर्पित हो; तो ऐसी सरकार को लोकतांत्रिक कह सकते हैं। लिंकन के कहने का अर्थ यह भी है कि सरकार के निर्माण या चयन में लोकतांत्रिक इकाई के सभी लोगों की समान सहभागिता होनी चाहिए।
कहने को तो अमेरिका लोकतंत्र का सबसे बड़ा पैरोकार है लेकिन वह भी वैश्विक संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) के महत्पूर्ण घटक सुरक्षा परिषद में लोकतंत्र की पूर्ण स्थापना के लिए कुछ भी नहीं कर रहा है। यूएनओ को वैश्विक सत्ता कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालांकि भारत सहित दुनिया के मात्र 192 देशों को ही यूएनओ की सदस्यता प्राप्त है, फिर भी इसकी सत्ता को वैश्विक सत्ता कहना ज्यादा समीचीन होगा।
वर्तमान में सुरक्षा परिषद के सदस्यों की संख्या 15 है। इनमें से पांच- अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और ब्रिटेन; स्थाई सदस्य हैं, जबकि 10 देशों की सदस्यता अस्थाई है। इन अस्थाई सदस्यों में भारत भी शामिल है। अस्थाई सदस्यों का कार्यकाल दो वर्ष का होता है। स्थाई सदस्यों को वीटो का अधिकार प्राप्त है। यह वीटो अधिकार ही सुरक्षा परिषद में लोकतंत्र की स्थापना की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। क्या आप कुछ सदस्यों को कुछ विशेष अधिकार देकर लोकतांत्रिक सत्ता स्थापित कर सकते हैं, यह कदापि संभव नहीं है।
आखिर सुरक्षा परिषद में लोकतंत्र की पूर्ण-रूपेण स्थापना के लिए अमेरिका कोई पहल क्यों नहीं करता? क्या वह सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य देशों को मिले वीटो के अधिकार को बनाए रखना चाहता है और शेष अस्थाई सदस्य देशों को अस्थाई के नाम पर इस अधिकार से दूर रखना चाहता है? क्या यही अमेरिका की लोकतंत्रिक सोच है। हालांकि यह पहल चीन से करना बेमानी है क्योंकि उसकी सोच गैर-लोकतांत्रिक है। अमेरिका को यह महत्वपूर्ण पहल इसलिए भी करना चाहिए क्योंकि वह सोवियत संघ के विघटन के बाद एक-ध्रुवीय विश्व का इकलौता नेता है।
भारत भी सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए अभियान चलाए हुए है। इससे उसको क्या हासिल होगा। कुछ विशेष सहूलियत मिल सकती है। महासभा के सदस्य देशों या विश्व के अन्य देशों के लिए वैश्विक नीति-निर्माण की दिशा में मत देने का अधिकार मिल सकता है, लेकिन इससे क्या वह संयुक्त राष्ट्र महासभा के 192 सदस्यों में से पांच देशों- अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और ब्रिटेन, को छोड़कर शेष 187 देशों का स्वाभाविक नेता बना रह सकता है। सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के बजाए भारत को परिषद के मानक को पूरा करने वाले सभी सदस्य देशों के लिए समान अधिकार की सदस्यता के निमित्त अभियान चलाना चाहिए। भारत का यह प्रयास यूएनओ की सुरक्षा परिषद सहित विश्व के सभी देशों में लोकतंत्र की जड़ें गहरी करने की दिशा में अहम सिद्ध होगी। (इस आलेख में मर्यादापुरूषोत्तम राम की सत्ता का वर्णन केवल लोकतांत्रिक इकाई की जनता के प्रति संवेदनशीलता को प्रकट करने के लिए दिया गया है।)
एक मई को पूर्वी मानक समयानुसार रात्रि 11.35 बजे अमेरिकी के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नाटकीय ढंग से टेलीविज़न पर आकर घोषणा की कि 11 सितम्बर, 2001 के मुख्य षड़यंत्रकर्ता ओसामा बिन लादेन को खोजकर अमेरिकी सेना की विशेष टीम ने मार गिराया है।
दुनियाभर के करोड़ों लोगों के लिए यह घोषणा काफी राहत और संतोष प्रदान करने वाली रही। अंतत: उन हजारों निर्दोष लोगों तथा बच्चों को न्याय मिला जो दस वर्ष पूर्व मारे गए थे।
लेकिन इस दिन की घोषणा में एक अन्य जानकारी भी छिपी थी जो अमेरिका द्वारा 9/11 का शिकार बनने के बाद आतंक के विरूध्द छेड़े गए वैश्विक युध्द पर नजर रख रहे लोगों को बेचैन कर गई।
उस दिन का समाचार था कि अमेरिकी सेना ने बिन लादेन को पाकिस्तान के कैंटोन्मेंट शहर एबाटाबाद में ढूंढ निकाला जो पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से मात्र 75 मील दूर है और पाक सैन्य प्रशिक्षण एकेडमी के परिसर में है। जैसे-जैसे बिन लादेन के छुपने की जगह के बारे में ब्यौरा आ रहा है इससे साफ है कि दुनियाभर का वांछित आतंकवादी अनेक वर्षों से पाकिस्तान में आराम से रह रहा था और यह निश्चित है कि वह अफगानिस्तान के किसी अंदरूनी क्षेत्र में नहीं छुपा था जैसाकि सामान्य तौर पर प्रचारित किया गया था।
ओसामा के मारे जाने के बाद वाशिंगटन पोस्ट में लिखे गए एक स्तम्भ में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने कहा है कि उनके देश को बिन लादेन के छुपने के बारे में कुछ भी नहीं पता था !
यदि जरदारी ने कहा होता कि वह व्यक्तिगत रूप से ओसामा के अड्डे के बारे में नहीं जानते तो उनका वक्तव्य शायद सभी को पचता। लेकिन सेना प्रमुख और आईएसआई को इसके बारे में कुछ नहीं पता था, यह एक सफेद झूठ है। वस्तुत: यदि राष्ट्रपति द्वारा कहे गए को ही सत्य मान लिया जाए तो यह इतना बताने के लिए पर्याप्त है कि पाकिस्तान के सैन्य ढांचे में गैर-सैन्य राष्ट्राध्यक्ष मात्र ‘डम्मी‘ है।
रिपोर्टों के मुताबिक ओसामा और उसके परिवार के तीन मंजिला छुपने के स्थान का निर्माण सन् 2005 में किया गया था। इससे यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि यह निर्णय तब लिया गया जब पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के हाथों में सत्ता केंद्रित थी।
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मई, 2001 में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने विदेश मंत्री जसवंत सिंह और मुझे अपने निवास पर दोपहर भोज पर बुलाया। कारगिल युध्द की समाप्ति हमारे पक्ष में रही थी लेकिन पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ ने विद्रोह कर नवाज शरीफ को हटाकर औपचारिक रूप से राष्ट्रपति पद संभाल लिया था।
इस भोज के दौरान मैंने अटलजी को सुझाया –”क्यों न जनरल को भारत में बातचीत के लिए आमंत्रित किया जाए?” मैंने कहा, हो सकता है कि एक सैनिक की सोच राजनीतिक प्रक्रिया से अलग हो सकती है।
इस सुझाव के लाभ और हानि पर कुछ विचार-विमर्श के बाद वाजपेयी और जसवंत सिंह दोनों सहमत हो गए। आगरा को स्थान के रूप में चुना गया। जनरल मुशर्रफ को औपचारिक निमंत्रण भेजा गया। जनरल मुशर्रफ अपनी पत्नी साहेबा के साथ 14 जुलाई, 2001 को नई दिल्ली पहुंचे। राष्ट्रपति भवन में जहां उन्हें ठहराया गया था, मिलने वालों में से सबसे पहला मैं ही था।
हमारी प्रारंभिक बातचीत इस तथ्य पर केंद्रित रही कि हम दोनों ही कराची के सेंट पैट्रिक्स हाई स्कूल में पढ़े थे। अभिवादन के बाद मैंने कहा, ‘जनरल वैसे तो आप दिल्ली में पैदा हुए थे, लेकिन तिरपन वर्षों के बाद आप पहली बार अपने जन्म-स्थान पर आए हैं। इसी तरह मैं कराची में पैदा हुआ था, लेकिन विभाजन के बाद मैं सिर्फ एक बार अपने जन्म-स्थान पर गया हूं, वह भी बहुत कम समय के लिए। लाखों परिवार तो ऐसे भी हैं जो विभाजन के परिणामस्वरूप प्रवास के बाद अपने जन्म अथवा मूल स्थान पर एक बार भी नहीं जा पाए हैं। आधी शताब्दी से भी ज्यादा समय बीत जाने पर भी यह स्थिति है– क्या यह बात स्वयं में अजीब नहीं लगती? क्या हमें उन मसलों का स्थायी हल नहीं निकालना चाहिए, जिनके चलते हमारे दोनों देश और देशवासी इतने अलग हो गए हैं?
‘बिल्कुल निकालना चाहिए।‘ मुशर्रफ का जवाब था। ‘आपके क्या विचार हैं?’
‘सबसे महत्वपूर्ण है, परस्पर विश्वास का निर्माण करना।‘
मुशर्रफ ने सहमति में सिर हिलाया और बोले, लेकिन कैसे?’
‘मैं आपको एक उदाहरण दूंगा। मैं हाल ही में तुर्की की एक सफल यात्रा से आया हूं। मुझे पता चला कि आपको तुर्की से विशेष लगाव है, क्योंकि आपने अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष वहां बिताए हैं।‘
जी हां, मेरे पिताजी वहीं तैनात थे। मैं धारा-प्रवाह तुर्की में बोल सकता हूं।‘
‘मैं वहां भारत और तुर्की के मध्य एक प्रत्यर्पण संधि को अंतिम रूप देने के लिए गया था। भारत और तुर्की के बीच प्रत्यर्पण संधि की इतनी बड़ी जरूरत क्या है? वास्तव में प्रत्यर्पण संधि की जरूरत तो भारत और पाकिस्तान के बीच है, ताकि किसी एक देश में अपराध करके दूसरे देश में छिपने वाले अपराधी को संबंधित देश के हवाले करके उस पर मुकदमा चलाया जा सके।‘
मुशर्रफ अब तक कुछ भी नहीं समझ पाए थे कि मैं बातचीत को किस ओर ले जा रहा हूं। उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘बिल्कुल, क्यों नहीं! हमें प्रत्यर्पण संधि करनी चाहिए।‘
मैंने कहा, ‘जनरल, दोनों देशों के बीच औपचारिक प्रत्यर्पण संधि की प्रक्रिया पूर्ण होने से पहले अगर आप दाऊद इब्राहिम को भारत के हवाले कर दें तो यह शांति-प्रक्रिया में आपका बहुत बड़ा योगदान होगा; क्योंकि दाऊद इब्राहिम वर्ष 1993 के मुंबई बम कांड का मुख्य अभियुक्त है और अभी वह कराची में रह रहा है।‘ अचानक मुशर्रफ का चेहरा तमतमा गया। अपनी असहजता को छिपाने में असमर्थ उन्होंने जो कुछ कहा, वह मुझे बहुत आक्रामक लगा।
‘जनाब, आडवाणी, यह हलकी चाल है।‘ उन्होंने कहा। मैंने अनुभव किया दोनों पक्षों के पांच-पांच अधिकारियों की मौजूदगी में कमरे का माहौल अचानक बदल गया।
मैंने कहा, ‘जनरल, आप सेना से जुड़े व्यक्ति हैं और चाल या रणनीति की बात आप ही सोच सकते हैं। आगरा में प्रधानमंत्री वाजपेयी और आप भारत व पाकिस्तान के मध्य स्थायी शांति लाने की रणनीति पर चर्चा करने वाले हैं। दोनों देशों के लोग आगरा शिखर वार्ता के नतीजे की बड़ी उम्मीद से प्रतीक्षा करेंगे। लेकिन भारत के गृहमंत्री होने के नाते और पचास वर्षों तक सार्वजनिक जीवन में बने रहनेवाले एक जननेता होने के नाते मैं आपको बताना चाहूंगा कि दाऊद इब्राहिम को भारत के हवाले करने के आपके एक ही कार्य से भारत की जनता का आप में और आपके देश में विश्वास बहुत बढ़ जाएगा। विश्व में ऐसे मौके आए हैं, जब औपचारिक प्रत्यर्पण संधि के बिना भी किसी एक देश द्वारा दूसरे देश को अपराधियों का प्रत्यर्पण किया गया है।‘
मुशर्रफ अपनी असहजता छिपा नहीं पा रहे थे। इस बार उन्होंने थोड़ा कड़े शब्दों में कहा, ‘जनाब आडवाणी, मैं आपको बता दूं कि दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान में नहीं है।‘ कई वर्षों बाद एक पाकिस्तानी अधिकारी, जो उस दिन बैठक में उपस्थित थे, ने मुझे बताया, ‘हमारे राष्ट्रपति ने दाऊद इब्राहिम के बारे में उस दिन जो कुछ कहा था, वह एक सफेद झूठ था।‘ यह उसी प्रकार से है जैसे कि पाकिस्तानी इन वर्षों में ओसामा के बारे में अमेरिकियों को बताते रहे।
‘एशियन जुग्गरनॉट‘ के लेखक ब्रह्म चेलानी ने लिखा कि: ”9/11 के बाद से आतंकवाद का सामना करने के लिए पाकिस्तान को 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर देने के बावजूद, अमेरिका को अच्छी से अच्छी चीज मिली अनैच्छिक सहजता और खराब से खराब धोखेबाजीभरा सहयोग मिला।”
भले ही बिन लादेन के मारे जाने पर अमेरिका फूले नहीं समा रहा परन्तु अमेरिकी सरकार को यह स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान सम्बन्धी इसकी असफल नीति ने उसे देश को अनजाने में ही दुनिया की मुख्य आतंकवादी शरणस्थली बना दिया है।”
टेलपीस (पश्च्य लेख)
जेठमलानी और मेरी तरह बेनजीर भुट्टो सिंध से हैं। वास्तव में भुट्टो परिवार और जेठमलानी लरकाना से जुड़े हैं, यह वह जिला है जो 5000 वर्ष प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मोहन जो दोड़ो में पाए गए हैं।
मैं बेजनीर से पहली बार तब मिला जब वह 1991 में राजीव गांधी की अंत्येष्टि में भाग लेने आई थीं। तब से जब भी वह भारत आईं वे मुझे मिलती थीं और अक्सर मेरी पत्नी कमला द्वारा उनके लिए बनाए गए सिंधी भोजन का आग्रह करती थीं।
मुझे उनकी अंतिम यात्रा का स्मरण हो आता है जब वे जनरल मुशर्रफ के वाया नई दिल्ली, आगरा जाने से पहले कुछ समय के लिए मेरे निवास पृथ्वीराज रोड पर आईं थीं।
उस दिन हुई हमारी गपशप के दौरान मैंने बेनजीर से एक प्रश्न किया कि यद्यपि भारत और पाकिस्तान दोनों के राजनीतिक नेतृत्व ने अंग्रेजी शासनकाल में एक ही तरह की राजनीतिक संस्कृति आत्मसात् की थी लेकिन भारत ने उल्लेखनीय सफलता के साथ अपने लोकतंत्र को संभाला है परन्तु पाकिस्तान में लोकतंत्र पूरी तरह से विफल रहा है। ब्रिटिशों के जाने के बाद अधिकतर समय पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही रही है।
बेनजीर भुट्टो का उत्तर संक्षिप्त और सारगर्भित था ”मैं आपके देश की सफलता के लिए दो बातों को श्रेय देती हूं। पहली, आपकी सशस्त्र सेना राजनीति से दूर है। दूसरी, आपका चुनाव आयोग संवैधानिक तौर पर कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त है।”
मुझे अच्छी तरह से याद है उनकी मुख्य टिप्पणी थी कि कारगिल की अपनी योजना के असफल होने के बाद भी जनरल मुशर्रफ ने भारत का निमंत्रण क्यों स्वीकार किया। उन्होंने मुझसे कहा कि आपकी सरकार को समझ लेना चाहिए कि वह शांति के लिए आगरा नहीं आ रहे। वह यहां राजनीति के लिए आ रहे हैं। उनकी इच्छा है पाकिस्तान का ऐसा गैर-सैनिक राष्ट्रपति बनने की है और जो यह आशा करते हैं कि वे वाशिंगटन के सहयोग से पाकिस्तान के लिए कश्मीर ले पाने में सफल हो सकेंगे जोकि अन्य कोई पाकिस्तानी नेता अभी तक हासिल नहीं कर पाया है।
पिछले एक दशक से ईसाई मिशनरियों और हिन्दू संगठनों के बीच धर्मांतरण को लेकर चली आ रही कड़वाहट का सबसे ज्यादा नुकसान ईसाई समुदाय को उठाना पड़ा है। चर्च नेतृत्व ने इन्हें अपने रक्षा कवच की तरह इस्तेमाल करते हुए तमाम मुश्किलों के बीच में भी अपने विस्तार की रफतार को ढीला नही होने दिया है। विदेशी अनुदान के सहारे देश के विभिन्न राज्यों में नयें चर्च बनाने, कान्वेंट स्कूल खोलने का सिलसिला भी तेज हुआ है। पिछले एक दशक के दौरान चर्च ने विदेशी पैसे की मदद से सैकड़ों की तदाद में अपने मीडिया कमीशन खड़े कर लिये है जिनका कार्य चर्च गतिविधियों पर आने वाले किसी भी संकट के समय मामले को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर तूल देने का है।
चर्च द्वारा धर्मांतरण के कार्यो को लगातार बढ़ावा देने के कारण कर्नाटक,उड़ीशा,आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि राज्यों में उसका टकराव धर्मांतरण विरोधी ताकतों के साथ लगातार बढ़ है। इन टकरावो के चलते ईसाई समुदाय के चर्च पदाधिकारियों के सामने उठाये जाने वाले महत्वपूर्ण मुद्दे दबते चले आ रहे है। पूरी तरह व्यपारिक हो चुके चर्च के लिए यह बड़ी सुहावनी स्थिति है। किसी कान्वेंट स्कूल में किसी प्रशासनिक धांधली को लेकर स्कूल प्रशासन और अभिभाविकों के बीच कोई टकराव हो जाये तो उसे आज के समय में मीडिया के सहयोग से ‘ईसाइयत पर हमला’ बनाने में चर्च नेतृत्व को एक पल भी नही लगता। हाथों में बैनर लिये वह उन ईसाइयों के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करता है जिनके बच्चों के लिए ऐसे अल्पसंख्यक स्कूलों में स्थान ही नही होता।
मुठ्ठीभर पादरियों की यह टीम ईसाई समुदाय के साथ साथ सरकार को भी अपनी स्वार्थपूर्ति हेतू नचा रही है। अपने विशेष अधिकारों की आड़ में अकूत संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा जमाये यह लोग धर्मांतरण के नाम पर देश में अस्थिरता पैदा करने में भी पीछे नही है। अच्छी खबर यह है कि ईसाई समुदाय धीरे-धीरे चर्च की कूटनीति को समझने लगा है और अब ईसाइयों के अंदर से अपने अधिकारों की अवाज उठनी लगी है।
कर्नाटक की राजधानी मंगलौर में ईसाई समुदाय की हुई एक बैठक में चर्च नेतृत्व पर इस बात के लिये दबाब बनाने का निर्णय लिया गया कि वह ईसाई समुदाय को चर्च द्वारा संचालित संस्थानों में उचित भागीदारी दें। बैठक को सम्बोधित करते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश माइकल एफ सलदना ने कहा कि चर्चो के नीतिगत फैसले लेने में केवल 1.3 प्रतिशत कर्लजी वर्ग का दबाव है और 98.7 प्रतिशत लेइटी का कोई रोल ही नही है। पूर्व न्यायाधीश ने इस बात पर चिंता जाहिर की कि चर्च नेतृत्व चर्च संपतियों की बड़े पैमाने पर खरीद-ब्रिक्री करने में लगा हुआ है और अकेले मंगलौर में ही पिछले एक दशक के दौरान चर्च नेताओं ने तकरीबन दो अरब रुपये की चर्च संपतियों को बेच दिया है और वह पैसा कहा गया इसका समाज को कोई जानकारी नही है। बैठक में कहा गया कि भारत में 7 हजार ऐसे चर्च है जहां प्रत्येक चर्च में प्रति वर्ष 2.5 मिलीयन रुपये इक्कठा होते है चर्चो में इक्कठे होने वाले इन करोड़ों-अरबों रुपयों को गरीब ईसाइयों के विकास पर खर्च किया जाये।
वर्ष 2002 में देश की राजधानी दिल्ली में ‘पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट’ ने दलित ईसाइयों के विकास के लिए कैथोलिक बिशप काफ्रेंस ऑफ इंडिया एवं नैशनल कौंसिल चर्चेज फॉर इंडिया के सामने दस सूत्री कार्यक्रम रखा था। जिसमें चर्च संस्थानों में समुदाय की भागीदारी, धर्मपरिवर्तन पर रोक, विदेशी अनुदान में पारर्दिशता, बिशपों का चुनाव वेटिकन/पोप की जगह समुदाय द्वारा करने, चर्च संपतियों की रक्षा हेतू एक बोर्ड बनाने जैसे मुद्दे उठाये गये थे। जिसे चर्च नेतृत्व ने अपनी कुटिलता से दबा दिया था। मूवमेंट के कार्यकर्ता ईसाई समाज में जन-चेतना फैलाने के अपने कार्य में लगे रहे हैं और इसी का परिणाम है कि आज सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले रोमन कैथोलिक चर्च में भी आम ईसाइयों के अधिकारों की बात उठने लगी है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश माइकल एफ सलदना का चर्च नेतृत्व पर काफी प्रभाव है हालही के दिनों में उन्होंने कर्नाटक सरकार द्वारा गठित सोमशेखर कमीशन की रिर्पोट आने के बाद चर्चो पर हुए हमलों के संबध में अपनी एक रिर्पोट बनाकर वेटिकन के दिल्ली स्थित राजदूत Apostolic Nuncio Archbishop Salvatore Pennacchio को दी है। अब वह चर्च के अंदर लेइटी के अधिकारों की वकालत भी कर रहे है। लेकिन इसके लिए एक स्पष्ट नीति बनाने की जरुरत है। भारत सरकार के बाद चर्च दूसरा संयुक्त ढांचा है जिसके के पास भूमि और अन्य संसाधनों का विशाल भंडार है लेकिन आज उसे कुछ मुठृठीभर कलर्जी प्रईवेट कम्पनियों की तर्ज पर मुनाफा देने वाले संस्थान की तरह चला रहे है। अगर ऐसा न होता तो आज 30 प्रतिशत शिक्षा में भागीदारी करने वाले समुदाय के 40 प्रतिशत से भी ज्यादा अबादी निराक्षर नही होती।
वर्ष 2008 में ईसाई समुदाय के अंदर से चर्च संपतियों को बचाने के लिए एक राष्ट्रीय बोर्ड/एजेंसी बनाने की बात उठने लगी। पहली बार मूवमेंट ने इस मामले पर केन्द्र सरकार से दखल देने की मांग की। मध्य प्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने ऐसे ही एक प्रस्ताव पर कार्य शुरु किया बौखलाए चर्च नेतृत्व ने प्रस्ताव के समर्थक ईसाई सदस्य अन्नद बनार्ड के सामाजिक बहिष्कार का ऐलान कर दिया। 28 जुलाई 2009 को कैथोलिक चर्च ने पणजी -गोवा में ले-लीडर की मोजूदगी में इस मुद्दे पर चर्चा शुरु की। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश श्री के.टी.थोमस, पूर्व मंत्री एडवड फलेरो, ईसाई चिंतक जोजफ पुलिकलेल आदि वक्ताओं ने सरकारी भागीदारी वाले एक बोर्ड का समर्थन किया। जिसे चर्च नेतृत्व ने ठुकरा दिया हालांकि कई पश्चिमी देशों में वहा की सरकारे चर्च संपतियों में अपना हस्तक्षेप रखती है।
भारत का चर्च न तो चर्च संसाधनों पर अपनी पकड़ ढीली करना चाहता है और न ही वह वेटिकन और अन्य पश्चिमी देशों का मोह त्यागना चाहता है। विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है। रंगनाथ मिश्र आयोग इसकी एक झलक मात्र है।
समय आ गया है कि ईसाई बुद्धिजीवी अपनी सोच में बदलाव करे और समाज के सामने जो गंभीर चुनौतियाँ है उन पर बहस शुरु की जाए। धर्मांतरण/ धर्म प्रचार के तरीके, छोटी-छोटी समास्याओं के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भरता, लगातार दयनीय होती दलित ईसाइयों की स्थिति, चर्च संगठनों में जड़ तक फैला भ्रष्टाचार और उसके समाधान के लिए चर्च लोकपाल बनाने, ईसाइयत में बढ़ता जातिवाद, दूसरे धर्मो के अनुयायियों के साथ खराब होते रिशते, एक ही राजनीतिक पार्टी के प्रति वफादारी और बिशपों के चुनाव में वेटिकन के प्रभाव को कम करने जैसे मामलों पर खुलकर चर्चा करने की जरुरत है। ईसाइयों को चर्च राजनीति की दड़बाई (घंटों) रेत से अपना सिर निकालना होगा और अपने ही नही देश और समाज के सामने जो खतरे है, उनसे भी दो चार होना पड़ेगा। जब तक ईसाई देश में चलने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों से अपने को नहीं जोड़ेगे तथा उसमें उनकी सक्रिय भागीदारी नही होगी, तब तक उनका अस्तित्व खतरे में रहेगा। ईसाइयों को धर्म और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्ट समझ बनाने की आवश्यकता है। तभी ही वह विकास की सीढ़िया चढ़ पाएंगे।
एक पुस्तक अकस्मात हाथ लगी, लेखक हैं निकॉलस डर्क। बस, खरीद लीजिए उसे, आप यदि ले सकते हैं तो। नाम है, , ”Castes of Mind: Colonialism and Making of British India” अर्थात ”मानसिक जातियां : उपनिवेशवाद और ब्रिटिश राज का भारत में गठन” और लिखी गयी है, एक इतिहास और मानव विज्ञान के अमरिकन प्रोफेसर Nicholas D. Durks द्वारा।
लेखक तर्क देकर पुष्टि भी करते हैं, कि वास्तविक वे अंग्रेज़ ही थे, जिन्हों ने जाति व्यवस्था के घृणात्मक रूपका आधुनिक आविष्कार किया, और कपटपूर्ण षड-यंत्र की चाल से जन-मानस में, उसे रूढ किया। आगे लेखक कहते हैं कि, जाति भेद, जिस अवस्था में आज अस्तित्व में है, उसका अंग्रेज़ो के आने से पहले की स्थिति से , कोई समरूपता (सादृश्यता ) नहीं है।
कुछ विषय से हटकर यह भी कहा जा सकता है, कि, उन्होंने यही कपट अफ्रिकन जन-जातियों के लिए भी व्यवहार में लाया था। उद्देश्य था; वंशजन्य भेदों को बढा चढाकर प्रस्तुत करना, प्रजा जनों को उकसाना, विभाजित करना, आपस में भीडा देना, और उसी में व्यस्त रखना। इसी प्रकार, अपने राज की नीवँ पक्की करना।
जिस अतिरेकी, और पराकोटि की मात्रा में, पश्चिमी समाज के जन-मानस में यह जातिभेदात्मक अवधारणा घुस चुकी है, उसका कारण भी यही है; यह भी इसी से स्पष्ट हो जाता है। {इस अनुवादक को इसकी, अनेक बार प्रतीती हो चुकी है। }
वे इसका, बढा चढाकर, अतिरंजित घृणात्मक वर्णन करते हैं, और साथ में, इस मिथ्या धारणा का प्रचार, कि हिंदू (धर्म) माने केवल अंतर्जातीय वैमनस्य, हिंदुओं के पास दूसरा कोई मौलिक या आध्यात्मिक ज्ञान नहीं था या है।
निश्चित रूपसे, यह एक ढपोसले के अतिरिक्त कुछ भी नहीं, और यह षड-यंत्र भी , कुछ रिलीजनों के (धर्मों के नहीं) कूटनैतिक उद्देश्यों से ही, संचलित है। ऐसी, कूट-नैतिक धारणाएं पश्चिमी (रिलीजन वाले) भारत में फैलाना चाहते हैं।
आगे लेखक कहता है,; हिंदु सजग हो जाएं, और इस फंदे में ना फंसे।
मैं ऐसा विद्वत्तापूर्ण लेखन -बहुतेरे, ब्रिटीश और अमरिकन विद्वानों द्वारा ही, देख रहा हूं। ऐसा लेखन, ब्रिटीशरों की कुचेष्टा ओं पर , जो जातियों के बीच, परस्पर घृणा को उत्तेजित करती थी, जैसी (आज)दिखाई देती है, उस पर प्रकाश फेंकता है।
किस कारण से पश्चिमी प्रोफेसर इस काममें इतनी सामग्री ढूंढ सकते हैं, जिस से ऐसी (पूरी) पुस्तकें लिखी जा सकती है; but Indian scholars keep groping in the dark? पर भारतीय विद्वान अंधेरे में लडखडा कर टटोलते रहते हैं|
या. कहीं, ऐसा तो नहीं, कि, बहुतेरे इतिहासज्ञ वाम पंथी दल के होने के कारण इस दिशा में जाना ही नहीं चाहते, कि यदि गए, और सत्य हाथ लगा तो फिर उन के अपने हिंदुत्व के विषय में कुप्रचार के धंधे में सेंध लग जाएगी।
विशेष : निम्न समीक्षाएं, कुछ विद्वानों के शब्दों में, बिना अनुवाद :
’…..Massively documented and brilliantly argued,- ”Castes of Mind” – is a study in true contrapuntal ( प्रचलित मान्यता से अलग ) interpretation.’
(Edward W. Said )
’……..Nevertheless, this groundbreaking work of interpretation demands a careful scholarly reading and response.’
(John F. Riddick)Central Michigan Univ. Lib., Mt. Pleasant.
Dirks (history and anthropology, Columbia Univ.) elects to support the (latter) view.
’Adhering to the school of Orientalist thought promulgated by Edward Said and Bernard Cohn, Dirks argues that British colonial control of India for 200 years pivoted on its manipulation of the caste system’—Dirks (history and anthropology, Columbia Univ.)
भारत अपनी आजादी की 63वीं वर्षगाठ मना रहा है और लोकतंत्र का तमगा पहने पूरी दुनियां को अपनी ओर रिझा रहा है पर यह कहावत भी सत्य है कि ”शेर की खाल को पहन कर गध्दा शेर नहीं बन जाता है।” आज से एक पखवाड़े पहले 8 अप्रैल को अन्ना हजारे का अनशन ऐसे चमका जैसे कैमरे की फ्लैश लाईट और फिर ओझिल हो गया। अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को गलत ठहराने और उन्हें बदनाम करने हेतु गैर-राजनीतिक एवं राजनीतिक स्तर पर जैसी गंदी हरक तें की जा रही है, उसे देखकर तो लगता है कि भ्रष्टाचार विरोधी प्रक्रिया को दबाने वाली ताकतें कितनी जबरदस्त है।
जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आमरण अनशन आरंभ हुआ तो इसकी सराहना राजनेताओं से लेकर उद्यमियों तक ने की है पर अब क्या हो गया? उन्हें जो अन्ना को गलत ठहराने लगे कभी अन्ना के खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर करने की बात आती है तो कभी आमरण अनशन अन्ना की लोकप्रसिध्दि का षड़्यंत्र बताया जा रहा है। कांग्रेस पार्टी की कर्ताधर्ता सोनिया गांधी व डॉ.मनमोहन सिंह ने पत्र लिखकर अन्ना को यदि सच्चा समर्थन दिया है तो उनके हीं कांग्रेसी नेता लोकपाल विधेयक को लागू करने से क्यों कतरा रहे हैं? यदि सोनियां गांधी सच में लोकपाल विधेयक के पक्ष में हैं तो वह अपने कांग्रेसी नेताओं पर लगाम क्यों नहीं लगा रही?
लोकपाल विधेयक बनने से पूर्व हीं जनता की जहन में संदेह उत्पन्न करने के लिए कभी सी.डी. सार्वजनिक की जा रही है तो कभी नरेंद्र मोदी का बयान सामने आ रहा है, कभी बाबा रामदेव को बीच में लाया जा रहा है तथा कभी कपिल सिब्बल इसे अप्रभावी बता रहे हैं। ऐसे अनर्गल आरोप लगाए जा रहे हैं जिससे अन्ना हजारे का अनशन धूमिल हो रहा है। यदि राजनेताओं और भ्रष्टाचारियों की यही चाल है कि बाहर से तो समर्थन दें और अंदर से लोकपाल विधेयक को रोका जाए तो इसकी तुलना हम ”शेर की खाल पहने गधे” से कर सकते हैं। फिर एक अन्ना गांधीवाद को पूरा करने में असफल हो जाएगा?
42 वर्षों से अटकी हुई लोकपाल बिल को यदि अन्ना ने मात्र चार दिनों में प्रक्रिया में लाया है तो अपने आप में यह एक बड़ा ऐतिहासिक उपलब्धि है। यदि अन्ना ने जंतर-मंतर पर बैठे हुए ही पूरे देश की जनता को एक मुद्दे के समर्थन में खड़ा किया है तो इस मशाल को ऐसे हीं न बुझने दिया जाए। भ्रष्ट राजनेताओं को यदि एक अन्ना रात को न सोने पर मजबूर कर सकता है तो वह समय अब आ गया है कि देश के हर घर से एक अन्ना समाने आए और लोकपाल बिल को लागू करने पर सरकार को मजबूर कर दे, वरना यह भ्रष्टाचारी व सरकारी तंत्र हमें ऐसे ही और न जाने कितने वर्षों तक शेर की खाल ओढ़े डराती रहेगी।