डॉ. मयंक चतुर्वेदी
देश, काल, स्थिति इन तीन विषयों को आधार बनाकर मध्यप्रदेश की राजधानी में हो रहे तीन दिवसीय विचारकों एवं कर्मशीलों के राष्ट्रीय विमर्श लोकमंथन में जिन चिंतकों ने अपने भाव प्रकट किए एवं वर्तमान भारत के सामने चुनौतियों पर चिंता व्यक्त करते हुए जो कहा कि भारत अपने सनातन मार्ग पर चलकर ही तमाम विसंगतियों से मुक्त होकर विश्व को शांति का मार्ग दिखा सकता है। उसे देखते हुए यही कहना होगा कि इस मंथन के पहले ही दिन राष्ट्रीयता के हवन कुण्ड में स्वाहा होकर कई मनुष्य आहुतियों से विश्वव्यापी प्रकाश मध्यप्रदेश की विधानसभा परिसर से बाहर निकला है। इसके बाद आगे यहां जिस तरह से विचार प्रवाह चलेगा, उसके लिए कहा जा सकता है कि राष्ट्र सर्वोपरि का निकला मंथन भारत को उन सभी वैचारिक दासताओं से मुक्ति प्रदान करने में सहायक सिद्ध होगा जिसके लिए पिछले एक हजार साल से अधिक समय से प्रयास किए जा रहे हैं।
यहां आए वक्ताओं की बातों में जो बात समान लगी, उसमें सबसे महत्वपूर्ण रही विश्व के उत्थान का मार्ग भारत से होकर जाता है। भारत की संस्कृति और परंपरा में परहित का ध्यान सदैव रखा गया है, अपने से पहले दूसरे की चिंता, अतिथि देवो भव का आदर्श भारत को यूरोप से भिन्न करता है। पाश्चात्य संस्कृति मैं से शुरू होती है और फिर मैं पर ही समाप्त हो जाती है, किंतु भारतीय संस्कृति का आधार ही हम है। यहां सर्वे भवन्तु का विचार सर्वप्रथम किया गया है। यहां सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय की कल्पना के यथार्थ में ही प्रत्येक भारतीय अपना सुख देखता है। इसलिए द्वार पर आए किसी भूखे को अपने हिस्से का भोजन देने और उसके बाद यदि स्वयं को भूखा भी रहना पड़े तो रहेंगे इस भाव के साथ जीवन जीने में हर भारतीय गौरव का अनुभव करते हैं।
विचार मंथन में जो बात सामान्यत: एक समान दिखी, वह यही थी कि दुनिया में औपनिवेशिकता की मानसिकता से शांति की स्थापना नहीं हो सकती। यूरोप की अवधारणा के अनुरूप खूब आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता की बात कर ली जाए, मनुष्य कभी सहज और सरलतम जीवन को प्राप्त नहीं कर सकता। उसके मंचों से पर्यावरण, संस्कार, परंपराओं पर भाषण देने से अब काम चलने वाला नहीं है, इसके लिए पूरी दुनिया को भारत का अनुसरण करते हुए अपने दैनन्दिन जीवन में भारत के आम व्यक्ति की दिनचर्या को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाना होगा, जिसमें कि परिवार के दिन की शुरूआत पशु-पक्षियों के भोजन पानी की चिंता करते हुए अतिथि एवं पड़ौसियों की चिंता के बाद अपनी समस्याओं पर केंद्रित होती है।
जूना अखाड़े के महामण्डलेश्वर आचार्य स्वामी अवधेशानन्द गिरी महाराज का संदेश कि मन, विचार, इंद्रियों पर जितना चिंतन भारतीय मनीषियों ने किया, उतना संपूर्ण विश्व में कहीं नहीं हुआ। स्थायी सुख मन, विचार और इंद्रियों के परस्पर के समन्वय से ही प्रत्येक मनुष्य प्राप्त करता है। बिल्कुल सत्य है। गुजरात के राज्यपाल एवं मध्यप्रदेश के प्रभारी राज्यपाल प्रोफेसर ओमप्रकाश कोहली के वक्तव्य का निष्कर्ष यही निकलता है कि सनातन संस्कृति है तभी तक भारत जीवित है, इसलिए सनातन संस्कृति के उत्थान और विकास के लिए सभी को आगे आना चाहिए और इसके उत्थान के लिए अपने संपूर्ण प्रयास करने चाहिए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी का यह कहना भी सत्य है कि भारत में चिंतन की पुरातन परंपरा है, जब चीजें धुंधली होने लगती हैं तो इस प्रकार के आयोजन स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट कर देते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत को न्याय-दर्शन के अनुसार वाद को अपने जीवन में धारण करने की आवश्यकता है, जिसमें परस्पर संवाद के बाद क्रिया के माध्यम से समस्या का समाधान प्राप्त किया जाता है। यूरोप की नकल से हम श्रेष्ठता को प्राप्त नहीं करेंगे, बल्कि यूरोप की तुलना में हमारा अपना जो दर्शनिक पक्ष और उसके अनुरूप हमारा व्यवहारिक मॉडल है उसे पूर्णत: अपनाकर ही भारत अपनी सभी समस्याओं का समाधान कर सकता है साथ ही दूसरे देशों का भी मार्गदर्शन कर सकता है। निश्चित ही भारत पर जो एक हजार वर्ष से अधिक समय तक आक्रमण हुए उससे यहां की मूल परंपरा को तोडऩे का काम हुआ, इससे प्रभावित भी देश में बहुत बड़ा वर्ग मौजूद है, जिसे अपनी परंपराओं से विकसित होने पर संदेह है। ऐसी विषम परिस्थिति में भारत अपनी अस्मिता के साथ खड़ा हो, इस कामना के साथ हो रहे इस लोकमंथन का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।
इस लोकमंथन में यह भी बात निकलकर आई कि रविन्द्रनाथ टैगोर ने 1930 में इस ओर संकेत किया था कि यह जो ब्रिटिश आक्रमण भारत में हुआ है, वह बिना प्रत्यक्ष दिखाई दिए बगैर शिक्षा के माध्यम से हमारी मूल समाज चेतना को बदलकर रख देगा, जब यह जानकर भारतीय इसका विरोध करेंगे तो यह रूप बदलकर भारतीयों के रूप में ही प्रकट हो जाएगा, इसलिए इससे सावधान हो जाने की जरूरत है। केवल और केवल इसकी समाप्ति का एक ही उपाय है अपनी आत्मा का साक्षात्कार। टैगोर ने जिस बात की तरफ ध्यान दिलाया था, देखा जाए तो आज उनका यह संकेत सत्य बन गया है। अब किसी ब्रिटिश से हमारा विरोध नहीं होता, देश में विचाराधारा के स्तर पर हमारे ही हमारा विरोध कर रहे हैं। राष्ट्र और नेशन एक नहीं है, इस पर विचार करने की जरूरत है। हमारा राष्ट्र क्या है? हमारी संकल्पनाएँ क्या हैं? उपनिवेशवाद के मायने हम भारतीयों के लिए क्या है ? भूमण्डलीकरण की वैश्विक अवधारणा और भारतीय अवधारणा जो वसुधैव कुटुम्बकम् का जयघोष करती है में परस्पर का अंतर क्या है ? यह सभी बातों पर विचार करने की जरूरत है। हमारे यहां जब राष्ट्र कहा तो उसकी दृष्टि पश्चिम से भिन्न रही है।
लोकमंथन के पहले दिन का निष्कर्ष यही है कि यूरोप की सोच में अपना विकास सर्वोपरी है और भारतीय सोच में अपने साथ दूसरे का विकास जो पास है और जो हमसे दूर हैं उन सभी का परस्पर विकास आवश्यक माना गया है। यही दृष्टि का अंतर भारत को पश्चिम से अलग खड़ा करता है। समसामयिक विषयों पर विश्व प्रसिद्ध हो चुके राजीव मल्होत्रा, चिन्मय मिशन के युवा आचार्य स्वामी मित्रानन्द और प्रो. राकेश सिन्हा ने औपनिवेशिकता से भारतीय मानस की मुक्ति विषय के विविध पक्षों पर अपने विचार सभी के बीच साझा किए हैं। जिसमें उन्होंने बताया कि 50 प्रतिशत वर्तमान भारतीय भ्रमित हैं कि कौन का विचार भारत के लिए सही है यूरोपीयन मॉडल या भारत का अपना परंपरागत विकास का मॉडल। यहां 25 प्रतिशत वैदिक परंपरा पर आज भी लोगों को विश्वास है और 25 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें यूरोप का दिखाया गया कोई भी मार्ग हो सही प्रतीत होता है। इसलिए भारत के मूल विचार को सभी तक ठीक से पहुँचाना हम सभी चिंतकों का कार्य है, जिससे कि वर्तमान में जो बहुसंख्यक जन हैं, वे भ्रम की स्थिति से बाहर निकल सकें।
वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की भी है कि भारतीय मन का अध्ययन हो, अब तक विश्वविद्यालयों में कई अध्ययन हुए और हो रहे हैं लेकिन जो भारत का मूल है उस पर बहुत कार्य नहीं हुआ है। यह कार्य आगे न भी हो तो भी चलेगा लेकिन यदि भक्ति आंदोलन की तरह जन-जन में लोक के बीच भारतीय मूल सनातन विचार ठीक से पहुँच गया तो तय मानिए विश्व को भारत फिर एक बार ज्ञान देने के साथ शांति दे पाएगा और आंतरिक रूप से भी भारत सभी समस्याओं से मुक्त हो आनन्द का भागी होगा। लोकमंथन के पहले दिन का संपूर्ण सार यदि इसे कहा जाये तो कुछ गलत न होगा।