डॉ. मयंक चतुर्वेदी
कश्मीर फिर अशांत है। कश्मीर पहले की तरह फिर जल उठा है। हिंसा यहां इस कदर हावी हो गई है कि मरने वालों की तादाद 32 तक पहुंच गई। घायलों की संख्या 300 से अधिक है। भीड़ ने एक पुलिस थाने को आग के हवाले कर दिया और कश्मीर में अन्य सुरक्षा प्रतिष्ठानों के साथ वायुसेना के हवाई अड्डे को निशाना बनाया। कोर्ट की बिल्डिंग फूंक दी गई। अमरनाथ यात्रियों के भण्डारे पर पेट्रोल बम से हमला किया गया। पथराव की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई। केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के 800 अतिरिक्त जवानों को कश्मीर भेजना पड़ा। इन सभी परिस्थिितयों को देखते हुए ऊपर से नीचे तक सभी को यही चिंता है कि कश्मीर की धधकती ये आग कब शांत होगी?
समय-समय पर कई राजनीतिक अनुबंध हुए, सामाजिक प्रयास हुए लेकिन देश का यह राज्य है कि शांत होता ही नहीं। हिज्बुल मुजाहिदीन के 22 वर्षीय आतंकी बुरहान वानी की एक मुठभेड़ में मौत के बाद से घाटी में प्रदर्शन, हिंसा और आगजनी का दौर जारी है। वस्तुत: आज इस घटना ने एक बार फिर संपूर्ण देश की आवाम को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि केशर की खुशबू और सेब के बगानों से गुलजार कश्मीर देश के अन्य राज्यों की तरह क्यों नहीं व्यवहार करता। हालांकि ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के प्रश्नों को लेकर देश की जनता पहले से नहीं सोच रही थी, पर तत्कालीन स्थितियों ने सभी को कुछ ज्यादा ही विचलित कर रखा है। यह विचलन इसलिए भी है कि ये बात किसी को समझ नहीं आती कि आतंकवादियों या देश के दुश्मनों के प्रति इस राज्य के लोगों की हमदर्दी क्यों है?
बुरहान वानी आतंकी संगठन हिज्बुल का एक दहशतगर्द था, ये बात किसी से छुपी नहीं, फिर उसके प्रति कश्मीर के लोगों की हमदर्दी के मायने आखिर क्या हैं? यह बात आज समझना जरूरी हो गया है। दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत यही है कि 15 साल की उम्र में बंदूक उठा लेने वाले उस दिग्भ्रमित नौजवान के मारे जाने से कश्मीरी आबादी का एक हिस्सा आक्रोशित नजर आता है, खासकर उसके पिता का यह कहना कि मेरे यदि और भी बेटे होते तो मैं उन्हें भी इसी रास्ते पर चलने के लिए कहता, जिस पर बुरहान चल रहा था, यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कश्मीर में चल क्या रहा है?
कश्मीर घाटी में अस्थिरता फैलाने के लिए पाकिस्तान द्वारा आतंकी तत्वों को समर्थन देने की बात तो अपनी जगह है ही, पर वहां हिंसा की घटनाओं में ताजा बढ़ोतरी का कारण ज्यादातर स्थानीय लोग हैं। महिलाएं तक आतंकियों का साथ देती नजर आती हैं। जबकि इन स्थिितयों के मद्देनजर भाजपा-पीडीपी गठबंधन आने पर सोचा तो यही जा रहा था कि जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक सरकार के गठन के बाद चीजें सामान्य होने लगेंगी, लेकिन ये उम्मीदें भी व्यर्थ साबित होती लगती हैं। उसका बड़ा कारण जो समझमें आता है, वह यही है कि यहां की सरकार भी कई मामलों को लेकर भ्रम की स्थिित में है। ये भ्रम घाटी के लोगों को हिंसा करने के लिए और प्रेरित करता है। जिसका कि सबसे ज्यादा असर और नुकसान यहां तैनात भारतीय सुरक्षा बलों के जवानों को सहना पड़ रहा है। इसमें भी अधिकतम मुश्किलें सीआरपीएफ के जवानों को झेलनी पड़ती हैं। वे न्यूनतम संसाधनों के साथ लोगों के गुस्से का सामना करते हैं। तमाम विरोध प्रदर्शनों में वे ईंट-पत्थरों की मार झेलने के साथ लोगों की गोलियां भी सहते हैं।
यह सर्वविदित है कि ‘‘सरदार पटेल, जिन्होंने 600 रियासतों को एक भारत में मिला दिया, वे कश्मीर का हल भी निकाल लेते यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री कश्मीर मामले में अपना हस्तक्षेप नहीं करते लेकिन अब इस पुरानी बात पर तो अटका नहीं रहा जा सकता है, हमें कश्मीर समस्या का स्थायी हल निकालना ही होगा, नहीं तो यूं ही घाटी में आगे भी बुरहान वानी जैसे दहशतगर्द पैदा होते रहेंगे। हमें यह भी सोचना होगा कि घाटी की 60 फीसदी आबादी 30 वर्ष से कम उम्र के लोगों की है। उनका एक हिस्सा ऐसे भडक़ाऊ भाषणों के असर में है, जो सिर्फ भारत के खिलाफ रहते हैं।
इसका बड़ा कारण भी ज्ञात है, पाकिस्तान लगातार यहां के लोगों को अपने सूचना प्रसारण कार्यक्रमों के जरिए, स्थानीय अलगाववादियों को आर्थकि सहायता मुहैया कराकर और आम जनजीवन में यह जहर घोलकर कि तुम भारत के साथ खुश नहीं रह सकते लगातार दिलों में नफरत फैलाने का काम कर रहा है। यहां के नौजवानों का गुमराह होकर मजहबी कट्टरपंथ से प्रेरित और आतंक की राह पर चलने का एक बड़ा कारण यह भी है कि जिस तुलना के उनके आस-पास भारत का विरोध करने वालों की संख्या है, उसकी अपेक्षा ऐसे लोगों की तादात बहुत कम है जो गुमराह होते युवाओं को सही रास्ता बता सकते।
जम्मू-कश्मीर के हालात सामन्य इसलिए भी नहीं हैं क्यों कि इस राज्य के सभी इलाकों में लोग किसी न किसी रूप में अपने को पीडि़त पाते हैं और उसकी वजह अलग-अलग है। जिसमें कि नौकरी एक बड़ा सवाल है। यहां के युवकों को अन्य राज्यों की तुलना में नौकरियां नहीं मिल रही हैं, जबकि बेरोजगारों को सीमापार के आतंकवादियों और यहां रह रहे उनके समर्थकों का साथ आसानी से मिल जाता है। विस्तार से देखाजाए तो जम्मू-कश्मीर राज्य में तीन स्थानों के लोग अलग-अलग तरह से सोचते हैं। तीनों की समस्याएं भी समान नहीं है और न ही तीनों के सुख ही एक समान हैं।
कश्मीर घाटी के लोग अलग तरह की उम्मीद रखते हैं। जबकि, जम्मू और लद्दाख के लोग दो भिन्न तरीके से सोचते हैं। सभी जानते हैं कि जब महाराजा हरिसिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे उस समय भारत सरकार के पास केवल तीन विषय थे विदेश नीति, रक्षा और कम्युनिकेशन। इसके अलावा सारे विषय राज्य के अधीन थे, लेकिन उसके बाद अनुच्छेद 370 को लेकर लगातार देशभर में चर्चाओं का दौर चलता रहा है, जबकि यह जम्मू-कश्मीर को एक अलग पहचान देने वाली धारा होने के साथ इस राज्य को देश के अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कुछ विशेष रियायतें भी प्रदान करती है।
घाटी के लोगों को लगता है कि केंद्र की सरकार फिर वह किसी की भी रही हो, यही यत्न करती रही है कि अनुच्छेद 370 के अधिकारों को कम कैसे किया जाए, इसे लेकर केंद्र के प्रयासों से जहां कश्मीर घाटी के लोग नाखुश रहते हैं। वहीं लद्दाख और जम्मू के बहुत सारे लोग खुश हैं, क्योंकि वे लोग भारत के साथ अधिक से अधिक जुडऩा चाहते हैं। ऐसे में आज जरूरी है कि केंद्र सरकार इस राज्य के तीनों हिस्सों के हिसाब से रोजगार तथा अन्य संसाधन उपलब्ध कराने के प्रयास करे। जिससे कि घाटी की समस्या जम्मू या लद्दाख की समस्या न बन सके।
इसके अतिरिक्त यहां की समस्या का एक पहलू राज्य के आंतरिक क्षेत्रों से भी जुड़ा हुआ है। जैसे कि लद्दाख और जम्मू के लोग घाटी के लोगों से बहुत नफरत करते हैं। वे आरोप लगाते हैं कि उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया जाता है। यदि वे एक लाख लोग मिलकर एक विधायक को चुनते हैं तो घाटी में 83 हजार लोग एक विधायक को चुनते हैं। इसका अर्थ यह है कि घाटी के राजनेताओं को हमेशा सात सीटें अधिक मिलती हैं। हालांकि, आबादी कमोबेश एक ही है। दूसरी बात यह है कि राज्य की शासकीय सेवाओं में ज्यादातर घाटी के लोग रखे जाते हैं। लद्दाख और जम्मू क्षेत्र के लोगों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आधा तो छोडि़ए उसका आधे से आधा भी प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है। जबकि विकास निधि रूप में केंद्र से आने वाले बजट का सबसे अधिक खर्च घाटी पर होता है। लद्दाख और जम्मू के हिस्से में तो इस बजट का नाम-मात्र ही आता है। इसलिए यहां जरूरी है कि तीनों क्षेत्रों में स्थितियों को देखकर समान रूप से आर्थिक विकेंद्रीकरण की व्यवस्था की जाए।
इन सब उपायों के अतिरिक्त सर्वप्रथम केंद्रीय नेतृत्व को ये आकलन करना चाहिए कि घाटी में स्थिति लगातार क्यों फिसल रही है? सुरक्षा-व्यवस्था के मोर्चे पर तो वर्तमान सरकार पर्याप्त कुशलता दिखा रही है, मगर सियासी पहल करने और लोगों का दिल जीतने के मोर्चों पर भी अब बात आगे बढ़ाना होगी। मजहबी कट्टरपंथ से प्रेरित और आतंक की राह चलने वाले एक गुमराह नौजवान के लिए इस स्तर पर समर्थन दिखे, इसे रोकने के लिए यह भी जरूरी हो गया है कि केंद्र सरकार शीघ्र ही घाटी में जनसंख्यात्मक संतुलन बनाने के लिए उन सभी कानूनों में संशोधन करने का रास्ता प्रशस्त करे जो कि भारत के आम नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में स्थायी रूप से रहने से रोकते हैं। देशभर में फेले विस्थापित कश्मीरी पंडितों को शीघ्र ही घाटी में स्थापित किया जाना चाहिए।
देशभर से सकारात्मक माहौल उत्पन्न करनेवाले स्वयंसेवी संस्थाओं के ज्यादा से ज्यादा कार्यक्रम यहां हो सके, इसके लिए आज प्रयास करने होंगे। ऐसे अनेक प्रयास और कार्यक्रम करते रहने के वाबजूद अंत में यही कहना होगा कि जब तक कश्मीर में रहने वाले लोगों के मनों के कलुष को बाहर नहीं निकाला जाएगा, और उनके ह्दयों में यह भाव नहीं भरा जाएगा कि देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें, तब तक कश्मीर समस्या का कोई स्थायी हल निकाला जाना मुश्किल ही बना रहेगा।