(अभिमन्यु का उत्तरा से विवाह)
द्यूतक्रीड़ा के बाद जब हम अपना सर्वस्व हारकर, भरी सभा में सिर झुकाकर दीन-हीन बैठे थे, कर्ण ने द्रौपदी तथा हमलोगों के वस्त्र उतारने के लिए दुशासन को निर्देश दिए थे। कटि के उपर हमलोगों को निर्वस्त्र कर दिया गया था। मैंने राजकुमार उत्तर को समस्त महारथियों के कटि के उपर के सभी वस्त्र उतारकर ले आने का निर्देश दिया। मुझे राजकुमारी उत्तरा के गुड़ियों के लिए रेशमी वस्त्रों की वैसे भी आवश्यकता थी – एक पंथ दो काज।
उत्तर शीघ्रता से रथ के नीचे आया। मेरे इंगित पर सर्वप्रथम कर्ण को कटि के उपर निर्वस्त्र किया, उसके पीले उत्तरीय को समेटा, अश्वत्थामा और दुर्योधन के नीले, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य के श्वेत और दुशासन के लाल उत्तरीय के गठ्ठर ले रथ पर लौट आया। वह पितामह भीष्म का भी उत्तरीय उतारने जा रहा था, मैंने रोक दिया।
युद्ध की समाप्ति के बाद, पितामह को छोड़ समस्त कौरव महारथी कटि के उपर निर्वस्त्र थे। मैंने सबको उनकी वस्तुस्थिति क भान करा दिया।
गौएं विराटनगर पहुंच चुकी थीं। मैं भी उत्तर के साथ, रणभूमि के दक्षिण, विराट नगर जाने वाले मार्ग पर अपने रथ को खड़ा कर, अचेत पड़े महारथियों का विहंगम अवलोकन कर रहा था। मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हो रही थी। इतनी प्रसन्नता शिक्षा समाप्ति के बाद रंगभूमि में अपने शौर्य और पराक्रम के प्रदर्शन के समय भी नहीं हुई थी।
धीरे-धीरे कौरवों की चेतना वापस आने लगी। दुर्योधन ने मुझे युद्ध के घेरे के बाहर रथ पर सवार देखा। मैं हंस रहा था। वह तिलमिला रहा था। पितामह भीष्म के पास जा घबराहट के साथ बोला –
“पितामह! यह अर्जुन आपके हाथों जीवित कैसे बच गया? अब भी समय है, उसका मानमर्दन कीजिए। देखिए, कितनी कुटिलता से हंस रहा है। इस बार वह बच न पाए।”
पितामह ने मुस्कुराते हुए कहा –
“कुरु राजकुमार! तू ही क्यों नहीं उसका मानमर्दन कर देता? जब तू अपने विचित्र धनुष-बाण को त्यागकर, यहां अचेत पड़ा हुआ था, उस समय तेरी बुद्धि कहां थी? तेरा पराक्रम कहां चला गया था? जिस समय रक्त-वमन करते हुए तू शृगाल की भांति युद्धभूमि की परिक्रमा कर रहा था और अर्जुन आखेटक की भांति सिंहनाद करते हुए तेरे पीछे स्वछंद विचरण कर रहा था, उस समय तेरा शौर्य कहां पलायन कर गया था? एक ही दिन में अर्जुन को चार बार पीठ दिखाने वाले, अपने परम सखा और सलाहकार कर्ण से क्यों नहीं कहते, वह अर्जुन का मानमर्दन करे? बहुत हो चुका, अब चुपचाप हस्तिनापुर लौट चलो। हमलोग अभी तक जीवित हैं, यह उदार हृदय महान अर्जुन की कृपा है। वह कभी निर्दयता का व्यवहार नहीं करता, उसका मन कभी पापाचार में प्रवृत्त नहीं होता; वह तीनों लोकों के राज्य के लिए भी अपने धर्म का परित्याग नहीं कर सकता। यही कारण है कि हमें मूर्च्छित करने के बाद भी, उसने हम सबके प्राण नहीं लिए। अब तुम शीघ्र ही कुरु देश के लिए प्रस्थान करो, अर्जुन भी गौवों को लेकर विराटनगर लौट जाएगा।”
कौरव योद्धा पराजित हो, अपमान का घूंट पीते हुए, मुंह लटकाए हस्तिनापुर को लौट चले। पितामह का विश्वास न टूटे, अतः मैंने व्यवधान नहीं डाला। दूर से ही मस्तक झुकाकर, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और कृपाचार्य को प्रणाम किया। अश्वत्थामा समेत सभी कौरव महारथियों के कानों को स्पर्श कराते हुए दो-दो बाण प्रेषित कर वीरोचित विदाई दी। दुर्योधन के मुकुट को लक्ष्य करके एक विशेष बाण छोड़ा। उसका रत्नजड़ित मुकुट गिरकर धूल धूसरित हो गया। उसने रुककर उसे उठाने का प्रयास भी नहीं किया। मैंने देवदत्त के भीषण उद्घोष से उसके चित्त की शान्ति का सदा क्र लिए हरण कर लिया।
मेरे प्रतिशोध की ज्वाला अब कुछ शान्त हो चली थी। मैं भी विराटनगर के मार्ग पर चल पड़ा।
राजकुमार उत्तर पर हमलोगों का रहस्य प्रकट हो चुका था। लेकिन सार्वजनिक रूप से अपनी मूल पहचान बताने का दायित्व महाराज युधिष्ठिर पर ही था। अतः मार्ग में मैंने पुनः बृहन्नला का वेश धारण कर लिया और उत्तर को भी समझा दिया कि बिना मुझसे संकेत पाए, हमलोगों का भेद किसी को न बताए। उसने अपना वचन पूरा किया।
रणभूमि से लाए रंग-बिरंगे वस्त्र मैंने उत्तरा को भेंट किए। उस निश्छल बाला ने अत्यन्त हर्ष के साथ उन्हें ग्रहण किया, अपनी गुड़ियों को उनसे सजाया और तितली की भांति पूरे राजमहल में विचरने लगी। हम सभी भ्राताओं और द्रौपदी ने अपने सार्वजनिक प्रकटीकरण के लिए एक शुभ तिथि निर्धारित की। राजकुमार उत्तर को साथ ले हम सभी एक साथ राजा विराट के सम्मुख उपस्थित हुए और अपना मूल परिचय दिया। राजा हतप्रभ थे। उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उत्तर ने उनका संदेह दूर किया। अत्यन्त हर्ष के कारण राजा विराट की आंखों से अश्रुबूंदें गिरने लगीं। हम सबके मस्तक को सूंघ, उन्होंने सबको गले लगाया। हमसे अपने संबन्धों को स्थाई बनाने हेतु मुझसे उत्तरा के पाणिग्रहण का प्रस्ताव भी रखा। मैंने अविलम्ब उनके प्रस्ताव को संशोधित कर दिया –
“महाराज! मैंने उत्तरा को एक वर्ष तक नृत्य और संगीत की शिक्षा दी है। मैं उसका गुरु हूं और वह है पुत्री समान मेरी शिष्या। भरतवंश और मत्स्यवंश में स्थाई संबंध का मैं भी पक्षधर हूं। अतः आपकी सुन्दर एवं सुशील कन्या उत्तरा को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करने में मुझे अतीव प्रसन्नता होगी। उसे मैं अपने प्रिय पुत्र अभिमन्यु की अर्द्धांगिनी बनाने हेतु अपनी स्वीकृति देता हूं।”
मेरे प्रस्ताव का राजा विराट और महाराज युधिष्ठिर, दोनों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था – श्रीकृष्ण, महाराज द्रुपद एवं अन्य हितैषी राजाओं और संबन्धियों के यहां निमंत्रण पत्र भेज दिए गए। एक शुभ मुहूर्त्त में सबकी उपस्थिति में अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह संपन्न हुआ। हम पांचो भ्राता, द्रौपदी, सुभद्रा और श्रीकृष्ण, उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में पाकर अत्यन्त प्रसन्न थे।
क्रमशः