-प्रमोद भार्गव-
आखिरकार भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों के बीच होने वाली वार्ता भारत ने रद्द कर दी। इसकी पृष्ठभूमि में वार्ता से ठीक पहले भारत स्थित पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल वासित द्वारा कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से बातचीत तो है ही,पाक की नापाक हरकतों का सीमा पर जारी रहना भी है। बावजूद वासित ने हठधर्मिता और सीनाजोरी का आचरण बरतते हुए एक बार फिर अलगाववादियों से बात की और पत्रकार वार्ता आयोजित कर शांति वार्ता के लिए दोषी भारत को ही ठहराया है। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर वासित ने कहा है कि कश्मीर बातचीत का एक पक्ष है और भारतीय सेना ने 57 बार संघर्ष विराम तोड़ा है जिसकी सूचना पाक स्थित भारतीय राजदूत को 10 दिन पहले दे दी गई थी। जाहिर है पाकिस्तान का दोहरा चेहरा पेश आ रहा है। जबकि हकीकत यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद 70 बार संघर्ष विराम का उल्लघंन पाक सेना कर चुकी है। हालांकि इस बातचीत के खारिज होने की आशंका तब भी बढ़ गई थी,जब पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पाक के स्वाधीनता दिवस 14 अगस्त को भाषण देते हुए कश्मीर मुद्दे को बेवजह गरमाया। वार्ता के रद्द होने से मोदी के पड़ोसी देशों से मधुर संबंध बनाने की कोशिशों को जबरदस्त झटका लगा है।
नियंत्रण रेखा और अंतरारश्ट्रीय सीमा पर युद्ध विराम का उल्लघंन और फिर पाक उच्चायुक्त द्वारा कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से बातचीत ने जिस तरह से आग में घी डालने का काम किया,उससे साफ है,पाक भारत से षांति स्थापित करना चाहता ही नहीं है। उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पड़ोसी देशों से संबंध सुधार की पहल को कमजोरी समझ लिया। इसलिए पीठ में छुरा घोंपने वाली नापाक हरकतों का सही व कड़ा जबाव यही था कि बातचीत रोकी जाए। वैसे भी केंद्र में संप्रग सरकार के रहते हुए भाजपा जब विपक्ष में थी तब पाक को करारा सबक सिखाने की नसीहत दिया करती थी। लिहाजा जब मोदी ने अपने शपथ-समरोह में नवाज शरीफ को आमंत्रित किया तो यह व्यवहार भाजपा की प्रकृति के विपरित था। देश तो यही चाहता है कि मोदी पाक को पाक की भाशा में जबाव दें। इस लिहाज से सचिव स्तरीय बातचीत को विराम देने से देश में सही संदेश गया है।
दरअसल पाकिस्तान यह तय कर ही नहीं पाया कि उसे बात भारत सरकार से करनी है या देश के अलगाववादियों से ? यदि वार्ता के केंद्र बिंदु पाक तय कर लेता तो उसके उच्चायुक्त अब्दुल वासित को कष्मीरी अलगाववादी शब्बीर अहमद शाह, हुर्रियत के नेता मीरवाइज उमर फारूख व इफ्तिखार अली शाह जिलानी से मुलाकत की जरूरत ही नहीं थी। इन मुलाकातों से तय हुआ कि पाक वार्ता के प्रति गंभीर नहीं है। वह सरकार से ज्यादा अलगाववादियों को तव्ज्जो देकर कश्मीर में षांति बनाए रखने का पक्षधर नहीं है। यहां गौरतलब है कि इसी तरह से अलगाववादी नेताओं व उग्रवादियों से पाक स्थित भारत के उच्चायुक्त वार्ता करते तो पाक का आचरण भारत के प्रति कैसा होता ? भारत के मन में वाकई खोट या कपट होता तो वह पाक के बलूचिस्तान व वजीरिस्तान में हवा दे रहे अलगाववादियों से बात करके उन्हें उकसा सकता था ? तब पाक को कैसा लगता ? दरअसल अलगावादियों से बातचीत सीधे-सीधे देश के आतंरिक मामलों में गैरजरूरी हस्तक्षेप व नापाक हरकत है। जब कोई भी दो देश संबंध सुधारने की दिशा में आगे बढ़ रहे हों तो कमजोर नब्ज पर हाथ रखने से बचने की जरूरत रहती है।
पाक में इस वक्त जबरदस्त राजनीतिक संकट गहराया हुआ है। एक तरफ तो पाक सेना और वहां की गुप्तचर संस्था आइएसआइ की शह पर नियंत्रण रेखा पर रोजाना हिंसक वारदात की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। दूसरी तरफ नवाज शरीफ को पटकनी देने की कोशिशों में तहरीक-ए-इंसाफ के नेता एवं पूर्व क्रिकेटर इमरान खान और कनाडा में रह रहे धर्मगुरू ताहिर उल कादरी लगे हैं। इनके समर्थक सड़कों पर आकर मियां नवाज से इस्तीफा मांग रहे हैं। इसी विरोध की काट के लिए नवाज शरीफ को अपने देश के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर कश्मीर का राग अलापना पड़ा है। जिससे खिलाफत की आग पर पानी पड़ जाए। कश्मीर विरोधी इसी भाशण से प्रेरित होकर पाक उच्चायुक्त ने शायद कष्मीरी अलगावादियों से बात की है? क्योंकि किसी भी देश का उच्चायुक्त सेना या खुफिया एजेंसी के इशारों पर चलने की बजाए,प्रधानमंत्री और अनकी नीतियों के अनुसार चलता है। हो सकता है,पाकिस्तान में चल रहे राजनीतिक संकट से उबरने के नजरिए से खुद नवाज शरीफ ने यह राणनीति चली हो ? क्योंकि मौजूदा संकट से छुटकारे की दृश्टि से नवाज के पास यही एक ऐसा औजार था,जिसके इस्तेमाल से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
यह सही है कि पाक सेना और वहां की गुप्तचर संस्था आइएसआइ पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में नहीं हैं। इसका संकेत पाक के पूर्व लेफ्टिीनेंट जनरल एवं आईएसआइ के पूर्व आधिकारी शाहिद अजीज के उस रहस्योद्घाटन से चलता है,जो उन्होंने ‘द नेशनल डेली‘ में लिखे लेख में किया है। लेख में कहा गया था कि ‘कारगिल युद्ध में पाक आतंकवादी नहीं,बल्कि उनकी वर्दी में पाकिस्तानी सेना के नियमित सैनिक ही लड़ रहे थे और इस लड़ाई का मकसद सियाचीन पर कब्जा करना था। चूकिं यह लड़ाई बिना किसी योजना और अंतरराष्ट्रीय हालातों का अंदाजा किए बिना लड़ी गई थी,इसलिए तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने पूरे मामले को रफादफा कर दिया था। क्योंकि यदि इस छद्म युद्ध की हकीकत सामने आ जाती तो मुशर्रफ को ही संधर्श के लिए जिम्मेबार ठहराया जाता। इससे स्पष्ट होता है पाक फौज इस्लामबाद के काबू में नहीं है। सेना की शह के चलते ही आतंकी सरगना हाफिज सईद भारत-पाक सीमा पर छुट्टा घूम रहा है। यही नहीं सईद सेना के साथ आतंकवादी संगठन जैश,लश्कर और हिजबुल के दहशतगर्दियों के साथ भारत में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने में भी लगा है। नतीजतन नवाज शरीफ भी कश्मीर में अलगाव की आग भड़काने वाली नीतियों को बढ़ावा देने लग गए हैं। शरीफ ने कारगिल युद्ध के समय भारत से जो वायदे किए थे,उन्हें भुला दिया है। लिहाजा अब पाक से बातचीत में किसी भी समस्या का हल निकलने वाला नहीं है।
हालांकि बलूचिस्तान और वाजीरस्तान में पाक सेना ने जिस मुस्तैदी से आतंकवादियों से लड़ाई लड़ी है,उसके चलते यह बात भी एकाएक गले नहीं उतरती कि पाक सेना सरकार के नियंत्रण से बाहर है। वजीरिस्तान में 400 उग्रववदियों को सेना ने मौत के घाट उतार दिया हैं। उसका यह ऑपरेशन आगे भी जारी है। लेकिन आतंकियों से सेना की ऐसी मुठभेड़, पाक अधिकृत कश्मीर में नहीं कराई जा रही? जबकि इस पूरे क्षेत्र में आतंकी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। यहां तक कि महिला और बच्चों को भी भारत के विरूद्ध आतंक का पाठ पढ़ाया जा रहा है। मुंबई हमलों का प्रमुख आरोपी अजमल कसाब ने इन्हीं षिविरों में प्रषिक्षण लिया था। नवाज शरीफ सरकार जब तक इन षिविरों को ध्वस्त करने की सैनिक कार्रवाई नहीं करती,तब तक यह मानना भ्रम ही होगा कि पाक भारत से मधुर संबंध बनाने के लिए उत्सुक है। क्योंकि कश्मीर मुद्दों को अलगावादियों से जोड़कर वार्ता आगे बढ़ाई जाएगी तो बात बनने वाली नहीं है। और जब प्रधानमंत्री नवाज शरीफ खुद ही कश्मीर को मुद्दा बनाकर राग छेड़ देंगे तो यह कैसे संभव हो सकता है कि षांति-वार्ता आगे बढ़े ? जाहिर है,इस तरह की दोतरफा बातें पाकिस्तान का दोहरा चेहरा प्रसतुत कर रहीं हैं।