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गंगा : बूंद – बूंद संघर्ष

नीरेन कुमार उपाध्याय

‘गंगे तव दर्शनार्थ मुक्ति’ का मंत्र जाप कर लाखों वर्षों से हम और हमारी संस्कृति अभी तक जीवित हैं। गंगा भारतीय संस्कृति का प्राण है। इसकी कल-कल बहती धारा लोगों के मनों में आनन्द और उल्लास भर देती है। इसके दर्शन मात्र से ही मुक्ति की कल्पना की गयी है। गंगा विश्व की एकमात्र ऐसी नदी है जिसके प्रति लोगों की अगाध श्रध्दा है। गंगा से विश्वास, धर्म, संस्कृति और संस्कार का नाता जन्म-जन्मांतर से बना हुआ है। इसके जल से आचमन कर मन, शरीर, कर्म और वचन से व्यक्ति अपने अंदर पवित्रता और पूर्णता का अनुभव करने लगता है। भारत के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चहुँओर गंगा, मां की तरह पूजी जाती है। विश्व भर में गंगा को मानने वाले चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों उसके गुणों और पवित्र निर्मल धारा के आगे नतमस्तक होते हैं। विकास की अंधी दौड़ में नीति निर्माताओं के अदूरदर्शितापूर्ण निर्णयों ने देश की इस सर्वाधिक मान्यताओं वाली नदी के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है। आज गंगा अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्षरत है। बूंद-बूंद शुध्द, निर्मल और अविरल धारा के लिए तड़प रही है, कराह रही है। करोड़ों गंगा पुत्रों की ओर हाथ फैला कर जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी एवं पापनाशिनी गंगा आज अपने जीवन को बचाने की गुहार लगा रही है। देश की सेक्युलर सरकार और उसके झंडाबरदारों ने पहले तो गंगा को प्रदूषित करने वालों का ऑंख मूंदकर साथ दिया और बाद में गंगा प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर करोड़ों रूपये डकार गये। गंगा की हालत पहले से भी बुरी हो गयी। विश्व के तमाम वैज्ञानिक गंगाजल की शुध्दता पर शोध कर रहे हैं, ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों का मौन रहना चिंताजनक है। गंगा केवल धर्म, आस्था और श्रध्दा का विषय नहीं है, बल्कि यह भारत की कृषि, उद्योग और रोजगार से भी संबंधित विषय है। गंगा के आस-पास बसे नगरों के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था पर भी गंगा के नष्ट होने का दुष्परिणाम अवश्यम्भावी है। सरकार इस ओर से निश्चिंत है। राजनीतिक दलों की भूमिका केवल रस्म अदायगी तक ही सीमित हो गयी है। यह घोर उपेक्षा एक दिन महंगी पड़ने वाली है। क्यों गंगा तथाकथित विकासपुत्रों के निशाने पर है ? गंगा समाप्त हो रही है, इसका दोषी कौन है ? विचारणीय प्रश्न यह है कि करोड़ों लोगों की आस्था, विश्वास, श्रध्दा, धर्म, संस्कृति, अर्थ, कृषि, और रोजगार की घोर उपेक्षा कर गंगा के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न करने वाले विकास का कौन सा मॉडल विकसित करना चाहते हैं? व्यक्तिगत लाभ के लिए देश, समाज और संस्कृति से समझौता करने का यह उदाहरण अत्यंत निंदनीय है। गंगोत्री से गंगासागर तक 2525 किमी. लम्बा मार्ग तय करने वाली गंगा कई बड़े और छोटे जिलों से होते हुए बंगाल की खाड़ी में जाकर गिरती है। मार्ग में पड़ने वाले जिलों से निकलने वाला सीवर का दूषित जल, चमड़ा व अन्य उद्योगों के प्रदूषित जल गंगा के स्वरूप को बिगाड़ने के वास्तविक जिम्मेदार हैं। चमड़ा शोधक कारखानों से निकलने वाला लाल-काला दुर्गंधयुक्त पानी, चीनी मिल, शराब कारखानें, छोटे ताप विद्युत घर तथा तमाम कारखानों का रसायनयुक्त पानी के अलावा कई राज्यों में 8,61,404 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले गंगा के बेसिन में खेतों में कीटनाशकों व रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग, श्रध्दालुओं द्वारा नदी में फूल-माला, पूजा के बाद बची हुई सामग्री पॉलीथिन में भरकर फेंकना, गंगा में स्नान करते समय साबुन-शैम्पू का प्रयोग, जलक्र्रीड़ा के लिए मोटरबोट आदि का प्रयोग कहीं न कहीं गंगा नदी को प्रदूषित करने में सहायक हैं। सरकारी स्तर पर गंगा को बांधने का षड्यंत्र 1848 से प्रारम्भ हुआ वह 1912 में हरिद्वार में भीमगोंडा बांँध और 1978 में टिहरी बांध का निर्माण शुरू कर गंगा को समाप्त करने का सफल प्रयास किया गया। गंगा को कैद करने के अंग्रेजों के प्रयास को पं0 मदन मोहन मालवीय व अन्य हिन्दू नेताओं के प्रबल विरोध के कारण टल गया। अंततः 1916 में मालवीय जी के नेतृत्व में हिन्दू प्रतिनिधियों और अंग्रेज सरकार के बीच गंगा की अविरल धारा को न रोकने के लिए समझौता हुआ जो कि अनुच्छेद-32 के पैरा -1 और 2 में स्पष्ट निर्दिष्ट है। यह समझौता आज भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 363 के अंतर्गत सुरक्षित है। इसके बाद भी टिहरी पर 260 मीटर ऊंचे बांध का निर्माण कर गंगा को बांधा गया। नोएडा से बलिया तक गंगा एक्सप्रेस-वे गंगा को बांधने का एक और षड्यंत्र है। गंगा के दाहिने ओर के तट को 8 मीटर ऊंचा किया जायेगा। बाढ़ के समय इसके दुष्परिणाम आ सकते हैं। गंगा भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। मैली होती गंगा से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कृषि, स्वास्थ्य, व्यापार और रोजगार पर असर पड़ेगा। यह चिंतनीय है। नदियों के किनारे ही संस्कृतियां जन्मीं, पल्लवित और पुष्पित हुईं। नगर, गांव और बस्तियां नदियों के किनारे या तो बसायी गयीं या फिर स्वयं बसीं। नदियों के दोनों ओर आबादी बढ़ी, व्यापार बढ़े, संस्कृतियों का विकास और विस्तार हुआ। भारत में उन्नत कृषि और तीन चक्र की फसल सिंचाई के लिए नदियों के जल की उपलब्धता के कारण ही संभव हुआ। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भारत में कृषि और किसान दोनों की उपेक्षा की गई। विकास के लिए नदियों पर बड़े-बड़े बांध बनाये गए, टिहरी बांध के लिए टिहरी नगर, कण्डल, भगवंतपुर, जोगियाणा और पडियार जैसे ऐतिहासिक गांवों की बलि दी गई। इस परियोजना से लगभग 750 मी0 ऊंचाई के 35 गांव हमेशा के लिए तथा 74 गांव आंशिक रूप से डूब जायेंगे। परियोजना के दूसरे चरण में कोटेश्वर बांध में 2 गांव पूरी तरह से तथा 14 गांव आंशिक रूप से डूब जायेंगे। ऊपजाऊ खेत जिससे न केवल उस गांव के बल्कि आस-पास के लोग भी अनाज उपभोग करते थे समाप्त कर दिए गए। इसके अलावा हजारों प्रकार की दुर्लभ जड़ी-बूटियां सदैव के लिए नष्ट हो गईं। गंगोत्री से निकली गंगा धारा टिहरी में आकर मात्र 200 मीटर चौड़ी और डेढ़ मी0 गहरी थी को 46 किमी. चौड़े व 800 मी0 गहरे विशाल जलाशय में कैद कर दिया गया। प्रवाहित रहने वाली गंगा का जल अब झील में बदल जायेगा। रूके हुए जल का ऊपरी भाग तो प्रवाहित रहेगा लेकिन नीचे का पानी सालों साल वैसे ही पड़ा रहेगा जिससे उसकी गुणवत्ता और औषधीय गुण समाप्त हो जायेगा। लोगों का अपने पुरखों की जमीन छोड़ कर दूसरे स्थानों पर विस्थापित होना पड़ा, उनके जीविकोपार्जन की व्यवस्था कैसे होगी ? इस परियोजना पर अब तक लगभग 8500 करोड़ रूपये व्यय हो चुके हैं जबकि मात्र एकहजार मेगावाट बिजली ही इससे उत्पादित होगी। उत्तर प्रदेश सरकार ने नोयडा से बलिया तक गंगा एक्सप्रेस-वे बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे चुकी है। गंगा के किनारे 8 लेन का महामार्ग किसानों की ऊपजाऊ भूमि को अधिग्रहीत कर बनाया जायेगा जिस पर काम तेजी से चल रहा है। खेत तो समाप्त होंगे ही हरे पेड़ों की कटाई भी होगी। इस परियोजना के कारण लाखों पेड़ों की निर्मम कटाई सरकार के इशारे पर की जा रही है। नए पेड़ों को लगाने का काम भी सरकारी काम-काज की तरह ही हो रहा है। ऊपजाऊ जमीन पर तेज रफ्तार गाड़ियां दौड़ाना विकास का पर्याय है। हास्यास्पद बात है। उ0प्र0 सरकार ने यमुना एक्सप्रेस-वे बनाने के लिए एक उद्योग समूह को ठेका दिया है। सरकार और उद्योगपतियों की सांठ-गांठ का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। यमुना नदी का हाल दिल्ली जाने वालों ने अवश्य देखा होगा। विकास का अर्थ यदि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन है तो विनाश के लिए हमे तैयार रहना होगा। उक्त योजनाओं से गंगा नदी, यमुना नदी और किसानों का सर्वाधिक नुकसान होगा। गंगा नदी पर लाखों लोगों का जीवन आश्रित है। मल्लाह, तीर्थ पुरोहित, माली, पंडे, नदी किनारे कछार में ककड़ी खीरा, तरबूज, खरबूजा, मौसम की सब्जियों की खेती करने वाले, नौ परिवहन, मछली व्यवसायी, धार्मिक मेले व पर्यटन से रोजगार पाने वाले, होटल व धर्मशालाओं के व्यवसायी, इन अवसरों पर छोटे व फुटकर व्यवसायी जैसे के अलावा अनेकों प्रकार के व्यवसाय और रोजगार गंगा से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। टिहरी बांध की आयु सरकारी तंत्र ने 100 साल बतायी है, जबकि वैज्ञानिकों ने 30-32 साल ही आंकी है। भूकंपीय क्षेत्र में बने इस बांध के टूटने पर सुनामी से भी ज्यादा प्रलयंकारी होगा। पूरे जलाशय को खाली होने में 22 मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा। ऋषिकेश, हरिद्वार, मेरठ, बुलंदशहर और हापुड़ 63 मिनट से 12 घंटे के भीतर 250 मीटर से 8.50 मीटर तक पानी में पूरी तरह डूब जायेंगे। गंगा पर 580 से भी अधिक बांध बने हैं। उत्तराखंड और केंद्र सरकार के कई प्रोजेक्ट बांध बनाने के प्रस्तावित हैं। गंगा का पानी हरिद्वार में भी काफी कम मिल रहा है। इलाहाबाद और वाराणसी जैसे नगरों में तो यह न के बराबर ही उपलब्ध है। या यह कहा जा सकता है कि मिल ही नहीं रहा है। कुंभ और माघ मेले के अवसरों पर साधु-संतों और अन्य संगठनों को गंगा के एक-एक बूंद जल के लिए शासन, सत्ता और प्रशासन से दो-दो हाथ करना पड़ता है। हाईकोर्ट के आदेश के बाद कहीं जाकर गंगा जल लोगों को मिल पाता है। गंगा एक्सप्रेस वे के लिए की जाने वाले एक तरफ 8 मीटर ऊंचे तट का भयंकर दुष्परिणाम होने वाला है। यह गांव, गरीब, खेत-खलिहान, पशु-पक्षी, बाग-बगीचे और जंगलों की बर्बादी की परियोजना है।

भारतीयों की आस्था के केंद्र में गंगा केवल एक नदी नहीं है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारतीयों के लिए गंगा मां के रूप में मान्य है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की मान्यतायें गंगा की गोद में दिखााई देती है। गंगा को टिहरी में पूरी तरह से रोक दिया गया है। प्रदूषण ने गंगा की पवित्रता और औषधीय गुणों को प्रभावित किया है। गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा संस्कृति विराजमान है। हजारों वर्षों की तपस्या के बाद धरती पर अवतरित गंगा को विलुप्त करने का जो काम अंग्रेज नहीं कर पाये वह काम अंग्रेजों के मानस पुत्रों ने कर दिखाया। यह भारतीय संस्कृति पर सीधा प्रहार है। प्रयाग में लगने वाला कुंभ मेला गंगा के समाप्त होने के बाद कैसे आयोजित होगा। हरिद्वार, काशी और प्रयाग और अन्य तीर्थ स्थलों का क्या होगा ? पितरों का तर्पण, अस्थि विसर्जन, कहां और कैसे होगा? गंगा के न होने से धार्मिक व सांस्कृतिक केंद्र समाप्त हो जायेंगे। भूमंडलीकरण और अंध आधुनिकता के दौर में संस्कृति, संस्कार, समाज, आस्था और विश्वास को भुलाना कहां का विधान है? यह चिंतनीय विषय है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके विकास नहीं विनाश की व्यवस्था हो रही है। हम सभी कहीं न कहीं इस व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। आज गंगा की एक-एक बूंद के लिए संघर्ष जारी है। ”यूनान मिस्त्र रोमाँ सब मिट गये जहां से कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी”, हमने बहुत बार दुहराया है। भारतीय संस्कृति को मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज गंगा को बचाने के लिए स्वयं जागृत हो। देश, समाज, धर्म, संस्कृति, संस्कार, कृषि और रोजगार को प्रभावित करे ऐसे विकास की परिभाषा बंद होनी चाहिए या नहीं निर्णय आने वाला समय करेगा।

* लेखक पत्रकारिता में शोध कर रहे हैं।

गहराता जा रहा है बोफोर्स का रहस्य

संतोष कुमार मधुप

भारतीय राजनीति में सबसे लंबा चलने वाले प्रकरणों में से एक बोफोर्स मामला एक बार फिर कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। टी. वी. के मेगा सिरियल की तरह इस मामले में नित नए मोड आ रहे हैं। पिछले 25 सालों से कांग्रेस के लिए सिर दर्द पैदा कर रहा यह मामला कब तक चलेगा यह कहना किसी के लिए भी संभव नहीं होगा। वर्ष 2009 में जब केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने बोफोर्स मामले से संबंधित सभी कानूनी प्रक्रिया रोक दी थी तो लगा था कि भारतीय राजनीति को बोफोर्स मामले से छुटकारा मिल गया, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस अभी ठीक से राहत की साँस ले भी नहीं पाई थी कि बोफोर्स का जिन्न एक बार फिर बोतल के बाहर निकल आया। आयकर विभाग के अपील ट्रिब्यूनल ने अचानक यह सनसनीखेज खुलासा कर कांग्रेस की मुश्किलें बढा दी कि बोफोर्स तोप सौदे में इटली के व्यापारी ओतावियो क्वात्रोची को 41 करोड़ रुपये की रिश्वत दी गई थी और इस रकम का एक हिस्सा पनामा के एक बैंक में जमा किए गए। जाहिर है, इस खुलासे से विपक्ष में नया उत्साह पैदा हो गया जो भ्रष्टाचार के मुद्दों पर पहले से ही कांग्रेस को घेरने में कामयाब हो चुका था। मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी तो इस खुलासे के बाद कांग्रेस पर टूट पड़ी। भाजपा के नेता इस मामले में सीधे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को घेरने की फिराक में दिखे। उन्होंने सीधे तौर पर बोफोर्स मामले के तार गांधी परिवार से जोड़ते हुए सच्चाई सामने लाए जाने की मांग कर डाली। दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के आरोपों से बूरी तरह घिरी कांग्रेस के लिए बोफोर्स मामला एक अप्रत्याशित संकट के रूप में सामने आया। बोफोर्स मामले में अदालती कार्रवाई पर रोक लगा कर कांग्रेस लगभग इस मामले से छुटकारा हासिल कर चुकी थी लेकिन आयकर के खुलासे के बाद कांग्रेस की परेशानियां और ज्यादा बढ़ गई। हालाकि कांग्रेस शुरु से ही बोफोर्स मामले में खुद को पाक साफ बताती रही है। कुछ दिन पूर्व कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से जब बोफोर्स के बारे में एक सवाल किया गया तो उन्होंने खिन्न होकर कहा था कि बोफोर्स को लेकर माफी मांगने का सवाल ही नहीं उठता। मैं कभी भी माफी नहीं मांगूंगा। सच तो यह है कि जिस कांड ने राहुल गांधी के दिवंगत पिता की छवि को दागदार बना दिया उससे वे इतनी आसानी से पल्ला नही झाड सकते। आयकर ट्रिब्यूनल के खुलासे से यह जाहिर हो चुका है कि बोफोर्स का भूत आसानी से कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ने वाला। ट्रिब्यूनल के खुलासे के बाद उस वक्त स्थिति और जटिल हो गई जब सीबीआई कहा कि इस खुलासे में नया कुछ भी नहीं है। जैसा कि ज्ञात है कि सीबीआई ने सबूतों के अभाव में क्वात्रोची के खिलाफ मामला वापस ले लिया था। भाजपा जब सत्ता में थी तब लंदन के एक बैंक में क्वात्रोची का एकाउन्ट जब्त किया गया था। लेकिन यूपीए सरकार ने सत्ता में आते ही क्वात्रोची का वह एकाउंट यह कहते हुए दोबारा चालू कर दिया कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोप सही साबित नहीं हुए। लेकिन जब आयकर ट्रिब्यूनल के खुलासे के बाद सीबीआई ने यह कहा कि इसमे नया कुछ भी नहीं है तो स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठने लगा कि क्या सीबीआई को यह पता था कि क्वात्रोची को बोफोर्स कंपनी की ओर से 41 करोड़ रुपये रिश्वत दिए गए थे और क्या यह जानते हुए भी सीबीआई ने क्वात्रोची के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिलने की बात कह कर मामला वापस ले लिया था? सवाल यह भी है कि यूपीए सरकार ने किस आधार पर क्वात्रोची के खिलाफ अदालती मामलों पर रोक लगा दी। शायद इस तरह के सवालों के कारण ही बोफोर्स मामले के तार सीधे 10 जनपथ से जुड जाते हैं। जो लोग इस मामले के तार 10 जनपथ से जोड़ते हैं उनका यह भी कहना है कि क्वात्रोची सिर्फ सोनिया गांधी के हम वतन ही नहीं हैं बल्कि राजीव और सोनियां से उनके करीबी संबंध रहे हैं। दलाली क्वात्रोची का पेशा है लेकिन बोफोर्स सौदे से पहले अस्त्र-शस्त्र की खरीद बिक्री का उसे बिल्कुल अनुभव नहीं था। तो क्या बोफोर्स कंपनी ने राजीव-सोनियां से करीबी रिश्तों के कारण ही क्वात्रोची को दलाल नियुक्त किया? कांग्रेस सरकारों की ओर से क्वात्रोची को क्लीन चिट देने के प्रयास भी क्या इसी रिश्ते का परिणाम है?

हालांकि कांग्रेस इस तरह के सवालों से निरुत्तर नहीं होना चाहती। कांग्रेस का यह तर्क हो सकता है कि यदि यह मान भी लिया जाये कि बोफोर्स कंपनी की ओर से क्वात्रोची को रिश्वत दी गई थी तो भी इसे भ्रष्टाचार नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इस तरह के सौदों में कमीशन का लेन-देन लाजिमी है। क्वात्रोची के माध्यम से रिश्वत की रकम राजीव गांधी या कांग्रेस के किसी अन्य नेता तक पहुंची थी जिसकी एवज में तत्कालीन सरकार ने बोफोर्स के साथ तोप खरीदने का सौदा किया इस बात के कोई प्रमाण नहीं है। कांग्रेस का यह भी कहना है कि लगातार छः सालों तक सत्ता में रही भाजपा ने अपने कार्यकाल में बोफोर्स मामले का रहस्य उजागर करने की कोशिशें क्यों नहीं की? भाजपा ने इस तरह की कोशिशें नहीं की यह कहना ठीक नहीं होगा। भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने बोफोर्स मामले की तह तक पहुंचने की कोशिशें जरूर की लेकिन वह एक सीमा से आगे नहीं बढ पाई। उस दौरान मलेशिया में मौजूद क्वात्रोची को भारत लाए जाने तमाम प्रयास किए गए लेकिन क्वात्रोची के भारत प्रत्यर्पण संबंधी आवेदनों को मलेशिया की अदालतों ने खारिज कर दिया। कुछ समय बाद क्वात्रोची दक्षिण दक्षिण अमेरिका में पाए गए। वहां से भी उन्हें भारत लाने की कोशिशें हुई लेकिन कानूनी जटिलताओं के चलते यह संभव नहीं हो सका। एनडीए के शासनकाल में सीबीआई ने इस मामले में जो चार्जशीट दाखिल किया था उसमे कुछ चौकाने वाले तथ्य सामने आए थे। क्वात्रोची की संस्था ‘ए-ई सर्विेसेस’ को बोफोर्स के लिए कमीशन मिले यह सुनिश्चित करने के लिए सरकारी अधिकारियों ने एक ही दिन में जरूरी फाईल तैयार कर दिया था और उस फाईल पर खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने हस्ताक्षर किए थे जो उस समय रक्षामंत्री भी थे। लेकिन इससे भी यह प्रमाणित नहीं होता कि रिश्वत के पैसे राजीव गांधी तक पहुंचे थे या वे रिश्वत लेकर बोफोर्स से सौदा करने को राजी हुए थे। यह साबित करना आसान नहीं है क्योंकि बोफोर्स तोप खरीदने का अंतिम फैसला सैन्य अधिकारियों का थाऔर बोफोर्स से खरीदे गए तोपों की गुणवत्ता को लेकर भी कभी शंका उत्पन्न नहीं हुई।

अब सवाल यह है कि बोफोर्स का भूत पिछले 25 सालों से कांग्रेस का पीछा क्यों कर रहा है? कहने वाले यह भी कहते हैं कि सोनिया गांधी को परेशानी में डालने के लिए इस मुद्दे को इतना तूल दिया जा रहा है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि आज के दौर में जब हजारों करोड़ के वारे-न्यारे हो रहे हैं ऐसे में 65 करोड (बोफोर्स घोटाले की कुल राशि) की हेरा-फेरी के लिए इतना हो-हल्ला क्यों? उनका यह भी कहना है कि 65 करोड का पता लगाने के लिए भारत सरकार पिछले 25 सालों में 200 करोड से ज्यादा खर्च कर चुकी है। लेकिन सवाल सिर्फ 65 करोड़ का नहीं है। रिश्वत कहें या कमीशन लेकिन बोफोर्स तोप सौदे में पैसे का लेन-देन हुआ था इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। बोफोर्स मामले में हेरा-फेरी की खबर सबसे पहले स्वीडन के रेडियो ने प्रसारित की थी। उसके बाद भारतीय मीडिया ने इस मामले की तह तक जाने की कोशिशें शुरु की तो पैसे पाने वालों में क्वात्रोची के अलावा बिन चड्ढा व हिंदुजा बंधुओं के नाम भी शामिल हो गए।

इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय जटिलताओं से पार पाकर सच को सामने लाना बेहद मुश्किल काम है। लेकिन दूसरी तरफ इस मामले की हकीकत जानना भारतवासियों का अधिकार है। जिस मामले ने प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद राजीव गांधी की छवि को करारा आघात पहुंचाया और जिसके चलते चुनाव में उनकी हार हुई उस मामले को मामूली मानकर उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोरता से पेश आने के दावे कर रही केंद्र की यूपीए सरकार को इस मामले से खुद को बचाने के बजाए सच्चाई सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए।

* लेखक पत्रकार हैं।

विनायक सेन को क्षमादान या दण्ड

अमल कुमार श्रीवास्‍तव

पीयूसीएल नेता डॉ विनायक सेन को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124 ए के अन्तर्गत राज्य के खिलाफ षड्यंत्र रचने और राजद्रोह के आरोप में छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने प्रतिबंधित माओवादियों की सहायता करने के आरोप में राजद्रोह का दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।स्थिति यह है कि जेल को चक्रव्यूह बना दिया गया है और सेन को हाई सिक्योरिटी सेल में रखा गया है, बावजूद इसके चार-पाँच दिनों से अधिक एक ही जगह पर उन्हें नहीं रखा जा रहा है अर्थात् जेल परिवर्तन भी कर दिया जा रहा है। उनके साथ दो अन्य को भी यही सजा सुनाई गयी थी। इनमें से एक नारायण सान्याल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं और दूसरे पीयूष गुहा कोलकाता के व्यापारी हैं। गत् 24 दिसंबर को अदालत द्वारा विनायक सेन को उम्र कैद की सजा सुनाए जाने पर पूरे विष्व में कड़ी प्रतिक्रिया जतायी गयी थी।भारत में भी कई बुद्धिजीवियों ने इस सजा की घोर निंदा की। इस घटना के बाबत दुनिया के चालीस नोबेल पुरस्कार प्राप्त बुध्दिजीवियों ने एक संयुक्त अपील जारी करते हुए विनायक सेन की रिहाई की मांग की है। उनका मानना है कि विनायक सेन असाधारण, निर्भीक और स्वार्थहीन व्यक्ति हैं, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से ऐसे लोगों की सहायता की है जो स्वयं अपनी सहायता करने योग्य नहीं होते हैं। इस अपील पर हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवी भौतिक, रसायन, चिकित्सा और अर्थषास्त्र से संबंधित हैं।तीन दषक से छत्तीसगढ़ में काम कर रहें पेशे से डॉक्टर विनायक सेन को राज्य सरकार और पुलिस ने माओवादियों के साथ इनकी सांठ गांठ होने का दोषी करार देते हुए गिरफ्तार तो जरूर कर लिया है लेकिन जनविद्रोह का सामना कर पाना सरकार के लिए अब भी पहाड़ तोड़ने जैसा है। इस घटना का प्रतिरोध अदालती कार्यवाही के निगहबान बनने आए यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधिमंडल को खासा भुगतना पड़ा। इस प्रतिनिधिमंडल में बेल्जियम, जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस, हंगरी और ब्रिटेन के प्रतिनिधी समेत कुल 8 लोग थे। 6 फरवरी 2011 की रात जब यह प्रतिनिधी मंडल रायपुर पहुँचा तो इसे हवाई अड्डे के बाहर ही हाथ में काले झंडे लिए और नारेबाजी करते हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लगभग 100 से अधिक छात्रों के विरोध का सामना करना पड़ा।ये छात्र ईयू प्रतिनिधिमंडल के वापस जाने की मांग कर रहे थे।इस संदर्भ में कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि कोई विदेशी प्रतिनिधिमंडल अदालती कार्यवाही के दौरान अदालत में मौजूद रहने पर अड़ा हो।अब गाँधी की दुहाई का उपयोग विनायक सेन के लिए न्याय तथा मानवीय अधिकारों की लड़ाई में किया जा रहा था, जबकि उन पर सच हो या झूठ, विचार संचालित हिंसा से जुड़े माओवादियों का साथ देने का ही आरोप है।विनायक सेन के मामले में देष भर में ही नहीं, दूसरे देशों में भी जिस तरह से आवाजें उठी हैं, उससे एक बात तो स्पष्ट है कि यदि छत्तीसगढ की निचली अदालत ने उन्हें संदिग्ध आधार पर कड़ी सजा देकर माओवादियों के समर्थन पर अंकुश लगाना चाहा था, तो उसकी यह कोशिश उल्टी पड़ी है। बेशक, इसमें विनायक सेन के व्यक्तित्व और काम की अपनी भूमिका भी है। इस घटना के बाबत हिंसा का मुकाबला करने के कदमों का पूरी मुस्तैदी से संविधान व कानून के दायरे में होना सुनिश्चित करना होगा। ऐसी जनतांत्रिक वैधता के बिना शासन की कार्रवाई अपने लक्ष्य से दूर ही होती जाती है। लेकिन, ऐसी जनतांत्रिक वैधता की जरूरत क्या सिर्फ षासन को ही है? क्या शासन से बाहर, कथित सिविल सोसाइटी को और खासतौर पर खुद को जनतंत्र तथा मानवाधिकारों का संरक्षक मानने वालों को ऐसी जनतांत्रिक वैधता की कोई जरूरत नहीं है? आमतौर पर इन ताकतों के व्यवहार को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि नहीं, या षायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि यहां यह मानकर चला जाता है कि शासन के बाहुबल के विरोध में, जनतांत्रिक वैधता अपने आप ही समायी हुई है। हमारे देश में, जहां सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में इमर्जेंसी के अनुभव के बीच से ही किसी ध्यान देने लायक पैमाने पर मानवाधिकार व नागरिक अधिकार के सवालों ने सिविल सोसाइटी के बीच जगह बनायी थी, कुछ समय तक यह स्थिति आसानी से चलती रही लेकिन जल्द ही व्यापक नागरिक अधिकार गोलबंदी के पीयूसीएल तथा पीयूडीआर में विभाजन ने इस मोर्चे पर दक्षिण व वामपंथी राजनीति रूझानों के अंतर को सामने ला दिया और इन दोनों के ही सिविल सोसाइटी में हाशिए पर ही पड़े रहने ने,जनतांत्रिक वैधता के अभाव में इन चिंताओं के ही बहुत सीमित दायरे में बने रहने को सामने ला दिया।

दूसरी तरफ डॉ. विनायक सेन की धर्मपत्नी इलिना सेन जो कि वद्रधा स्थित महात्मा गांधी राष्ट्रीय हिन्दी विश्‍वविद्यालय में एक शिक्षिका होने के साथ-साथ इंडियन एसोसिएशन ऑफ वूमन स्टडीज में (आईएसडब्ल्यूएस) समन्वयक भी है के विरूद्ध वर्धा पुलिस थाने में मामला दर्ज कराया गया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने एसोसिएशन के तीन दिवसीय एक कार्यक्रम में अपने पति तथा नक्सलियों के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए सहयोग मांगा था। हालांकि इलिना ने इस सन्दर्भ में अपनी कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की है। कई बुद्धिजीवियों ने अदालत और पुलिसिया कार्रवाई की इस घटना पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी है। उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरन जैन ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण दिया गया फैसला बताते हुए इसे राजनीतिक दबाव में दिया गया फैसला कहा। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका द्वारा दिया गया यह फैसला सिर्फ और सिर्फ जनतांत्रिक आवाजों को दबाने वाला फैसला है।

लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता के बावजूद हमारा मानना है कि इलाज जम्हूरियत के भीतर से ही निकल सकता है और ना कि इसे तबाह करके।लेकिन अदालत ने यह पाया कि डॉ. विनायक सेन ने नक्सलियों की चिट्ठी जेल से बाहर लाकर उनके हरकारे का काम किया है और इसलिए उन्हें उम्र कैद की सजा दी गयी है। हालाकि उनके इस गलती का खामियाजा कई पुलिसवालों को भुगतना पड़ा है। अब जरा इन बातों पर गौर करें कि जिन पुलिसवालों के घरों में इकलौता वह व्यक्ति कमाने वाला होगा जो विनायक सेन की गलतियों द्वारा माओवादियों के हाथों शहीद हुआ होगा और जिसके घर में वर्तमान में दो वक्त की रोटी के भी लाले पड़ रहे होंगे। क्या उनके लिए विनायक सेन को माफ कर पाना इतना आसान होगा? शायद नहीं। क्या जो लोग आज विनायक सेन की रिहाई की मांग कर रहें हैं, वे उन घरों के चूल्हे जला सकते हैं? क्या उस मांग के सिंधूर को फिर से भरा जा सकता है,जो विनायक सेन की गलतियों के कारण सूने हो गए हैं? जवाब सिर्फ और सिर्फ एक ही है, नहीं। फिलहाल तो इस सन्दर्भ में हाइकोर्ट ने भी विनायक सेन की पत्नी इलिना द्वारा दायर रिहाई की याचिका को निरस्त कर दिया है, लेकिन देखना तो अब यह है कि जीत आखिर किसकी होगी?……..

हाईवोल्टेज ड्रामा…डूबा चांद, भटकी फिज़ा

सच, मोहब्बत अंधी ही होती है, नहीं तो चंद्रमोहन क्यों चांद मोहम्मद बनते? क्यों फिज़ा के लिए धर्म तक छोड़ देते…और जो आज के दौर की मोहब्बत सच्ची होती, तो फिर भला क्योंकर फिज़ा को खुदकुशी की कोशिश करनी पड़ती…ड्रामा है-भई ड्रामा है…

चण्डीदत्त शुक्ल

हरियाणा के डिप्टी सीएम थे चंद्रमोहन। जो एक बार ठान ली, तो उसे पूरा कर के ही माना। पंचों की राय सिर माथे पर, मगर खूंटा वहीं गड़ेगा…कहावत पर अमल कर बैठे। उप मुख्यमंत्री यकायक गायब हो जाए, तो पूरे प्रदेश में खलबली मचेगी ही, लेकिन चंद्रमोहन गुम हो गए। घर-परिवार वाले घबराए, राजनीति की दुनिया में खलबली मची, तभी वो लौट आए, लेकिन सबकुछ बदलकर।

स्टोरी लाइन है इंटरेस्टिंग। दरअसल, चंद्रमोहन का दिल प्रदेश की चर्चित वकील अनुराधा बाली पर आ गया, इसके बाद उन्होंने किसी की नहीं सुनी। पहली शादी तक भुला दी और अनुराधा के हो बैठे। आलम था कि पहले गायब हुए, फिर दूसरी शादी के लिए दोनों ने मज़हब बदल लिया। चंद्रमोहन बने चांद मोहम्मद और अनुराधा का नाम पड़ा—फिज़ा। मीडिया के सामने बताया—हम हैं एक-दूजे के लिए। पिता भजनलाल ने उन्हें अपना बेटा मानने से ही इनकार कर दिया और चंद्रमोहन की डिप्टी सीएम वाली कुर्सी जाती रही। लेकिन कहते हैं ना, सच्चा प्रेम आजकल कल्पना बन गया है, ऐसे में चांद-फिज़ा की जोड़ी भी टांय-टांय फिस्स करके टूट गई।

चंद्रमोहन उर्फ चांद एक बार फिर गायब हो गए। तनाव गहराया, तो फिज़ा ने नींद की गोलियां खाकर जान देने की कोशिश की। उसने आरोप लगाया कि चांद उर्फ चंद्रमोहन के भाई कुलदीप बिश्नोई ने उनके पति को किडनैप करा लिया है।

ड्रामे का नया पार्ट : विदेश से चांद का फोन आया—मैं ठीक हूं, इलाज कराने आया हूं और फिर दोनों में तनातनी शुरू हो गई। फिज़ा ने कहा—चांद ने मुझसे रेप किया है, तो बदले में चांद ने एसएमएस भेजा—तलाक-तलाक-तलाक।…पर लवस्टोरी खत्म होने में वक्त बाकी था। एक दिन विदेश से चांद लौट आए। चांद ने कहा, मैंने तो दो बार ही तलाक लिखा था और बदले में फिज़ा बोली—मैं इसे माफ़ नहीं करूंगी। कुछ दिन बाद फिज़ा एक रिएलिटी शो में हिस्सा लेने गईं और चांद मोहम्मद ने लोगों से कह दिया कि वो दोबारा हिंदू धर्म में लौटना चाहते हैं। अब फिज़ा ने इसे खुद के साथ किया गया धोखा बताया और कहा, मैं नया केस दर्ज करूंगी।

फिज़ा और चांद के पारस्परिक आरोप तो पढ़िए ज़रा—

1. चांद ने मुझसे रेप किया।

2. फिज़ा ने चांद को कैद कर रखा है।

3. चांद के भाई ने उन्हें किडनैप किया है…।

ऐसी लव स्टोरी किसी पारसी थिएटर से कम नहीं, बल्कि इसमें तो नौटंकी से लेकर बॉलीवुड मूवी के सभी मसाले भी शामिल थे। सियासी नेता की ये प्रेमकहानी भले ही सेक्स-प्रेरित नहीं रही होगी पर क्या ये प्यार था, इस बारे में शंका होती है। अगर उनमें प्रेम ही था, तो फिज़ा का यह बयान क्या बताता है—चांद ने मुझे धोखा दिया है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि मैं हूं क्या और मेरा स्टेटस क्या है। उसने मेरे जिस्म और आत्मा के साथ खिलवाड़ किया है। ख़ैर, ये स्टोरी तो खत्म हुई और साथ ही प्रेम पर विश्वास को और खुरदुरा कर गई। अगर यही है प्रेम, तो इससे भगवान बचाए।

क्रमश:

त्वरित न्याय की संदेहीत प्रतिबद्धता

संजय स्वदेश

केंद्रीय बजट आने वाला है। मीडिया अपेक्षित बजट पर चर्चा करा रही है। पर इन चर्चाओं में अन्य कई मुद्दों की तरह न्यायापालिका पर खर्च की जाने वाली राशि पर कोई हो-हल्ला नहीं है। एक अकेले न्यायापालिका ही है जिसने कई मौके पर सरकार की जन अनदेखी कदम पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल की। न्यायपालिका के दामन पर कई बार भ्रष्टाचार के दाग लगे। इसके बाद भी आम आदमी उच्च और उच्चतम न्यायालय के प्रति विश्वसनीयता बनी हुई है। पर किसी सरकार ने न्यायपालिका को मजबूत करने के लिए कभी अच्छी खासी बजट की व्यवस्था नहीं की। इसका दर्द भी पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के एक खंडपीठ के बयान में उभरा। खंडपीढ़ ने साफ कहा कि कोई भी सरकार नहीं चाहती कि न्यायपालिका मजबूत हो। यह सही है। देश महंगाई और भ्रष्टाचार की आग में जल रहा है। भ्रष्टारियों के मामले में अदालत में लंबित पड़ रहे हैं। हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा माइली ने भी बयान दिया था कि केंद्र ने न्यायिक सुधार की दिशा में पहल कर दिया है, जिससे मामलों का जल्द निपटारा होगा। कोई भी केस कोर्ट में तीन साल से ज्यादा नहीं चलेगा। भ्रष्टाचार के मामले में एक साल के अंदर न्याय मिलेगा। यदि ऐसा हो जाए तो तो निश्चय ही भ्रष्टाचारियों में खौफ बढ़ेगा। वर्तमान कानून में भ्रष्टाचारियों को कठोर सजा का प्रावधान नहीं है। त्वरित न्याय की दिशा में फास्ट ट्रैक्क अदालतों के गठन हुए थे। इन पर भी धीरे-धीरे मामलों का बोझ बढ़ता गया। न्याय में देरी की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। मामलों के लंबे खिंचने से उनके हौसले बुलंद है। सरकार बार-बार देश में न्यायायिक सुधार को लेकर अपनी प्रतिबद्धता की बात दोहरा चुकी है। लेकिन सारा का सारा मामला बजट में आकर अटक जाता है। जिसको लेकर कभी देश में गंभीर बहस नहीं हुई। स्वतंत्र कृषि बजट, दलित बजट आदि की तो खूब मांग उठती है, पर अदालत की मजबूती के लिए गंभीर चर्चा नहीं होती है। इस ओर ध्यान उच्चतम न्यायालय के खंडपीठ के दर्द भरे बयान के बाद ही गया।

भारी भरकम बजट देकर यदि सरकार न्यायपालिका को मजबूत कर दे तो देश में कई समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाएगा। देशभर के अदालतों के लाखों मामलों में तारिख पर तारिक मिलती जाती है। जनसंख्या और मामलों के अनुपात में देश में अदालतों की संख्या ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती रही है। दरअसल मामलों की बढ़ती संख्या और सरकार की उदासिनता के कारण ही न्यायपालिका का आधारभूत ढांचा ही चरमराने लगा है। रिक्त पद व अदालतों की कम संख्या न्यायापालिका की वर्तमान व्यवस्था में निर्धारित अविध में सरकार त्वरित न्याय की गारंटी नहीं दे सकती है। जिन प्रकरणों से मीडिया ने जोरशोर से उठाया वे भी वर्षों तक सुनवाई में झूलती रही है। दूर-दराज में होने वाले अनेक सनसनीखेज प्रकरणों में पीड़ित दशकों से न्याय की आशा लगाये हैं। प्रकरणों के लंबित होने से तो लोगों के जेहन से यह बात ही निकल जाती है कि कभी कोई वैसा प्रकरण भी हुआ था। अनेक लोग तो न्याय की आश लगाये दुनिया से चल बसे। मामला बंद हो गया। कई लोगों को जवानी में लगाई गई गुहार का न्याय बुढ़ापे तक नहीं मिला। लिहाजा, त्वरित न्याय की मांग हमेशा होती रही है।

पिछले दिनों सरकार ने भी त्वरित न्याय आश्वासन तब दिया जब जब देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन की सुगबुगाहट हुई। प्रमुख शहरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली निकली, सीबीसी थॉमस को लेकर सरकार कटघरे में आई। आदर्श सोसायटी घोटाले को लेकर हो हल्ला हुआ। काले धन को स्वदेश वापसी को लेकर सरकार की फजीहत हुई। फिलहाल देश की नजरे वर्ल्ड कप क्रिकेट और आने वाले बजट पर टिकी है। बहुत कम लोगों के जेहन में बजट में न्यायपालिका उपेक्षा को लेकर टिस उभर रही होगी। यदि सरकार ने बजट में न्यायपालिका के लिए खजाना खोला तो निश्चय ही न्यायपालिका को मजबूती मिलेगी। लेकिन पिछली सरकार की परंपरा को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि सरकार न्यायापालिका पर मेहरबान होगी। क्योंकि उसे पता है न्यायपालिका की मजबूती सरकार की मनमानी का अंकुश साबित होगा।

कविता / गुस्सा गधे को आ गया

कौन है जो फस्ल सारी इस चमन की खा गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

प्यार कहते हैं किसे है कौन से जादू का नाम

आंख करती है इशारे दिल का हो जाता है काम

बारहवें बच्चे से अपनी तेरहवीं करवा गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

वो सुखी हैं सेंकते जो रोटियों को लाश पर

अब तो हैं जंगल के सारे जानवर उपवास पर

क्योंकि एक मंत्री यहां पशुओं का चारा खा गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

जबसे बस्ती में हमारे एक थाना है खुला

घूमता हर जेबकतरा दूध का होकर धुला

चोर थानेदार को आईना दिखला गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

गुस्ल करवाने को कांधे पर लिए जाते हैं लोग

ऐसे बूढ़े शेख को भी पांचवी शादी का योग

जाते-जाते एक अंधा मौलवी बतला गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

कह उठा खरगोश से कछुआ कि थोड़ा तेज़ भाग

जिन्न आरक्षण का टपका जिस घड़ी लेकर चिराग

शील्ड कछुए को मिली खरगोश चक्कर खा गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

चांद पूनम का मुझे कल घर के पिछवाड़े मिला

मन के गुलदस्ते में मेरे फूल गूलर का खिला

ख्वाब टूटा जिस घड़ी दिन में अंधेरा छा गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

कौन है जो फस्ल सारी इस चमन की खा गया

बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया।

-पंडित सुरेश नीरव

कथा में नई दृष्टि और भाषा गढ़ती हैं रीता सिन्हा

फिर सुनें स्त्री-मन और जीवन की कहानियां

चण्डीदत्त शुक्ल

चूल्हे पर रखी पतीली में धीरे-धीरे गर्म होता और फिर उफनकर गिर जाता दूध देखा है कभी? ऐसा ही तो है स्त्री-मन। संवेदनाओं की गर्माहट कितनी देर में और किस कदर कटाक्ष-उपेक्षा की तपन-जलन में तब्दील हो जाएगी, पहले से इसका अंदाज़ा लगाना संभव होता, तो स्त्री-पुरुष संबंधों में आई तल्खी यूं, ऐसे ना होती, ना समाज का मौजूदा अविश्वसनीय रूप बन पाता। सच तो ये है कि स्त्री के चित्त-चाह-आह और नाराज़गी को शब्द कम ही मिले हैं। ज्यादातर समय अहसास या तो चूल्हे से उठते धुएं में गुम हो गए हैं या फिर दौड़ में शामिल होने के लिए लगाई जा रही चटख लिपिस्टिक के रंगों में लिपट बदरंग होते रहते हैं। समझदारी और समझ के बीच की तहें खोलने और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जद्दोज़हद में स्त्री कभी भरती है, तो कई बार पूरी तरह खाली हो जाती है। किसी ने सच कहा है—कामयाबी के शीर्ष पर खड़ी स्त्रियां अकेली होती हैं, वहीं घर-परिवार के भरपूर जीवन में भी तो उन्हें तनहा ही होना होता है। वैसे, बात स्त्री के अपने अस्तित्व-जद्दोज़हद की ही नहीं, वह समाज का हिस्सा भी तो है, इसलिए चाहे-अनचाहे उसे वज़ूद के साथ मौजूदगी के ख़तरों-ज़िम्मेदारियों से अनिवार्य तौर पर रूबरू होना होता है। स्त्री की इसी सोच-संवेदना-संत्रास और स्वप्न यात्रा को शब्दों में पिरोने का खूबसूरत काम किया है रीता सिन्हा ने। सामयिक प्रकाशन से आया उनका नया कथा संग्रह—डेस्कटॉप इस काम को बखूबी अंजाम देता है।

बिहार की रीता सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर एवं इग्नू (दिल्ली) में एकेडेमिक काउंसलर हैं। हिंदी भाषा में एमए, पीएच-डी करने के अलावा, रीता आकाशवाणी से कहानियों और कविताओं तथा दूरदर्शन से कविताओं का पाठ कर चुकी हैं। बीस वर्षों से प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां, कविताएं, समीक्षाएं एवं लेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं।

खासी पढ़ी-लिखी रीता के साथ सकारात्मक बात यह है कि वह संतुष्ट हो जाने की जगह सजग हैं। यही सजगता उनकी कहानियों में भी नज़र आती है।

रीता कहती हैं—जब विसंगतियों या विडंबनाओं के कारण भीतर प्रश्नाकुलता की बेचैनी होती है, तब मेरे मस्तिष्क में बिम्बों का सृजन होने लगता है। ये बिम्ब कभी शृंखलाबद्ध होते हैं और कभी टुकड़ों में बनने लगते हैं। इसी के साथ मेरे भीतर की रचनाशीलता भी प्रतिक्रयात्मक संवेगों के साथ सक्रिय होने लगती है। जबतक मैं इन्हें अभिव्यक्त नहीं कर लूँ, मेरे भीतर की बेचैनी खत्म नहीं होती। मैं मानती हूं कि लेखक का समाज के प्रति बहुत बड़ा दायित्व भी होता है। व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को आइने में अपने वास्तविक स्वरूप दिखाने का कार्य भी लेखक ही करता है। मैं अपने लेखन के द्वारा आसपास की उन विडंबनाओं को सामने लाना चाहती हूं, जिन्हें हम देखते तो हर समय हैं, पर उनपर सोचना नहीं चाहते।

तकरीबन पौने दो सौ पृष्ठों के कहानी संग्रह डेस्कटॉप की कीमत ढाई सौ रुपए है, जो कुछ ज्यादा लग सकती है, लेकिन नई सोच और भाषा की जादुई बुनावट के लिए इसे पढ़ा जा सकता है। नए प्रतीकों, मीडिया की अक्षमता-विवशता, मौद्रिक नीतियों के कु-फल, स्त्री की सनातन छटपटाहट और रिश्तों के खोखलेपन को रेखांकित करते इस कथा संग्रह का आमुख प्रख्यात कहानीकार चित्रा मुद्गल ने लिखा है और वह भी मानती हैं कि रीता सिन्हा का कथा-वितान सीमाओं की जकड़बंदी से मुक्त, विस्तृत, गहन और व्यापक है। ठीक ऐसी ही राय हिंदी आलोचना के प्रख्यात पुरुष नामवर सिंह की है, जो रीता की भाषा को आज के दौर के लिए ज़रूरी बताते हैं। तकरीबन चौदह कहानियों से सजे इस संग्रह की खासियत यह भी है कि यहां पुरुष घृणा का पात्र या असभ्य, असमान्य नहीं है (बहुधा स्त्री-विमर्श में रेखांकित किए जाने की तरह), बल्कि वह स्त्री का साथी है और अपनी संपूर्ण छुद्रताओं-स्वाभाविकता के साथ मौजूद है।

रीता सिन्हा से पांच सवाल

– लेखन आपके लिए आश्वस्तिकारक है या फिर महज खुद को रिलीज़ करने का माध्यम?

0 लेखन मुझे आश्वस्ति प्रदान करता है। सिर्फ अपनी भावनाओं को बाहर फेंक देने का काम किसी ज़िम्मेदार लेखक का हो ही नहीं सकता, इसलिए मेरा भी नहीं है।

. एक लेखक के कितने आड़े आता है महानगरीय परिवेश?

0 महानगरीय परिवेश में लोगों की गिव एंड टेक की मानसिकता लेखन के आड़े तो आती है, लेकिन यदि लेखक में अनुभूति की ईमानदारी के लिए प्रतिबद्धता और लेखन के प्रति निष्ठा हो, तो यह मानसिकता या प्रवृत्ति अधिक कुप्रभावित नहीं कर सकती।

– स्त्री-विमर्श की आपकी अपनी परिभाषा क्या है?

0 स्त्री विमर्श दृष्टिकोण, विचार या चिन्तन का कोई एक आयाम नहीं है। यह सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-जीवन का ऐसा मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय और बौद्धिक विश्लेषण है, जिसमें किसी तरह का विशेषाग्रह, पूर्वग्रह या दुराग्रह नहीं हो सकता।

– भाषा के लिहाज से आप नए प्रतिमान गढ़ सकी हैं। यह उपलब्धि है। इसके लिए बधाई के साथ ही यह सवाल भी कि एक लेखिका के लिए भाषा बड़ा टूल है या विचार?

0 लेखन के लिए भाषा बड़ा टूल है। सशक्त भाषा और शिल्प के द्वारा ही लेखक आज की संश्लिष्ट संवेदनाओं, विडंबनाओं और जटिल यथार्थ को अभिव्यक्ति देने में समर्थ हो सकता है।

– बतौर लेखिका आप ऑब्जर्वेशन और इंप्रोवाइजेशन, में से किसे कथा रचना के लिए ज्यादा ज़रूरी समझती हैं?

0 मैं कथा लेखन में ऑब्जर्वेशन को ज्यादा ज़रूरी मानती हूं।

विदेशों में जमा काला धन बनाम राजनैतिक हथकंडे

तनवीर जाफ़री

भारतवर्ष दुनिया की नज़रों में निश्चित रूप से 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र एवं स्वाधीन हो गया। स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्र हितैषी नेताओं,अधिकारियों तथा देशभक्तों के समक्ष जहां उस समय इस विशाल राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाए जाने जैसी विशाल चुनौती थी वहीं इसी के समानांतर हमारे ही देश में वह शक्तियां भी साथ-साथ सक्रिय हो उठीं जिन्हें देश के विकास या देश की आम व गरीब जनता की आत्मनिर्भरता से अलग इस बात की िफक्र थी कि वे स्वयं किस प्रकार कम से कम समय में अधिक धन संपत्ति का संग्रह कर सकें। और ऐसी राष्ट्रविरोधी कही जा सकने वाली शक्तियों ने आज़ादी के तत्काल बाद से ही देश को लूटना व बेेचना शुरु कर दिया। आज जहां देशवासी 1947 के बाद व उससे पहले की स्वतंत्रता से जुड़ी तमाम घटनाओं से वािकफ हैं वहीं यही लोग उसी समय से यह भी भलीभांति जानते व सुनते आ रहे हैं कि देश के तमाम भ्रष्ट नेता,अधिकारी,व्यापारी तथा जमाखोरों व काला धन संग्रह करने वालों का पैसा स्विटज़रलैंड में अथवा स्विस बैंक में जमा है। अब धीरे-धीरे आम लोगों को मीडिया के माध्यम से ही यह भी पता चलने लगा है कि चूंकि स्विस बैंक की ही तरह खाता संबंधी पूर्ण गोपनीयता बरतने का काम और भी कई पश्चिमी देशों के कई बैंकों में किया जा रहा है लिहाज़ा ऐसा काला धन केवल स्विस बैंक में ही नहीं बल्कि और भी कई विदेशी बैंकों में जमा है।

भारतीय अर्थव्यवस्था, यहां व्याप्त गरीबी व बेरोज़गारी,भारतीय कायदे-कानून तथा अपनी ज़रूरत के लिए विदेशी बैंकों से समय-समय पर कर्ज लेते रहने जैसे हालात नि:संदेह किसी भी भारतीय नागरिक को इस बात की इजाज़त नहीं देते कि वह अपने धन को भारत के बैंकों में जमा करने के बजाए विदेशी बैंकों में जाकर जमा करे। और वह भी केवल इसलिए कि उसका धन नाजायज़ व गलत तरीकों से इकट्ठा किया गया धन है जिसे वह दुनिया की नज़रों से सिर्फ इसलिए छुपा कर रखना चाहते हैं कि एक तो उसका धन सुरक्षित रह सके दूसरे यह कि वह भारतीय वित्तीय कानूनों से बचा रह सके और तीसरी बात यह कि वह स्वयं को बदनामी से बचाए रख सके। देखा भी यही जा रहा है कि पश्चिमी देशों के काला धन जमा करने वाले इन बैंकों में गोपनीयता बरकरार रखने के इस कद्र ऊंचे पैमाने निर्धारित किए गए हैं कि कम से कम अभी तक तो स्पष्ट रूप से किसी भी खातेदार का नाम व उसकी कुल जमाराशी का खुलासा होते िफलहाल तो नहीं सुना गया। हां कल को यदि विकीलीक्स जैसी वेबसाईट अथवा उस जैसी किसी अन्य खोजी पत्रकारिता के चलते कुछ नाम उजागर हो जाएं तो अलग बात है। ऐसे बैंक ‘काला धन शब्द को भी अपने तरीके से परिभाषित करते हैं। परंतु भारतवर्ष में विगत् कुछ महीनों से विदेशी बैंकों में जमा काले धन का मुद्दा इस कद्र गरमाया हुआ है कि गोया ऐसा प्रतीत होने लगा है कि इस विषय पर शोरगुल करने व हंगामा बरपा करने वालों को इस बात का पता चल चुका हो कि किस व्यक्ति का कितना धन किस देश के किस बैंक में जमा है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत जैसे देश के आर्थिक हालात कतई ऐसे नहीं कि देश इस प्रकार के नकारात्मक आर्थिक वातावरण का सामना कर सके। निश्चित रूप से भारत सरकार को इस विषय पर पूरी गंभीरता से काम करना चाहिए तथा विदेशों में जमा भारतीय काला धन यथाशीघ्र अपने देश में वापस लाने के प्रयास करने चाहिए। इतना ही नहीं बल्कि ऐसे गैर कानूनी कामों में लिप्त लोगों को चाहे वह कितनी ही ऊंची हैसियत रखने वाले व्यक्ति क्यों न हों उन्हें कानून के अनुसार सकत सज़ा भी दी जानी चाहिए। ऐसे लोगों के नाम भी यथाशीघ्र उजागर किए जाने चाहिए ताकि देश की जनता यह समझ सके कि नेता, अभिनेता, अधिकारी, समाजसेवी या धर्मगुरु अथवा व्यापारी के रूप में दिखाई देने वाला यह व्यक्ति वास्तव में वह नहीं है जो दिखाई दे रहा है बल्कि साधु के भेष में शैतान नज़र आने वाला यह व्यक्ति देश का सबसे बड़ा दुश्मन है। अवैध धन की जमाखोरी करने वाले यही वह लोग हैं जिनके कारण भारतवर्ष को गरीब देश कहा जाने लगा है।

परंतु विदेशों में जमा काले धन के मुद्दे को लेकर भारत में मची हाय-तौबा की आड़ में तमाम भारतीय नेता व राजनैतिक दल तथा राजनीति में पदापर्ण की नई-नई इच्छा पालने वाले तमाम नए चेहरे इस विषय पर कुछ इतने अधिक तर्क व दलीलें पेश कर रहे हैं तथा एक-दूसरे पर आरोप व प्रत्यारोप करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे कि न केवल काला धन विदेशों से वापस लाने जैसा गंभीर मुद्दा अपने मु य विषय से भटकता दिखाई देने लगा है बल्कि यह भी साफ ज़ाहिर होने लगा है कि इस मुद्दे को लेकर किए जाने वाले शोर-शराबे का मकसद वास्तव में विदेशों से काले धन की वापसी का कम बल्कि राजनैतिक रूप से व्यक्ति विशेष या दल विशेष को बदनाम करना अधिक है। संभवत: ऐसे लोग यह भलीभांति जानते हैं कि देश की साधारण जनता व आम मतदाता इस प्रकार की अफवाहों पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं तथा इनके पीछे भागने लग जाते हैं। वैसे भी 1986-1987 के मध्य का वह दौर राजनीतिज्ञों के लिए एक उदाहरण बन चुका है जबकि स्वीडन की बोफोर्स तोप सौदे में कथित रूप से ली गई दलाली के मुद्दे पर केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की चूलें हिल गई थीं। आरोप जडऩे में तथा दूसरों को बदनाम करने में महारत रखने वाले तत्कालीन महारथियों ने राजीव गांधी, अमिताभ बच्चन,अजिताभ बच्चन सहित कई लोगों को अपने अनर्गल आरोपों के घेरे में ले लिया था। परिणाम स्वरूप कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था और भारत में गठबंधन सरकार का दौर उसी दुर्भाग्यशाली समय से ही शुरु हुआ।

लगता है कि आगामी संसदीय चुनावों से पूर्व एक बार फिर परोपेगंडा महारथियों द्वारा देश में वैसे ही हालात पैदा करने की कोशिश की जा रही है। मुख्‍य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी बार-बार न केवल केंद्र सरकार पर यह आरोप लगा रही है कि वह काला धन मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं करना चाह रही है। बल्कि भाजपा ने इस विषय में छानबीन करने के लिए एक टॉस्क फोर्स का गठन भी किया है। भाजपा की इस टॉस्क फोर्स ने यह दावा किया था कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी तथा कांग्रेस अध्यक्ष तथा यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी स्वयं विदेशों में काला धन जमा करने जैसे गंभीर व गैर कानूनी मामलों में लिप्त हैं तथा उनके कई विदेशी बैंकों में अपने खाते हैं। भाजपा की यह टॉस्क फोर्स यह पता करने का काम कर रही है कि किन-किन लोगों का किन-किन देशों के किन-किन बैंकों में कितना-कितना धन जमा है। इस सिलसिले में अपना तथा स्वर्गीय राजीव गांधी का नाम लिए जाने पर स्वयं सोनिया गांधी ने भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी को पत्र लिखा तथा अपने व अपने परिवार के ऊपर भाजपाईयों द्वारा लगाए जाने वाले इन आरोपों पर कड़ी आपत्ति जताई। सोनिया ने आडवाणी को लिखे पत्र में स्पष्ट रूप से दो टूक शब्दों में यह लिखा कि किसी भी विदेशी बैंक में उनका कोई खाता नहीं है। सोनिया गांधी के इस पत्र के जवाब में अडवाणी ने भी शिष्टाचार का परिचय देते हुए सोनिया गांधी को जवाबी पत्र लिखकर इस बात के लिए खेद जताया कि इस मामले में आपके परिवार का जि़क्र किया गया इसके लिए मुझे खेद है। अडवाणी ने यह भी लिखा कि गांधी परिवार की ओर से इस तरह की सफाई पहले दी गई होती तो अच्छा रहता।

अडवाणी द्वारा सोनिया गांधी से माफी मांगना या भाजपा द्वारा सोनिया गांधी के विरुद्ध किए गए दुष्प्रचार के लिए खेद जताना तो निश्चित रूप से एक शिष्टराजनीति का एक हिस्सा माना जा सकता है। शीर्ष नेताओं के बीच इस प्रकार की वार्ताओं,पत्रों व टेलीफोन पर होने वाली वार्ताओं की बातें कभी-कभी प्रकाश में आती रहती हैं। परंतु बिना किसी ठोस प्रमाण के बिना किसी आधार या सूचना के इस प्रकार सोनिया गांधी,स्व० राजीव गांधी या किसी भी अन्य व्यक्ति को दुष्प्रचारित करना यह आिखर कहां की नैतिकता है और इसे किस प्रकार की राजनीति कहा जाना चहिए? सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह कोई भी यदि कुसूरवार हों अथवा उनके विरुद्ध कोई ठोस प्रमाण हों तब अवश्य उन्हें आलोचना का निशाना बनाया जा सकता है व उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई भी की जा सकती है। परंतु देश की जनता को बेवजह गुमराह करना, देश के जि़ममेदार राजनैतिक नेताओं पर लांछन लगाकर खुद अपने व अपने दल के नेताओं पर लगे काले धब्बों को छुपाने का प्रयास करना सरासर अनैतिक है। इस प्रकार के बेबुनियाद शोरशराबे व आरोप-प्रत्यारोप की प्रवृति से साफ़ ज़ाहिर होता है कि विपक्ष किसी भी प्रकार के सच्चे या झूठे हथकंडों का प्रयोग कर कांग्रेस पार्टी विशेषकर सोनिया गांधी परिवार को बदनाम करने पर तुला है ताकि गांधी परिवार पर काला धन संग्रह व भ्रष्टाचार में इनकी संलिप्तता जैसा आरोप लगाने व इन्हें बदनाम करने के बाद कांग्रेस पार्टी आसानी से कमज़ोर हो जाएगी। नतीजन विपक्ष के लिए सत्ता तक पहुंचने की राह आसान हो जाएगी। शायद ठीक उसी तरह जैसे कि 1987 में बोफोर्स को लेकर हुए शोरशराबे के परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर हो गई थी और देश में राष्ट्रीयमोर्चा की सरकार का गठन संभव हो सका था।

कार्टूनों का सांस्कृतिक रूपांतरण

राजीव रंजन प्रसाद

आजकल भारतीय घरों में बच्चों का कार्टून देखना एक मजेदार शगल बन चुका है। दिलचस्प बात तो यह है कि अब बच्चे सिर्फ कार्टून देखते भर नहीं हैं बल्कि उसके साथ खुद को जोड़ भी लेते हैं। उनके लिए कार्टून देखना एक रोमांचकारी अनुभव है। कार्टून में दिखने वाले जंतु.चरित्रों द्वारा इंसानी हाव.भाव और बोली.आवाज़ में अभिनय करना बच्चों को अत्यंत प्रिय है। आप प्राय: घरों में बच्चों को टेलीविज़न के सामने बैठकर कार्टून देखते हुए देख सकते हैं। ये बच्चे सिर्फ एक दर्शक भर नहीं होते अपितु उनकी सक्रियता कई मायनों में किसी सयाने आदमी से अधिक सजग और संवेदनशील होती है। कार्टून में दिखाए जाने वाले दृश्य, बोले जा रहे संवाद तथा तेजी से बदल रहे कथाक्रम सब के सब बच्चों को संवेदित करते हैं। कार्टून के जादू.लोक में घटने वाली घटनाएँ कई बार बच्चों को चकित कर देती है तो कई दफा अनायास उनके मुख से ‘उफ’, ‘आह’, ‘ओह नो’, ‘ओह शिट’ आदि शब्द निकल पड़ते हैं।

अब तो बच्चे मुँह भी बनाते हैं तो कार्टूनों की नकल करते हुए, संवाद भी बोलते हैं तो कार्टूनों की ही तरह हू-ब-हू। उनकी हरकतें तो माशाअल्लाह बिल्कुल कार्टून के फे्रम में ही सधी मालूम पड़ती हैं। पोगो चैनल, कार्टून नेटवर्क, निकल डियन, हंगामा, डिज्नी चैनल, निक आदि ऐसे टेलीविज़न चैनल हैं जिनके कार्टूनों की लोकप्रियता.रेटिंग सर्वाधिक है। बच्चे इन चैनलों को घंटों चाव से देखते हैं लेकिन ऊबते-थकते नहीं। प्रमुख कार्टून धारावाहिकों में टॉम एण्ड जैरी, डोनाल्ड डक, टेल्स पिन, लिटिल स्टुअर्ट, मिस्टर बिन, पिन्क पैन्थर और हागीमारू, बेन 10, बैटमेन, पोकमैन, रिच-रिच, अनिमे वगैरह के नाम गिनाए जा सकते हैं। अपनी बनावट.रचना एवं प्रभाव.दृष्टि में ये कार्टून-चरित्र चाहे जितने भी दमदार तथा लोकप्रिय क्यों न हों लेकिन वास्तव में ये ‘इम्पटी सिम्बल’ की भाँति ही कार्य करते हैं। इनका अपना कोई अंत:अस्तित्व नहीं है।

बावजूद इसके ये कार्टून बच्चों को लुभाने के अलावे लंबी अवधि तक उन्हें टेलीविज़न सेट से जोड़े रखते हैं। इसकी पड़ताल के लिए थोड़ा गहराई से विवेचन करें तो पाते हैं कि मनोरंजन, कौतूहल, उत्तोजना और बच्चों के चिपकू प्रवृत्तिा को बढ़ाने में सक्षम इन कार्टूनों के पीछे एक बहुत बड़ा पूंजी.तंत्र काम कर रहा है। ‘हीमैन’, ‘बैटमैन’ ‘पोकमैन’ जैसे ‘सुपर हीरो’ की देखादेखी गढे ग़ए ये सभी कार्टून-चरित्र वास्तव में उस साम्राज्यवादी सोच का हिस्सा हैं जिसमें बच्चों को यह नैतिक संदेश दिया जाता है कि आप एक अच्छे बच्चे होने के साथ.साथ एक उत्पादक भी हैं। यहां हर चीज की कसौटी उत्पादक-क्षमता है। यहाँ तक कि प्यार के सीन के बीचोबीच किसी उत्पाद को बेचने की कवायद की जा सकती है। यह चलन विदेशों में आम है जो वहाँ के बच्चों को रुचती है, उनके भीतर गुदगुदी पैदा करती है। आप टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले प्राय: कार्टून धारावाहिकों में पाएँगे कि अधिकतर कार्टून उस पश्चिमी समाज का प्रतिनिधि चेहरा सामने रखता है जो इन दिनों अलगाव और बिखराव की स्थिति में है और अक्सर अटपटा और अजीबोगरीब हरकत करता है। ऐसे कार्टून भारतीय बच्चों के भीतर नकारात्मक प्रभाव डालने के अतिरिक्त तनाव, अवसाद एवं हीनभावना जैसी प्रवृत्तिायों को भी बढ़ाते हैं।

शुरूआती दिनों में भारतीय बाल मन पर इन कार्टून चरित्रों का प्रभाव नगण्य था। मनोरंजन के लिहाज से भारतीय बच्चे इन कार्टूनों को देखते अवश्य थे किंतु उनके बहाव में बहते नहीं थे। भौगोलिक-सांस्कृतिक अंतर भी एक मुख्य वजह थी जो उन्हें सौ-फीसदी कार्टून.बाज़ार से न जोड़ पाती थी। सो भारतीय कार्टून.विशेषज्ञों ने ऐसे उपाय तलाशने शुरू किए जो भारतीय बच्चों को विदेशी कार्टूनों की ही तरह उत्तार आधुनिक पूँजी.संस्कृति से तदाकार करा सके। उनके सामने एक चुनौती यह भी थी कि गढ़ा गया कार्टून.चरित्र सामाजिक रूप से भी प्रासंगिक हो, साथ ही उनमें इतना सामर्थ्य हो कि बच्चे उनसे अपनापन महसूस कर सके।

खोजबीन के इसी क्रम में कार्टून.इंडस्ट्री के लोगों ने भारतीय मिथकों के ‘सुपर हीरो’ हनुमान और गणेश को चुना। ये मिथकीय नायकों ‘बैटमैन’, ‘हीमैन’, ‘पोकमैन’ की तरह ही करिश्माई थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में चिह्नित इन मिथकों का सामाजिक महत्तव भी जबर्दस्त था। अन्य मिथकीय नायकों में जिन सांस्कृतिक प्रतीकों की धूम थी, वे थे-कृष्ण.बलराम, लव.कुश, घटोत्कच, छोटा भीम, राहु.केतु, गुरु शुक्राचार्य, नारद मुनि, ब्रह्म, विष्णु, शिव आदि।

इस सम्बन्ध में निर्देशक अनुराग कश्यप ने पहलकदमी की और ‘हनुमान’ नाम से भारत की पहली कार्टून फिल्म बनायी जिसे बच्चों के अलावे बड़े.बूढ़ों ने भी चावपूर्वक देखा। वर्ष 2005 में आए इस फिल्म के बाद एनिमेशन, ग्राफिक्स और कार्टून की दुनिया में सांस्कृतिक प्रतीकों का धड़ाधड़ अनुवाद होना शुरू हो गया। यह अनुवाद इन अर्थों में था कि इनको ‘टॉम एण्ड जैरी’, ‘टेल्स पिन’, ‘डोनाल्ड डक’ जैसे लोकप्रिय विदेशी कार्टून.चरित्रों के बरक्स खड़ा किया गया था। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ‘ब्रिकोलेज सिस्टम’ जो अपने निर्माण में भंगुर प्रकृति का होता है, को सांस्कृतिक प्रतीकों ने नवीन अर्थवत्ताा दी। कार्टून.चरित्रों के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों का इस्तेमाल मुनाफे का कारोबार था जिसने बच्चों की दुनिया में बाज़ार को अपने पूंजीवादी साजो-सामान के साथ आने का न्योता दिया। आज यदि विदेशी कार्टूनों का भारतीयकरण पूरी तेजी से हो रहा है तो यह सिर्फ सांस्कृतिक प्रतीकों के तेजबल का ही परिणाम है।

वर्तमान समय में हनुमान और गणेश जैसे मिथकीय.चरित्रों की लोकप्रियता की थाह इसी से लगायी जा सकती है कि हनुमान का अगला सीक्वेल रिटर्न ऑफ हनुमान नाम से बाज़ार में आ चुका है तो वहीं गणेश के तकरीबन पाँच सीक्वेल क्रमश: बाल गणेश, लिटिल गणेश, लिटिल गणेश 2, माई फ्रेण्ड गणेशा, ओ गॉड गणेश के नाम से प्रदर्शित हो चुके हैं। भारत की पहली एनिमेटेड कार्टून फिल्म ‘हनुमान’ का चयन आखिर क्या सोच कर किया गया? इसके जवाब में परसेप्ट पिक्चर कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुनील सहजवानी कहते हैं-”हमारा बैकग्राउंड मार्केटिंग का है। हमने लोगों के बीच में जाकर यह पता किया कि लोग क्या चाहते हैं, हमने पता किया कि क्या बनाया जाए जो आर्थिक तौर पर फायदेमंद तो हो ही सामाजिक तौर पर प्रासंगिक भी हो। इस दृष्टि से हनुमान सबसे प्रिय चरित्र लगा। इस सांस्कृतिक प्रतीक में वे सारे मूल्य और गुण सन्निहित थे जिसे आज भी बच्चे देखना चाहते हैं।”

गौरतलब है कि ये सांस्कृतिक प्रतीक प्रभाव के स्तर पर वजनी और मनोरंजन के स्तर पर काफी दमदार साबित हुए। खासकर ये सटीक मिथकीय गुणों द्वारा बच्चों को अपने बहाव में बहा ले जाने में भी सक्षम हैं। बस संकट यह है कि अगर सांस्कृतिक प्रतीकों के चयन में सांस्कृतिक विवेक का इस्तेमाल न किया जाए तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। आज यह आशंका निर्मूल नहीं रही। व्यावसायिक पूँजी कमाने की अमानुषिक होड़ ने सांस्कृतिक प्रतीकों का विरूपण जिस अतार्किक और अवैज्ञानिक ढंग से करना शुरू कर दिया है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि यह न तो मूल प्रतीकों का ठीक.ठीक आत्मसातीकरण है और न ही उनके साथ संस्कृति के अनुवाद के रूप में वाजिब न्याय।

भले ”हनुमान, गणेश, राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, काली, सूर्य आदि अवतार लेकर मनुष्य के रूप में स्वयं कभी प्रकट नहीं हुए हों लेकिन वह उनका अवयव, अंग यानी प्रतीक अवश्य हैं। अमरकोश में प्रतीक का अर्थ है-‘अंगप्रतीको अवयव:’।” अंग्रेजी में प्रतीक के लिए ‘सिम्बल’ शब्द प्रयुक्त होता है। सांस्कृतिक या मिथकीय प्रतीक का आध्यात्मिक तथा विश्वव्यापी रूप, पाश्चात्य दार्शनिकों में सबसे पहले कैसिरर ने समझा था। ”कैसिरर का ‘प्रतीक’ वास्तव में एक ऐसा भाषिक प्रतिनिधि है जो एक ओर ‘मानसिक जगत’ के बिंब का स्थानापन्न है तो वहीं दूसरी ओर ‘वस्तु जगत’ का। इस अर्थ में कैसिरर ने प्रतीक की विशिष्टता प्रतिपादित करने के अलावे इसके विसंगतियों को भी छांटने का काम किया है।”

वस्तुत: हर समाज की अपनी एक संस्कृति होती है। प्रत्येक समाज के विचार, भाव, संवेग, लोकाचार के पक्ष, नृत्य.संगीत आदि कलाओं के रूप भिन्न होते हैं। यही नहीं खेल, मनोरंजन के साधन, रंगारंग त्यौहार, मन्दिर और पूजा.स्थल, ऐतिहासिक स्मारक, पवित्र नदियाँ, साहित्य.काव्य, धार्मिक ग्रन्थ एवं पौराणिक शास्त्र आदि में भी अंतर का भाव दृष्टिगोचर है। ये सभी सांस्कृतिक तत्तव भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं जिनका मुखरित रूप है-भाषा विशेष के सांस्कृतिक शब्द, संदर्भ और प्रतीक। उदाहरणार्थ-वैदिक संस्कृति को जानने के लिए यज्ञ, हवन, भोग, जीवोब्रह्म, वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, देवी.देवता, संस्कार आदि शब्दों तथा उनकी संदर्भित परिभाषाओं की जानकारी अत्यावश्यक है। इसी प्रकार इस्लामी संस्कृति की जानकारी खुदा, नमाज़, रोजा, इस्लाम, पैगम्बर, हज, स्नान, मस्जिद, मकबरा, कलमा आदि अरबी.फारसी के सांस्कृतिक शब्दों के माध्यम से मिल सकती है।

ध्यान दें कि ”सांस्कृतिक प्रसार की प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान हमारे उन भारतीयों पूर्वजों का है जो बिना किसी साम्राज्यवादी विस्तारवाद की भावना को दिमाग में रखे, दूर.दूर तक गए, वहीं अपना घर बनाया, वहां के लोगों के बीच रहे, उन्हें अपना प्यार दिया और भौतिक दृष्टि से विलीन हो गए। ये ‘रक्तबीज’ पूरे पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में भारतीय पूर्वजों के छोड़े गए सांस्कृतिक पद्चिन्ह, सांस्कृतिक प्रतीक एवं सर्जनात्मक कला के रूप में जीवित है।’विविध क्षेत्रों में दिख रहे इन सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रयोग किसी समाज की सांस्कृतिक चेतना के विकास को संकेतित करने हेतु किया जाता है। साथ ही यह उन कलाओं को सिरजने का भी उपक्रम है जिससे जुड़कर पूरे समाज की चेतना निर्मित होती है, समाज से जिनका रचनात्मक रिश्ता कायम होता है।” इस नज़रिए से जर्मन दार्शनिक हीगेल द्वारा प्रतीक और कला दोनों को एक.दूसरे का सहजात कहना तर्कसंगत मालूम पड़ता है। यीट्स भी इसी बात का समर्थन करते दिखते हैं कि ”हर कला जो महज कहानी कहने के समान नहीं है, वह प्रतीकात्मक होती हैं।”

इस तरह ”प्रतीक व्यवहार रूप में एक ऐसा दृश्यमान रूपाकार है जो किसी वस्तु भाव या विचार का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतीक के लिए जब तक इतिहासवृत्तिा जन्म नहीं लेती तब तक वह प्रतीक की हैसियत नहीं पा सकती। प्रतीक के रूप में सौन्दर्य का ऐतिहासिक संसार कलात्मक नवीनता को प्राप्त कर लेता है। अज्ञेय की ‘मछली’ का प्रतीक ‘जिजीविषा’ ‘मछली की तरह तड़पना’ जैसे लौकिक मुहावरों से ही नहीं, दार्शनिक ‘आत्मा’ की प्रतीतियों के सहारे ‘सत्य’ के अन्वेषण से जुड़ता है। केदारनाथ सिंह का ‘कमरे का दानव’ पारंपरिक और पौराणिक ‘दानव’ से अलग होने पर भी दरअसल अपने मूल रूप और अर्थ से कट नहीं पाता। शायद इसी को ‘सूक्ष्म’ या गहरी एकता का बोध’ कहा गया है। साहित्य की सम्प्रेषणीयता के लिए जरूरी है कि प्रयुक्त प्रतीक यथार्थ अनुभवों के माध्यम हों और उनके पीछे एक संभावित बौध्दिक, ऐतिहासिक या भावात्मक तर्क हों।”

यों तो ऐतिहासिक, पौराणिक और आध्यात्मिक प्रतीकों में बहुत से ऐसे होते हैं जो प्रचलन में नहीं होते। उनका क्षेत्र सीमित हो सकता है। इसलिए प्रतीक भाषा सदैव संप्रेष्य नहीं होती। लेकिन जिन प्रतीकों की दुर्बोधता दूर करने के लिए हमारे पास आधार है, कठिनाई से ही सही वे अर्थ के स्तर पर उपलब्ध किए जा सकते हैं जबकि निजी, गढ़े हुए प्रतीक कई बार इतने दुर्बोध होते हैं कि संभव है, कुछ समय बाद प्रतीक बनाने वाला खुद ही उन्हें न समझ सके। मनोवैज्ञानिक युंग ने लिखा है कि-”प्रतीक का निश्चयात्मक अर्थ नहीं होता। कुछ प्रतीक बार.बार सामने आते हैं पर हम उनके मोटे तौर पर ही अर्थ लगा पाते हैं। उदाहरण के लिए फ्रायड का यह कहना बिल्कुल गलत है कि सपने में सर्प देखने से केवल पुरुष.लिंग का बोध होता है।”

ध्यान दीजिए कि ”सभी प्रतीक द्रष्टव्य तथा नेत्रों से देखने योग्य नहीं होते। संकेत और चिह्न ऑंख से दिखाई पड़ते हैं। प्रतीक नहीं भी दिखाई देता। यह एक बड़ा अंतर है जिसे समझ जाने से हम प्रतीक का महत्तव समझ सकते हैं। प्रतीक भावना प्रधान होते हैं जिसकी जैसी भावना होगी वह प्रतीक का वैसा अर्थ लगा लेगा। शंकर भगवान के चित्र में ‘सर्प’ को देखकर क्या सिर्फ प्राण लेने वाले साँप का बोध होता है। सन्यासियों के शरीर पर लगा ‘भस्म’ क्या यों ही है। अगर ‘भस्म’ के साथ जीवन के नश्वरता सम्बन्धी बोध न हो तो ‘भस्म’ प्रतीक का मूल भाव या अर्थ सम्प्रेष्य नहीं होगा। प्रतीक को समझने के लिए धार्मिक संस्कार होना आवश्यक है। ऐसी बुध्दि होनी चाहिए कि हम ‘स्वास्तिक’, ‘ओइम्’, ‘गंगाजल’, ‘गुरुदक्षिणा’, ‘आत्मा’, ‘शिवलिंग’, ‘भस्म’, ‘भभूत’, ‘सिन्दूर’ आदि का वास्तविक बोध कर सकें। ”प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर प्राचीन चित्रों में या शिलालेखों में ‘कुम्भ’ या ‘घड़ा’ बना देखकर बहुत से लोग ये सोच सकते हैं कि प्राचीन भारतीय बर्तन की बड़ी मर्यादा समझते थे। असल में जिसे हम साधारण अर्थों में केवल कुम्भ या घड़ा देखते.समझते हैं वह वास्तव में ज्ञान का कोष है। विद्या का भण्डार है। प्राचीन भारत में कुम्भ सरस्वती अर्थात विद्या की देवी का प्रतीक था।”

इसमें दो मत नहीं है कि ”भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है, भारत की व्युत्पति में ‘भा’ का अर्थ है प्रकाश और ‘रत’ का अर्थ है तन्मय या गतिशील। इस तरह भारत का अर्थ हुआ प्रकाश में तन्मय या गतिशील होना।” इसीलिए हमारे यहाँ वेद.सूक्ति है-‘तमसो मा ज्यातिर्गम्य:’। यही कारण है कि भारतीयता पूंजी.केन्द्रित हित को नहीं साधती और न ही उसके बहकावे में आने का आग्रह करती है। भारतीय मन हमेशा कबीरवाणी को महत्तव देता है-‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाए, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु भी न भूखा जाए’। यह भारतीय मनोभूमि में संचित वह आत्म-प्रकाश है जिसके प्रतीक रूप में राजा हरिशचन्द्र, दानी कर्ण, राजा बलि जैसे अनेकानेक मिथकीय उदाहरण हमारे सामने है।

असल में भारतीय दृष्टि हैसियत को अधिकारों से नहीं उन कर्तव्यों से ऑंकती है जिन का दायित्व किसी व्यक्ति, वर्ग या समाज पर है। सम्पूर्ण सृष्टि की एकता की यह संकल्पना और अनुभव भारतीय जीवन.दृष्टि का ही नहीं, उस भावना का भी आधार है जिसे आध्यात्मिकता कहा जाता है। यह पहचान केवल विचारगत या सूचनात्मक नहीं बल्कि संवेदनात्मक और अनुभवगम्य है। हमारे शास्त्रों में कहा भी गया है कि संस्कृति केवल मूल्य दृष्टि ही नहीं, मूल्य निष्ठा भी है। यह केवल विचार नहीं, विश्वास और आचरण भी है। चेतना के विकास का अर्थ विचार का ही नहीं अनुभूति का भी विकास है। संस्कृति सम्पूर्ण जीवन के गुणात्मक उत्कर्ष की प्रक्रिया है। किसी भी जाति की मूल्य दृष्टि, उसकी आस्थाएँ और विश्वास उसकी प्रक्रिया और स्वरूप का निर्धारण करते हैं।

वर्तमान उत्तार आधुनिक समय.समाज में भ्रामक दृष्टि से मिलने वाले तात्कालिक भौतिक लाभों ने भ्रम को पहचानने की प्रेरणा नहीं विकसित होने दी है। आज यंत्र.कौशल तथा अन्य उन्नत प्रौद्योगिकी के विकास की वजह से सांस्कृतिक प्रतीकों को गलत ढंग से ढाेंगपूर्वक आज़मा लिया गया है जो अपनी प्रकृति में भंगुर अर्थात ‘ब्रिकोलेज’ है। इस दृष्टि से देखें तो ”कार्टून.संस्कृति बच्चों को दी जाने वाली कोई जीवन प्रेरणा नहीं बल्कि मनोरंजन के नाम पर परोसा गया टेलीविज़न की दुनिया की कृत्रिम सजावट भर है। सूचना.राजमार्ग और प्रसार.माध्यमों की व्यापकता की वजह से पूरे विश्व में छाए सांस्कृतिक आतंक की जड़ में यह भी शामिल है।”

”आधुनिक प्रौद्योगिकी अनिवार्यत: हिंसक है क्योंकि मनुष्य जाति और पूरे परिवेश के साथ उस का कोई आत्मिक लगाव या रिश्ता नहीं है। इस प्रौद्योगिकी का सबसे बड़ा नुकसान तो यही होता है कि मनुष्य के सामाजिक.आर्थिक जीवन की वास्तविक आवश्यकताएँ उपेक्षित रह जाती हैं और अधिकांश मशीनों का उपयोग युध्द और गौण आवश्यकताओं या अनावश्यक विलासिता के उपकरणों के उत्पादन हेतु किया जाने लगता है जिसका दूरगामी परिणाम होता है मनुष्य का प्रकृति से अलगाव। कार्टून.चरित्रों का निर्माण इसी प्रौद्योगिकी की देन है जो इंसानी शक्लोसूरत में नज़र तो आती है पर वह इंसान नहीं हो सकता।”

कहना न होगा कि जीवन के अन्य पक्षों की तरह सामाजिक सम्प्रेषण के माध्यमों और संचार-प्रक्रिया पर भी इस कथित आधुनिक प्रौद्योगिकी ने गहरा असर डाला है। सबसे खतरनाक असर बाल मन पर यह पड़ा है कि इसने सम्प्रेषण्ा को एक जीवन्त मानवीय प्रक्रिया की बजाय एक यान्त्रिक प्रक्रिया में तब्दील कर दिया है। जटिल प्रौद्योगिकी वाली उपभोक्ता संस्कृति में बड़ी से बड़ी मानवीय त्रासदी आधुनिक प्रसार माध्यमों के लिए एक कच्चे माल की तरह हो जाती हैं जिसे अधिक से अधिक रोचक तरीके से अपने ग्राहकों के सम्मुख प्रस्तुत करना संचार.प्रसार उद्योग की एक अनिवार्यता समझी जाती है। दर्शक भी किसी करुणा या लगाव की भावना से कम और घटनाक्रम में एक प्रकार की कथा.रुचि या खुद को ‘अपटुडेट’ रखने की वजह से इस प्रकार की प्रस्तुतियों में अधिक रुचि लेते हैं। संचार के आधुनिकतम साधनों की सहज उपलब्धता की वजह से किसी भी प्रकार की जानकारी और विचार ग्रहण करने की गति भी पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ी है और सामान्य जीवन पर उस के प्रत्यक्ष असर भी देखे जा रहे हैं, सो बच्चों को इस नवनिर्मित संसार से अलग या दूर कर पाना अब इतना आसान भी नहीं रहा।

इस संदर्भ में यह बताना जरूरी है कि ”बच्चे जिन नज़रों से दुनिया को देखते हैं, अपने चारों ओर के प्रति उनकी जो भावनात्मक और नैतिक प्रतिक्रिया होती है, उसमें एक विशिष्टता, बालसुलभ सरलता, निष्कपटता और एक खास किस्म की बारीकी होती है।” कार्टूनों में आए सांस्कृतिक प्रतीकों से बच्चों का मनोजगत किस प्रकार तादातम्य स्थापित करता है। इसको गहराई से समझने के लिए यानुश कोर्चाक के इस आह्वान का स्मरण आवश्यक है कि ”बच्चे जिस प्रकार इस संसार को अपने मनो.मस्तिष्क से जानते.समझते हैं, उस बालसुलभ विश्वबोध को जान सकना तभी संभव है जब हम बच्चों के अंत:करण के स्तर तक ऊँचा उठने का प्रयास करें।” अगर हम कोचार्क की बात से सहमत होते हुए बच्चों के हृदय तक पहुंचना चाहते हैं तो इसका सबसे विश्वसनीय रास्ता है-कहानियाँ और कल्पनाएँं जो बच्चों के भीतर मौलिक सृजनात्मकता को जन्म देती हैं। अर्थात बच्चों को उनके चारों ओर की दुनिया से इस तरह जोड़ना चाहिए कि वे हर दिन उसमें कोई नई बात खोजें।

दरअसल, कहानी और कल्पना ही वह कुंजी है जिसकी मदद से इस स्रोत को खोला जा सकता है। दृश्य.जगत के अनुभव इतने सशक्त होते हैं कि वे बच्चे के मस्तिष्क के अंदर नानाविध चित्र, बिंब और कल्पना को उपजने में मदद करते हैं। बच्चे जब अपनी कल्पना से कोई चित्र, कोई बिंब बनाते हैं या किसी चित्र या बिंब को प्रतीकात्मक ढंग से ग्रहण करते हैं तो अपने चारो ओर की दुनिया को अपने अंदर बसाते हैं। इस प्रक्रिया में वे संसार के सौन्दर्य का बोध तो पाते ही हैं, साथ ही उन्हें सत्य का भी ज्ञान होता है। बचपन में, 10.11 साल की उम्र तक ऐसी कोई शक्ति नहीं होती जो इतनी अच्छी तरह से बच्चों के विचारों को जगा सके, उन्हें सोचने की ऐसी प्रेरणा दे सके।

इस बात को जानना जरूरी है कि ”जब कोई बच्चा कुछ देख रहा होता है तो साथ ही वह सोच भी रहा होता है। इसका अर्थ यह है कि उसके प्रमस्तिष्क गोलार्ध के काटर्ेक्स की तंत्रि.कोशिकाओं का एक निश्चित हिस्सा चारों ओर के संसार के बिंबों(चित्रों, वस्तुओं, परिघटनाओं, शब्दों) को ग्रहण कर रहा है और सूक्ष्मतम तंत्रिकाओं के जरिए संकेत भेज रहा है। तंत्रि.कोशिकाओं की तंत्रिकीय ऊर्जा का इस आश्चर्यजनक तेजी से एक काम से दूसरे काम में लग जाना ही वह परिघटना है जिसे चिंतन करना या सोचना कहते हैं।” बाल.मस्तिष्क की कोशिकाएँ इतनी कोमल होती हैं कि वे केवल उसी हालत में ठीक तरह से काम कर सकती हैं जबकि प्रत्यक्ष ज्ञान के विषयों को बच्चे आसानीपूर्वक देख, सुन या छू सके। और यह केवल तभी संभव है जबकि बच्चे के सामने एक ठोस वास्तविक बिम्ब हो या फिर बच्चे को जब किसी चीज के बारे में बताया जा रहा हो तो वह इतना स्पष्ट इतना सशक्त होना चाहिए कि बच्चों को यह लगे मानों वह उसे देख, सुन रहा है, उसका स्पर्श कर रहा है, यही कारण है कि बच्चों को कथा.कहानियाँ सुनना इतना अच्छा लगता है।

वास्तव में, ”वस्तुओं और परिघटनाओं को देखना ही अभ्यास है। बच्चा एक सजीव बिंब देखता है फिर वह कल्पना करता है, अपने मस्तिष्क में इस बिंब की रचना करता है। बच्चा जब किसी दृश्य.कथा या कार्टून को देख रहा होता है तो वह प्रदर्शित काल्पनिक बिंबों को एक ज्वलंत यथार्थ के रूप में ही ग्रहण करता है। हर बच्चा संसार के बिंबों का केवल प्रत्यक्षबोध ही नहीं पाता बल्कि वह स्वयं भी तस्वीरें बनाता है, उनकी रचना, उनका सृजन करता है। बच्चे जब टेलीविज़न देख रहे होते हैं तो यह सिर्फ देखना नहीं होता बल्कि एक मौलिक कलात्मक सृजन कार्य होता है।”

उपर्युक्त विवेचन.विश्लेषण के तदुपरांत यदि हम सांस्कृतिक प्रतीकों के टेलीविज़न पर दिखाए जाने वाले कार्टूनों के संदर्भ में पड़ताल करें तो पाएंगे कि कार्टून चरित्रों के लिए मिथकीय नायकों को चुने जाने के पीछे बहुत बड़ा कारण विद्यमान है। एक सबसे बड़ा कारण तो यही है कि बाज़ार भी धर्म की शक्ति और उसके कालजयी सनातनता को समझता है। हनुमान, गणेश केवल पौराणिक कथाओं के मिथक भर नहीं हैं बल्कि ये सभी सांस्कृतिक प्रतीक लोकमानस में गहरे रचे-बसे हैं। इस सम्बन्ध में ऋषि पराशर के हवाले से डॉ0 राधाकृष्णन दो-टूक शब्दों में कहते हैं कि ”यह ठीक है कि आत्मा के सत्य सनातन हैं पर नियम युग.युग में बदलते रहते हैं। हमारी ललित संस्थाएँ नष्ट हो जाती हैं। वे अपने समय में धूमधाम से रहती हैं और उसके बाद समाप्त हो जाती हैं। वे काल की उपज होती हैं और काल की ही ग्रास बन जाती हैं। लेकिन धर्म बना रहता है क्योंकि इसकी जड़े मानवीय प्रकृति में है और यह अपने किसी ऐतिहासिक मूर्त रूप के समाप्त हो जाने के बाद भी बचा रहेगा।”

अंत में, मैं आप सबका ध्यान उत्तार आधुनिक समय.समाज की उस ‘पेस्टीच कल्चर’ की ओर आकृष्ट कराना चाहूँगा जिसे बाज़ार ने अपने मुनाफे के हिसाब से रचा है। भिन्न.भिन्न संस्कृतियों को आपस में जोड़कर बनी यह कॉकटेल संस्कृति हनुमान, गणेश जैसे मिथकीय हीरों को ‘सुपर हीरो’ के रूप में चित्रित कर रही है। पर ये पात्र अपनी प्रकृति में पंचतंत्र, अमर चित्रकथा, जातक कथाएँ, हितोपदेश आदि के पात्रों से बिल्कुल अलग हैं। बाल मनोरंजन की दृष्टि से इन सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग सीधे-सीधे नुकसानदेह भले न लगे, किंतु सच्चाई है कि वह जिस खतरनाक पूँजी.तंत्र से नियंत्रित-निर्देशित है उसकी मंशा नेक.मति.सुजान की नहीं है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी आधुनिक राष्ट्र अपनी बाह्य समानांतर दुनिया से जो भी चयन करता है, वह अपनी मौलिक ‘रुचि’ और ‘आकांक्षा’ के अनुरूप ही करता है। और यह रुचि और आकांक्षा अपनी परिस्थितियों से ही नहीं, जातीय और पारंपरिक स्वभाव से भी प्रेरित होती है। ऐसे में अपने साहित्य, कला या संस्कृति में जो ‘स्वीकार’ या ‘प्रभाव’ नया और आयातित दिखाई पड़ता है, संभव है कि वह अपनी ही जातीय चेतना, संस्कार और स्वभाव का अंग हो और समकालीन दुनिया ने उसके लिए सिर्फ ‘उत्प्रेरण’ और ‘सुझाव’ का काम किया हो। क्योंकि स्व.भाव और स्व.मार्ग से जो ग्रहण किया जाता है वह सहज ही व्यक्तित्व का भाग हो जाता है और उसमें उन सारे सर्जनात्मक प्रयत्नों और उपलब्धियों की परिपक्वता आ जाती है जो किसी भी जाति या नस्ल को विरासत में मिलती है। ऐसे में हमें अपनी दृष्टि खुली रखने की सख्त जरूरत है। मेरा विदेशी कार्टून.चरित्रों के तर्ज पर भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों का कार्टून चरित्रों में रूपांतरण या अनुवाद किए जाने को लेकर कोई विरोध या दुराग्रह नहीं है। फिर भी इतना तो अवश्य ही कहना चाहँगा कि इन पौराणिक मिथकों का गलत तरीके से विरूपण न हो तो ही श्रेयस्कर है। आमीन!

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सम्प्रति : शोध-छात्र

प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी

“भारतीय संस्कृति में पत्रकारिता के मूल्य” पर राष्ट्रीय संविमर्श 22-23 फरवरी को

भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के तत्वावधान में भारतीय संस्कृति में पत्रकारिता के मूल्य” पर राष्ट्रीय संविमर्श 22-23 फरवरी को समन्वय भवन, न्यू मार्केट, भोपाल में आयोजित किया गया है।

इस दो दिवसीय आयोजन का शुभारंभ 22 जनवरी को प्रातः 10.30 बजे मध्यप्रदेश के जनसंपर्क एवं उच्चशिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा करेंगें तथा मुख्यवक्ता पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान होंगे। अध्यक्षता विवि के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें।

आयोजन का समापन 23 फरवरी को सायं 3.00 बजे होगा। जिसके मुख्यअतिथि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा अध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री मुजफ्फर हुसैन होंगे। इस सत्र के मुख्यवक्ता साधना न्यूज के संपादक एनके सिंह होंगें।

सात सत्रों में विभाजित इस संविमर्श में पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग, स्वदेश-ग्वालियर के संपादक जयकिशन शर्मा, पांचजन्य के संपादक बलदेवभाई शर्मा, प्रो.अजहर हाशमी, प्रेम भारती, डा. देवेंद्र दीपक, कैलाशचंद्र पंत, डा. नंदकिशोर त्रिखा, डा. मानसिंह परमार, रामेश्वर मिश्र पंकज.रमेश शर्मा, डा. विनय राजाराम, डा. शाहिद अली प्रमुख रूप से उपस्थित रहेंगें।

भाजपा क्यों जीती, कांग्रेस क्यों हारी ?

संजय द्विवेदी

बिखराव के चलते उपचुनावों में कांग्रेस की परंपरागत सीटें भी भाजपा को मिलीं

देश के पांच राज्यों की छः विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के संदेश भारतीय जनता पार्टी के लिए अच्छी खबर लेकर आए हैं। मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात की पांच विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस ने कई राज्यों में मैदान उसके लिए छोड़ दिया है। यह एक संयोग ही है कि इन सभी राज्यों में भाजपा ही सत्तारूढ़ दल है। झारखंड की खरसांवा सीट की बात न करें, जहां राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा खुद उम्मीदवार थे तो बाकी सीटों पर बड़े अंतर से भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस इन चुनावों में गहरे विभ्रम का शिकार थी जिसके चलते मध्यप्रदेश की दोनों सीटें कुक्षी और सोनकच्छ दोनों उसके हाथ से निकल गयीं। ये दोनों कांग्रेस की परंपरागत सीटें थीं,जहां कांग्रेस का लंबे अंतर से हारना एक बड़ा झटका है। मध्यप्रदेश की ये दोनों सीटें हारना दरअसल कांग्रेस के लिए एक ऐसे झटके की तरह है जिस पर उसे गंभीरता से विचार जरूर करना चाहिए।

भाजपा के लिए मुस्कराने का मौकाः

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल तीन विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की जीत के मायने तो यही हैं कि राज्यों में उसकी सरकारों पर जनता का भरोसा कायम है। यह चुनाव भाजपा के लिए जहां शुभ संकेत हैं वही कांग्रेस के लिए एक सबक भी हैं कि उसकी परंपरागत सीटों पर भी भाजपा अब काबिज हो रही है। जाहिर तौर पर कांग्रेस को अपने संगठन कौशल को प्रभावी बनाते हुए मतभेदों पर काबू पाने की कला सीखनी होगी। भाजपा के लिए सही मायने में यह मुस्कराने का क्षण है। इस संदेश को पढ़ते हुए भाजपा शासित जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। उन्हें समझना होगा कि इस समय कांग्रेस की दिल्ली की सरकार से लोग खासे निराश हैं और उम्मीदों से खाली हैं। भाजपा देश का दूसरा बड़ा दल होने के नाते कांग्रेस के पहले स्थान की स्वाभाविक उत्तराधिकारी है। ऐसे में अपने कामकाज से जनता के दिल के जीतने की कोशिशें भाजपा की सरकारों को करनी होगीं। उपचुनाव यह प्रकट करते हैं भाजपा की राज्य सरकारों के प्रति लोगों में गुस्सा नहीं है। किंतु सरकार में होने के नाते उनकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार दूसरी बार सरकार बनाकर भाजपा ने यह साबित किया है उसे जनभावनाओं का साथ प्राप्त है। अब उसे तीसरी पारी के लिए तैयार होना है। अतिआत्मविश्वास न दिखाते हुए अपने काम से वापसी की राह तभी आसान होगी, जब जनभावना इसी प्रकार बनी रहे। क्योंकि राजनीति में सारा कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर होता है। भाजपा के पीछे संघ परिवार की एक शक्ति भी होती है। मध्यप्रदेश का जीवंत संगठन भी एक बड़ी ताकत है, इसका विस्तार करने की जरूरत है। सत्ता के लिए नहीं विचार और जनसेवा के लिए संगठन सक्रिय रहे तो उसे चुनावी सफलताएं तो मिलती ही हैं। अरसे बाद देश की राजनीति में गर्वनेंस और विकास के सवाल सबसे प्रभावी मुद्दे बन चुके हैं। भाजपा की सरकारों को इन्हीं सवालों पर खरा उतरना होगा।

खुद को संभाले कांग्रेसः

कांग्रेस की संगठनात्मक स्थिति बेहतर न होने के कारण वह मुकाबले से बाहर होती जा रही है। एक जीवंत लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। कांग्रेस को भी अपने पस्तहाल पड़े संगठन को सक्रिय करते हुए जनता के सवालों पर ध्यान दिलाते हुए काम करना होगा। क्योंकि जनविश्वास ही राजनीति में सबसे बड़ी पूंजी है। हमें देखना होगा कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में की तीन सीटों पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रबंधन पहले दिन से बदहाल था। भाजपा संगठन और सरकार जहां दोनों चुनावों में पूरी ताकत से मैदान में थे वहीं कांग्रेस के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की छग और मप्र के इन चुनावों में बहुत रूचि नहीं थी। इससे परिवार की फूट साफ दिखती है। कांग्रेस का यह बिखराव ही भाजपा के लिए विजयद्वार खोलता है। कुक्षी और सोनकच्छ की जीत मप्र में कांग्रेस की बदहवासी का ही सबब है। जहां जमुना देवी जैसी नेता की पारंपरिक सीट भी कांग्रेस को खोनी पड़ती है। अब सांसद बन गए सज्जन सिंह वर्मा की सीट भी भाजपा छीन लेती है। कांग्रेस को कहीं न कहीं भाजपा के चुनाव प्रबंधन से सीख लेनी होगी। खासकर उपचुनावों में भाजपा संगठन जिस तरह से व्यूह रचना करता है। उससे सबक लेनी लेने की जरूरत है। वह एक उपचुनाव ही था जिसमें छिंदवाड़ा जैसी सीट भी भाजपा ने अपनी व्यूहरचना से दिग्गज नेता कमलनाथ से छीन ली थी।

राज्यों में समर्थ नेतृत्वः

मप्र भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए इन चुनावों की जीत वास्तव में एक बड़ा तोहफा है। संगठन की शक्ति और सतत सक्रियता के इस मंत्र को भाजपा ने पहचान लिया है। मप्र में जिस तरह के सवाल थे, किसानों की आत्महत्याओं के मामले सामने थे, पाले से किसानों की बर्बादी के किस्सों के बीच भी शिवराज और प्रभात झा की जोड़ी ने करिश्मा दिखाया तो इसका कारण यही था कि प्रतिपक्ष के नाते कांग्रेस पूरी तरह पस्तहाल है। राज्यों में प्रभावी नेतृत्व आज भाजपा की एक उपलब्धि है। इसके साथ ही सर्वसमाज से उसके नेता आ रहे हैं और नेतृत्व संभाल रहे हैं। भाजपा के लिए साधारण नहीं है कि उसके पास आज हर वर्ग में सक्षम नेतृत्व है। उसके सामाजिक विस्तार ने अन्य दलों के जनाधार को भी प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश कभी एक भूगोल के हिस्से थे, दोनों क्षेत्रों से एक सरीखी प्रतिक्रिया का आना यह संकेत भी है कि ये इलाके आज भी एक सा सोचते हैं और अपने पिछड़ेपन से मुक्त होने तथा तेजी से प्रगति करने की बेचैनी यहां के गांवों और शहरों में एक जैसी है। ऐसे समय में नेतृत्वकर्ता होने के नाते शिवराज सिंह चौहान और डा. रमन सिंह की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती हैं। क्योंकि इस क्षेत्रों में बसने वाले करोड़ों लोगों के जीवन और इन राज्यों के भाग्य को बदलने का अवसर समय ने उन्हें दिया है। उम्मीद है कि वे इन चुनौतियों को स्वीकार कर ज्यादा बेहतर करने की कोशिश करेंगें।

कुल मिलाकर ये उपचुनाव देश के मानस का एक संकेत तो देते ही हैं। एक अकेली सीट सूदूर मणिपुर की भी कांग्रेस को नहीं मिली है, वहां भी इस उपचुनाव से तृणमूल कांग्रेस का खाता खुल गया है। वहां तृणमूल प्रत्याशी ने कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर यह सीट जीती है। ऐसे में कांग्रेस को निश्चय ही अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिए। अपने विभ्रमों और बेचैनियों से आगे आकर उसे जनता के सवालों पर सक्रियता दिखानी होगी। क्योंकि हालात यह हैं कि आज सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का काम विरोधी दल और उससे जुड़े संगठन ही करते दिख रहे हैं। जैसे मध्यप्रदेश में किसानों के सवाल पर भारतीय किसान संध ने ही सरकार की नाक में दम किया और एक बड़े सवाल को कांग्रेस के खाते में जाने से बचा लिया। ये जमीनी हकीकतें बताती हैं कि कांग्रेस के लिए अभी इन राज्यों में मेहनत की दरकार है तभी वह अपनी खोयी हुयी जमीन बचा पाएगी।

तीस्ता सीतलवाड और विनायक सेन- किस्सा एक तमाशे दो

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

डॉ. विनायक सेन को सेशन न्यायालय ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। विनायक सेन जेल में हैं। उन्होंने इस निर्णय के खिलाफ अपील की तो की ही है साथ ही छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायालय में जमानत की अर्जी भी दाखिल की थी।

पिछले दिनों न्यायालय ने उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी है। अपील का निर्णय क्या होता है यह तो बात में ही पता चलेगा। इसी प्रकार गुजरात में कब्रों में बिना अनुमति के शव निकालने के एक मामले को लेकर तीस्ता सीतलवाड ने गुजरात के एक न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिए अर्जी दाखिल की थी जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया है। ये दोनों केस लगभग न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। लेकिन विनायक सेन की सजा को लेकर कुछ खास किस्म के लोगों ने हाय तोबा मचाना शुरु कर दिया है। उनका कहना है कि विनायक सेन को जो सजा मिली है वह ठीक नहीं है। न्यायालय ने एक गलत निर्णय दिया है और बोलने की स्वतंत्रता का इस निर्णय से हनन होता है। बात आगे बढ़ाने से पहले यह जान लिया जाए कि विनायक सेन पर आरोप क्या थे। छत्तीसगढ़ में माओवादियों के रूप में आतंकवादी पिछले कई सालों से गांव में वनवासियों का कत्लेआम मचाए हुए हैं। गांव में विकास का कोई काम नहीं होने दिया जा रहा है। वहां की परम्पराओं और विरासत को समाप्त किया जा रहा हैं। माओवादी स्कूलों को विशेष तौर पर निशाना बना रहे है ताकि नई पीढ़ी शिक्षा के ज्ञान से वंचित रह जाए और स्वःविवेक के आधर पर निर्णय करने की क्षमता खो बैठे। जन न्याय के नाम पर बच्चों के सामने माता-पिता की हत्या की जा रही हैं और माता पिता के सामने बच्चों को मारा जा रहा हैं। माओ आतंकवादियों ने अनेक स्थानों पर विस्फोटों के माध्यम से सैंकड़ों पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया है। यह सब कुछ सर्वहारा का स्वर्ग बनाने के लिए किया जा रहा हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि माओ इस स्वर्ग के प्रेरणास्रोत हैं। जाहिर है कि माओ आतंकवादी माओं से भी पहले कार्लमार्क्स की पोथियों का भी अपने सशस्त्र आन्दोलन के लिए सहारा लेते हैं। ये मार्क्स ही थे जिन्होंने सर्वहारा की सत्ता की स्थापना के लिए सम्पन्न वर्ग की हत्या की वकालत की थी। लेकिन कार्लमार्क्स के नाम पर शुरु हुई सशस्त्र क्रान्ति धीरे धीरे आतंकवादियों के उस गिरोह में बदल गई जिसने सम्पन्न वर्ग को छोड़कर सर्वहारा वर्ग में ही अपने विरोधियों को निर्दयता से मारना शुरु कर दिया। जाहिर है कि विदेशी सहायता और शस्त्रों के बल पर लड़ी जा रही यह लड़ाई वर्ग संघर्ष न रहकर चर्च के तालमेल से भारत को खण्डित करने का एक विदेशी षड्यंत्र बन गया और वर्ग संघर्ष करने का दावा करने वाले तथाकथित क्रांतिकारी इन षड्यंत्राकारियों के हाथों का खिलौना बन गए।

डॉ. विनायक सेन इन्हीं माओ आतंकवादियों के लिए कुरियर का काम कर रहे थे। वे विभिन्न गुटों के संदेश एक दूसरे को पहुंचा रहे थे। ताकि आतंकवादी आपसी तालमेल से बेहतर संरचना का निर्माण कर सकें। डॉ. सेन को शायद लगता होगा कि उनके ऊँचे रुतबे के कारण पुलिस का ध्यान उनकी ओर नहीं जाएगा। यदि गया भी तो पुलिस उनको आरोपित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी। इसीलिए वे लम्बे अर्से से इन आतंकवादियों के संदेश एक दूसरे तक पहुंचाया करते थे और अपने रुतबे के कारण जेल में बार-बार उनसे सम्पर्क भी बनाते रहते थे। अन्ततः वे पकड़े गए। उन पर मुकद्मा चला और उन्हें उम्रकैद हुई। इस प्रक्रिया से इतना स्पष्ट है कि डॉ. सेन विचार स्वतंत्रता के लिए लिखने पढ़ने के काम में नहीं लगे हुए थे। बल्कि आतंकवादियों की हत्याओं की साजिश में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्हें सजा सुनाई गई तो उनके अनेक हिमायती अपना मुखौटा उतार कर उनके समर्थन में उतर आए और न्यायालय के निर्णय को लेकर ही, जितना हो सकता था उतनी सभ्य भाषा में, गाली गलौज करने लगे। डॉ. सेन को और उनके हिमायतियों को पूरा अधिकार है कि वे इस निर्णय को अगले न्यायालय में चुनौती दे। यह उनका अधिकार र है कि और उन्होंने इसका प्रयोग भी किया है। लेकिन वे न्यायालय के निर्णय को मीडिया ट्रायल से प्रभावित करने का असंवैधनिक कार्य कर रहे हैं। उन्होंने इस निर्णय के खिलाफ व्यवहारिक तौर पर एक आन्दोलन ही छेड़ दिया है और ताजुब्ब है कि उनके इस आन्दोलन में बड़ी कचहरी के एक रिटायर्ड जज भी शामिल हो गए हैं।

इस पूरे आन्दोलन का अर्थ क्या है? इस जुडे़ लोग क्या कहना चाहते हैं? उनकी दृष्टि में न्यायिक प्रक्रिया तभी तक सही है जब तक उनके पक्ष में निर्णय आता रहता है। जब न्यायालय का निर्णय उनकी इच्छाओं की विपरीत आता है तो उनकी दृष्टि में सारी प्रक्रिया ही पक्षपाती हो जाती है। मानवाधिकार पंथ निरपेक्षता, बुद्धि्जीवी, चिंतक इत्यादि होने के रंग बिरंगे चोगे पहनकर चालीस पचास लोगों की यह बारात सारे देश की व्यवस्था को हस्तगत करना चाहती है। इस काम के लिए वह अन्य वैचारिक प्रतिष्ठानों के लिए अलग-अलग पफतवे जारी करती रहती है। यदि विनायक सेन की सजा और छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय द्वारा उनकी जमानत की जांच का रद्द किया जाना गलत है तो तीस्ता सीतलवाड को चोरी छिपे कब्रिस्तानों में से लाशें निकालने के मामले में न्यायालय द्वारा दी गई अग्रिम जमानत का फैसला कैसे सही है? तीस्ता सीतलवाड की अग्रिम जमानत से ही और विनायक सेन की जमानत खारिज होना गलत-इस प्रकार के फतवों से इस मण्डली का दोहरापन तो उजागर होता ही है साथ ही उनकी मंशा पर भी सवाल उठने लगते हैं। अरुन्ध्ती राय ने कहा था कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है बल्कि भारत ने उस पर बलपूर्वक कब्जा किया हुआ है। देश ने उनके इस प्रलाप को भी विचार स्वतंत्राता मानकर स्वीकार कर लिया। और सरकार ने उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की। विनायक सेन माओ आतंकवादियों के विचारों को लेकर या फिर उनकी कार्य प्रणाली को लेकर न तो भाषण कर रहे थे और न ही लेख लिख रहे थे। बल्कि वे उसमें एक सक्रिय भागीदारी निभा रहे थे। सक्रिय भागीदारी कानून की दृष्टि में अपराध है, विचार स्वतंत्रता नहीं।

विनायक सेन के पक्ष में इस मण्डली द्वारा जो दूसरा तर्क दिया जा रहा है वह पहले से भी ज्यादा हास्यस्पद है। मण्डली का कहना है कि सेन का शैक्षिक रिकार्ड अति उत्तम है और वे निःशुल्क गरीबों का इलाज करते रहे हैं। उनके यह गुण उनके अपराध् कर्म को कैसे झुठला सकते हैं, यह ये तथाकथित चिंतक ही बता सकते हैं। वैसे यह भी सुना गया है कि हाजी मस्तान भी जो पैसा गलत ढंग से कमाया करते थे उसका एक हिस्सा गरीबों को बांट दिया करते थे। क्या इसका अर्थ ये लिया जाए कि गरीबों में पैसा बांटने के कारण हाजी मस्तान को उनके अपराधें से मुक्त घोषित कर दिया जाए? वैसे सुना यह भी गया है कि तीस्ता सीतलवाड से जुडे़ लोग ही विनायक सेन की सजा का सबसे ज्यादा विरोध् कर रहे हैं और दूसरी ओर वे तीस्ता सीतलवाड को अग्रिम जमानत मिल जाने पर खुशियां भी मना रहे हैं। चित्त भी अपनी और पट भी अपनी।