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मजहब के आधार पर आरक्षण देश की अखण्डता के लिए खतरा

बृजनन्दन यादव

मजहब के आधार पर आरक्षण देश की एकता एवं अखण्डता के लिए खतरा है, परन्तु केन्द्र की कांग्रेस सरकार मुस्लिमों को आरक्षण देने का हरसंभव प्रयास कर रही है। वह अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति एवं वर्ग विशेष के लोगों को खुश करने के लिए राष्ट्र की बलि भी चढ़ा सकती है। धर्म को आधार मानकर आरक्षण देना देश के साथ धोखा है, वह अल्पसंख्यकों के प्रति बेहद मेहरबान है, उसके प्रति हमेशा उदारता ही बरती जा रही है। वैसे तो अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए आये दिन एक के बाद एक लुभावनी योजनाएं चालू की जा रही हैं, उनके लिए विशेष पैकेज की भी व्यवस्था की गई है, जनसंख्या के आधार पर उन जिलों को विकास के लिए चयनित किया गया है जहाँ मुस्लिम आबादी अधिक हो, उन जिलों में सीधे केन्द्र की तरफ से एक विशेष प्रकार की योजनाएं एवं विशेष पैकेज की व्यवस्था भी की गई है। क्या यह उनको भारत के शेष हिस्सों से विभेद नहीं पैदा करता?

हमारे यहाँ अल्पसंख्यक की परिभाषा को बदलना चाहिए क्योंकि यहाँ अल्पसंख्यक की परिभाषा ही विकृत हो चुकी है। किसी भी देश में अल्पसंख्यक वह होता है जो अपने देश में पीड़ित, शोषित, अत्याचार से त्रस्त होकर दूसरे देश में जाकर बस गये हों। भारत के मुसलमान अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं आते। 2007 में हाईकोर्ट ने भी निर्णय दिया था कि अल्पसंख्यकवाद को अब समाप्त कर देना चाहिए। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भी अल्पसंख्यकवाद को समाप्त करने की मांग कर चुके हैं। देश के मुस्लिमों को अल्पसंख्यकों के नाम पर भारी धनराशि मुहैया करायी जाती है, लेकिन ठीक ढंग़ से इसका उपयोग हो पाता है ऐसा मुझे नहीं लगता। अल्पसंख्यकों की समस्याओं को मजहबी आधार पर नहीं, बल्कि व्यक्तिगत रूप से उठाने की जरूरत है, जो वास्तव में आर्थिक रूप से पिछडे़ हुए हैं। अन्यथा एक और भारत विभाजन की विभाषिकी उत्पन्न होगी। भारत पाक विभाजन की शुरूआत भी आरक्षण को लेकर ही हुई थी। मुस्लिम लीग का जन्म ही मुस्लिमों को आरक्षण दिलाने के लिए हुआ था। कांग्रेस का असहाय नेतृत्व मुस्लिम लीग की एक-एक मांग को मानते चले गये जो अन्तत: भारत विभाजन का कारण बनी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुस्लिमों को तमिलनाडु, केरल, पं.बंगाल की तरह देश के अन्य राज्यों में आरक्षण देने की बात कही है। आने वाले दिनों में यू0पी0 विधान सभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए ऐन मौके पर ऐसी बात किसी जिम्मेदार राजनेता का कहना कहाँ तक सही है यह तो आने वाला समय ही बतायगा। देश के लोगों को सोचना चाहिए कि आखिर उनको ये बातें अब क्यों याद आयीं, अगर वास्तव में वे देश के अन्य नागरिकों से पीछे हैं तो उनको पीछे ढकेलने एवं उनकी दुरावस्था के लिए जिम्मेदार कौन है? आखिर आजादी से लेकर आज तक इन्होंने ही तो देश पर शासन किया है। जिस तरह अंग्रेज भारत पर राज करते थे बिल्कुल वैसे ही कांग्रेस भी अभी तक शासन कर रही है। सभी विभागों के काम काम रीति रिवाज आफिसों के रहन सहन संसद से लेकर विधान सभा और सारा प्रशासनिक तंत्र में पूरी की पूरी वही प्रक्रिया चल रही है। यदि परिवर्तन हुआ है तो मात्र कहने के लिए ही परिवर्तन हुआ है, सारे विभागों में बैठे लोग अंग्रेजों के जमाने में जिस मानसिकता से काम करते थे आज भी उसी लहजे में काम कर रहे हैं। जो जैसा चल रहा था उसको वैसा ही अपना लिया गया क्योंकि नेहरू के सामने सपना था भारत को इंग्लैण्ड बनाने का सो उन्होंने उसी दिशा में काम किया और भारत को इंग्लैण्ड बनाना चाहा।

इस विषय में देश के राजनीतिज्ञों को भी सोचना चाहिए कि आखिर जिस राज्य में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं क्या वहां उनको ये सभी सुविधायें मिल रही हैं जो भारत के शेष भागों में अल्पसंख्यक होने के नाते मुस्लिमों को मिल रही हैं। यदि मजहब के आधार पर ही अल्पसंख्यक होने का निर्णय किया जाये तो असली अल्पसंख्यक भारत में रहने वाले ईसाई, पारसी, यहूदी तथा अन्य कुछ समुदाय हैं। मुस्लिमों को आरक्षण देने में तो असली अल्पसंख्यक तो छूट ही जाते हैं। लेकिन ये समुदाय भारत सरकार से अपने लिए कोई विशेष सुविधा नहीं माँगते, जबकि मुस्लिम समुदाय जो पहले से ही बड़ी संख्या में है, सुविधाओं की माँग करता रहता है।

सत्य तो यह है कि मजहबी आधार पर मुस्लिमों को आरक्षण देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, क्योंकि मुसलमानों में जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता। उनके अनुसार वहाँ तो सभी बराबर होते हैं। यदि आरक्षण देना ही है, तो आर्थिक आधार पर दिया जाना चाहिए। मजहब के आधार पर अल्पसंख्यकों को दिया जाने वाला आरक्षण न केवल भारत के लोकतंत्र पंथनिरपेक्षता के समक्ष चुनौती है, बल्कि यह संविधान के नियमों के विपीत है और यह अन्य समुदायों के प्रति अन्याय है भी है, जिनको वास्तव में सुपात्र होते हुए भी यह लाभ नहीं मिल पाता है। ऐसा करके मुस्लिमों को शेष समाज से अलग करने का प्रयास ही चल रहा है। जो काम अंग्रेज करते थे उसी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत कांग्रेस सरकार भी काम कर रही है।

कांग्रेस इस समय घोटालों की मार से दबी जा रही है। आये दिन नित नये-नये घोटाले जनता के सामने आ रहे हैं। इससे कांग्रेस नेतृत्व एकदम सहमा हुआ है। सोनिया और राहुल की बोलती ही बन्द हो गयी है। विदेशों में जमा काला धन मामले में वे एक शब्द भी बोलने को राजी नही है। इसके बजाय जो उनके खिलाफ आवाज उठाते हैं, उनको दबाने की भी अनैतिक ढंग से भरसक प्रयास हो रहा है। वह चाहे बाबा रामदेव हों या अन्य कोई आतंक- वाद अलगाववाद और मंहगाई के मुद्दों पर भी कांग्रेस असफल सिध्द हुई है। भ्रष्टाचार में तो रिकार्ड कायम किया है, अगर किया है कांग्रेस ने तो सिर्फ घोटाले ही किये हैं। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी अपनी मजबूरी जनता के सामने जाहिर कर चुके हैं। इससे स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के खेलों के पीछे बहुत ताकतवर लोगों का हाथ है, जिनके सामने प्रधानमंत्री भी असहाय बने हुए हैं। उनके तार सीधे सोनिया गाँधी से जुड़े हुए मालूम पड़ते हैं, जो आर्थिक अपराधियों जैसे क्वात्रोची, एंडरसन आदि को बचाने के लिए पहले ही प्रश्नों के घेरे में आ चुकी हैं। लेकिन उन्होंने अपनी तरफ से अभी तक कोई स्पष्टीकरण नही दिया है, उल्टे कांग्रेस अधिवेसनों में भ्रष्टाचाारियों के खिलाफ सख्त कार्यवायी की चेतावनी देती हैं। देश यह जानता है कि कितने विरोध और दबावों के बाद ए.राजा की गिरफतारी हुई है। वैसे भी कांग्रेस अपने को सत्ता में बनाये रखने के लिए अनैतिकता की किसी भी सीमा तक जा सकती हैं। यह पहले कई बार सिध्द हो चुका है।

परन्तु बात आरक्षण की हो रही थी। वैसे तो आरक्षण का लाभ आर्थिक रूप से पिछड़े सभी वर्गों को मिलना चाहिए। पिछड़े वर्गों में भी जो बहुत ज्यादा पिछड़े हुए हैं, उनको इसमें प्राथमिकता के आधाार पर लाभ मिलना चाहिए। लेकिन देखा यह गया है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ों में भी जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं वे ही लपक लेते हैं और जो वास्तव में पिछड़ा है वह पिछड़ा ही रह जाता है। यदि मजहब के आधार पर भी आरक्षण देना प्रारम्भ हो गया, तो इसको भी उन समुदायों के आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोग ही बीच में हड़प लेंगे। इस बारे में भी सोचने की आवश्यकता है। कांग्रेस ने पहले भी मुस्लिमों को खुश करने के लिए मार्ले मिंटो सुधार के तहत 1909 में मुस्लिमों के लिए अलग से 6 निर्वाचन क्षेत्र बनाया गया था। 1909 में यह संख्या 19 हो गई, आगे चलकर यही भारत विभाजन के रूप में सामने आया। यहाँ तक कि कई प्रमुख मुस्लिम नेता और लोग भी मजहब के आधार पर सरकारी नौकरियों, शिक्षा में आरक्षण से सहमत नही हैं। फिर भी कांग्रेस राष्ट्रवादी मुस्लिमों की भावनाओं को दरकिनार करते हुए साम्प्रदायिक मुस्लिमों को खुश कर रही है। मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं केन्द्रीय सरकार में शिक्षा मंत्री मोहम्मद करीम छागला ने अपनी जीवनी ‘रोजेज इन दिसम्बर’ में कहा था कि मुझे यह बात सदैव सालती है जिसे मैं गहराई से अनुभव कर रहा हूँ वह यह है कि कांग्रेस और यहाँ तक कि महात्मा गांधी भी राष्ट्रवादी मुसलमानों के प्रति उदासीन रहते थे। जिन्ना और सामप्रदायिक मुसलमान उन्हें महत्वपूर्ण लगते थे। इनकी तुलना में राष्ट्रवादी मुसलमान नेताओं के लिए कांग्रेस में कोई स्थान नही था। कांग्रेस ने अपनी सोची समझी साजिश के तहत उन्हें मुख्यधारा में सम्मिलित होने से रोका ही, मुस्लिम वोट बैंक के लालच में आज सभी राजनीतिक दल देशहित को पीछे छोड़कर निर्णय ले लेते हैं।

वैसे भी कांग्रेस आज हिन्दुओं के साथ दोहरे मापदंड अपना रही है। वह देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का बताकर उनको हर संभव मदद कर रहा है। शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण दे रहा है हज यात्रा के लिए सब्सिडी दे रहा है व्यापार करने के लिए बहुत ही कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध करा रहा है वहीं हिन्दुओं के साथ भेदभाव क्यों किया जा रहा है। अपने को अल्पसंख्यकों का सच्चा हितैषी बताकर दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद जैसे कद्दावर नेता कांग्रेसी विरासत को आधार देने में जुटे हैं। शिक्षा के आधार पर किसी के भी साथ भेदभाव नही किया जाना चाहिए। धर्म के आधार पर भारत को बांटने के नीति के तहत ही 1871 में अंग्रेजों ने हंटर समिति बनायी थी। आजादी के बाद 1978 में अल्पसंख्यक आयोग फिर 1980 में डा. सैय्यद अहमद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन हुआ। 1995 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग बना जिसने पुलिस और सेना में मुस्लिम आरक्षण देने का समर्थन किया। 2005 में कांग्रेस ने इसी तुष्टीकरण की नीति को आगे बढ़ाकर सच्चर समिति का गठन किया। जिसने धर्म आधारित आरक्षण की वकालत करते हुए निजी क्षेत्र और सेना को भी इसमें शामिल करने का सुझाव दिया। डा. राममनोहर लोहिया आचार्य कृपलानी और सरदार वल्लभ भाई पटेल कांग्रेस की अल्पसंख्यक मानसिकता के खिलाफ थे। आज आतंकवाद को रोकने और पकडे ग़ये आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवायी करने में भी कांग्रेस आरक्षण्ा का लाभ दे रही है अजमल कसाब एवं अफजल गुरू सरीखे खूंखार आतंकवादी इसी का परिणाम हैं कि विशेष धर्म से सम्बिन्धित होने के कारण उन्हें अतिथियों की तरह पाला पोसा जा रहा है। कांग्रेस को भय है कि उनके खिलाफ कार्यवायी करने से मुस्लिम विरोधी होने का ठप्पा उनके ऊपर लग जायेगा। ऐसा करके वह सभी देश वासियों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। मुंबई हमला और संसद भवन हमले में शहीद हुए सेना के जवानों और संसद भवन हमले में शहीद हुए सेना के जवानों और नागरिकों की उनको सुध नही है। यहाँ तक कि शहीदों की पत्नियों ने सारे मेडल भी लौटा दिया फिर कांग्रेस के कान तक जूं तक नही रेंगी। हज के लिए सब्सिडी, कैलास मानसरोवर यात्रा एवं तीर्थस्थलो में जाने के लिए सरचार्ज लगाया जाता है। हिन्दू मठ मन्दिरों की चढ़ी हुई धनराशि मुस्लिमों के कल्याण एवं उनके मस्जिद मदरसे निमार्ण में खर्च की जाती है। क्या है देश में ऐसी कोई मस्जिद जिसमें आने वाला चन्दा वहाँ के इमाम के पास न जाकर भारत सरकार के कोष में जाता हो? अल्पसंख्यक एवं आरक्षण पर देश की नीति क्या हो इस पर विचार की जरूरत है।

 

व्यंग्य/ दिल्ली मरतु लेखक अवलोकी

डॉ. अशोक गौतम

 

किसी और का लेखक के साथ चोली दामन का संबंध हो या न पर लेखक और बीमारी का चोली दामन का संबंध होता है। चाहे वह किसी प्रेमिका की बीमारी हो अथवा लेखन की। इस बीमारी के चलते बहुधा लेखक की ब्याहता पत्नियां तो न के बराबर ही टिकती हैं पर प्रेमिकाएं भी उनके साथ नहीं टिकतीं। वह लेखक चाहे हिंदी का हो, तेलगु का हो, अंग्रेजी का या फिर लोक साहित्य का ही क्यों न हो।

वे ऐसे वैसे लेखक बिलकुल नहीं रहे कि जिन्होंने कोरा लिखा ही! जिंदगी भर वे तो ऐसे लेखक रहे कि लिखते बाद में थे छपते पहले थे। पर अचानक उस रोज उनकी कलम को पता नहीं क्या हुआ कि घिसते घिसते थक उसने एक बार जो चारपाई पकड़ी तो उठने का नाम ही नहीं लिया। अपनी कलम के साथ वे बड़े दिनों तक चारपाई पर पड़े रहे यह सोच कर कि अनके जाने की खबर सुन सरकार शायद उन्हें जाते जाते पुरस्कार पुरूस्कार दे दे तो वे यमराज के सामने सीना चौड़ा कर गर्व से कह सकें कि वे सरकार से पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार हैं, ऐसे वैसे नहीं कि पगलाए से कलम घिसते रहे। लिहाजा उन्हें सरकारी अतिथि माना जाए और पाठकों के साथ रहने के बदले लेखक गृह में उनके रहने का इंतजाम हो इस बहाने चलो मरने के बाद ही सही लेखक गृह के दर्षन तो हों जाएंगे वरना बेचारों ने जितनी बार कहीं बाहर जा सरकार द्वारा लेखकों को मुहैया करवाए गए लेखक गृह में रूकने की सोची कि चलो इस बहाने लेखकों के रजिस्टर में भी एंट्री हो जाएगी और चार पैसे भी बच जाएंगे पर हर बार वहां पहले ही कोई संस्कृति विभाग का बंदा पड़ा पाया।

इनकी लंबी बीमारी के चलते रसाले वालों के खतों से उनका कमरा भर गया कि कुछ जोड़ा तोड़ा भेजो प्लीज! आपका कालम खाली रह रहा है। इतना उत्तम कोटि का जोड़ तोड़ रचनाकार हमें कोई दूसरा नहीं मिल रहा है जो जोड़ तोड़ के माल को इस तरह से पैकेट बना हमें भेजे कि जिसकी रचना हो उसे भी पता न चले पाए कि यह रचना उसकी है और वह उस रचना की तारीफ किए बिना न रह सके।

जिस तरह बहुधा तंगी में फंसे लेखकों के आगे पीछे कोई नहीं होता, सौभाग्य से उनके आगे पीछे भी कोई नहीं था। एक उच्चकोटि के काम चलाऊ लेखक की पहचान यही होती है कि वैसे तो उसके साथ सभी होते हैं पर जब वह मुसीबत में होता है तो उसके साथ कोई भी नहीं होता। यहां तक की उसकी रचनाएं भी नहीं। पाठकों की बात तो छोड़िए!

मेरे तनिक आग्रह पर जिस दिन उन्होंने मेरी पत्नी के होते हुए मेरी प्रेमिका की याद में एक जलती हुई कविता लिखी थी मैं तबसे उनका दीवाना भी हो गया था। वाह! क्या गजब की भाव अभिव्‍यंजना! लगा था कि मेरी प्रेमिका और इनकी प्रेमिका ज्यों एक ही हो! मैंने उन्हें चारपाई पर खंसियाते देख उन्हें लगे हाथ अंतिम श्रध्दांजलि दी कि पता नहीं बाद में वक्त लगे या न, ये श्रध्दांजलि लेने लायक रहें भी या न, ‘बंधु! सच मानिए कि मैं कोई आपकी बिरादरी का नहीं जो आपके जाने की कामना करूं! मैं तो आपका टाइमपासी पाठक हूं। आपको टाइमपास के लिए पढ़ लेता हूं। मुझसे आपका यह दर्द अब और देखा नहीं जाता। भगवान के लिए हो सके तो मुहल्ले से चले जाओ प्लीज! मुहल्ले वालों का कहा सुना माफ करना या न! पर मेरा कहा सुना माफ करना। मैं भगवान से तुम्हारे लिए प्रार्थना करूंगा कि अगले जन्म में वह तुम्हें प्रकाशक बनाए। इस जन्म में जो तुमने तंगियां काटी हैं अगले जन्म में उसका फल भगवान तुम्हें अवश्‍य देंगे। भगवान करे अगले जन्म में तुम्हारे नसीब में सरकारी लेखकों की तरह बिन लिखे ही पुरस्कारों के अंबार हों।’

तो वे मन का गुबार निकालते बोले,’ मेरा एक काम कर दो तो लेखक योनि से मुक्ति पाऊं,’ मैं डरा! पर दिखाने को सीना चौड़ा कर कहा,’ कहो! पर संजीवनी लाने को मत कहना। अब मेरी सेहत मुझे सफर की इजाजत नहीं दे रही।’

तो वे सहज बोले,’ जिंदगी में जितनी रचनाओं की कतर ब्योंत की, उससे बहुत संतुश्ट हूं। अब ये मुहल्ला छोड़ दिल्ली जा मरने को मन कर रहा है। क्योंकि रिवाज है कि जिस तरह जीव को काशी में मरने से मुक्ति मिलती है जीव चाहे चोर उच्चका ही क्यों न हो,उसी तरह से आज के लेखक को दिल्ली में प्राण त्यागने पर ही मुक्ति मिलती है अर्थात- दिल्ली मरतु लेखक अवलोकी, देत मुक्ति पद परम अशोकी। इसलिए, हो सके तो बस दिल्ली पहुंचा दो। वहां से प्रयाण का आनंद ही कुछ और है। अब बस ,मैं मुक्ति चाहता हूं! लेखक का मुहल्ले में मरना भी कोई मरना है मेरे टपाऊ पाठक!! ‘

 

शिक्षा वही जो जिम्मेदार नागरिक बनाएँ

श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’

वर्तमान शिक्षा प्रणाली पूरे देश में एक चिंता का विषय बनी हुई है। कोई व्यक्ति इसके पक्ष में अपनी राय प्रकट कर सकता है तो कोई विपक्ष में अपने विचार रख सकता है लेकिन इन सब तथ्यों और बातों पर गौर किया जाए तो एक बात तो तय है कि सारे व्यक्ति व संस्थाएँ वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में बदलाव तो अवश्य ही चाहते हैं। उस बदलाव का स्वरूप कैसा हो इस पर अलग अलग राय हो सकती है। हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था कैसे नागरिकों का निर्माण कर रही है और कैसी व्यवस्था बना रही है यह अब सबके सामने है। आजादी के बाद हमारी शिक्षा व्यवस्था ने जो कुछ भी दिया है आज वही सब कुछ हमारे सामने नजर आ रहा है। अगर देश में भ्रष्टाचार है, अलगाववाद है, आतंकवाद है, जातिवाद है या कोई और समस्या है तो इन सब के मूल में शिक्षा व्यवस्था ही है। एक बच्चा शिक्षा से ही नागरिक बनता है और आदमी बनता है। भगवान उसको पैदा करता है मिट्टी की तरह या यूं कहे कोरे कागज की तरह और अब इस मिट्टी को क्या और कैसा स्वरूप देना है या इस कागज पर क्या लिखना है, इसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी शिक्षा व्यवस्था की है।

 

यह जानकर आश्चर्य होता है कि विष्व के सबसे बड़े लोकतंत्र व दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश के पास एक भी ऐसा शिक्षण संस्थान नहीं है जिसकी गिनती विश्व स्तर पर तो क्या एशिया स्तर पर भी करवाई जा सके। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि बड़ी आबादी वाले इस देश में स्तरीय शिक्षा का अभाव है और यही कारण है कि हमारा देश बेरोजगारी व भूखमरी जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है तथा भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबा है। शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए यशपाल समिति या ज्ञान आयोग की रिपोर्ट तो कभी की आ चुकी है और उनमें बताए गए तथ्य भी चिंता जनक है और इससे स्पष्ट होता है कि शिक्षा के स्तर को सुधारने की अब बेहद आवष्यकता है।

 

यह बात आज बड़ी अजीब लगती है कि हमारे देश में पाँचवी कक्षा से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन व प्रोफेशनल डिग्रीयों तक की व्यवस्था में पढ़ाने का एक ही तरीका काम में लिया जाता है। वही एक घण्टा चपरासी लगाता है और एक की जगह दूसरा शिक्षक आता है तथा पैंतालीस मिनट की अपनी नौकरी पूरी करके चला जाता है। क्या पाँचवीं कक्षा की शिक्षा पध्दति में व उच्च स्तर की शिक्षा व्यवस्था में कोई फर्क नहीं होना चाहिए। क्या पाँचवीं के विद्यार्थी में और अधिस्नातक के शोधार्थी में कोई फर्क नहीं है। वर्तमान में यहाँ पर बदलाव के नाम पर यही नजर आता है कि एक संस्था विद्यालय कहलाती है और संस्था महाविद्यालय। परन्तु इनमें महा जैसा कोई अर्थ स्पष्ट होता नजर नहीं आता है। इस व्यवस्था में कोई ऐसा सुधार किया जाए ताकि इन दोनों ही स्तरों पर एक स्तरीय भेद किया जा सके और वो भेद ऐसा हो कि दोनों ही स्तरों पर शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ावा मिले। विद्यालय व महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ये सब शिक्षा के साथ साथ मनुष्य निर्माण के भी केन्द्र बने और यहाँ से अच्छे और सुधी नागरिक निकले ताकि एक मजबूत और समर्थ भारत का निर्माण किया जा सके।

 

वर्तमान में अगर हम स्कूलों की बात करे तो स्थितियाँ बहुत गंभीर नजर आती है। अध्यापकों का यह कहना है कि छात्र पढ़ना नहीं चाहता है, छात्र नियमित तौर पर स्कूल में नहीं आता है जबकि दूसरी ओर अभिभावकों का यह कहना है कि स्कूलों में छात्रों पर व उनकी पढ़ाई पर गौर नहीं किया जाता है। जहाँ सरकारी स्कूलों के प्रबंधन से अभिभावक नाराज है वहीं प्राईवेट स्कूलों की फीस व्यवस्था व दादागिरी से अभिभावकों को परेशानी होती है। कुल मिलाकर नुकसान छात्रों का हो रहा है। यह समझने की जरूरत है कि छात्र एक कोरा कागज है आप उस पर जो और जैसा लिखेंगे वह वैसा ही लिखा जाएगा। जहाँ अध्यापकों को अपने कत्तव्यों के प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा वहीं अभिभावकों को भी अपने घर व समाज में शिक्षा का एक सौहार्दपूर्ण माहौल पैदा करना होगा। राज्य व केंद्र सरकारें भले कैसी भी समितियाँ बनाएँ या कोई भी उपाय कर ले जब तक शिक्षक , अभिभावक व विद्यार्थी के मध्य समन्वय नहीं होगा तब तक शिक्षा के स्तर को सुधारा नहीं जा सकता। हालात यह है कि आज विद्यार्थी व शिक्षक के मध्य एक बड़ा गैप हो गया है और दोनों के बीच में संवादहीनता की जबरदस्त स्थिति बनी हुई है। कईं शिक्षकों से बात करने पर यह बात खुल कर सामने आती है कि शिक्षकों का यह मानना है कि विद्यार्थी को ज्यादा नजदीक नहीं आने देना चाहिए क्योंकि इससे वह सिर चढ़ जाता है। और इस कारण दोनों के बीच में एक खाई बन गई है। जब तक यह मानसिकता रहेगी विद्यार्थी शिक्षकों से कुछ सीख नहीं पाएगा और न ही शिक्षक विद्यार्थीयों को कुछ दे पाएंगे।

 

एक जमाना वह था जब गुरू को माता पिता से भी बड़ा दर्जा प्राप्त था और गुरू की कही बात को इन्कार करने की हिम्मत माता पिता की नहीं होती थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि अभिभावकों को शिक्षकों पर पूरा विश्वास था तथा वह शिक्षक भी अपने उत्तरदायित्वों को लेकर पूरी तरह सजग था। इसी का परिणाम था कि बिना केल्कुलेटर व कम्प्यूटर के बड़ी बड़ी गिनतियाँ वो लोग सैकण्डों में हल कर दिया करते थे और उस समय के हिसाब से एक स्तरीय शिक्षा विद्यार्थी को प्राप्त होती थी। मतलब यह कि स्तरीय शिक्षा समितियाँ बनाने से या सिफारिशें करने भर से नहीं आएँगी, इनके जो घटक तत्व है उनको मजबूत करना होगा। उस जमाने में गुरू शिष्य के बीच आगाढ़ प्रेम के संबंध होते थे और गुरू शिष्य को पुत्रवत् स्नेह देता था और इसी का परिणाम था कि उस दौर में अच्छे व राष्ट्रभक्त नागरिकों का निर्माण होता था।

 

एक तथ्य यह भी है कि शिक्षा के व्यावसायिकरण ने शिक्षा व्यवस्था के माहौल को खराब कर रखा है। टयूषन प्रवृत्ति इसी की कोख से निकला परिणाम है। व्यावसायिकरण ने विद्यार्थी को ग्राहक व शिक्षक को दुकानदार बना दिया है। यहाँ शिक्षा के बाजार में दुकानदार ग्राहक के सामने लुभावनी व मनभावन स्कीमें रखता है और ग्राहक को आकर्षित कर अपना उत्पाद बेचने का प्रयास करता है। हमारी संस्था में एयरकंडीशनर लगा है भव्य बिल्डिंग है तथा आलीशान पुस्तकालय है जैसे जुमले इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है। हालात यहाँ तक बिगड़े हुए हैं कि जो छात्र अपने अध्यापक के टयूशन जाता है उसे प्रेक्टिकल में अच्छे नम्बर दिए जाते हैं और जो छात्र ऐसी टयूशन नहीं कर पाते उन्हें कम नम्बरों की सजा दी जाती है। ऐसे भी उदाहरण हमारे सामने आते हैं कि जहाँ शिक्षक स्कूलों व कॉलेजों में जाते ही इसलिए हैं कि उन्हें टयूशन रूपी व्यवसाय में कच्चा माल आसानी से प्राप्त हो जाए। अध्यापक अपने टयूशन सेंटर पर तो पूरे मनोयोग व मेहनत से पढ़ाते हैं लेकिन वो जज्बा स्कूलों के लिए नहीं दिखता है, स्पष्ट है कि अगर वह सारा कुछ स्कूलों में ही दे देंगे तो अपने टयूशन सेंटर पर क्या दे पाएंगे। टयूशन के इस कारोबार से षिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है। ऐसे मामले भी देखने में आते हैं कि अगर एक छात्र पाँच या सात छात्रों को अपने प्रयासों से प्रवेश दिलाता है तो उस छात्र की फीस माफ कर दी जाती है। वास्तव में ऐसे हालत काफी चिंताजनक है ओर ऐसे हालातों ने ही स्कूलों व कॉलेजों को शो रूम बनाकर रख दिया है।

 

यहाँ मेरा मतलब यह कदापि नहीं है कि षिक्षा का व्यावसायिकरण न हो लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि शिक्षा का क्षेत्र सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है जहाँ चरित्र निर्माण होता है और इसी से राष्ट्र निर्माण होता है। अत: इस व्यावसायिकरण का अंदाज ऐसा हो कि राष्ट्र निर्माण में किसी प्रकार की बाधा न आए । जहाँ तक व्यवसाय की बात है तो व्यवसाय की भी अपनी कुछ नैतिकताएँ व नीतियाँ होती है और उनका पालन किया जाना जरूरी होता है, तो शिक्षा समितियों व आयोगों के माध्यम से ऐसे उपायों की खोज की जाए कि एक शिक्षक अपना सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में ही विद्यार्थियों को प्रदान कर दे और उन्हें टयूशन की बजाय सिर्फ मार्गदर्शन की आवश्यकता हो। और हमारे देश की स्कूलों व कॉलेजों से स्नातकों के साथ जिम्मेदार व समझदार नागरिक भी निकलें। ऐसे उपायों की खोज की जानी अत्यन्त आवश्यक है जिससे शिक्षा के व्यावसायिकरण में सामाजिक व राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की भावना को प्रधानता मिले व एक गुणात्मक परिणाम समाज व राष्ट्र को प्रदान किया जाए ।

 

अगर हम कॉलेज व विश्वविद्यालयों की बात करे तो हालात और भी बिगड़े नजर आते है। आज हमारे देश में महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में उपस्थिति गौण नजर आती है। छात्र कक्षाओं में बैठना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। यहाँ तक आते आते छात्र व शिक्षक के बीच का संवाद लगभग समाप्त हो चुका होता है। जहाँ छात्र कक्षाओं में बैठते नहीं है वहीं उनके शिक्षक भी उन्हें इस बात के लिए समझाते नजर नहीं आते। प्राध्यापकों का यह मानना है कि कक्षा में कौन छात्र बैठता है और कौन नहीं बैठता है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। अगर एक छात्र भी आए तो हम उन्हें पढ़ा देंगे लेकिन अगर दूर खड़ा देख रहा है तो उसे आवाज नहीं लगाएंगे। होना यह चाहिए कि महाविद्यालय का शिक्षक छात्र को समझाएँ व उसे सही राह बताए कि उसके लिए कक्षा में बैठना कितना जरूरी है। इस सारे माहौल का परिणाम यह हुआ कि छात्र परीक्षा के दिनों में महत्वपूर्ण प्रश्न ढूँढ़ते फिरते हैं तथा दस बारह प्रश्नों के उत्तर रट कर याद कर लेते हैं और उसी से उनकी नैया पार हो जाती है और इस तरह त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स पैंतीस तीस प्रश्नों को याद करके ही पूरा कर लिया जात है। ऐसी स्थिति में गुणात्मक शिक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

 

वहीं दूसरी और बड़े पैमाने पर शिक्षा के निजीकरण ने आग में घी डालने का काम किया है । निजीकरण रूपी इस हाथी पर सरकार का अंकुष ही नहीं रहा है जिससे यह मदमस्त होकर शिक्षा का बेड़ा गर्क करने में लगा हुआ है। इस पर अंकुश की निहायत आवश्यकता है। निजी क्षेत्र में महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आ रही है। ये विश्वविद्याल व महाविद्यालय ज्ञान के केन्द्र होने के बजाय डिग्रीयाँ बेचने के केन्द्र के रूप में उभर रहे है। यहाँ छात्रों से मोटी रकम फीस के नाम पर वसूली जाती है और उन्हें मुंह मागी डिग्रीयॉ उपलब्ध करवाई जा रही है। ऐसे कईं विश्वविद्यालयों के उदाहरण आए दिन सामने आ रहे है। सरकार के हुक्मरानों से ये बात छिपी नहीं है लेकिन निजीकरण की अधी दौड़ में इन पर अंकुश रखने के उपाय इन्हें भी या तो नजर नहीं आ रहे है या जानबूझकर नजरअंदाज किए जा रहे है और ये भी एक बात है कि बहुत से महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के मालिक ये ही हूक्मरान है। निजी महाविद्यालयों में खुले आम छात्रों को नकल करवाई जाती है ताकि महाविद्यालय का परिणाम श्रेष्ठ रहे और ज्यादा से ज्यादा एडमिशन अगले साल महाविद्यालय को मिले। छात्र भी इन महाविद्यालयों में प्रवेष इसी कारण लेते हैं कि परीक्षा के दिनों में उन्हें ज्यादा मेहनत न करनी पड़े। अभिभावक इन तथ्यों को जानकर भी परिस्थितियों से समझौता कर रहे हैं ताकि लाडले की अंकतालिका अच्छी बनी रहे। ऐसी स्थिति में कैसे भारत निर्माण व विकास की बात की जा सकती है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बड़ी संख्या तो छात्र स्नातक व अधिस्नातक तो हो रहे है लेकिन उनमें स्तरीय ज्ञान का अभाव होता है।

 

कुल मिलाकर पूरे परिदृश्य पर नजर डाले तो हालात भयंकर ही लगते हैं। इन पर सिर्फ सरकारी प्रयासों या समितियों या सिफारिशों से ही नियंत्रण नहीं किया जा सकता जब तक आम आदमी का राष्ट्रीय चरित्र व नैतिक चरित्र ऊंचा नहीं उठेगा तब तक स्थितियाँ और विकट होगी । जरूरत है ऐसा माहौल पैदा करने की ताकि प्रत्येक शिक्षार्थी, शिक्षक , व अभिभावक के मन में नैतिक मूल्यों का विकास हो और भारतीय चरित्र निर्माण की उत्कंठ इच्छा हो। अगर ऐसा हो गया तो हमें किसी अन्ना हजारे की जरूरत नहीं होगी या किसी आंदोलन की जरूरत नहीं होगी, इस देश की सारी समस्याएँ अपने आप ही मिट जाएगी और राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिकों को यह अहसास होगा कि पहले देश है फिर परिवार या खुद का व्यक्तित्व।

एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले

रामअवतार त्यागी पुण्यतिथि (13 अप्रैल) पर विशेष

शादाब जफर ”शादाब”

”एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले मैने मन्जिल को तलाशा मुझे बाजार मिले” फिल्म जिन्दगी और तूफान का स्व. मुकेश द्वारा गाया गया ये गीत जब जब बजता है तब तब स्वभाव से शान्त, आदतों से आवारा, तबियत से बेहद जिद्दी और आचरण से बेहद तुनक मिजाज स्व. रामअवतार त्यागी की याद दिला जाता है। 25 जुलाई 1925 को सम्भल मुरादाबाद(उ0प्र0) के कुरकावली गॉव में माता भगवती देवी एवम पिता ऊदल सिहॅ त्यागी के यहां जन्मे रामअवतार त्यागी हिन्दी गीत विधा के ऐसे चर्चित व्यक्तित्व रहे है जिन्होंने एक ओर जहॉ मंचो पर भावनात्मक गीतों के कारण ख्याति प्राप्त की तो दूसरी ओर वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और मानवीय आंकाक्षाओं को अत्यन्त गहराई से चित्रित किया। रामअवतार त्यागी के गीतों की तुलना आज भी बहुत कम गीतकारो से की जाती है या यूं कहा जाये के त्यागी की मृत्यु के बाद से गीत विधा का आगन आज भी खाली है।

मेरी हस्ती को तोल रहे हो तुम, है कौन तराजू जिस पर तोलोगे,

में दर्द भरे गीतो का गायक हूं, मेरी बोली कितने में बोलोगे,

रामअवतार त्यागी के गीत की ये पंक्तियां कह रही है की स्व:त्यागी का जीवन बहुत सघर्ष और चुनौतियों से भरा रहा गॉव की मिट्टी में पले बढे इस गम्भीर सोच के गीतकार का पूरा जीवन षब्दो के संग खेलते बीता। कवि-सम्मेलनों में उन की चिन्ताकर्षक संवेदनशील भावाकुल आवाज, दर्द भरे गीतो में जनमानस के हदयों की धडकन सिहरन, सिसकन बन जाया करती थी। उन के गीतों में जितनी पीड़ा गहराती थी गीत उतने ही मधुर होते थे। दर्द भरे गीतों के इस राजकुमार ने गीतों को दर्द और वेदना का पर्याय बना दिया। आज उसी दर्द और वेदना को आज के कवि और गीतकार, अपने गीतों में साकार कर रहे है। 35 वर्ष तक रामअवतार त्यागी नव भारत टाइम्स अखबार से जुडे रहे और इन की कलम से निकले साप्ताहिक कालम ”दिल्ली एक शहर या है ”व ”राम झरोखे” जैसे मशहूर और यादगार कालम को पाठक आज भी याद करते है। इस अमर गीतकार की कलम से रचे गये काव्य संग्रह ‘गुलाब और बबूल’, गाता हुआ दर्द, में दिल्ली हूं, लहू के चन्द कतरे, नया खून, आठवा स्वर, सपने महक उठे, गीत बोलते है तथा ”समाधान” और ”चरित्रहीन के पात्र” नाम से इन्होंने उपन्यास लिखे।

देश भक्तिगीत ”तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित” तथा ”चाहता हूं कि देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं‘ को उ0प्र0 शिक्षा विभाग द्वारा कक्षा 7 की हिन्दी पुस्तक ”नव भारती” में शामिल किया गया। बाल उपयोगी काव्य ”मैं दिल्ली हूं” को भारत सरकार ने तथा ”आठवा स्वर” को उ0प्र0 सरकार ने पुरस्कृत किया।

”इस सदन में में अकेला ही दिया हूं मत बुझाओ

जब मिलेगी रोशनी मुझ से मिलेगी”

हिन्दी कविता के छायावाद युग में जो लोग हिन्दी गीत का सर्मथन करने में जुटे रहे उन में स्व: रामअवतार त्यागी का नाम भी अगली पंक्ति में आता है त्यागी ने आजन्म हिन्दी गीत लिखे और बहुत ही खूबसूरत दर्द भरे गीतों की रचना की कही कही तो इस गीतकार ने अपने दिल का पूरा का पूरा दर्द गीतो में उतार दिया।

”मैं न जन्म लेता तो शायद रह जाती विपदाये कुंवारी

मुझ को याद नहीं है मैंने सोकर कोई रात गुजारी

हिन्दी के मशहूर समकालीन हिन्दी गीतकार स्व: रमानाथ अवस्थी ने कहा था कि श्री रामअवतार त्यागी दर्द भरे गीतो का आवारा कवि है। स्व. रामधारी सिंह ‘दिनकर जी ने रामअवतार त्यागी जी के बारे में कहा था ”त्यागी के गीत मुझे बहुत पसन्द आते है उस के रोने उसके हंसने और उस के चिढ़ चिढे़ पन में भी एक अलग मजा है इस गीतकार की हर एक अदा मन को मोह लेती है”। अपने समकालीन इस कालजयी गीतकार की प्रशंसा में आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन, फिक्र तौसवी, डॉ. विनय, रमेश गौड,

भारतीय राजनीतिक एवं न्याययिक व्यवस्था से ज्यादा पश्चिमी देशों पर भरोसा करता है चर्च

नई दिल्ली – आजादी के बाद से भारतीय ईसाई एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के नागरिक रहे है। धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था चाहे कितनी ही दोषपूर्ण हो, लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहे कितनी ही गैर प्रतिनिधिक हो, यहां के ईसाइयों (चर्च) को जो खास सहूलियतें हासिल है, वे बहूत से ईसाइयों को यूरोप व अमेरिका में भी हासिल नही है। जैसे विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाना, सरकार से अनुदान पाना आदि। इसके बावजूद वह अपनी छोटी छोटी समास्याओं के लिए पश्चिमी देशों का मुँह ताकते रहते है। भारतीय राजनीतिक एवं न्यायिक व्यवस्था से ज्यादा उन्हें पश्चिमी देशों द्वारा सरकार पर डाले जाने उचित-अनुचित प्रभाव पर भरोसा रहता है। यह बाते ईसाई नेता आर.एल.फ्रांसिस की आने वाली पुस्तक ‘चलो चर्च पूरब की ओर’ में कही गई है।

पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष आर.एल.फ्रांसिस ने विभिन्न समाचार पत्रों में लिखे अपने लेखो का पुस्तक के रुप में संकलन किया है। जिसमें उन्होंने चर्च को साम्राज्वादी रैवया छोड़ने का सुझाव दिया है। कंधमाल मामलों का जिक्र करते हुए पुस्तक में कहा गया है कि भारतीय ईसाइयों का यह दुर्भाग्य रहा है कि मिशनरी ईसाइयों पर होने वाले हमलों को भी अपने लाभ में भुनाने से परहेज नही करते। वह वार्ता से भागते हुए अपनी गतिविधियों को यूरोपीय देशो का डर दिखाकर जारी रखते है। महत्मा गांधी तक ने धर्मातंरण की निंदा करते हुए इसे अनैतिक कहा उस समय के कई राष्ट्रवादी ईसाइयों ने गांधी जी के इस तर्क का समर्थन किया था क्योंकि उस समय मिशनरी गतिविधियों का मुख्य लक्ष्य लोगों को अंग्रेज समर्थक बनाना था आज भी मिशनरी अपना काम काज विदेशी धन से ही चलाते है। वे अमेरिकी और यूरोपीय ईसाई संगठनों के प्रति जवाबदेह है।

चर्च पादरियों के प्रति बढ़ती हिंसा पर पुस्तक के लेखक ने चर्च नेतृत्व को आत्म-मंथन का सुझाव देते हुए कहा है कि चर्च लगातार यह दावा करता है कि वह देश में लाखों सेवा कार्य चला रहा है पर उसे इसका भी उतर ढूढंना होगा कि सेवा कार्य चलाने के बाबजूद भारतीयों के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति इतनी नफरत क्यों है कि 30 सालों तक सेवा कार्य चलाने वाले ग्राहम स्टेन्स और उसके दो बेटों को एक भीड़ जिंदा जला देती है और उसके धर्मप्रचारकों के साथ भी टकराव होता रहता है। ऐसा क्यों हो रहा है इसका उतर तो चर्च को ही ढूंढना होगा।

‘चलो चर्च पूरब की ओर’ पुस्तक में लेखक ने वर्तमान परिस्थितियों का जिक्र करते हुए कहा है कि ईसाई भारतीय समाज और उसकी समास्याओं से अपने को जुड़ा नहीं महसूस करते है। वे अभी भी वेटिकन एवं अन्य पश्चिमी देशों पर निर्भर है। और उनके सारे विधि-विधान वेटिकन द्वारा संचालित किये जा रहे है।

करोड़ों धर्मांतरित दलित ईसाइयों की दयनीय स्थिति के लिए चर्च को कठघेरे में खड़ा करते हुए लेखक ने कहा है कि चर्च ने उनकी स्थिति सुधारने की उपेक्षा महज उन्हें संख्याबल ही माना है । विशाल संसाधनों वाला चर्च अब अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ने के लिये रंगनाथ मिश्र आयोग की दुहाई दे रहा है।

‘चलो चर्च पूरब की ओर’ पुस्तक के भाग दो में रंगनाथ मिश्र आयोग रिपोर्ट का संक्षिप्त विवरण एवं समीक्षा दी गई है और रंगनाथ मिश्र आयोग रिपोर्ट के धर्मांतरित ईसाइयों पर पड़ने वाले दुखद: तथ्यों को रेखकिंत किया गया है।

ये है दिल्ली मेरी जान

लिमटी खरे

जनता के आक्रोश को समझे कांग्रेस

गांधीवादी अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को देशव्यापी समर्थन मिला। अन्ना ने अनशन स्थल पर नेताओं के आने पर पाबंदी लगाई। उनका कहना था कि जिस भी राजनेता को उनकी मुहिम का समर्थन करना है वे अपने दलों के सांसद विधायकों के माध्यम से संसद या विधानसभा में सहयोग दें। अन्ना ने श्रेय के भूखे जनसेवकों को उचित मार्ग दिखाया। कांग्रेस नीत केंद्र सरकार सकते में है, अन्ना की मुहिम को जिस तरह का समर्थन मिला, उसकी कांग्रेस के रणनीतिकारों को कतई उम्मीद नहीं थी। दरअसल देशवासी भ्रष्टाचार, घपले, घोटालों से आजिज आ चुके हैं। अन्ना ने एक पत्थर तबियत से उछाला और लोगों का आक्रोश फट पड़ा। उतर गई जनता सड़कों पर। अब कांग्रेस की स्थिति सांप छछूंदर सी हो गई है। उधर राम किशन यादव उर्फ बाबा रामदेव के मन में राजनैतिक महात्वाकांक्षाएं जमकर हिलोरे मार रही हैं, सो वे भी पहुंच गए अन्ना के पास। वैसे कांग्रेस को इस संकेत को समझ लेना चाहिए कि जनता के मन मस्तिष्क में किस कदर रोष और असंतोष की स्थिति निर्मित हो चुकी है, जनता का गुस्सा अगर फटा तो भारत को भी मिश्र, लीबिया, टयूनीशिया की फेहरिस्त में शामिल होने से कोई नहीं रोक सकेगा।

 

युवाओं के कांधों पर है हृदय प्रदेश का भार

वैसे तो युवा मतलब 18 से 35 पर राजनैतिक मंच पर युवा का तात्पर्य अघोषित तौर पर 45 से 65 साल होता है। इस लिहाज से राजनैतिक नजरिए से अगर देखा जाए तो देश के हृदय प्रदेश की बागडोर युवा अफसरान और कारिंदों के हाथों में है। एम पी के भाजपा के एक संसद सदस्य ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि शिवराज सिंह चौहान को पता नहीं क्या हो गया है। नई भर्तियां बंद कर दी गईं हैं और सेवानिवृत्ति की आयु को बढ़ा दिया गया है। प्रदेश में युवाओं की भागीदारी दस फीसदी से भी कम है। आधे से अधिक कर्मचारी पचास के पेटे में हैं। शिवराज सिंह चौहान को भला सरकारी कर्मचारियों की फिकर क्यों होने लगी जब उनके मंत्रीमण्डल की औसत आयु ही साठ साल से अधिक है। पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान कबीना मंत्री बाबू लाल गौर की आयु 81 साल है पर वे आज भी युवा ही समझे जा रहे हैं। अब जब उमरदराज लोग ही सत्ता पर काबिज होकर मलाई खाना चाह रहे हों तो भला असली युवाओं की दाल कहां गलने वाली।

 

भ्रष्ट सोनिया के खिलाफ कांग्रेसी मंत्री का धरना

आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी सोनिया गांधी, वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के खिलाफ कांग्रेस की ही एक मंत्री का धरने पर बैठना राजधानी दिल्ली में चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल राजस्थान सरकार की चर्चित मंत्री गोलमा देवी अपने सांसद पति डॉ.किरोड़ी लाल मीणा के साथ जयपुर में धरने पर बैठी हैं। गोलमा का आरोप है कि सरकार के मंत्री और अफसर भ्रष्टाचार में पूरी तरह डूब चुके हैं, जिससे आजिज आकर उन्होंने एक साल पहले ही अपना त्यागपत्र मुख्यमंत्री को भेज दिया था। गोलमा के पति सांसद मीणा का कहना है कि वे मजलूम आदिवासियों का पक्ष रखने उदयपुर गए तो वहां से उन्हें जिला बदर ही कर दिया गया। किसी सांसद को जिला बदर करने का यह देख का संभवत: पहला और अनोखा ही मामला होगा। वैसे तो किरोड़ी का कहना है कि यह धरना अन्ना हजारे के अभियान का समर्थन है किन्तु राजनैतिक जानकार इसे बारगेनिंग से अधिक कुछ नहीं मान रहे हैं।

 

सावधान, 9200 रूपए के कर्ज में डूबा है हर भारतीय

14 और 15 अगस्त की दर्मयानी रात भारतवासियों के लिए बेहद महत्वूपर्ण मानी जाती है, इस दिन हमें आजादी मिली थी। इसे बाद आजादी में महत्वूपर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पर लोगों ने भरोसा जताया जो कालांतर में टूट गया है। देश को हर दृष्टि से समृध्द करने की जवाबदारी संभालने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस ने अपने आप को ही समृध्द करना बेहतर समझा है। साल दर साल विकास के आयाम छूने के लोक लुभावने वायदे, और विज्ञापनों में तस्वीरें देखकर जनसेवक खुश हो सकते हैं किन्तु जमीनी हकीकत इससे इतर ही है। एक समय था जब चलचित्रों के आरंभ हाने के पूर्व न्यूज रील में भाखड़ा नंगल बांध को देखकर हर भारतीय रोमांचित हो उठता था। आज इसके मायने बदल चुके हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि विश्व के कर्जदार देशों में भारत का 28वां नंबर है। भारत पर इस समय 295 अरब 80 करोड़ डालर का कर्ज है। इस लिहाज से भारत के हर नागरिक (आप पर) 9200 रूपए का कर्ज है।

 

खतरे में है चिंकारा

काले हिरण यानी चिंकारा पर संकट के बादल छाने लगे हैं। सलमान खान, नवाब पटौदी, तब्बू आदि इसी चिंकारा के शिकार के चलते कानूनी शिकंजे में फंसे। हरियाणा के करनाल के पास लगभग डेढ़ सैकड़ा काले हिरणों पर कुत्तों, जंगली जानवरों के साथ ही साथ शिकारियों की गिध्द दृष्टि के चलते इनके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। वहीं दूसरी और देश के हृदय प्रदेश में सिवनी जिले में चिंकाराओं की तादाद पांच हजार से अधिक है। आलम यह है कि जिला मुख्यालय सिवनी से महज दो तीन किलोमीटर दूर चिंकाराओं की फौज धमाचौकड़ी करती दिख जाती है। किसानों की फसलों पर इनका कहर जब टूटता है तब किसान अपने करम पर हाथ रखकर रोने पर मजबूर हो जाता है। यहां शौकीन लोग इसका सरेराह शिकार करते रहते हैं। कहते हैं कि हिरण का रेशेदार लजीज मांस दावतों में खूब मजे लेकर खाया जाता है। अगर इसकी एक सेंचुरी बना दी जाए तो चिंकारा के अस्तित्व को बचाया जा सकता है।

 

दिन में स्लीपर चार्ज का क्या काम!

ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले रेल महकमे पर एक महत्वपूर्ण सवाल दागा गया है। दिन में रेल में सफर करने वाले यात्रियों से स्लीपर का किराया क्यों वसूला जाता है? जी हां केरल के उपभोक्ताओं के हितों को साधने वाले एक संगठन ने यह सवाल राष्ट्रीय उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग के समक्ष दायर याचिका में कहा गया है कि तिरूचिरापल्ली और चेन्नई के बीच चलने वाली रेल गाड़ी सुबह आठ बीस पर निकलकर शाम पौने छ: बजे गंतव्य तक पहुंच जाती है। तिरूचिरापल्ली के कंज्यूमर प्रोटेक्शन काउंसिल द्वारा कहा गया है कि इस रेल में सामान्य के अलावा वातानुकूलित और शयनयान श्रेणी के डब्बे होते हैं। देश भर में अनेकों रेल एसी होंगी जो दिन में ही आरंभ होकर गंतव्य तक पहुंच जाती होंगी। दिन में सफर करने वाले यात्रियों से स्लीपर का चार्ज लेना समझ से परे ही है। ममता को पश्चिम बंगाल से फुरसत मिले तब वे रेल यात्रियों के बारे में कुछ सोचें।

 

गायब बच्चों की तादाद साठ हजार!

अभी 2011 की पहली तिमाही ही बीती है और देश भर से साठ हजार बच्चे गायब हो गए हैं। इस लिहाज से हर रोज छ: बच्चे गायब हो रहे हैं। देश की सबसे बड़ी पंचायत को अपने दामन में समेटने वाली देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में ही 463 बच्चे गायब हो चुके हैं। देश के नौनिहालों के प्रति गैर संजीदा केंद्र और सूबाई सरकारों के मनमाने रवैए के चलते गायब होने वाले बच्चों को वैश्यावृति, नशीली दवाओं का कारोबार, असुरक्षित औद्योगिक इकाईयों आदि में झोंकने की आशंका जताई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश में बच्चों के गायब होने की सूचना दर्ज होने के चोबीस घंटे बाद इस सूचना को अपहरण के मुकदमे में तब्दील समझे जाने की अधिसूचना जारी कर दी गई है। देश के नीति निर्धारिकों को आखिर बच्चों की फिकर क्यों होने लगी क्योंकि उनके बच्चे तो संगीनों के साए में महफूज ही हैं।

 

 

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन

हृदय प्रदेश की संस्कारधानी के जिलाधिकारी ने एक अनूठी मिसाल कायम की है, जिसकी चर्चा दिल्ली तक में हो रही है। जाबलि ऋषि की कर्म भूमि जबलपुर के जिला कलेक्टर गुलशन बामरा ने एक ऐसी मिसाल पेश की है जिसे देखकर लोग कहने लगे हैं कि इसे देश भर में नजीर के तौर पर पेश किया जाना चाहिए। भारतीय प्रशसिनक सेवा के अधिकारी गुलशन बामरा ने यूनिक आई डी के प्रपत्र समय पर नहीं पहुंचने के कारण अपने मातहतों को सबक सिखाने के लिए उनके मार्च माह के वेतन रोकने की चेतावनी दी थी। जब निर्धारित समय में काम पूरा नहीं हुआ तो इसकी नैतिक जिम्मेवारी उन्होंने अपने सर लेते हुए अपना ही मार्च माह का वेतन रूकवा दिया। कर्मचारी हतप्रभ हैं कि उनकी गल्ति का खामियाजा टीम का कप्तान भोग रहा है। बामरा ने अपने मातहत जिला कोषालय अधिकारी रोहित सिंह कौशल को निर्देश दिए हैं कि अन्य अधिकारी और कर्मचारियों के द्वारा प्रपत्र समय पर नहीं भरने के कारण उनके वेतन पर आपत्ति लगा दी जाए।

 

गरीब गुरबों की सेहत से खिलवाड़!

कांग्रेसनीत संप्रग सरकार द्वारा गरीब गुरबों के स्वास्थ्य के साथ सरेआम खिलवाड़ किया जा रहा है। संप्रग की महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत गरीबों को निशुल्क वितरित की जाने वाली दवाओं की गुणवत्ता की जांच किए बिना ही उन्हें बांट दिया जा रहा है। डॉ.एम.एम.जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय लोक लेखा समिति के प्रतिवेदन में यह सनसनीखेज खुलासा हुआ है। माना जा रहा है कि देश के हर उप, प्राथमिक, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में लगभग तीन लाख रूपए मूल्य से अधिक की एक्सपायरी डेट की दवाएं वितरित कर अरबों रूपयों का घोटाला किया गया है। दरअसल दवा निर्माता कंपनियों और स्वास्थ्य महकमे के अधिकारियों के गठजोड़ के चलते केंद्र सरकार को अरबों रूपयों का चूना लगाया जा रहा है। दवा लाबी के आगे घुटने टेकने वाले स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नवी आजाद भी इस मामले में मौन ही साधे हुए हैं।

 

कश्मीर समझौते पर बाधा बने थे कयानी

सालों से सुलगते कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच 2008 में ही समझौता हो जाता क्योंकि दोनों देशों के बीच इस मसले पर लगभग सहमति बन गई थी। यह मामला परवान इसलिए नहीं चढ़ सका क्योंकि पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल अश्फाक कयानी इसके लिए तैयार नहीं थे। चर्चित और विवादित वेब साईट विकीलीक्स ने यह खुलासा करते हुए कहा है कि 28 नवंबर 2008 को लंदन में अमेरिकी दूतावास से चले एक संदेश में कहा गया था कि ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय का मानना था कि कश्मीर मामले पर मनमोहन सिंह और आसिफ अली जरदारी समझौता दस्तावेज पर राजी हो गए हैं, किन्तु जनरल कयानी इसमें बाधा बने हुए हैं। विकीलीक्स का दावा है कि अगर कयानी इसमें अपना सकारात्मक रूख अख्तियार करते तो 2008 में ही सुलगते कश्मीर पर बर्फ की बौछार हो चुकी होती।

 

दिग्गी ने किया विद्यार्थियों का भविष्य बर्बाद!

कांग्रेस के सबसे ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने देश के हृदय प्रदेश के विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है। यह बात आसानी से गले उतरने वाली नहीं है पर सच्चाई है इस बात में। दरअसल मध्य प्रदेश में एक किंवदंती है कि आबकारी विभाग की आय से शिक्षा विभाग चलता है। दिग्गी राजा के शासनकाल में मध्य प्रदेश के आबकारी ठेकेदारों ने लगभग सत्तर करोड़ रूपयों का राजस्व जमा कराने के बजाए पी लिया गया। इसके बाद भाजपा के शासन काल में ठेकेदारों ने अपने कर्मों पर पर्दा डालने के लिए नेताओं अधिकारियों से मिलकर बकाया के प्रकरणों को राईट ऑफ अर्थात निष्पादित करने की जुगत लगा दी गई। अनेक ठेकेदार इसमें कामयाब भी हो गए, हों क्यों न आखिर ‘लक्ष्मी मैया’ में बेहद ताकत होती है, क्या कांग्रेसी क्या भाजपाई, सभी मैया के सेवक जो ठहरे।

 

जनसेवक बनने की चाह में एक और नवधनाढ्य

सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए सुकुमारों का राजनीति में आना शगल बन गया है। जनसेवकों में शायद ही कोई एसा होगा जिसका वारिस लाखों या करोड़ों की संपत्ति का मालिक न हो। भारत सरकार के आयकर विभाग को यह दिखाई नहीं देता कि आखिर एसी कौन सी जादू की छड़ी इन नवधनाडयों के पास है कि युवा होते ही ये करोड़ों की संपत्ति के मालिक बन बैठते हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के साहेबजादे अभिजीत ने बीरभूम जिले से अपने नामंकन के साथ जो हलफनामा दायर किया है उसके मुताबिक उनके पास 58 लाख 22 हजार 890 रूपयों की चल संपत्ति है। इसमें 31 लाख 54 हजार 25 रूपए के गहने, एक महिन्द्रा जीप, एक मारूति कार, एक मोटर सायकल आदि शामिल है। अब आप ही बताईए इन नव धनाढ्य सुकुमारों के राजनीति में आने के बाद इनकी संपत्ति में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी तो दर्ज होगी ही न।

 

पुच्छल तारा

चैत्र के माह में नवरात्व की धूम मची हुई है। सभी माता रानी के जयकारे लगा रहे हैं। क्रिकेट विश्व कप जीतने का खुमार अभी उतरा नहीं था कि ट्वंटी ट्वंटी ने अपनी आमद दे दी। इसी बीच इक्कीसवीं सदी के गांधी और लोकनायक जय प्रकाश नारायण की अघोषित उपाधि पाने वाले अन्ना हजारे ने जनता के मन में भ्रष्टाचार के महाकुंभ की सफाई के लिए कांग्रेसनीत केंद्र सरकार को ललकार दिया। इसी सब को जोड़ते हुए छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से सोनाली शर्मा ने एक प्यारा सा ई मेल भेजा है। सोनाली लिखती हैं कि दो दोस्तों के बीच बातचीत चल रही थी। पहले ने कहा यार तू तो हर समय शेर बना फिरता है, फिर घर जाकर भीगी बिल्ली क्यों और कैसे बन जाता है। पहला खींसे निपोरते हुए बोला -”यार, वो क्या है न कि . . ., घर पर माता शेर पर सवार रहती है।”

कब समाप्त होगी मैला उठाने की परंपरा

लिमटी खरे

विडम्बना दर विडम्बना! आजादी के लगभग साढ़े छः दशकों के बाद भी भारत गणराज्य में आज भी सर पर मैला ढोने की परंपरा जारी है। केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय खुद इस बात को स्वीकार करता है कि मैला ढोने की परंपरा से मुक्ति के लिए बने 1993 के कानून का पालन ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है। एक तरफ नेहरू गांधी के नाम को भुनाकर सत्ता की मलाई चखने वाली आधी सदी से ज्यादा देश पर राज करने वाली कांग्रेस द्वारा इससे मुक्ति के लिए प्रयास करने का स्वांग रचा जाता रहा है, वहीं कांग्रेस यह भूल जाती है कि मोहन दास करमचंद गांधी खुद अपना संडास साफ किया करते थे।

पिछले साल दिसंबर माह में सफाई कर्मचारी आंदोलन के एक प्रतिनिधि मण्डल ने सामाजिक न्याय मंत्री से भेंट कर देश भर में सर पर मैला ढोने वालों का सर्वेक्षण करवाकर उसकी विस्त्रत रिपोर्ट सौंपी थी। इस प्रतिवेदन में कहा गया था कि देश के पंद्रह राज्यों में सर पर मैला ढोने वालों की तादाद 11 हजार से भी अधिक है। इस प्रतिनिधिमण्डल ने केंद्रीय मंत्री को सौंपे अपने प्रतिवेदन में साफ किया था कि कहां कहां कौन कौन इस काम में जुता हुआ है। इसमें फोटो और अन्य विवरणों के साथ इस अमानवीय कृत्य के बारे में सविस्तार से उल्लेख किया गया था।

पिछली मर्तबा 2008 के संसद के शीतकालीन सत्र में तत्कालीन सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री श्रीमती सुब्बूलक्ष्मी जगदीसन ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उŸार में बताया था कि मैला उठाने की परम्परा को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए रणनीति बनाई गई है । उस वक्त उन्होंने बताया कि मैला उठाने वाले व्यक्तियों के पुनर्वास और स्वरोजगार की नई योजना को जनवरी, 2007 में शुरू किया गया था । उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत तब देश के 1 लाख 23 हजार लाख मैला उठाने वालों और उनके आश्रितों का पुनर्वास किया जाना प्रस्तावित था।

कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य के मल को मनुष्य द्वारा ही उठाए जाने की परंपरा इक्कीसवीं सदी में भी बदस्तूर जारी है। देश प्रदेश की राजधानियों, महानगरों या बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को भले ही इस समस्या से दो चार न होना पड़ता हो पर ग्रामीण अंचलों की हालत आज भी भयावह ही बनी हुई है।

कहने को तो केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुष्क शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है, वस्तुतः यह प्रोत्साहन किन अधिकारियों या गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की जेब में जाता है, यह किसी से छुपा नहीं है। करोड़ों अरबों रूपए खर्च करके सरकारों द्वारा लोगों को शुष्क शौचालयो के प्रति जागरूक किया जाता रहा है, पर दशक दर दशक बीतने के बाद भी नतीजा वह नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी।

सरकारों को देश के युवाओं के पायोनियर रहे महात्मा गांधी से सबक लेना चाहिए। उस समय बापू द्वारा अपना शौचालय स्वयं ही साफ किया जाता था। आज केंद्रीय मंत्री जगदीसन की सदन में यह स्वीकारोक्ति कि देश के एक लाख 23 हजार मैला उठाने वालों का पुर्नवास किया जाना बाकी है, अपने आप में एक कड़वी हकीकत बयां करने को काफी है। पिछले साल जब 11 हजार लोगों के इस काम में लगे होने की बात सामने आई तब कांग्रेसनीत केंद्र सरकार का अमानवीय चेहरा सामने आया था।

सरकार खुद मान रही है कि आज भी देश में मैला उठाने की प्रथा बदस्तूर जारी है। यह स्वीकारोक्ति निश्चित रूप से सरकार के लिए कलंक से कम नहीं है। यह कड़वी सच्चाई है कि कस्बों, मजरों टोलों में आज भी एक वर्ग विशेष द्वारा आजीविका चलाने के लिए इस कार्य को रोजगार के रूप में अपनाया जा रहा है।

सरकारों द्वारा अब तक व्यय की गई धनराशि में तो समूचे देश में शुष्क शौचालय स्थापित हो चुकने थे। वस्तुतः एसा हुआ नहीं। यही कारण है कि देश प्रदेश के अनेक शहरों में खुले में शौच जाने से रोकने की पे्ररणा लिए होर्डिंग्स और विज्ञापनों की भरमार है। अगर देश में हर जगह शुष्क शौचालय मौजूद हैं तो फिर इन विज्ञापनों की प्रसंगिकता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगाए जा रहे हैं? क्यों सरकारी धन का अपव्यय इन विज्ञापनों के माध्यम से किया जा रहा है?

उत्तर बिल्कुल आईने के मानिंद साफ है, देश के अनेक स्थान आज भी शुष्क शौचालय विहीन चिन्हित हैं। क्या यह आदी सदी से अधिक तक देश प्रदेशों पर राज करने वाली कांग्रेस की सबसे बड़ी असफलता नहीं है? सत्ता के मद में चूर राजनेताओं ने कभी इस गंभीर समस्या की ओर नज़रें इनायत करना उचित नहीं समझा है। यही कारण है कि आज भी यह समस्या कमोबेश खड़ी ही है।

महानगरों सहित बड़े, छोटे, मंझोले शहरों में भी जहां जल मल निकासी की एक व्यवस्था है, वहां भी सीवर लाईनों की सफाई में सफाई कर्मी को ही गंदगी के अंदर उतरने पर मजबूर होना पड़ता है। अनेक स्थानों पर तो सीवर लाईन से निकलने वाली गैस के चलते सफाई कर्मियों के असमय ही काल के गाल में समाने या बीमार होने की खबरें आम हुआ करती हैं।

विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर हम आईटी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने का दावा कर चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शौच के मामले में आज भी बाबा आदम के जमाने की व्यवस्थाओं को ही अंगीगार किए हुए हैं। इक्कीसवीं सदी के इस युग में आज जरूरत है कि सरकार जागे और देश को इस गंभीर और अमानवीय समस्या से निजात दिलाने की दिशा में प्रयास करे।

कविता/ वतन छोड़ परदेस को भागते

देश पूछेगा हमसे कभी न कभी,

जब थी मजबूरियाँ, उसने पाला हमें

हम थे कमज़ोर जब, तो सम्भाला हमें

परवरिश की हमारी बड़े ध्यान से

हम थे बिखरे तो सांचे में ढाला हमें

बन गए हम जो काबिल तो मुंह खोल कर

कोसने लग गए क्यों इसी देश को?

देश के धन का, सुविधा का उपभोग कर,

पोसने लग गए दूजे परिवेश को?

 

इसकी समृद्ध भूमि में उपजे हैं जो,

“देश में अब नहीं कुछ” ये कहते हैं वो

अपने घर की दशा देखें फुर्सत कहाँ

और पड़ोसी कि बातों में बहते हैं वो

“चंद मुद्रा विदेशी मिलें” सोचकर

ग़ैर की ठोकरों में ही रहते हैं जो

है डटे रहना पैसे कि खातिर वहां

इन्तेहाओं तक अपमान सहते हैं वो

 

मैं नहीं कहता परदेस जाओ नहीं,

पर गलत ये की मुड़ के फिर आओ नहीं

दूसरे कि जमीं पर गुज़ारा करो

लेकिन अपनी जमीं को भुलाओ नहीं

तुम हो आज़ाद किसकी भी सेवा करो

दुश्मनी पर ‘वतन’ से निभाओ नहीं

और शक्ति कहीं कि उठाओ भले

लेकिन माता को अपनी दबाओ नहीं

 

राम ने था कहा, “चाहे सोने की हो,

ऐसी लंका में मुझको न आराम है|

जन्मभूमि में ही मेरी पहचान है

मेरी जननी वही, मेरा सुख-धाम है|”

जिसने जड़ दी हमें, हमको पहचान दी

हम उसी जड़ को खुद से जुदा कर रहे हैं

वतन छोड़ परदेस को भागते,

क्या यही फ़र्ज़ माँ को अदा कर रहे हैं?

 

-अरुण सिंह

 

निगाहें

स्टेशन की सीढियां चढ़ते हुए

हर रोज़

रास्ता रोक लेती हैं

कुछ निगाहें

अजीब से सवाल करती हैं

और मैं

नज़रें बचाते हुए

हर बार की तरह

आगे बढ़ जाता हूं

ऐसा लगता है

जैसे एक बार फिर

ईमान गिरवी रख कर भी

अपना सब कुछ बेच आया हूं

और किसलिए

चंद सिक्कों की खातिर

क्यूं नहीं जाता

मेरा हाथ

अपनी जेब की तरफ

और

क्यूं नहीं निकलती उसमे से

कुछ चिल्लर

जो दबी पड़ी है

हजार के नोटों के बीच में

ठीक वैसे ही

जैसे

मेरा मन दबा है

उन निगाहों के बोझ से

लोगों की हिकारत भरी नज़रों के बोझ से

अनजाने से डर के बोझ से

और शायद

अपनी जेब हल्की होने के बोझ से

क्या कभी ऐसा कर पाऊंगा

बिना डरे

बिना सोचे

बिना झिझके

चंद सिक्के

चुपचाप वहां रख पाऊंगा

पता नहीं

शायद

कभी ये सब सच हो जाये

या फिर

सपना, सपने में ही मर जाये…

बिजली के खेल से किसानों की तबाही ।

पावर हब प्रदेश में पावर का खेल, बलौदा बाजार में ब्लड कैंसर के मामले बढे ।
जांजगीर-चांपा, कोरबा, रायगढ, सरगुजा, अंबिकापुर जैसे वनाच्छादित जगहों पर सरकार नें पावर प्लांट लगाने की अनुमति क्या दी वहां के निवासियों का जीना मुहाल हो गया है । कोरबा में लैंको अमरकंटक पावर प्लांट के एक उदाहरण से आप सभी जगहों की स्थिति का आंकलन कर सकते हैं । मैं कल रात को इ क्षेत्रों का चार दिवसीय दौरा निपटा कर आया हूँ । इस प्लांट को शुरूआत में 300-300 मेगावाट के दो प्लांट लगाने से हुई थी लेकिन अगले 5 साल में इसने अपनी क्षमता 1960 मेगावाट कर ली है । इस कंपनी के कारनामें देखें – इसे पानी देने के लिये हसदेव नदी  पर एनीकेट बनाने का प्रस्ताव पास हुआ और कार्य मिला शांति इंजीकॉन को जिसके प्रबंधक स्थानीय विधायक के पुत्र हैं ।  एनिकेट बनाने के लिये शांति इंजीकॉम द्वारा कुदुरमाल गांव में पत्थरों के लिये जमकर ब्लास्टिंग की गई जिससे वहां के निवासियों के 150 से ज्यादा मकान क्षतिग्रस्त हो गये । इसी जगह पर सतगुरू कबीर की मजार स्थित है जो इस विस्फोट से क्षतिग्रस्त हो गई है ।   … एक ओर सरकार कबीर साहब के लिये बडे बडे आयोजन करती है वहीं मजार के क्षतिग्रस्त होने पर नजरअंदाजी की दोगली नीती से स्थानीय लोगों की भावनाएं आहत हुई है । दिसंबर से जनवरी तक अमीत जोगी द्वारा लगातार आंदोलन चलाया गया जिसमें 15 दिनों का आमरण अनशन भी हुआ तब कहीं जाकर कलेक्टर द्वारा शांति इंजीकॉम को ब्लासटिंग रोकने का आदेश जारी किया गया ।
ये बात थी एक एनीकेट की          अब जरा लैंको अमरकंटक की कारगुजारी पर नजर डालें- यह कंपनी स्थानीय लोगों को रोजगार, पर्यावरण की कई योजनाओं, स्कूल, अस्पताल के साथ साथ किसानों को अधिकतम मुआवजा तथा परिवार के एक व्यक्ति को रोजगार देने जैसी लोकलुभावन बातों के साथ अपना काम शुरू किया । आज हालात ये हैं कि परिवार तो छोडिये स्थानीय लोगों को भी कंपनी रोजगार नही दे रही है । नदी से होकर खेतों को तीन मीटर गहरा खोदते हुए जो पाइप लाइन बिछाई गई उन खेतों के किसानों को जो मुआवजा मिला उससे तो वे खेत की मिट्टी भी बाहर नही फेंकवा पाए । कंपनी का कहना था कि हम तो केवल गढ्ढा खोद रहे हैं जमीन अधिग्रहित नही कर रहे हैं सो क्यों मुआवजा दें । आसपास के पूरे पेडों को काट दिया गया ताकि वाहन निर्बाध रूप से आना जाना कर सकें । वृक्षारोपण की कोई श्रंखला तैय्यार नही की गई जबकि केंद्रिय पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार एक पेड के बदले न्यूनतम चार पेड लगाने का नियम है ।
लगभग यह हाल सभी पावर प्लांटो का है । समस्या यहीं पर खत्म ना होकर तब शुरू होती है जब पानी की किल्लतें होना चालू हो जाती है । साफ पानी ना होने के कारण (जमीन में ब्लास्टिंग होगी तो क्या अमृत मिलेगा ) पीलीया और हैजा जैसी बीमारी तो आम है अब हाथी पांव भी इन बीमारीयों की दौड में शामिल हो गया है । सबसे चिंताजनक स्थिति बलौदाबाजार की है जहां लगातार बढते उद्योग , गिरते जलस्तर, घटते वन और बढते प्रदुषण के कारण ब्लड कैंसर की बीमारी तेजी से फैल रही है । इस छोटी सी जगह से 3 माह में 4 से 5 केस ब्लड कैंसर के आए हैं जिनमें से एक पत्रकार भी है जो पैसे ना होने के कारण मुंबई से वापस आ गया है
जन जागरण का एक अनूठा नजारा चांपा मे देखने को मिला । यहां के युवा अलग अलग दलों से संबंध रखते हैं किंतु पर्यावरण के मसले पर एक जुट होकर आंदोलन करते हैं । यहां पर कांग्रेस, भाजपा, एन.एस.यू.आई. और विद्यार्थी परिषद के सभी सदस्यों नें अपना एक अलग सर्वदलीय मंच बना रखें है और जब कभी स्थानीय मसले पर आंदोलन करता होता है तो सभी सदस्य इस एक मंच से अपना आंदोलन चलाते हैं । इसके क सदस्य आशईष चौधरी भी है जो बताते हैं कि किसी तरह से स्थानीय लोग राजनीती से दूर होकर अब अपने हित के लिये लड रहे हैं । ये लोग जनजागरण करते हैं और लोगों को हिदायत देते हैं कि किसी भी तरह के प्रदुषण होने की दशा में तत्काल सबको चेतावनी दें औऱ मजबूती से उसका विरोध करें ।
लेकिन इस दौरे पर  एक दुःखद पहलू ये भी दिखा कि प्रशासन और कंपनी के साथ साथ स्थानीय प्रिंट मिडिया भी आमजनों के हितों की अनदेखी कर रहा है ।

बिजली गिरी, जोगी अब तेरा सहारा

शाबाश रमन सिंह जी । बहुत ही शातिराना चाल चल रहे हो आम जनता के साथ । पहले विपक्ष को अपने साथ मिला लिये फिर विपक्ष को आदिवासियों की ओर भिडा दिये और विद्युत नियामक बोर्ड की आड में बिजली दरों में 22 फीसदी तक की बढोत्तरी कर डाले । क्योंकि अब आपसे कोई कुछ पुछ तो सकेगा न ही क्योंकि आप तो बता दोगे कि भाई मैं तो चाँवल वाला बाबा हूँ भला बिजली से मेरा क्या लेना देना । सारा प्रदेश जानता था कि बिजली के दाम बढेंगे फिर भी सबने बढने का इंतजार किया किसी ने यह नही पुछा कि जब प्रदेश में सरप्लस बिजली उत्पादन हो रहा है तो राज्य के निवासियों को धूल गर्दा खिलाने के बाद अब बढी बिजली का पैसा क्यों वसूला जा रहा है । 24 घंटे लाइट रहना कोई उपलब्धी नही कही जा सकती क्योंकि ये काम जोगी शासन में हो चुका था रहा सवाल बिजली के दामों में बढोत्तरी का तो इसका कारण एक ही समझ पडता है कि प्रदेश के नेताओं को हराम के खाने की इतनी बुरी आदत पड गई है कि अभ वो हर जगह से पैसा खाना चाहते हैं । जोगी जी जिन्होने वास्तव में प्रदेश में एक बेहतरीन शासन कायम किये थे और बनियों को दूर करके आदिवासीयों और प्रदेश की जनता को मुनाफा दिलाते रहे थे उनके खिलाफ माहौल बना कर अब खुद बनियागिरी कर रहे हैं ।
इस समय यदि कोई सही व्यक्ति हो सकता है जिसके बैनर के नीचे प्रदेश की जनता रमन सरकार को कटघरे में खडे कर सकती है तो वह निश्चित रूप से अजीत जोगी हो सकते हैं । मेरे इस कथन से कोई मुझे कांग्रेस समर्थक ना समझे इसलिये साफ कर देना चाहूँगा कि मैं एक पत्रकार होने की दृष्टि से केवल व्यक्ति का चुनाव करता हूँ जिससे आम जनता का हीत सध सके । मेरे कहने का अर्थ आप ये समझें कि प्रधेश में जो मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार चल रहा है उससे निपटने के लिये विपक्ष होता है लेकिन इश समय प्रदेश का विपक्ष सरकारी बोली मे चल रहा है इसलिये वर्थमान में प्रदेश के लोगों को एक ऐसे व्यक्ति का साथ चाहिये जिसके साथ मिलकर हम अपनी आवाज बुलंद कर सकें । यदि मैं और आप अकेले खडे होकर जनता के सामने चिल्लाएंगे तो स्वार्थी कहलाएँगे जबकि एक पदस्थ  व्यक्ति के कहने पर कार्यवाही होती है ।
मुझे पूरा यकिन है कि जोगी जी इसे जरूर पढेंगे इसलिये मेरा उनसे निवेदन है कि आदरणीय जोगीजी छत्तीसगढ प्रदेश की भोली जनता को वह मार्ग बताएं जिसके द्वारा प्रदेश सरकार की मनमानी और बनियागिरी को बंद कराया जा सके । हर जगह भ्रष्टाचार अपना पैर पसार रहा है छोटे छोटे कामों के लिये रिश्वत मांगी जा रही है , कानून व्यवस्था बिगड रही है यहां तक की पुलिस विभाग भी असंतुष्ट है (निधी तिवारी की मौत पर कोई कार्यवाही नही हुई, दुर्ग में पार्षद के खिलाफ कार्यवाही होने पर थाना प्रभारी को लाइन में बैठा दिया गया जैसी कई घटनाएं है) । भाजपा के नेता अपना जीवन स्तर सुधारने के चक्कर में जनता को दिन हिन बना रहे हैं । इस बिजली की बढती किमत जनता को कहां ले जाकर मारेगी इसकी कल्पना व्यर्थ है । चांवल 2 रूपये किलो मिल रहा होगा लेकिन उसकी आड में 10 रूपये की बिजली थमा देना कहां का न्याय है । अतः आपसे निवेदन है कि इस मामले को ध्यान में रखते हुए किसी आंदोलन की रूपरेखा तय करें ।
नेताओँ को तो मुफ्त में मिल रही है बिजली उनका इससे कोई लेना देना नही है । पहले तो घटिया मीटर दिये गये जो औसत से ज्यादा खपत दिखा रहे हैं और ऊपर ये अब किमत भी बढा रहे हैं ।
और क्या लिखूं मन में भरी भडास के कारण कुछ समझ नही आ रहा है इसलिये अभी तो बंद करता हूँ फिर लिखूंगा ।

ये है हमारे देश का धार्मिक चरित्र-दलित रिटायर हुआ तो रूम को गोमूत्र से धोया!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

केरल तिरूअनंतपुर से एक खास खबर है, कि ‘‘दलित रिटायर हुआ तो रूम को गोमूत्र से धोया’’ जिसे इलेक्ट्रोनिक मीडिया और प्रिण्ट मीडिया ने दबा दिया और इसे प्रमुखता से प्रकाशित या प्रसारित करने लायक ही नहीं समझा| कारण कोई भी समझ सकता है| मीडिया बिकाऊ और ऐसी खबरों को ही महत्व देता है, जो उसके हितों के अनुकूल हों| दलितों के अपमान की खबर के प्रकाशन या प्रसारण से मीडिया को क्या मिलने वाला है? इसलिये मीडिया ने इसे दबा दिया या बहुत ही हल्के से प्रकाशित या प्रसारित करके अपने फर्ज की अदायगी करली, लेकिन यह मामला दबने वाला नहीं है| खबर क्या है पाठक स्वयं पढकर समझें|

खबर यह है कि देश के सामाजिक दृष्टि से पिछड़े माने जाने वाले राज्यों में किसी दलित अधिकारी का अपमान हो जाए तो यह लोगों को चौंकाता नहीं है, लेकिन सबसे शिक्षित और विकसित केरल राज्य में ऐसा होना हैरान करता है| यह सोचने को विवश करता है कि सर्वाधिक शिक्षित राज्य के लोगों को प्रदान की गयी शिक्षा कितनी सही है?

खबर है कि केरल राज्य के तिरूअनंतपुरम में एक दलित अधिकारी के सेवानिवृत्त होने के बाद उसकी जगह आए उच्च जातीय अधिकारी ने उसके कक्ष और फर्नीचर को शुद्ध करने के लिए गोमूत्र का छिड़काव करवाया| दलित वर्ग के ए. के. रामकृष्णन 31 मार्च को पंजीयन महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे| उन्होंने उक्त बातों का पता लगने पर मानव अधिकार आयोग को लिखी अपनी शिकायत में कहा है कि उनके पूर्ववर्ती कार्यालय के कुछ कर्मचारियों ने मेज, कुर्सी और यहां तक कि कार्यालय की कार के अंदर गोमूत्र छिड़का है| इस घटना की जांच की मांग करते हुए उन्होंने मानव अधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया है|

रामकृष्णन ने कहा कि ‘‘कार्यालय और कार का शुद्धिकरण इसलिए किया गया, क्योंकि वह अनुसूचित जाति (दलित वर्ग) से हैं और यह उच्च जातीय व्यक्ति द्वारा जानबूझकर किया गया उनके मानव अधिकार एवं नागरिक स्वतंत्रता के अधिकारों का खुला उल्लंघन है|’’

दलित वर्ग के ए. के. रामकृष्णन की याचिका के आधार पर मानव अधिकार आयोग ने मामला दर्ज कर राज्य सरकार के कर-सचिव को नोटिस भेजा है| इसका जवाब सात मई तक देना है|

दलित वर्ग के ए. के. रामकृष्णन का कहना है कि ‘‘मैं इस मामले को सिर्फ व्यक्तिगत अपमान के तौर पर नहीं ले रहा हूँ| यह सामाजिक रूप से वंचित समूचे तबके का अपमान है| यदि एक सरकारी विभाग में शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति को इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ सकता है तो निचले पायदान पर रहने वाले आम लोगों की क्या हालत होगी?’’ उन्होंने बताया कि ‘‘पंजीयन महानिदेशक के पर पर पिछले पांच साल का उनका अनुभव बहुत खराब रहा है|’’

इस मामले में सबसे बड़ा और अहम सवाल तो यह है कि नये पदस्थ उच्च जातीय अधिकारी को गौ-मूत्र ये कार्यालय की सफाई करने के लिये कितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्योंकि उन्होंने तो वही किया तो उन्हें उसके धर्म-उपदेशकों ने सिखाया या उन्हें जो संस्कार प्रदान किये गये| ऐसे में केवल ऐसे अधिकारी के खिलाफ जॉंच करने, नोटिस देने या उसे दोषी पाये जाने पर दण्डित करने या सजा देने से भी बात बनने वाली नहीं है|

सबसे बड़ी जरूरत तो उस कुसंस्कृति, रुग्ण मानसिकता एवं मानव-मानव में भेद पैदा करने वाली धर्म-नीति को प्रतिबन्धित करने की है, जो गौ-मूत्र को दलित से अधिक पवित्र मानना सिखाती है और गौ-मूत्र के जरिये सम्पूर्ण दलित वर्ग को अपमानित करने में अपने आप को सर्वोच्च मानती है| इस प्रकार की नीति को रोके बिना कोई भी राज्य कितना भी शिक्षित क्यों न हो, अशिक्षित, हिंसक और अमानवीय लोगों का आदिम राज्य ही कहलायेगा|