नरम अखिलेश के सामने गरम मायावती
संजय सक्सेना
राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बनाने की लालू यादव की कोशिशों को बल नहीं मिल पाया है। खासकर बसपा सुप्रीमों मायावती की तरफ से महागठबंधन की कोशिशों को करारा झटका लगा है। इसके अलावा भी पटना रैली में जहा महागठबंधन बनाने की कोशिशों को परवान चढाना था, वहां से कई दिग्गजों ने किनारा कर लिया तो कुछ ने अपने प्रतिनिधियों को भेज कर रस्म अदायगी भर की। सार यही निकला कि चारा घोटाले में फंसे लालू यादव के साथ मंच साझा करने की हिचक के चलते कई दिग्गज नेताओं के कदम पटना जाने से थम गये। मायावती ने तो किनारा करा ही राहुल गांधी विदेश चले गये तो सोनिया गांधी ने अपना प्रतिनिधि भेज दिया। राष्ट्रवादी कांगे्रस से शरद यादव नहीं आये और उन्होंने अपनी बेटी को भी यहां भेजना मुनासिब नहीं समझा। बल्कि तारिक अनवर को भेज कर काम चला लिया। अरविंद केजरीवाल कुछ समय पूर्व लालू यादव के साथ गलबहियां करते दिखे थे,मगर वह भी रैली में नहीं पहंुचे। मंच पर कोई बड़ा वामपंथी नेता भी नहीं दिखाई दिया। शायद ममता बनर्जी की मंच पर मौजूदगी वामपंथियों को रास नहीं आई होगी, ले-देकर बस अखिलेश यादव ही मंच पर चहल कदमी करते नजर आये,जिनके लालू यादव के परिवार के साथ राजनैतिक से अधिक पारिवारिक रिश्ते हैं। मंच पर अगर कोई कुनबा मौजूद था तो वल लालू यादव का। लालू यादव सहित उनके परिवार के अन्य सदस्यों ने भी रैली को संबोधित किया,लेकिन इससे जनता के बीच कोई बड़ा संदेश नहीं गया।
वैसे भी,बिहार की सत्ता से बेदखल होने के बाद लालू एंड फैमली जख्मी शेर की तरह दहाड़ रही है। उसको सपनों में भी मोदी-नीतीश दिखाई देते हंै। नीतीश के मुंह फेरने से लालू के दोनों बेटे आसमान से जमीन पर आ गिरे। सत्ता का सुख तो जाता रहा ही, सीबीआई भी बेनामी सम्पति मामले में लालू परिवार के पीछे हाथ धोकर पड़ गई है। ऐसे में लालू का तमतमा जाना बनता है। चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू यादव ने बिहार खोया तो उत्तर प्रदेश में अखिलेश, मायावती और कांगे्रस के सहारे वह मोदी को पटकनी देने की राह तलाशने में लग गये। वैसे भी लालू लम्बे समय से उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन की वकालत करते रहे हैं। यह गठबंधन तब तक पूरा नहीं हो सकता है, जब तक की सपा-बसपा आपस में एक न हो जायें। इसी लिये लालू यादव ने पटना में ‘भाजपा भगाओ, देश बचाओ’ रैली में भाग लेने के लिये यूपी के सभी दिग्गज नेताओं को आमंत्रित किया था। लालू के प्रयासों को सबसे पहला झटका समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव ने यह कहकर दिया कि उत्तर प्रदेश में किसी गठबंधन की जरूरत नहीं है। यह और बात है कि बाप की सोच से अलग बेटा अखिलेश यादव ने लालू की रैली में शिरक्त करने में गुरेज नहीं की। यूपी में गठबंधन जरूरी नहीं है कि मुलायम सोच उनकी प्रबल प्रतिद्वंदी मायावती को संभवता रास आई होगी, इसलिये उन्होंने भी लालू की रैली से दूरी बना ली। हो सकता है, मायावती ने सोचा हो कि चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू के साथ मंच शेयर करने से उनकी छवि भी खराब हो सकती है। इसी सोच की वजह से शायद कांगे्रस अध्यक्षा सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी रैली में नहीं गये होंगे। माया और राहुल गांधी के रैली से दूरी बनाये जाने के बीच अखिलेश और राष्ट्रीय लोकदल नेता जयंत चैधरी की उपस्थिति लालू के आंसू पोंछने का काम नहीं कर सकी।
सबसे अधिक चर्चा बसपा सुप्रीमों मायावती के रैली से दूरी बनाये जाने को लेकर हो रही है। कहा यह भी जा रहा है कि मायवती अपने आप को समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा नहीं दिखाना चाहती हैं। इसी लिये तमाम मौकों पर मायावती के प्रति नरम रवैया अपनाने वाले अखिलेश यादव के प्रति मायावती मौका मिलते ही गरम रूख अख्तिायार करने से चूकती नहीं हैं।
वैसे, माया नें रैली में न जाने के बावजूद अपने को लालू की गठबंधन वाली सोच से अलग दिखने की कोशिश नहीं की। उन्होंने गठबंधन बनाने के लिए सभी विपक्षी दलों के सामने एक शर्त रख दी है कि जब तक टिकटों का बंटवारा नहीं होगा, तब तक वह कोई भी मंच साझा नहीं करेंगी।वह यहीं नहीं रूकी। इसके तुरंत बाद उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों और कोऑर्डिनेटरों के साथ कुछ बैठकें कीं। इसमें उन्होंने साफ कहा है कि गठबंधन हो या न हो लेकिन हमारी तैयारी पूरी होनी चाहिए। उन्होंने अभी से लोकसभा चुनाव में हर सीट पर तैयारी के निर्देश पदाधिकारियों को दे दिए हैं। कुछ सीटों पर तो प्रभारी नियुक्त भी कर दिए गए हैं। गौरतलब हो ,बीएसपी में प्रभारी ही प्रत्याशी होते हैं। उन्होंने अभी से ऐसे प्रभारियों की तलाश के निर्देश दिए हैं जो अपनी सीट निकाल सकें। वह प्रभारियों के चयन के लिए खुद भी कई स्तर से फीडबैक ले रही हैं।
ऐसा लगता है कि एक बार फिर माया ने एकला चलो की राह पकड़ कर मिशन 2019 की तैयारी शुरू कर दी है। अपनी पारम्परिक कार्यशैली के अनुरूप उन्होंने लोक सभाओं में प्रभारी बनाने शुरू कर दिए हैं। ये प्रभारी ही 2019 में प्रत्याशी होंगे। वहीं विधान सभा स्तर पर संगठन प्रभारी बनाए जा रहे हैं, जो लोकसभा प्रत्याशियों की मदद करेंगे। इसके साथ ही मायावती 18 सितंबर से रैलियों के जरिए भीड़ जुटाकर अपनी ताकत दिखाने की तैयारी कर रही हैं। बसपा सुप्रीमों मायावती प्रत्येक माह की 18 तारीख को रैलियों का ऐलान पहले ही कर चुकी हैं। पहली रैली 18 सितंबर को मेरठ-सहारनपुर मंडल में होनी है। 18 अक्टूबर को दूसरी रैली आजमगढ़ में होगी। उन्होंने इसके लिए खास तौर से पूर्वांचल के कोऑर्डिनेटरों को तैयारी के निर्देश दे रखे हैं। संगठन को मजबूत बनाने और पार्टी कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए तमाम विधान सभा प्रभारियों को संगठन और कार्यक्रमों की तैयारी का भी जिम्मा सौंपा गया है। विधायक और प्रभारी मिलकर कार्यक्रमों की तैयारी करेंगे।
राजनैतिक पंडितों का कहना है कि मायावती अकेले और गठबंधन के साथ चुनाव लड़ने के दोनों विकल्पों को लेकर चल रही हैं। अभी से रैलियां और प्रत्याशियों का चयन करके वह विरोधियों को दिखाना चाहती हैं कि उनकी पार्टी को भले ही सीटें कम मिली हों लेकिन उनकी उर्जा में कोई कमी नहीं आई है। इसके अलावा भी वह एक और रणनीति पर काम कर रही हैं। यदि गठबंधन की राह खुलती है तो ये तैयारी दूसरे दलों पर दबाव बनाने के काम आयेगी। इसे उनकी ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने की रणनीति के तहत भी देखा जा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि मायावती के लिये 2019 का लोकसभा चुनाव जीवन-मरण का सवाल बन गया है। इस लिये उन्होंने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और दुश्मनी को कुछ समय के लिये घंूटी पर टांग दिया है। उनका सारा ध्यान अपने वोट बैंक और बीजेपी के सामने सशक्त चुनौती पेश करने तक ही केन्द्रित है। फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि गठबंधन से दूरी बनाने के बसपा सुप्रीमों मायावती के एक दांव से तमाम धुरंधर धाराशायी नजर आ रहे हैं तो समाजवादी के नये खेवनहार बने अखिलेश यादव भी समझ नहीं पा रहे हैं कि ‘बुआ’ जी को कैसे अपने साथ लाया जाये। वर्षो बीत चुके हैं,लेकिन पापा (मुलायम सिंह) ने बुआ के साथ जो दुव्र्यवहार किया था,उसकी टीस आज भी बहनजी के चेहरे पर साफ नजर आती है। बिहार में मायावती और अखिलेश का एक संयुक्त पोस्टर सामने आने पर बसपा की तरफ से जिस तरह की कड़ी प्रतिक्रिया दी गई थी,वह भी उत्तर प्रदेश की भविष्य की राजनीति को कई संदेश दे गई थी।