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अमेरिकी टेरिफ़ को चुनौती देंगे हाथी और ड्रैगन?

विजय सहगल     

20 जनवरी 2025 को 79 वर्षीय डोनाल्ड ट्रम्प के दूसरी बार अमेरिका के  राष्ट्रपति चुने जाने पर डोनाल्ड ट्रम्प ने पूरी दुनियाँ को टेरिफ़ वार की जंग मे उलझा दिया। दुनियाँ में महाशक्ति होने की प्रतिष्ठा  जो पूर्व राष्ट्रपतियों ने  सालों मे हांसिल की थी, ट्रम्प के आने के बाद बैसी छवि अब उनकी नहीं रही। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दुनियाँ के सबसे परिपक्व लोकतन्त्र होने  के अपने महाशक्ति होने का रुतबा, बड़प्पन और कुलीनता को भुलाते हुए एक चतुर लेकिन काइयाँ व्यापारी के रूप मे अपनी छवि को गढ़ लिया जो 24 घंटे सातों दिन हर मिलने, जुलने, आने-जाने वालों से अपनी टैरिफ की तराजू दिखा कर, मोल-तोल करने मे मशगूल है। उन्हे अपने देश के इतिहास की मर्यादाओं और नैतिकता से कोई सरोकार नहीं।

 डोनाल्ड ट्रम्प विश्व के सभी छोटे-बड़े देशों से व्यापार मे अमेरिका के टैरिफ और टैक्स लगाने मे इतने मशगूल हो गए कि वे अपने मित्रों और शत्रुओं में, सहयोगियों और असहयोगियों के बीच के अंतर की समझ भी खो बैठे है अन्यथा क्या कारण हो सकते हैं कि रूस से तेल खरीदने पर तर्कों-वितर्कों  से परे  कुतर्कों का सहारा लेकर भारत जैसे देश पर टैरिफ और उस पर पैनल्टी लगा कर 50% का  टैक्स लगा दिया। उन्हे शायद अनुमान नहीं था कि आज का भारत  बदला हुआ भारत है जो किसी महाशक्ति की धौंस-डपट, धमकी या  दबाव मे आये बिना परस्पर समानता, सहभागिता और स्वाभिमान मे विश्वास करता है।              

पाकिस्तान और अन्य ऐसे ही देशों ने अपने आत्मसम्मान को तिलांजलि दे कर अमेरिका की व्यापार और आर्थिक नीतियों के समक्ष, उसके आगे घुटने टेकते हुए अपने देशो के नागरिकों के हितों की कीमत पर समझौता  कर लिया। उन्हे ऐसी ही कुछ  उम्मीद मोदी सरकार से रही होगी लेकिन आपदा मे अवसर की नीति पर चलते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरी तरह संयत शांतचित्त से 280 करोड़ की आबादी वाले विश्व की दो सबसे बड़े देश, भारत और चीन  को एक बार विश्व के बिगड़े आर्थिक हालातों के बीच,  पुनः चीन के तियानजिन शहर मे 31 अगस्त से 1 सितंबर 2025 को होने वाले 25वें शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के शिखर सम्मेलन के  मंच पर एक साथ ला खड़ा किया। दोनों  देशों के एक साथ आने से न केवल इनके बीच पारस्परिक सौहार्द और संबंध तो बढ़ेंगे ही अपितु वैश्विक और क्षेत्रीय परिस्थितियों मे  भी विशेष परिणाम देखने को मिलेंगे।

 दरअसल मोदी सरकार ने अमेरिका की मदांध टैरिफ नीति को भाँपते तथा  ऑपरेशन सिंदूर मे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बड़बोले पन के चलते, पिछले साल ही भारत चीन संबंधों को सामान्य बनाने की रणनीति पर कार्यारंभ कर दिया था। विदेशमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की वार्ताओं और मुलाकातों मे गलवान घाटी मे झड़प के बाद सीमा पर तनाव मे कमी लाने मे मिली सफलता, भारत चीन व्यापार, हवाई सेवा एवं वीजा सेवा पर सहमति, भविष्य के द्विपक्षीय समझौतों पर सहमतियाँ बनी। पूरे विश्व की निगाहें भी भारत चीन की इस मीटिंग पर थीं कि कैसे विश्व की दो बड़ी आर्थिक शक्तियाँ अपने असहमति के क्षेत्रों से परे आपसी मुद्दों के समाधान के लिए सहमत हो सकती हैं। मुलाक़ात के बाद, दोनों देशों के अलग अलग बयान इस बात को उद्धृत कर रहे थे कि अब दोनों देश एक नये रास्ते पर बढ़ रहे है। दोनों देशों ने आपसी मतभेद को विवाद का रूप न देने पर भी चर्चा हुई। दोनों देश निवेश के मामले पर भी सहमति बनाते दिखे। इस सबके बावजूद सीमा पर चीन की विश्वसनीयता,  भारत चीन के संबंधों पर सबसे बड़ी चुनौती रहेगी। दोनों देशों को इस बात का ध्यान रखना होगा,  कहीं सीमा पर आपसी सहमति और विश्वास मे कमी  इस रास्ते की बड़ी बाधा न बने? 

इस मंच से रूस के राष्ट्रपति पुतिन की सहभागिता ने गुड़ मे घी का काम करते हुए इस मंच को और भी महत्वपूर्ण बना दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े ही स्पष्ट तरीके से अपने विचार रखते हुए SCO की नई परिभाषा गढ़ी। उन्होने इस्की व्याख्या  सुरक्षा, कनेक्टीविटी और अवसरों के रूप मे की। उन्होने परोक्ष रूप से चीन पाकिस्तान कॉरीडोर के पाक अधिकृत कश्मीर से निकालने पर टिप्पड़ी करते हुए कनेक्टीविटी मे दूसरे देशों की सार्वभौमिकता और क्षेत्रीय अखंडता  का सम्मान करने की हिदायत दी। ऑपरेशन सिंदूर पर पाकिस्तान के आतंकवादियों को खुले समर्थन पर अपनी अस्वीकार्यता प्रकट करते हुए आतंकवाद पर दोहरे मानदंडों पर अपना रोष प्रकट किया। अतकवादियों के मददगारों और समर्थकों को भी आतंकवादी घोषित करने की मांग सहित उक्त बातों को भी शंघाई सहयोग संगठन के संयुक्त घोषणा पत्र मे शामिल होने की कूटिनीति को  भारत की बहुत बड़ी सफलता माना जा रहा है।      

SCO के शिखर सम्मेलन मे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और  रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाक़ात भी विश्व के मीडिया मे छाई रही।  मोदी ने रूस और भारत के संबंधों पर प्रकाश डालते हुए इसे कठिन से कठिन दौर मे कंधे से  कंधे मिलाकर चलने से उद्धृत किया। उन्होने कहा कि दोनों देशों  के संबंध न केवल दोनों देशों के नागरिकों अपितु वैश्विक शांति, स्थिरता और समृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। रूस और भारत के बीच हुई इस वार्ता का मुख्य उद्देश्य आर्थिक, वित्तीय और ऊर्जा क्षेत्रों मे दोनों पक्षों के बीच सहयोग बढ़ाना था। ऊर्जा क्षेत्र मे रूस से सस्ती दरों से पेट्रोलियम पदार्थों की महत्वपूर्ण खरीद शामिल है जो भारत अमेरिका के बीच व्यापार समझौते मे, टैरिफ युद्ध का मुख्य  कारण बनी। वार्ता के पश्चात  रूसी राष्ट्रपति पुतिन का भारतीय प्रधानमंत्री के लिए दस मिनिट इंतज़ार करना और बाद मे राष्ट्रपति पुतिन की ऑरिस लिमोजीन  कार से  प्रधानमंत्री मोदी का एक साथ जाना और एक घंटे  तक एक दूसरे से अनौपचारिक  बातचीत को भी विश्व मंच ने कौतुकता से देखा। मीडिया मे चल रही चर्चा मे इस वार्ता को बेहद संवेदनशील, महत्वपूर्ण  गोपनीय वार्ता बताया।  जिसकी किसी को अब तक कोई जानकारी नहीं। शायद राष्ट्रपति पुतिन और प्रधानमंत्री मोदी ने इस कार को गोपनीय वार्ता के लिए इसलिये चुना क्योंकि वो इसे रूस से लाये थे और जो किसी भी  जासूरी यंत्रो और  प्रणाली से सुरक्षित है।

शंघाई सहयोग संगठन मे भारत, रूस चीन के एक साथ खड़े नज़र आने को अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स समाचार पत्र ने  भी, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए चिंता का सबब बताया। पत्र का कहना था कि ट्रम्प के भारत पर 50% टैरिफ के निर्णय ने भारत अमेरिका के व्यापार को बुरी तरह प्रभावित किया है। अमेरिका का यह निर्णय कहीं अमेरिका के लिए उल्टा न पड़ जाएँ? बैसे अमेरिका मे भी ट्रम्प के इस निर्णय का विरोध हो रहा है। अमेरिका स्थित फेडरल रिजर्व के गवर्नर जेरोम पॉवेल ने कहा है कि टेरिफ़ की बृद्धि से मुद्रास्फीति बढ़ सकती है, और आर्थिक गतिविधियां धीमि पढ़ सकती है, बेरोजगारी का खतरा बढ़ सकता है। डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ के फैसले को पिछले दिनों यूएस अपील कोर्ट ने भी अवैध और गैरकानूनी बताया है। इस निर्णय से डोनाल्ड ट्रम्प काफी नाराज़ हैं और उन्होने इस निर्णय के विरुद्ध यूएस सुप्रीम कोर्ट मे अपील के लिए दरवाजा खटखटाया है।

ऐसा नहीं है कि अमेरिका के इस टैरिफ से सिर्फ भारत को ही नुकसान है, अमेरिका मे मंदी का खतरा मंडराने लगा है, भारत रूस और चीन का एक साथ विश्व मंच पर आना इस खतरे को   और मजबूत करता है। अब ऐसा प्रतीत हो रहा  हैं कि दुनियाँ के देशों मे वर्चस्व की लड़ाई और तेज होगी .कदाचित  दुनियाँ की  महाशक्तियों के क्रम मे भरी उलट फेर संभव  हो? कहीं अमेरिका को विश्व मे अपने, नंबर एक होने के अहसास से वंचित होना पड़  जाए?  भारत ने भी अन्य नये देशों से निर्यात व्यापार की संभावनाएं शुरू कर दी हैं ताकि अमेरिका से होने वाले निर्यात के नुकसान की भरपाई इन देशों के निर्यात से की जा सके।

विजय सहगल

नागरिक कर्त्तव्यों का प्रचार-प्रसार आवश्यक

डा.वेदप्रकाश

नागरिकों द्वारा कर्त्तव्यों के ज्ञान और निर्वाह के बिना संकल्प से सिद्धि का मार्ग बाधित होता है। इसलिए आज व्यापक स्तर पर यह आवश्यक है कि संविधान सम्मत नागरिक कर्त्तव्यों का प्रचार-प्रसार हो। विकसित भारत के संकल्प में सभी को अधिकार मिलें इसके लिए यह भी आवश्यक है कि सभी नागरिक कर्तव्यों का पालन भी करें।


     संविधान लोकतंत्र की आत्मा है। लोकतंत्र सम्मत विभिन्न प्रविधान और समूची व्यवस्थाएं संविधान से ही चालित होती हैं। यही कारण है कि भारत में संविधान सर्वोपरि है। यह संविधान ही है जो प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करता है। साथ ही यह प्रत्येक नागरिक की गरिमा को भी सुनिश्चित करता है। संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में समता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि अधिकारों की व्यापक चर्चा है और एक नागरिक के नाते हम सभी इन अधिकारों के संबंध में सजग भी रहते हैं। वहीं संविधान के भाग 4 क और अनुच्छेद 51क में मूल कर्त्तव्य के अंतर्गत 11 बिंदुओं का भी उल्लेख है जिसमें प्रत्येक नागरिक के लिए कर्त्तव्य बताए गए हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कर्त्तव्यों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि भारत के प्रत्येक नागरिक का पहला कर्तव्य है कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे। भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे। देश की रक्षा करे और आवाह्न किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे। भारत के सभी लोगों में समरसता और सामान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म,भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो। प्रकृति- पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव रखे। सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे। यदि माता-पिता या संरक्षक हैं, 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु वाले अपने,यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे आदि।

यहां गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि क्या एक नागरिक  के नाते हमें संविधान सम्मत मूल कर्तव्यों का ज्ञान है? क्या हम नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं? क्या यह सच नहीं है कि हम एक नागरिक के रूप में अपने कर्त्तव्यों की अपेक्षा अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत रहते हैं? क्या आज हमें यह समझने की आवश्यकता नहीं है कि अधिकार और कर्तव्य दोनों साथ-साथ हैं? यदि संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है तो यह अधिकार असीमित नहीं है। इसके साथ हमारे नागरिक कर्तव्य भी जुड़े हैं।


     भारत का संविधान हमें यह अधिकार देता है कि हम अपने मताधिकार का प्रयोग करें। उसके जरिए अच्छे जनप्रतिनिधियों को चुनें। न्यायपालिका एवं संविधान सम्मत संस्थाओं में विश्वास रखें लेकिन कई बार देखने में आता है कि हम अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते अथवा जाति एवं क्षेत्रीयता आदि के प्रभाव में आकर अपराधी प्रवृत्ति वाले जनप्रतिनिधियों को चुनते हैं। कई बार हमारे जनप्रतिनिधि निहित स्वार्थों एवं राजनीतिक लाभ के लिए संविधान सम्मत बने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली का ही विरोध करते हैं। इतना ही नहीं, वे विपक्ष के नाम पर न्यायपालिका के निर्णयों और संसद में बनाए गए कानूनों के प्रति भी अविश्वास फैलाने का प्रयास करते हैं। दिन- प्रतिदिन जाति, संप्रदाय,भाषा एवं क्षेत्रीयता के झगड़े सामान्य होते जा रहे हैं। इन आधारों पर एक दूसरे से वैमनस्य बढ़ रहा है। समान भ्रातृत्व की भावना को आघात पहुंचाया जाता है, क्या यह संविधान सम्मत मूल कर्त्तव्यों के अनुरूप है?

 विगत दिनों ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सैन्य अभियान पर नकारात्मक टिप्पणियां की गई। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान और उसके बाद भारत के विरुद्ध जासूसी करने वाले दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया। ये देश के ऐसे नागरिक हैं जो कुछ रुपयों के लालच में देश की एकता एवं अखंडता से खिलवाड़ कर रहे थे। इस संबंध में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा- जासूसी भारत की अखंडता, संप्रभुता और सुरक्षा के खिलाफ है और राष्ट्र के साथ विश्वासघात है। विडंबना यह भी है कि कुछ चुने हुए जन प्रतिनिधि भी संसद के अंदर और बाहर सेना के पराक्रम पर प्रश्न उठाकर सेवा का मनोबल गिराने का प्रयास करते हैं, क्या यह नागरिक कर्तव्यों के विरुद्ध नहीं है? भारतवर्ष का संविधान जनप्रतिनिधियों के आचरण और दायित्व पर भी निर्देश करता है किंतु पिछले लंबे समय से कई जनप्रतिनिधि संविधान खतरे में है, लोकतंत्र खतरे में है, ईवीएम मशीन खराब हैं, चुनाव आयोग सत्तारूढ़ पार्टी के इशारों पर काम करता है, वोट चोरी हो रही है, सरकार केवल पूंजीपतियों के हित में काम कर रही है आदि बेबुनियाद आरोपों के सहारे राजनीतिक स्वार्थों के एजेंडे चला रहे हैं जो समाज में आक्रोश बढ़ाने और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कमजोर करने का काम करते हैं, क्या इस प्रकार का आचरण नागरिक कर्तव्यों की अवहेलना नहीं है? यदि ऐसे कृत्य संविधान सम्मत नागरिक कर्त्तव्यों की अवहेलना हैं तो फिर ऐसे लोगों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाही क्यों नहीं होती?


    आज प्रकृति-पर्यावरण, वन, झील, नदी और वन्यजीवों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। इनका दोहन और इन्हें प्रदूषित करना जारी है। कई नदियां मर चुकी है अथवा भयंकर प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। वन क्षेत्र के लगातार घटने से वन्यजीवों के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो रहा है। अनुचित तरीके से वृक्षों को काटने वाले, नदी, झीलों और प्रकृति-पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले कौन हैं? क्या यह संविधान सम्मत नागरिक कर्तव्यों के विरुद्ध नहीं है?  समय-समय पर धरने-प्रदर्शनों के चलते सार्वजनिक संपत्ति को आग लगा देना, तोड़फोड़ और साथ ही छोटी-छोटी बातों पर हिंसा सामान्य होते जा रहे हैं जबकि नागरिक कर्तव्यों में इनके निषेध की बात कही गई है।


     नागरिक कर्तव्य तो यह भी है कि हम अपने प्रकृति- पर्यावरण को स्वच्छ रखें। यहां वहां कूड़ा-कचरा न फैलाएं लेकिन क्या एक नागरिक के नाते हमें यह ज्ञान है? ध्यान रहे जब हम अपने लिए स्वच्छ जल,स्वच्छ वायु और गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार की बात करते हैं तब हमें जल व वायु की स्वच्छता और दूसरों के गरिमापूर्ण जीवन के लिए नागरिक कर्तव्य भी निभाने पड़ेंगे। यातायात के नियमों का पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है लेकिन अकेले राष्ट्रीय राजधानी में विगत 6 वर्षों में यातायात के नियमों के उल्लंघन को लेकर लगभग 4 करोड़ चालान काटे गए हैं. क्या यह दूसरों के जीवन से खिलवाड़ और नागरिक कर्तव्यों की अनदेखी नहीं है? आज भी लाखों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं. क्या यह शिक्षा के अधिकार और मूल कर्तव्यों की अनदेखी नहीं है? जनप्रतिनिधियों पर राष्ट्र कल्याण के कार्य करने और नागरिकों के सकारात्मक मानस निर्माण का दायित्व होता है लेकिन विडंबना है कि आज विभिन्न जनप्रतिनिधि ही देश के विरुद्ध भिन्न-भिन्न प्रकार के दुष्प्रचार का हिस्सा बन रहे हैं। हमारी ज्ञान परंपरा में अनेक स्थानों पर कर्त्तव्यों के पालन की बात कही गई है। राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ और विभिन्न मंत्रालयों के लिए बन रहे नए भवनों के नाम कर्तव्य भवन करने के पीछे उद्देश्य यही है कि प्रत्येक नागरिक कर्तव्य पथ और कर्तव्य भवन से अपने नागरिक कर्त्तव्यों के प्रति जिम्मेदार बने।


    आज जब एक राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष अपनी स्वतंत्रता के 79 वर्ष एवं गणतंत्र के रूप में 75 वर्ष पूरे कर चुका है तब यह आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक लोकतंत्र की मजबूत नींव बने। इसके लिए संविधान सम्मत अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों के प्रचार-प्रसार और  जन जागरण की आवश्यकता है। आज यह भी आवश्यक है कि संविधान सम्मत मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्य भी विद्यालयों और महाविद्यालयों के  पाठ्यक्रम का हिस्सा बनें। कर्तव्यों का पालन करते हुए ही ऐसे नागरिकों का निर्माण हो सकता है जो विकसित भारत के संकल्प को प्रतिबद्धता से पूरा करेंगे।


डा.वेदप्रकाश

क्या बिहार में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव अपने मंसूबे में सफल होंगे!

रामस्वरूप रावतसरे

       बिहार में राहुल गाँधी और तेजस्वी यादव की वोटर अधिकार यात्रा 16 दिन तक चली। ये यात्रा बिहार के 23 जिलों, 1300 किलोमीटर और 67 विधानसभा सीटों से होकर गुजरी। वैसे तो इस यात्रा का मकसद था बिहार विधानसभा चुनाव से पहले वोट चोरी का मुद्दा उठाकर जनता का समर्थन हासिल करना और इंडी गठबंधन को मजबूत करना लेकिन नतीजा उल्टा रहा।

    इस यात्रा पर नजर रखने वालों के अनुसार यात्रा की अगुवाई करने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी न तो जनता का भरोसा जीत पाई , न ही गठबंधन के भीतर एकजुटता दिख पाई। यात्रा के दौरान विवाद, आपसी मतभेद और स्थानीय लोगों की उदासीनता ने इसे चर्चा का विषय बना दिया। राहुल गाँधी ने वोटर अधिकार यात्रा की शुरुआत सासाराम से की थी जिसमें आरजेडी नेता तेजस्वी यादव उनके साथ थे। इसका लक्ष्य था वोट चोरी को बड़ा मुद्दा बनाना और बिहार की जनता को यह बताना कि उनके वोटिंग अधिकार खतरे में हैं। साथ ही इंडी गठबंधन को एकजुट दिखाकर तेजस्वी यादव को बिहार में मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाना भी इसका उद्देश्य था लेकिन ये दोनों ही लक्ष्य पूरे नहीं हो सके।

    स्थानीय लोगों ने इस यात्रा को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। इस यात्रा को नजदीक से देखने वाले संजय कौशिक के अनुसार “यात्रा का सबसे बड़ा नुकसान मुद्दे के चयन में हुआ। वोट चोरी का मुद्दा बिहार की जनता के बीच गूँज नहीं सका। लोग एसआईआर (स्पेशल इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन) को जरूरी मानते हैं क्योंकि उनका मानना है कि वोटर लिस्ट में बाहरी लोग, घुसपैठिए और मृत वोटरों के नाम हटाए जाने चाहिए।” इस वजह से राहुल गाँधी को स्थानीय समर्थन नहीं मिला। लोगों ने राहुल गाँधी की इस यात्रा को न सिर्फ खारिज किया बल्कि उन्होंने बिहार एसआईआर को बेहद जरूरी बताया। स्थानीय लोग तो घुसपैठियों की समस्या से परेशान भी दिखे।

     यही नहीं, यात्रा का रूट मैप भी मुस्लिम बहुल इलाकों को ध्यान में रखकर बनाया गया था ताकि इस समुदाय को इंडी गठबंधन की ओर आकर्षित किया जा सके। सासाराम, रोहतास से निकली यात्रा औरंगाबाद, गया, वजीरगंज, शेखपुरा, मुंगेर से होकर भागलपुर, कटिहार, पूर्णिया, सुपौल होते हुए दरभंगा, सीतामढ़ी, बेतिया, फिर गोपालगंज, छपरा, भोजपुर होते हुए पटना में खत्म हुई लेकिन यह रणनीति भी कारगर नहीं रही। आरा जैसे इलाकों में वामपंथी दलों को जोड़ा गया लेकिन वहाँ भी भीड़ जुटाने में नाकामी मिली।

  इंडी गठबंधन में शामिल आरजेडी को उम्मीद थी कि यह यात्रा तेजस्वी यादव को बिहार में मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यात्रा के दौरान राहुल गाँधी ने सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया जिससे तेजस्वी की छवि को नुकसान हुआ। जानकारों के अनुसार “राहुल गाँधी ने तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से बच कर गठबंधन की अंदरूनी खटास को उजागर कर दिया।”

      इसके अलावा आरजेडी और कॉन्ग्रेस के बीच सीट बँटवारे को लेकर भी तनाव सामने आया। यात्रा से पहले चर्चा थी कि कॉन्ग्रेस को महागठबंधन में 40 सीटें भी नहीं मिलेंगी लेकिन यात्रा के बाद लगता है कि कॉन्ग्रेस कुछ ज्यादा सीटें हासिल कर सकती है। फिर भी जमीनी स्तर पर इसका कोई खास फायदा नहीं दिखता। बताया जा रहा है कि यात्रा के दौरान कई विवादों ने इसे और कमजोर किया। सबसे बड़ा विवाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के शामिल होने पर हुआ। स्टालिन 27 अगस्त को मुजफ्फरपुर में यात्रा में शामिल हुए लेकिन उनकी पार्टी डीएमके के नेताओं के पुराने बयान लोगों को याद आ गए।

     डीएमके सांसद दयानिधि मारन ने बिहार और यूपी के लोगों को ‘टॉयलेट साफ करने वाला’ कहा था जबकि स्टालिन के बेटे उदयनिधि ने सनातन धर्म को बीमारी बताया था। भाजपा प्रवक्ता प्रभात मालाकार ने कहा, “यह यात्रा बिहार और बिहारियों के अपमान की यात्रा थी। राहुल और तेजस्वी उन लोगों के साथ घूमे जिन्होंने बिहार के डीएनए पर सवाल उठाए।” दूसरा बड़ा विवाद दरभंगा में हुआ जहाँ मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपशब्द कहे गए। मोहम्मद रिजवी को इस मामले में गिरफ्तार किया गया। इस घटना का वीडियो वायरल हो गया और भाजपा ने इसे पूरे देश में मुद्दा बनाया।

    वोटर अधिकार यात्रा में पप्पू यादव और कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को भी शामिल किया गया था लेकिन इनका रोल भी विवादों से अछूता नहीं रहा। पप्पू यादव को पूर्णिया में इस्तेमाल किया गया लेकिन बाद में उन्हें मंच पर जगह तक नहीं दी गई। पटना में वे मंच के पीछे बैठे दिखे जबकि उन्होंने तेजस्वी यादव को ‘जननायक’ तक कह दिया था। कन्हैया कुमार शुरुआत में यात्रा में दिखे लेकिन बाद में गायब हो गए। पप्पू यादव और कन्हैया कुमार जैसों को अभी भी आरजेडी कबूल करने को तैयार नहीं है। ऐसे में आरजेडी ने इन दोनों को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जिससे गठबंधन में आपसी अविश्वास की खाई और गहरी हो गई।

    आरजेडी को उम्मीद थी कि इस यात्रा से तेजस्वी यादव को बिहार में इंडी गठबंधन का फ्रंट चेहरा बनाया जाएगा लेकिन हुआ उल्टा। राहुल गाँधी सारा फुटेज खा गए। इसकी वजह से कॉन्ग्रेस और आरजेडी के बीच मतभेद भी सामने आ गया कि राहुल गाँधी तेजस्वी यादव पर हावी हो गए। इसकी वजह से यात्रा के समापन को बदल दिया गया और बेहद निराशा भरे माहौल में पटना में यात्रा को खत्म कर दिया गया।

   बिहार में एक वर्ग है- जिसने सिर्फ जंगल राज की कहानियों को पढ़ा है, उस समय के बारे में सिर्फ सुना है, उन्होंने जंगलराज को जिया नहीं है। मतदाताओं के ऐसे वर्ग ने 20 सालों से नीतीश कुमार को ही सत्ता में बने देखा है। जंगलराज को न जानने वाले इस मतदाता वर्ग में एंटी इन्कमबेंसी फैक्टर बना हुआ था। यही वर्ग मजबूरी के विकल्प के तौर पर तेजस्वी यादव की तरफ भी देख रहे थे। यही वजह है कि तेजस्वी यादव कलम, रोजगार इन सब चीजों की बात भी करते थे लेकिन कॉन्ग्रेस ने अपने वोट चोरी का जो फर्जी एजेंडा थोप दिया, उससे तेजस्वी यादव के मुद्दे खो गए। साफ है कॉन्ग्रेस के वोट चोरी के एजेंडे ने तेजस्वी के इन मुद्दों को दबा दिया।

इन सब की वजह से जो नए मतदाताओं के बीच कलम-रोजगार जैसे मजबूरी के मुद्दों के बीत तेजस्वी उभर रहे थे, वो सब भी तेजस्वी और इंडी गठबंधन के हाथों से फिसल गए। नचिकेता नारायण के अनुसार “कॉन्ग्रेस खुद को आरजेडी के बराबर खड़ा करने में कामयाब रही। इसके अलावा उसे बहुत ज्यादा फायदा नहीं हुआ। वोट चोरी का मुद्दा लोगों ने नकार दिया। यात्रा के दौरान दिखाए गए सबूत या तो गलत निकले या जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।” यात्रा से इंडी गठबंधन को मिला-जुला फायदा हुआ। कॉन्ग्रेस के लिए यह संगठन को मजबूत करने का मौका था। जानकारों की माने तो बिहार में कॉन्ग्रेस का संगठन लगभग खत्म हो चुका था। इस यात्रा ने कार्यकर्ताओं में नई जान फूँकी।” लेकिन वोटों में इसका कितना फायदा होगा, यह साफ नहीं है।

    वोटर अधिकार यात्रा के रूट में शामिल 67 विधानसभा सीटों में से 2020 में एनडीए ने 39 सीटें जीती थीं जबकि कॉन्ग्रेस को सिर्फ 9 सीटें मिली थीं। राहुल गाँधी के सामने इन सीटों पर एनडीए की मजबूती को तोड़ने की चुनौती थी लेकिन ऐसा हो नहीं सका। यात्रा के समापन में पटना के गाँधी मैदान में बड़ी रैली की योजना थी, लेकिन भीड़ न जुटने की वजह से इसे रोड शो में बदल दिया गया। राहुल गाँधी जल्दी ही बिहार से निकल गए।

    इस ‘वोटर अधिकार यात्रा’ से पहले जो चर्चा थी कि इंडी गठबंधन में कॉन्ग्रेस को 40 सीटें भी नहीं मिलेंगी, वो इस यात्रा के बाद बदल गया है। अब लगता है कि शायद कॉन्ग्रेस कुछ ज्यादा सीट झटक ले। हालाँकि इस यात्रा से ये भी साफ हो गया है कि कॉन्ग्रेस भले ही कुछ सीटें इंडी गठबंधन में ज्यादा ले ले लेकिन जमीन पर उसका कोई फायदा नहीं मिलने वाला है क्योंकि सालों तक विपक्ष में रहने के बावजूद न तो कॉन्ग्रेस के पास कोई मुद्दा है और न ही आरजेडी के पास। ऐसे में राहुल गाँधी और तेजस्वी यादव की वोटर अधिकार यात्रा का जमीन पर कोई खास फर्क पड़ा हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं दिखता है।

रामस्वरूप रावतसरे

भारत की चिप क्रांति : सपनों से साकार होती हकीकत

उम्मीदों की चिप ने दिए आत्मगौरव और नवाचार को पंख

भारत आज उस ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है जहाँ तकनीकी आत्मनिर्भरता केवल आर्थिक प्रगति का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गर्व और वैश्विक नेतृत्व की दिशा भी बन गई है। दशकों तक चिप और सेमीकंडक्टर क्षेत्र में केवल उपभोक्ता के रूप में पहचाने जाने वाला भारत अब निर्माता और आपूर्तिकर्ता बनने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। यह परिवर्तन केवल तकनीकी नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और आत्मगौरव का भी प्रतीक है। सेमीकंडक्टर मिशन, वैश्विक सहयोग, और शिक्षा व अनुसंधान में निवेश ने भारत की चिप क्रांति को साकार रूप दिया है।

— डॉ सत्यवान सौरभ

भारत ने सेमीकंडक्टर निर्माण के क्षेत्र में ऐतिहासिक कदम उठाते हुए विश्व स्तर पर अपनी तकनीकी पहचान बनाई है। गुजरात और कर्नाटक में चिप पार्क, विदेशी निवेश और शिक्षा संस्थानों की सक्रिय भागीदारी ने इस अभियान को गति दी है। शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन 2025 में भारत ने सुरक्षा, संपर्क और अवसर के तीन स्तंभों पर बल देकर तकनीक को साझा भविष्य का आधार बताया। यह चिप क्रांति न केवल आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त कर रही है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, नवाचार और आत्मगौरव की नई उड़ान भी भर रही है।

भारत आज उस ऐतिहासिक दौर से गुजर रहा है जहाँ सपने केवल सपने नहीं रह गए हैं, बल्कि नये यथार्थ का रूप ले चुके हैं। दशकों तक जिस देश को तकनीक के क्षेत्र में उपभोक्ता भर समझा जाता था, वही देश आज निर्माता, आपूर्तिकर्ता और नवप्रवर्तक बनने की राह पर तेज़ी से बढ़ रहा है। सेमीकंडक्टर और चिप निर्माण की दिशा में भारत के प्रयास इसी परिवर्तन की सबसे सशक्त गवाही देते हैं। यह केवल तकनीकी विकास का संकेत नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय आत्मगौरव, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास की उड़ान भी है।

चिप अथवा सेमीकंडक्टर आज के युग की सबसे अनिवार्य धुरी है। बीसवीं शताब्दी में तेल ने जैसे विश्व राजनीति और अर्थव्यवस्था को संचालित किया था, उसी प्रकार इक्कीसवीं शताब्दी में चिप वैश्विक शक्ति संतुलन का आधार बन चुकी है। आधुनिक जीवन का कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। मोबाइल फ़ोन, कंप्यूटर, स्मार्ट यंत्र, वाहन, रेल, हवाई जहाज़, रक्षा उपकरण, उपग्रह, स्वास्थ्य सेवाओं के उन्नत यंत्र, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और रोबोट तक—हर क्षेत्र में चिप की अनिवार्यता स्पष्ट दिखाई देती है। इसीलिए जो राष्ट्र इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर और सशक्त है, वही आने वाले समय में विश्व की राजनीति और अर्थव्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभाएगा।

भारत की स्थिति लंबे समय तक इस क्षेत्र में कमजोर रही। भारी पूंजी निवेश, लगातार ऊर्जा और जल संसाधनों की आवश्यकता, प्रशिक्षित मानव संसाधन की कमी और अनुसंधान की उपेक्षा जैसे कारणों से भारत पिछड़ता रहा। चीन, ताइवान, अमेरिका और कोरिया जैसे देशों ने इस स्थिति का लाभ उठाकर वैश्विक बाज़ार पर प्रभुत्व कायम किया और भारत को केवल एक विशाल उपभोक्ता बाज़ार के रूप में देखा जाने लगा। किन्तु राष्ट्रों के जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं जब परिस्थितियाँ बदली हुई राह पर चलने को बाध्य करती हैं। भारत के लिए भी यही अवसर बीते कुछ वर्षों में आया और उसने चुनौती को अवसर में बदलने का संकल्प लिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रारम्भ हुए ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्टार्टअप इंडिया’ जैसे अभियानों ने तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में नया उत्साह जगाया। इन अभियानों ने यह संदेश दिया कि भारत अब केवल उपभोक्ता नहीं, बल्कि निर्माता भी बनेगा। वर्ष 2021 में घोषित भारत सेमीकंडक्टर मिशन ने इस संकल्प को ठोस आधार प्रदान किया। इसके अंतर्गत गुजरात और कर्नाटक में चिप निर्माण पार्क स्थापित करने की दिशा में कार्य प्रारम्भ हुआ। ताइवान, जापान और अमेरिका की कंपनियों ने भारत में निवेश और सहयोग की इच्छा प्रकट की। अरबों डॉलर के निवेश प्रस्ताव आए और अनुसंधान संस्थानों को सीधे इस अभियान से जोड़ा गया।

कोविड महामारी ने वैश्विक आपूर्ति शृंखला की कमजोरियों को उजागर कर दिया। जब चीन और ताइवान के कारखाने ठप पड़े तो पूरी दुनिया में मोबाइल, वाहन और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का संकट खड़ा हो गया। कीमतें बढ़ीं, उत्पादन ठप हुआ और उपभोक्ताओं को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस कठिन दौर में भारत ने महसूस किया कि तकनीकी आत्मनिर्भरता केवल सुविधा का विषय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता का भी प्रश्न है। तभी भारत ने यह अवसर पहचाना और अपने को आपूर्ति शृंखला का विश्वसनीय केंद्र बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए।

वर्ष 2025 में चीन के तियानजिन नगर में सम्पन्न शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। भारत ने यहाँ अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए सुरक्षा, संपर्क और अवसर के तीन स्तंभ प्रस्तुत किए। भारत ने कहा कि तकनीक केवल व्यापार और उद्योग का विषय नहीं, बल्कि साझा सुरक्षा, स्थायी संपर्क और सामूहिक अवसर का आधार है। सेमीकंडक्टर विकास और डिजिटल नवाचार को सामूहिक प्राथमिकता बनाने का भारत का आह्वान इस सम्मेलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि रहा। तियानजिन घोषणा पत्र में भारत की यह दृष्टि परिलक्षित हुई, जिससे यह प्रमाणित हो गया कि विश्व समुदाय भारत के बढ़ते तकनीकी महत्व को स्वीकार कर रहा है।

भारत ने इस प्रयास को केवल उद्योग तक सीमित नहीं रखा है। शिक्षा संस्थानों, अनुसंधान केन्द्रों और स्टार्टअप्स को भी इस अभियान से जोड़ा जा रहा है। आईआईटी, एनआईटी और अन्य विश्वविद्यालयों में चिप डिजाइनिंग, नैनोटेक्नोलॉजी और एंबेडेड सिस्टम से जुड़े पाठ्यक्रम आरम्भ किए गए हैं। युवाओं को अनुसंधान और नवाचार की दिशा में प्रेरित किया जा रहा है। इस प्रकार आने वाली पीढ़ी को तकनीकी नेतृत्व सौंपने की ठोस तैयारी की जा रही है।

सेमीकंडक्टर क्षेत्र में भारत का यह अभियान रोज़गार सृजन और औद्योगिक विकास का भी आधार बनेगा। अनुमान है कि आने वाले दस वर्षों में इस क्षेत्र से दस लाख से अधिक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोज़गार के अवसर पैदा होंगे। निर्माण, डिजाइनिंग, परीक्षण और वितरण के स्तर पर नये उद्योग और स्टार्टअप्स उभरेंगे। यह केवल तकनीकी विकास नहीं, बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में भी ऐतिहासिक कदम होगा।

इस अभियान का एक महत्वपूर्ण पहलू राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा है। रक्षा उपकरणों और उपग्रह तकनीक में आत्मनिर्भरता बढ़ने से भारत की रणनीतिक स्थिति सुदृढ़ होगी। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और साइबर सुरक्षा में भी भारत का प्रभाव बढ़ेगा। स्पष्ट है कि चिप निर्माण केवल उद्योग की आवश्यकता नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता से भी गहरे रूप से जुड़ा है।

हालाँकि, चुनौतियाँ अभी भी शेष हैं। बिजली और जल की सतत आपूर्ति, अनुसंधान में निरंतर निवेश, वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धा और पर्यावरणीय संतुलन जैसी बाधाएँ इस यात्रा को कठिन बना सकती हैं। किंतु सरकार, उद्योग और समाज के संयुक्त प्रयास से इन चुनौतियों का समाधान अवश्य होगा। भारत ने जिस आत्मविश्वास और संकल्प के साथ इस यात्रा का आरम्भ किया है, उससे यह स्पष्ट है कि वह पीछे मुड़कर देखने वाला नहीं।

आज भारत की चिप क्रांति केवल तकनीकी आत्मनिर्भरता की कहानी नहीं, बल्कि यह आत्मगौरव, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की महागाथा भी है। उम्मीदों की चिप सचमुच हौसलों को पंख दे चुकी है। बीसवीं शताब्दी में तेल ने जैसे विश्व व्यवस्था को बदला, उसी प्रकार इक्कीसवीं शताब्दी में चिप और तकनीक वैश्विक नेतृत्व का निर्धारण करेगी। भारत ने इस क्षेत्र में अपने कदम दृढ़तापूर्वक बढ़ा दिए हैं और अब उसका सपना धीरे-धीरे साकार होता दिख रहा है।

मातृत्व का अपमानः बिहार की राजनीति पर असर

– ललित गर्ग –

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की माताजी के संबंध में कांग्रेस और राजद के मंच से जो अभद्र व अशालीन शब्द कहे गए, उसने न केवल राजनीतिक वातावरण को कलंकित किया है, बल्कि पूरे देश की संवेदनाओं को भी आहत किया है। भारत में माँ केवल एक परिवार की सदस्य नहीं होती, वह मातृत्व का प्रतीक है, करुणा और संस्कार की धारा है, जीवन की प्रथम शिक्षिका है। किसी भी माँ के लिए अपमानजनक टिप्पणी वस्तुतः संपूर्ण मातृत्व का अपमान है। इसलिए जब किसी दल के नेता राजनीतिक आग्रहों एवं दुराग्रहों के चलते प्रधानमंत्री की माताजी को अपशब्द कहते हैं, तो यह प्रधानमंत्री पर नहीं बल्कि हर उस भारतीय पर चोट करता है, जिसने अपनी माँ को श्रद्धा और सम्मान के उच्चतम स्थान पर रखा है, यह भारतीय संस्कृति एवं तहजीब का भी अपमान है। यही कारण है कि यह घटना केवल राजनीतिक विवाद नहीं रही, यह एक सामाजिक-नैतिक प्रश्न बन गई है। नेताओं को यह बात समझनी चाहिए कि सही तरीके से बोले गए शब्दों में लोगों को जोड़ने की ताकत होती है, जबकि गलत भाषा एवं बोल का इस्तेमाल राजनीतिक धरातल को कमजोर करता है।
बिहार विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, विपक्षी नेताओं की ज़ुबान फिसलती जा रही है, वे राजनीति से इतर नेताओं की निजी ज़िंदगियों में तांक-झांक वाले, धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले ऐसे बोल बोल रहे हैं, जो न सिर्फ़ आपत्तिजनक हैं, बल्कि राष्ट्र-तोड़क एवं जनभावनाओं को आहत करने वाले है। प्रधानमंत्री मोदी को नीचा दिखाने के मकसद से ये नेता मर्यादा, शालीनता और नैतिकता की रेखाएं पार करते नज़र आए हैं। गलत का विरोध खुलकर हो, राष्ट्र-निर्माण के लिये अपनी बात कही जाये, अपने राजनीतिक मुद्दों को भी प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जाये, लेकिन गलत, उच्छृंखल एवं अनुशासनहीन बयानों की राजनीति से बचना चाहिए। बड़ा सवाल है कि एक ऊर्जावान एवं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या वाकई अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल औचित्यपूर्ण है? लोकतंत्र में असहमति होना स्वाभाविक है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की नीतियों की आलोचना करना विपक्ष का अधिकार ही नहीं, उसका दायित्व भी है। परंतु आलोचना और अभद्रता में बहुत बड़ा अंतर है। जब राजनीतिक संवाद विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों से हटकर व्यक्तिगत और पारिवारिक अपमान तक पहुँच जाता है, तब लोकतंत्र की आत्मा पर आघात होता है। विपक्ष को सरकार की योजनाओं, उसकी कमियों या विफलताओं पर सवाल उठाने चाहिए, लेकिन यदि वे प्रधानमंत्री की माँ को निशाना बनाएंगे, तो जनता इसे राजनीतिक परिपक्वता की कमी, विकृत राजनीति और हताशा का प्रतीक ही मानेगी।
इतिहास साक्षी है कि जब-जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर गाली-गलौज की गई है, तब-तब यह उनके लिए सहानुभूति और समर्थन का कारण बना है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय से ही अनेक अवसर आए, जब कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों ने मोदी पर अशालीन एवं अभद्र टिप्पणियां की हैं लेकिन विपक्षी नेताओं ने अब सारी हदें लांघते हुए उन पर राजनीतिक छिद्रान्वेषण से हटकर व्यक्तिगत हमले करके, उनकी पृष्ठभूमि और उनके परिवार को लेकर अपमानजनक शब्द कह कर राजनीतिक मर्यादाओं का हनन किया है। लेकिन हर बार जनता ने इसका उत्तर मोदी के पक्ष में समर्थन देकर दिया। 2019 के आम चुनाव में भी जब अपशब्दों की बाढ़ आई, तो मोदी और भी सशक्त होकर सामने आए। जनता ने मानो यह संदेश दे दिया कि जो व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत गरिमा और पारिवारिक मर्यादा का स्वयं उत्तर नहीं देता, बल्कि मौन रहकर केवल अपने राष्ट्र विकास के कार्यों से जवाब देता है, वही उनकी सहानुभूति का अधिकारी है। यही कारण है कि मोदी पर गाली की हर चोट उनके समर्थन को और व्यापक बना देती है। मोदी को कोई भी गाली कभी भी कमजोर नही ंकर सकती।
भारतीय मतदाता भावनाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। वह केवल तर्क और आँकड़ों से प्रभावित नहीं होता, बल्कि उसके निर्णय में संवेदनाएँ और संस्कार भी बराबरी से भूमिका निभाते हैं। प्रधानमंत्री की माता जी पर की गई टिप्पणी ने इस संवेदनशीलता को झकझोर दिया है। भारतीय समाज के लिए माँ केवल परिवार की धुरी नहीं है, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक भी है। इसीलिए जब माँ पर आघात हुआ, तो जनता ने इसे मोदी के परिवार का नहीं बल्कि अपने परिवार का अपमान माना। यह भावनात्मक जुड़ाव विपक्ष की रणनीति को उल्टा कर देता है और मोदी के लिए जनसमर्थन का कारण बन जाता है। भारतीय राजनीति में स्तरहीन, हल्की और सस्ती बातें कहने का चलन काफी समय से है। लेकिन पिछले दो दशकों में यह वीभत्स रूप धारण कर चुका है। एक समय राम मनोहर लोहिया ने इंदिरा गांधी को केवल गूंगी गुड़िया कहा था तो काफी विवाद हुआ और बड़ी तादाद में लोगों ने लोहिया का विरोध किया। लेकिन आज कांग्रेस मोदी के खिलाफ काफी कुछ बोल चुकी हैं, कभी रावण तो कभी नीच, कातिल, शैतान, मौत का सौदागर जैसे शब्दों का खुलेआम इस्तेमाल किया है। जिसमें उनकी हताशा साफ झलकती है। कड़वे एवं गलत बयानी के मामले में कांग्रेसियों की तो लम्बी सूची है। चाहे सानिया हो या राहुल, चाहे वह अधीर रंजन हों या दिग्विजय सिंह या फिर संजय निरुपम, खडगे और प्रियंका गांधी। इन नेताओं ने बेहद हल्के शब्दों का इस्तेमाल किया, जिससे उनकी खीझ एवं बौखलाहट का पता चलता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि मोदी और उनकी पार्टी ने ऐसे अमर्यादित शब्दों और टिप्पणियों को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया। नरेन्द्र मोदी को चाय वाला कहकर उनका उपहास उड़ाने वाले विपक्षियों को तो उन्होंने अपने कार्यों और उपलब्धियों से आईना दिखा दिया। आज चाय वाला शब्द मेहनतकश लोगों के सम्मान का प्रतीक बन गया है।
बिहार के चुनावी परिदृश्य पर इस घटना का गहरा असर पड़ना स्वाभाविक है। यहाँ की राजनीति पहले से ही जातीय समीकरणों, आर्थिक पिछड़ेपन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों में उलझी हुई है। विपक्ष अपने लिए जगह बनाने के लिए संघर्षरत है, परंतु वह जनता को कोई ठोस और विश्वसनीय विकल्प देने में असफल रहा है। ऐसे में जब उसके नेता अभद्रता पर उतर आते हैं, तो जनता का विश्वास और भी कम हो जाता है। वह सोचने लगती है कि जिन नेताओं के पास शब्दों की गरिमा और तर्क का बल नहीं है, वे शासन और प्रशासन की मर्यादा कैसे संभालेंगे? इसीलिए बिहार की जनता ऐसी अभद्रता का समर्थन नहीं करेगी और इसका सीधा असर विपक्ष की चुनावी संभावनाओं पर पड़ेगा। यह भी एक गहन प्रश्न है कि विपक्ष आखिर किस हद तक गिरेगा? क्या लोकतंत्र अब केवल गाली-गलौज और व्यक्तिगत अपमान तक सीमित रह जाएगा? क्या राजनीति में विचारों और सिद्धांतों की जगह अब विकारों और अशालीनता ने ले ली है? यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है।
प्रधानमंत्री मोदी पर गाली-गलौज की हर घटना उनके व्यक्तित्व को और दृढ़ बनाती है। वे स्वयं बार-बार कहते रहे हैं कि उन्हें जितनी गालियाँ मिलेंगी, वे उतनी ही शक्ति से देश सेवा में लगेंगे। उनके इस धैर्य और संयम ने उन्हें जनता के बीच एक अलग पहचान दी है। जनता यह अनुभव करती है कि जो व्यक्ति व्यक्तिगत अपमान को भी सह लेता है, लेकिन जनता की सेवा से विचलित नहीं होता, वही सच्चा नेतृत्वकर्ता है। यही कारण है कि उनके विरोधियों की अभद्रता अंततः उन्हीं पर भारी पड़ती है। विपक्ष को यह समझना होगा कि लोकतंत्र में सफलता केवल आलोचना से नहीं मिलती, बल्कि वैकल्पिक नीतियों और रचनात्मक दृष्टि से मिलती है। केवल मोदी विरोध करना ही राजनीति का उद्देश्य नहीं हो सकता। जनता को चाहिए कि विपक्ष विकास की कोई ठोस योजना प्रस्तुत करे, रोजगार और शिक्षा की स्थिति सुधारने का मार्ग दिखाए, स्वास्थ्य और किसान समस्याओं पर गंभीरता से बात करे। यदि वे यह सब नहीं कर सकते और केवल गाली-गलौज की राजनीति करेंगे, तो उनका हश्र वही होगा जो बार-बार होता आया है। जनता उन्हें नकार देगी और उनके अपशब्द मोदी के लिए समर्थन की नई ऊर्जा बनेंगे। यदि विपक्ष अपनी भाषा और व्यवहार पर संयम नहीं रखेगा, तो न केवल उसकी साख गिरेगी बल्कि लोकतंत्र की प्रतिष्ठा भी आहत होगी

अभी रिटायर नहीं होंगे मोदी

राजेश कुमार पासी

मोदी को तीसरा कार्यकाल मिलने से विपक्ष में हताशा बढ़ती जा रही है । दूसरी तरफ जो पूरा इको सिस्टम मोदी को सत्ता से हटाना चाहता है, वो भी असहाय महसूस कर रहा है । 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों और उनके इको सिस्टम को लग रहा था कि इस बार वो मोदी को सत्ता से बाहर कर देंगे लेकिन उनकी उम्मीद टूट गई। अल्पमत की सरकार होने पर उनकी उम्मीद फिर जाग गई कि नीतीश और नायडू की बैसाखियों पर टिकी यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाएगी क्योंकि मोदी को गठबंधन सरकार चलाने का अनुभव नहीं है। एक साल बाद विपक्ष को समझ आ गया है कि निकट भविष्य में इस सरकार को कोई खतरा नहीं है। ऐसे में संघ प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान ने विपक्ष को उम्मीदों से भर दिया ।

 मोदी जब सत्ता में आये थे तो उन्होंने भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं को सक्रिय राजनीति से बाहर कर दिया था । इससे ये संदेश गया कि भाजपा अब बूढ़े नेताओं को पार्टी में रखने वाली नहीं है। विशेष रूप से भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को जब भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो कहा जाने लगा कि पार्टी अब 75 साल से ज्यादा उम्र वाले नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा रही है। इस बात की अनदेखी कर दी गई कि जब आडवाणी जी को भाजपा ने चुनावी राजनीति से बाहर किया तो उनकी उम्र 75 वर्ष से कहीं ज्यादा 92 वर्ष थी । इसी तरह मुरली मनोहर जोशी को भी भाजपा ने 85 वर्ष की आयु में टिकट नहीं दिया था और उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था ।  विपक्ष ये विमर्श कहां से ले आया कि भाजपा अब 75 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को सक्रिय राजनीति से बाहर का रास्ता दिखा रही है। जब आडवाणी जी पार्टी में एक सांसद के रूप में 92 वर्ष तक रह सकते हैं तो 75 साल वाला फार्मूला कहां से आ गया

               भाजपा विरोधी जान चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता से हटाना उनके वश की बात नहीं है। उन्होंने पूरी कोशिश करके देख लिया है कि मोदी की लोकप्रियता कम होने का नाम नहीं ले रही है। उनके लगाए आरोपों का जनता पर कोई असर नहीं होता है। विपक्ष नए-नए मुद्दे लेकर आता है लेकिन उसके मुद्दे जनता के मुद्दे नहीं बन पाते हैं। यही कारण है कि हताशा में विपक्ष देश विरोध तक चला जाता है।  जब मोहन भागवत ने 75 साल में रिटायर होने के मोरोपंत पिंगले के कथन का जिक्र किया था तो विपक्ष में बहुत बड़ी उम्मीद पैदा हो गई थी । उन्हें लगा कि मोदी को सत्ता से हटाना बेशक मुश्किल हो लेकिन जब संघ प्रमुख कह रहे हैं कि 75 साल वाले नेता को रिटायर हो जाना चाहिए तो मोदी भी रिटायर हो जाएंगे । उनकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए भागवत ने बयान दिया है कि मैंने किसी के लिए नहीं कहा कि उसे 75 साल में पद छोड़ देना चाहिए। उन्होंने दूसरी बात यह कही कि मैं भी 75 साल का होने जा रहा हूँ और मैं भी पद नहीं छोड़ने जा रहा हूँ।

विपक्ष को लग रहा था कि अगर भागवत पद छोड़ देंगे तो मोदी पर नैतिक दबाव आ जायेगा और उन्हें भी पद छोड़ना पड़ेगा। भागवत के इस बयान से कि वो भी पद छोड़ने वाले नहीं है, विपक्ष की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। कितने ही लोग अपने-अपने प्रधानमंत्री मन में बना चुके थे, उनके सपने टूट गए। विपक्ष ही नहीं, भाजपा के भी कुछ लोग अपनी गोटियां बिठा रहे थे. उनकी भी उम्मीद खत्म हो गई है।  संघ प्रमुख के बयान से यह सोचना कि मोदी भी रिटायर हो जाएंगे, विपक्ष की राजनीतिक नासमझी है । मेरा मानना है कि 2029 का चुनाव तो भाजपा मोदी के नेतृत्व में लड़ने वाली है और संभावना इस बात की भी है कि 2034 का चुनाव भी मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा ।  अंत में उनका स्वास्थ्य निर्णय लेगा कि वो कब तक पद पर बने रहते हैं।

राजनीति में भविष्यवाणी नहीं की जाती लेकिन मेरा मानना है कि मोदी खुद सत्ता छोड़कर जाएंगे. उन्हें न तो विपक्ष सत्ता से हटा सकता है और न ही भाजपा में कोई नेता ऐसा कर सकता है । राजनीति में वही पार्टी का नेतृत्व करता है जिसके नाम पर वोट मिल सकते हैं। इस समय मोदी ही वो नेता हैं जिनके नाम पर भाजपा वोट मांग सकती है। जब तक मोदी राष्ट्रीय राजनीति में हैं, भाजपा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती और न ही संघ कुछ कर सकता है। भाजपा पर संघ का प्रभाव है, इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन भाजपा के काम में एक हद तक ही संघ दखल दे सकता है। भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को बदलना संघ के लिए भी मुश्किल काम है क्योंकि इसी नेतृत्व के कारण संघ के सारे काम पूरे हो रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा कैडर आधारित पार्टी है और इस समय कैडर पूरी तरह से मोदी के पीछे खड़ा है। कैडर के खिलाफ जाकर भाजपा के नेतृत्व को बदलने के बारे में सोचना संघ के लिए भी मुश्किल है।

बेशक संघ भाजपा का मातृ संगठन है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी से बड़ा व्यक्तित्व आज कोई दूसरा नहीं है, संघ प्रमुख भी नहीं । भाजपा और संघ में कहा जाता है कि व्यक्ति से बड़ा संगठन होता है लेकिन मोदी आज संगठन से बड़े हो गए हैं। क्या यह सच्चाई संघ को नजर नहीं आ रही है। मेरा मानना है कि संघ भी इस सच की अनदेखी नहीं कर सकता । अगर कहीं भी संघ के मन में ऐसा विचार आया होगा कि भाजपा की कमान एक उम्र के बाद मोदी की जगह किसी दूसरे नेता को देनी चाहिए तो सच्चाई को देखते हुए वो पीछे हट गया है। मोदी जी की जगह किसी और को नेतृत्व सौंपने के परिणाम की कल्पना संघ ने की होगी तो उसे पता चल गया होगा कि मोदी को हटाने का भाजपा और संघ को कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है ।

                क्या संघ को अहसास नहीं है कि मोदी सरकार आने के बाद उसका सामाजिक और भौगोलिक विस्तार लगातार हो रहा है। वो इससे अंजान नहीं है कि अगर भाजपा सत्ता से बाहर गयी तो उसकी सबसे बड़ी कीमत संघ को ही चुकानी होगी । अगर मोदी के कारण संघ का भाजपा पर नियंत्रण कम हो गया है तो उसका राष्ट्रीय महत्व भी बहुत बढ़ गया है। अगर मोदी के जाने के बाद भाजपा के हाथ से सत्ता चली जाती है तो संघ को भाजपा पर ज्यादा नियंत्रण मिलने का कोई फायदा होने वाला नहीं है। देखा जाए तो संघ एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है, राजनीतिक संगठन नहीं है। राजनीतिक उद्देश्य के लिए उसने भाजपा का निर्माण किया था जो पूरी तरह से फलीभूत हो रहा है। अगर भाजपा के जरिये संघ के न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्य भी पूरे हो रहे हैं तो संघ को भाजपा से कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि संघ ने बहुत सोच समझ कर पीछे हटने का फैसला कर लिया है। संघ को सत्ता की ताकत का अहसास अच्छी तरह से हो गया है और वो यह भी जान गया है कि भाजपा का लगातार सत्ता में रहना कितना जरूरी है। भाजपा के लगातार तीन कार्यकाल तक सत्ता में रहने की अहमियत का अंदाजा संघ को है इसलिए वो नहीं चाहेगा कि उसकी दखलंदाजी से भाजपा को अगला कार्यकाल मिलने में बाधा उत्पन्न हो जाए।

 भागवत ने कहा है कि भाजपा का अगला अध्यक्ष कौन होगा, ये भाजपा को तय करना है. संघ का इससे कोई लेना देना नहीं है । उनके इस बयान से साबित हो गया है कि संघ ने भाजपा में दखलंदाजी से दूरी बना ली है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा और संघ में दूरी पैदा हो गई है बल्कि संघ ने अपनी भूमिका को पहचान लिया है। उसको यह बात समझ आ गई है कि उसका काम भाजपा को सत्ता पाने में मदद करना है लेकिन सत्ता कैसे चलानी है, ये उसे तय नहीं करना है। संघ को पता चल गया है कि सत्ता पाने के बाद देश चलाना भाजपा का काम है और संघ का काम सत्ता के सहयोग से अपने संगठन को आगे बढ़ाने का है । वैसे भी जिन लोगों के हाथ में भाजपा की बागडोर है, वो संघ से निकले हुए उसके स्वयंसेवक ही हैं । संघ को अहसास हो गया है कि वो किसी को पार्टी का नेता बना सकता है लेकिन जनता का नेता बनाना उसके हाथ में नहीं है।  2014 के बाद मोदी अब भाजपा के नेता या संघ के कार्यकर्ता नहीं रह गए हैं बल्कि वो देश के नेता बन गए हैं। संघ जानता है कि मोदी की इस समय क्या ताकत है, इसलिए वो मोदी को कोई निर्देश देने की स्थिति में नहीं है। विपक्ष को मोदी के रिटायर होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए थी लेकिन अब उसे समझ आ जाना चाहिए कि उसे जल्दी मोदी से छुटकारा मिलने वाला नहीं है । जब तक मोदी का स्वास्थ्य अनुमति देगा, वो भाजपा का नेतृत्व करते रहेंगे । 

राजेश कुमार पासी

कांग्रेस के मंच से प्रधानमंत्री की मां का अपमान – राहुल ने किया सेल्फ गोल

बिहार विधानसभा चुनाव 2025

भारत के प्रधानमंत्री को पूरा विश्व दे रहा सम्मान और विपक्ष कर रहा अपमान

मृत्युंजय दीक्षित 

बिहार विधानसभा चुनाव -2025 को लेकर राजनैतिक दलों की गतिविधियां तीव्र हो चली है । यद्यपि अभी वहां चुनाव होने में दो माह से अधिक का समय शेष है तथापि चुनावी घमासान चरम पर पहुंच गया है। चुनाव आयोग ने मतदाता सूची को ठीक करने के लिए विशेष गहन पुनरीक्षण अर्थात एसआईआर कराया तो राहुल बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के साथ वोटर अधिकार यात्रा निकालने में लग गए जिसमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव सहित तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री  स्टालिन भी शामिल हुए।  

राहुल गांधी की यह यात्रा तो थी वोटर अधिकार रैली किंतु आगे बढ़ते हुए बन गई बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिया बचाओ और उनको मतदाता बनाओ रैली। राहुल गांधी की बिहार में आयोजित वोटर अधिकार रैली में भारत के प्रति अपनेपन का गहरा अभाव रहा। तमिल नेता स्टालिन को बुलाकर हिंदी भाषा का अपमान किया गया। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे व राहुल गांधी सहित अन्य नेताओं ने पटना रैली में भारत व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित चुनाव आयोग के खिलाफ जी भरकर नफरत भरी बयानबाजी की और अपशब्द कहे। यात्रा अंतिम चरण तक पहुँचते पहुँचते इतनी जहरीली हो गई कि राहुल के करीबी नेताओं ने भरे मंच प्रधानमंत्री की माँ के लिए लिंग वाचक गालियों का प्रयोग कर दिया। इस प्रकार राहुल गांधी अपना परमाणु बम प्रभावहीन होने  बाद हाइड्रोजन बम की तलाश में हैं। 

यही पर राहुल गांधी अपनी सारी मेहनत पर पनी फेर रहे हैं  क्योकि वोटर अधिकार यात्रा वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीउनकी मां व भारत को गाली देने में परिवतर्तित हो गई। कांग्रेस व इंडी गठबंधन के नेताओं में  गालियां देने की होड़ सी लग गई। यह यात्रा अराजकता और राहुल गांधी व उनके समर्थकों की सरेआम अभूतपूर्व बदतमीजी का भी रिकाउर्  बना गई।जिस समय पूरा वैश्विक समुदाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  व उनके विचारों को सुनना  चाह रहा है और उनका मार्गदर्शन प्राप्त करना चाह रहा है एक प्रकार से माना जाए कि वैश्विक जगत में उनके नेतृत्व में एक नया वर्ल्ड आर्डर  आकार ले रहा है उस समय राहुल गांधी -तेजस्वी यादव व अन्य नेताओं ने मोदी व उनकी मां तक का अपमान करने का कोई अवसर नहीं छोडा।राहुल गांधी के नेत्त्व वाला संपूर्ण विपक्ष बहुत ही ओछी प्रवृत्ति का परम उदाहरण प्रस्तुत करता रहा। 

बिहार के दरभंगा जिले में तो सभी राजनैतिक मर्यादाओं का उस समय घोर उल्ंलघन कर दिया गया जब कांग्रेस के मंच से एक स्थानीय मुस्लिम नेता मोहम्मद रिजवी ने प्रधानमंत्री मोदी की मां को अपशब्द कहे और उससे भी आश्चर्यजनक व हैरान करने वाली बात यह रही कि राहुल गांधी व तेजस्वी यादव ने  अपने कार्यकर्ता की उस शर्मनाक हरकत के लिए सार्वजनिक माफी तक नहीं मांगी हालांकि डैमेज कंट्रोल करने के लिए कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को मैदान में उतारा किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी और राहुल गांधी ने अपना सारा बना बनाया खेल बिगाड़ लिया था। 

वोटर अधिकार रैली का सारा प्रकरण अब प्रधानमंत्री मोदी व उनकी मां के अपमान की ओर झुक गया। प्रधानमंत्री मोदी की मां के अपमान की चारों ओर निंदा होने लग गई भाजपा को बिहार में अपनी जड़े जमाने का प्रयास कर रहे प्रशांत किशोर व ओवैसी  का समर्थन व सहयोग प्राप्त हो गया।अब बिहार की राजनीति में घड़ी का पेंडुलम पूरी तरह से बदल चुका है जो लोग वोट चोर के नारे से नायक बनने निकले थे अब उन्हीं के चेहरे से हवाईयां उड़ती दिखलाई पड़ रही है बिहार विधानसभा चुनाव का पासा पलट चुका है। 

पीएम मोदी को 111वीं गाली व मां का अपमान अब विपक्ष पर भारी- हर बार की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विरोधी दलों के नेताओं की गालियों को अपना हथियार बना लिया है।प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार की महिलाओं को एक कार्यक्रम में भोजपुरी  में संबोधित करते हुए उन्होंने इसे केवल अपनी मां का अपमान नहीं अपितु देश की हर मां बहन और बेटी का अपमान बताया।प्रधानमंत्री मोदी का यह अत्यंत भावुक संबोधन सुनकर बिहार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष व वहां पर उपस्थित तमाम मातृशक्ति के आंखां में अश्रु आ गए।अब बिहार में भाजपा व राजग गठबंधन ने इसे हथिया बना लिया है और बिहार में इंउी गठबंधन के खिलाफ सफलतापूर्वक पूर्ण बंद किया गया है।राजग गठबंधन की ओर से आयोजित बंद को बिहार में पूर्ण समर्थन मिल रहा है अनेक स्थानों पर महिला कार्यकर्ता ही बंद का आयोजन कर रही हैं। 

बिहार के दरभंगा में प्रधानमंत्री की मां के अपमान से आज संपूर्ण भारत का बीजेपी कार्यकर्ता आहत है और देशभर के अनेक स्थानों पर कांग्रेस कार्यालयों व उसके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किए जा रहे हैं। 

इतिहास गवाह है कि जब -जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गाली दी गई है या उनका सार्वजनिक अपमान किया गया है तब -तब उन्हें राजनैतिक लाभ हुआ है।मोदी जी जब से प्रधानमंत्री बने हैं तभी से कांग्रेस व विरोधी दलों के नेताआें में उन्हे गाली देने की होड़ सी लग गई है।आज कांग्रेस का कोई नेता ऐसा नहीं बचा है जिसने उन्हें गाली न दी हो या फिर अपमानित न किया हो।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर से लेकर जहरीला सांपनीच आदमी कोई रावण कहता हैकिसी ने भस्मासुर तो किसी ने उन्हें वायरस बताया।दिसंबर 2017 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने उन्हें कहा कि ,यह बहुत नीच किस्म का आदमी है इसमें कोई सभ्यता नहीं है।कांग्रेस नेता इमरान मसूद ने मोदी के टुकडे -टुकडे करने की बात कही थी।बेनी प्रसाद वर्मा ने पागल कुत्ता बताया था। एक समय था जब कांग्रेस नेता शशि थरूर ने तो प्रधानमंत्री मोदी को गालियां देने की झड़ी लगा दी थी।कांग्रेस के 12 ऐसे नेता हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को जमकर गालियां दी और हर गाली के बाद देश में जहां कहीं भी चुनाव हुए वहां का राजनैतिक वातावरण बदल गया है।जब कभी भी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ  निजी रूप से अपमानजनक बयान दिया गया उससे कांग्रेस को ही लगातार नुकसान हो रहा है और यह बात राहुल गांधी व उनके सलाहकार समझ नहीं पा रहे हैं। 

राजनैतिक विष्लेषक अनुमान लगा रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की स्वर्गीय मां के अपमान से अब बिहार की राजनीति पूरी तरह से बदल गई है।प्रधानमंत्री मोदी व एनडीए समर्थक  कार्यकर्ताओं में अभूतपूर्व आक्रोष व्याप्त हो गया है।प्रधानमंत्री मोदी की मां का अपमान एक मुस्लिम नेता ने किया है और राहुल गांधी ने केवल मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में ही वोटर अधिकार यात्रा निकाली है जिसका असर यह होगा कि अब वहां पर मतों का जातिगत और धार्मिक आधार पर मतों का धु्रवीकरण हो जाएगा।साथ ही बिहार की राजनीति में मातृषक्ति एक निर्णायक मतदाता है और नीतिश बाबू की सरकार में नारी षक्ति के हित में कई कार्य हुए हैं तथा अनेक योजनाओं का ऐलान हुआ है। उस पर मोदी जी की मां के अपमान से अब महिला मतदाता का एक बहुत बड़ा वर्ग राजग गठबंधन की ओर झुक जाएगा।मां के अपमान से  धु्रवीकरण अवश्य होगा।भाजपा ने इसे समस्त भारतीयों व नारी शक्ति के अपमान से जोड़ दिया है। 

मां को गाली दिए जाने पर प्रधानमंत्री मोदी का दर्द छलकना स्वाभाविक है।उनकी मां का तो तीन साल पहले स्वर्गवास हो चुका है और  वह तो कभी राजनीति मे ंभी नहीं रही और   न ही कभी बयानबाजी की। ऐसी परिस्थिति में मां का अपमान कोई भी बेटा स्वीकार्य नहीं करेगा।जिस दिन कांग्रेस और राजद के मंच से प्रधानमंत्री मोदी का नाम लेकर मां की गाली दी गई थी उसी दिन राहुल और  तेजस्वी उसकी कड़ी निंदा कर देते तो उनका कुछ बिगड न्हीं जाता किंतु यह लोग तो अहंकारी और अराजक तथा धूर्त राजकुमार जो ठहरे। सबसे बड़ी बात यह रही कि उनके परिवार तक ने उक्त प्रकरण की कड़ी निंदा तक नहीं की।राबड़ी देवी और उनके परिवार की अन्य महिलाओं तक ने एक शब्द  तक नहीं कहा जिसका प्रतिफल तो अब इन सभी दलों को मिलेगा ही मिलेगा।राहुल गांधा चाहे जितने हाइडो्रजन बम फोड़ने का प्रयास करें वह सभी डिफयूज हो जाएंगे।राहुल गांधी के ऐसे सभी प्रयास अभी तक नाकाम ही रहे हैं।राफेल चोरी से जीसएटी का विरोध तक कोविड वैक्सीन के खिलाफ प्रचार करने तक सभी प्रयासां में वह नाकाम हुए।वोट चोरी का आरोप भी उसी कड़ी का एक अहम हिस्सा है जो फुस्स हो चुका है और एक छुटभ्ैये नेता से  प्रधानमंत्री की मां का अपमान करवाकर सेल्फ गोल करवा लिया है जिसका उन्हें खामियाजा भुंगतना ही पडे़गा। 

मृत्युंजय दीक्षित 

जीएसटी का नया दौर: कराधान व्यवस्था क्रांति की ओर

– ललित गर्ग –

भारतीय कराधान व्यवस्था में जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) का आगमन एक ऐतिहासिक एवं क्रांतिकारी कदम था। इसने अप्रत्यक्ष करों के जटिल और उलझे जाल को जहां सरल बनाने का प्रयास किया, वहीं शासन एवं प्रशासन में पसरे भ्रष्टाचार एवं अफसरशाही को भी काफी सीमा तक नियंत्रित किया। सुधार, सुविधा एवं जनता को राहत देने के लिये किये इस प्रयास के बावजूद इसमें अनेक जटिलताएं एवं भारी-भरकम कराधान जनता को बोेझिल किये हुए था, इस बात को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार लम्बे समय से महसूस कर रही थी, इसीलिये इसवर्ष स्वतंत्रता दिवस के लालकिले के उद्बोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने जीएसटी को अधिक सुगम एवं जनता के हित में करने की घोषणा की। अब सरकार ने इसे और सुसंगठित करते हुए केवल दो स्लैब्स में कराधान को समेट दिया है और कर भी काफी कम कर दिये हैं तो निश्चय ही यह उपभोक्ताओं और कारोबारियों दोनों के लिए राहतकारी है। इसमें मिडल एवं लोअर क्लास का व्यापक ध्यान रखते हुए उन्हें राहत दी गयी है, जिससे हर परिवार के पास ज्यादा खर्च करने लायक आमदनी बचेगी और लोग अन्य वस्तुओं एवं सेवाओं पर अधिक खर्च कर सकेंगे। इन बड़े एवं क्रांतिकारी सुधारों से खपत बढ़ेगी, विकास को तीव्र गति मिल सकेगी। निश्चित ही यह एक नए कराधान युग का सूत्रपात है, जिसमें कर प्रणाली अधिक पारदर्शी, सरल और उपयोगी बनने की ओर अग्रसर है।
जीएसटी काउंसिल की 56वीं बैठक के बाद घोषित जीएसटी की नई दरें 22 सितंबर से लागू करने करने की घोषणा की गई है। जिसमें अब 12 व 28 फीसदी के दो स्लैब को खत्म करके सिर्फ 5 व 18 फीसदी कर दिया गया है। कहा जा रहा है कि यह सरकार की ओर से आर्थिक सुधारों की कड़ी में एक नई पहल एवं आयाम है, जिससे जीएसटी को तार्किक बनाने व आम जनता को महंगाई से राहत देने का प्रयास हुआ है। वहीं दूसरी ओर विलासिता आदि वस्तुओं के लिये चालीस फीसदी का एक नया स्लैब जोड़ा गया है। विपक्ष इसे देर से उठाया गया कदम बता रहा है, तो सरकार आर्थिक सुधार की दिशा में बड़ा कदम। जीएसटी के बड़े सुधार को लेकर विपक्ष और विशेषतः कांग्रेस एवं भाजपा के बीच जो आरोप-प्रत्यारोप शुरु हुआ है, वह इसलिये औचित्यहीन, अतार्किक एवं व्यर्थ है, क्योंकि जीएसटी परिषद ने लम्बी विवेचना एवं आम सहमति से यह फैसला लिया है। वहीं कुछ अर्थशास्त्री इस कदम को ट्रंप के टैरिफ वॉर के परिप्रेक्ष्य में उठाया गया सुरक्षात्मक कदम मानते हैं। जिससे घरेलू खपत को बढ़ाकर निर्यात घाटे को कम किया जा सकेगा। वहीं कुछ लोग इसे नवरात्र में दिवाली से पहले सरकार का तोहफा बता रहे हैं।
अनेक कर दरों की जटिलता उपभोक्ताओं के लिए हमेशा भ्रम और बोझ का कारण रही। बार-बार की दर-संशोधन प्रक्रियाओं से व्यापार जगत में असमंजस की स्थिति बनी रहती थी। अब दो स्लैब्स की व्यवस्था से यह समस्या काफी हद तक समाप्त हो जाएगी। उपभोक्ता को वस्तुओं और सेवाओं पर अपेक्षाकृत सरल, न्यायोचित और संतुलित कर ढांचा मिलेगा। इससे न केवल मूल्य स्थिरता आएगी, बल्कि खरीदारी और उपभोग की प्रक्रिया भी सहज होगी। इससे व्यापार एवं उद्योग भी विकास की रफ्तार पकडें़गे। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए गए हैं। डिजिटलाइजेशन, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, आधार लिंकिंग और पारदर्शी तंत्र ने व्यवस्था में विश्वास जगाया है। जीएसटी भी इसी कड़ी का एक क्रांतिकारी सुधार है जिसने ‘वन नेशन, वन टैक्स’ की अवधारणा को मजबूत किया।
परंतु सच्चाई यह भी है कि जीएसटी विभाग आज भी भ्रष्टाचार की जकड़न से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। छोटे व्यापारियों और उद्यमियों को आए दिन नोटिस, जांच और जटिल प्रक्रियाओं के जाल में उलझाया जाता है। कई बार भ्रष्ट तंत्र इन्हें भयभीत कर अनुचित लाभ उठाता है। यह स्थिति जीएसटी सुधार की भावना के विपरीत है। यदि वास्तव में कराधान को क्रांतिकारी मोड़ देना है, तो जीएसटी व्यवस्था को भी पूर्णतः भ्रष्टाचार मुक्त करना अनिवार्य होगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि टैक्स विभाग लंबे समय तक भ्रष्टाचार का गढ़ बना रहा। जटिल कानून और अनेक कर-श्रेणियाँ इस भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती थीं। लेकिन जब कराधान पारदर्शी और सरल होगा, तो अधिकारी और कारोबारी के बीच की अनावश्यक जटिलता भी कम होगी। इससे जनता एवं छोटे व्यापारियों का विश्वास व्यवस्था पर मजबूत होगा। अब आवश्यकता है कि सरकार जीएसटी प्रणाली को तकनीकी और प्रशासनिक स्तर पर और अधिक पारदर्शी बनाए। कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डिजिटल ट्रैकिंग का उपयोग कर कर चोरी रोकने के साथ-साथ अधिकारियों की मनमानी और रिश्वतखोरी पर भी अंकुश लगाया जा सकता है। करदाता के अधिकारों की रक्षा हो, ईमानदार व्यापारी को भयमुक्त वातावरण मिले और उपभोक्ता को राहत-तभी जीएसटी सचमुच क्रांति कहलाएगा। जीएसटी का नया दौर एक बड़ी राहत और परिवर्तन का संदेश लेकर आया है। अब अगला कदम यही होना चाहिए कि इसे भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त कर ईमानदार करदाताओं का विश्वास जीता जाए। तभी यह कहा जा सकेगा कि भारत ने वास्तव में ‘सही अर्थों में एक राष्ट्र, एक कर और एक पारदर्शी कर व्यवस्था’ की ओर निर्णायक कदम बढ़ा लिया है।
भारत की आर्थिक यात्रा में कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जो केवल नीतिगत बदलाव नहीं, बल्कि युगांतरकारी मोड़ साबित होते हैं। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में हालिया सुधार उसी दिशा में उठाया गया एक साहसिक कदम है। कराधान व्यवस्था को सरल बनाने और जनता को सीधी राहत पहुँचाने की दिशा में यह सुधार महज सरकारी निर्णय नहीं, बल्कि एक लोककल्याणकारी दृष्टि का प्रमाण है। आजादी के बाद से भारत में कर-व्यवस्था जटिलताओं, बहुस्तरीय बोझ और भ्रष्टाचार की दलदल में फंसी रही। छोटे व्यापारी हों या आम उपभोक्ता, हर कोई अप्रत्यक्ष करों की इस भूलभुलैया से परेशान था। मोदी सरकार ने जीएसटी को लागू करके पहले ही इस दिशा में बड़ा कदम उठाया था, लेकिन अब इसे और सरल बनाना तथा दो स्लैब्स तक सीमित करना एक क्रांतिकारी सुधार है। इससे न केवल उपभोक्ताओं पर बोझ घटेगा, बल्कि व्यवसाय करने की सुगमता भी बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था का असली इंजन जनता की जेब है। जब उपभोक्ता को राहत मिलती है, उसके हाथ में थोड़े अधिक पैसे बचते हैं, तो खपत बढ़ती है। यही खपत उद्योगों को गति देती है, उत्पादन में उछाल लाती है और अंततः रोजगार के नए अवसर पैदा करती है। जीएसटी सुधार का सबसे बड़ा असर यही होगा कि यह आर्थिक गतिविधियों को नये पंख देगा और इससे भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थ-व्यवस्थ बन सकेगा।
किसी भी लोकतांत्रिक शासन का मूल्यांकन इस बात से होता है कि वह अपने नागरिकों के हितों को किस हद तक प्राथमिकता देता है। मोदी सरकार ने जीएसटी सुधार के जरिए यह स्पष्ट किया है कि उनकी नीतियाँ महज आँकड़ों का खेल नहीं, बल्कि जनजीवन को आसान बनाने की कोशिश हैं। यह सुधार जनता को केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि मानसिक राहत भी देता है। हालाँकि सुधार के साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। राज्यों को राजस्व हानि की भरपाई, छोटे कारोबारियों को नई व्यवस्था में सहज बनाना और कर-प्रशासन में पारदर्शिता बनाए रखना, ये सब गंभीर प्रश्न हैं। लेकिन यदि इन्हें दूर किया गया तो यह सुधार भारत को एक मजबूत, पारदर्शी और विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था की ओर ले जाएगा। जीएसटी सुधार को जनता के लिए एक ‘उपहार’ कहना गलत नहीं होगा। यह केवल कराधान का बदलाव नहीं, बल्कि जनता के जीवन स्तर को बेहतर बनाने की पहल है। यह निर्णय बताता है कि शासन की नीतियाँ केवल सत्ता चलाने के लिए नहीं, बल्कि जनता को राहत देने और देश को विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ाने के लिए बनाई गई हैं। लेकिन यहां यह देखना ज्यादा जरूरी है कि इस बदलाव से वास्तव में आम उपभोक्ता को कितना फायदा होता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उद्योग कर कटौती का लाभ उपभोक्ता तक कैसे पहुंचाते हैं। साथ ही नियामक कितनी सतर्कता से अनुपालन सुनिश्चित करते हैं।

एक चेतावनी है अफगानिस्तान का भूकंप

प्रमोद भार्गव

31 अगस्त 2025 की मध्य रात्रि के बाद पूर्वी अफगानिस्तान में 6.0 तीव्रता के आए भूकंप ने बड़ी त्रासदी रच दी। करीब 1400 लोग काल के गाल में समा गए और 3000 से ज्यादा लोग घायल हो गए। भूकंप का केंद्र अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर जलालाबाद नगर से 27 किमी पूर्व में था। इसकी गहराई मात्र 8 से 10 किमी थी। भूकंप से कई गांव पूरी तरह मलबे में दबकर बर्बाद हो गए। सबसे अधिक तबाही नंगरहार में हुई है। अमेरिकी भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने भी इसे 6.0 तीव्रता का उथला भूकंप बताया है। उथले भूकंप गर्भ से भूमि की सतह पर फूटने के साथ भीषण बर्बादी का कारण बनते हैं। संसाधनों से अभावग्रस्त तालिबान सरकार ने बचाव कार्य षुरू कर दिए हैं, लेकिन भूकंप का प्रभाव ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में हैं, जहां पहुंच आसान नहीं है। अफगानिस्तान में भूकंपों का आना लगा ही रहता है। 1998 में आए भूकंप में 7,500 लोग मारे गए थे, वहीं मार्च 2002 में हिंदूकुश में 1000, हिंदूकुश में ही 2015 में 399, खोस्त में 2022 में 1000 और हैरात में 2023 में 6.3 तीव्रता के आए भूकंप के 2000 से ज्यादा लोग मारे गए थे।
अफगानिस्तान हिंदुकुश पर्वत श्रृंखला में है, जहां यूरोएशियन परत, अरेबियन परत और इंडियन परत के परस्पर टकराव से भूकंप आते है। यह प्रतिवर्ष 100 से ज्यादा भूकंप आते है। लेकिन 6.0 तीव्रता के ऊपर का भूकंप असाधारण होता है। यहां भारतीय परत का यूरोएशियन परत से टकराव मिमी वर्षा की गति से होता है। नंगरहार और कुनार पूर्वी प्रांत पाकिस्तान सीमा पर हैं। जहां दोष रेखाएं (फाल्ट लाइंस) सक्रिय है। जलवायु परिवर्तन के चलते इस पूरे क्षेत्र में भूस्खलन का खतरा भी मंडरा रहा है। इस कारण इस भूकंप से नुकसान कहीं अधिक हुआ है।      
भूकंप की चेतावनी संबंधी प्रणालियां अनेक देशों में  संचालित हैं लेकिन वह भू-गर्भ में हो रही दानवी हलचलों की सटीक जानकारी समय पूर्व देने में लगभग असमर्थ हैं। क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले अमेरिका, जापान, भारत, नेपाल, चीन और अन्य देशों में भूकंप आते ही रहते हैं। इसलिए यहां लाख टके का सवाल उठता है कि चांद और मंगल जैसे ग्रहों पर मानव बस्तियां बसाने का सपना और पाताल की गहराइयों को नाप लेने का दावा करने वाले वैज्ञानिक आखिर पृथ्वी के नीचे उत्पात मचा रही हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में क्यों असफल हैं ? जबकि वैज्ञानिक इस दिशा में लंबे समय से कार्यरत हैं। अमेरिका एवं भारत समेत अनेक देश मौसम व भूगर्भीय हलचल की जानकारी देने वाले अनेक उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित कर चुके हैं। हिंदूकुश क्षेत्र में आया यह भूकंप भारत के लिए भी चेतावनी हैं। क्योंकि हमारे यहां भी कई राज इस लिहाज से संवेदनशील है।
दरअसल दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में मानवीय हस्तक्षेप शामिल है। इसीलिए इस भूकंप को स्थानीय भू-गर्भीय विविधता का कारण माना गया है। दरअसल प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकंपों की पृश्ठभूमि तैयार हो रही है। भविश्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी, लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है। यही नहीं आए भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है, उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उनसे 20 थर्मोन्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहां हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा-नागाशाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था। जापान और फिर क्वोटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चला है कि धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अंगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भूकंप के मुहाने पर खड़े हैं। विकास की अंधी दौड़ में पर्यावरण की अनदेखी प्रकृति को प्रकोप में बदल रही है। इसलिए बाढ़, भू-स्खलन, सूखा, हिमनदों का पिघलना, भूकंप और सुनामी जैसे तूफानों का आना निरंतर बना हुआ है।  
भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए। भूकंप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है, जहां पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेंगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकंपों का दौर चल पड़ा है। मैक्सिको में सितंबर 2017 में आया भूकंप धरती की सतह से महज 40 किमी नीचे से उठा था। इसलिए इसने भयंकर तबाही का ताडंव रचा था। तिब्बत में आए भूकंप की गहराई तो मात्र 10 किमी आंकी गई है और अब यह अफगानिस्तान का भूकंप मात्र 8 से 10 किमी की गहराई से उठा था।  
दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूकंप आता है। कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे से भी आते हैं, लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है, इसलिए बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती। दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। धरती की इतनी गहराई से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलिविया में रिकॉर्ड किया गया है। पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिए यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकंप धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।

भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्य की परंपरा अति प्राचीन

डा. नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी

हमारे देश भारत में गुरु और शिष्य की परंपरा बहुत ही पुरानी है जो सदियों से चली आ रही है। आज भी हमे यह  देखने को मिलती है। भारतीय प्राचीन इतिहास में जब हम वेद,पुराण,गीता- भागवत,महाभारत ,रामायण के पन्ने पलटते है तो यह भान होता है कि उस युग में चाहे वह सतयुग हो,त्रेता हो,द्वापर हो या कलयुग हो,सभी युगों में गुरु का स्थान सबसे ऊंचा,और सर्वोपरि माना गया है, और इसी गुरू के मार्गदर्शन में सारे धार्मिक,सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक, राजनैतिक,आधात्मिक,कार्य सम्पन्न हुआ करते थे। गुरु- शिष्य परम्परा के इतिहास में चाहे वह गुरु वेदव्यास और गणेश जी हो,चाहे विश्वामित्र हो या  राम,चाहे सांदीपनि और कृष्ण हो,चाहे द्रोणाचार्य और पांडव एवं एकलव्य हो,चाहे चाण्क्य और चन्द्रगुप्त हो,चाहे उद्दालक और आयोदधौम्य हो सभी में हम यह पाते हैं कि यहाँ पर गुरु और शिष्य की परम्परा सर्वोपरी थी,सभी ने इस परंपरा का बहुत सुंदर रीति से पालन किया,और गुरु से ज्ञान प्राप्त कर गुरु दक्षिणा के रूप में उसे पुनःबांट देते थे।और गुरु को ऊंचा मानते हुए अपना सर्वस्व समर्पित करते थे। इसीलिए गुरु के स्थान को ऐसा कहा गया-

“गुरु ही ब्रम्हा गुरु ही विष्णु

                  गुरुर देवो महेष्वर:।

गुरु ही साक्षात परब्रम्ह

                 तस्मै श्री गुरवे नमः।।”

यहाँ पर गुरु देवो से बढ़कर परब्रम्ह के रूप में माना गया।

गुरु का शाब्दिक अर्थ होता है- “अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाना है।” गुरु दो वर्णों के मेल से बना है पहला वर्ण “गु” अर्थात अज्ञानता का अंधकार और दूसरा वर्ण है “रु” अर्थात ज्ञान का प्रकाश। गुरु वह है जो हमे भौतिकता से उठाकर आध्यात्मिकता की ओर ले जा सके,अज्ञानता से प्रकाश की ओर ले जा सके।अर्थात हमे ज्ञान के उस उच्च शिखर पर ले जाये जहाँ दिव्य-ज्ञान का साक्षात्कार हो सके,और हम अपने आप को मोक्ष के द्वार पर ले जा सके, तभी तो कबीर कहते हैं-

“सदगुरु की महिमा अनन्त,

            अनन्त किया उपगार।

लोचन अनन्त उघाडिया,

             अनन्त दिखावन हार।।”

गुरु की महिमा इस बात से भी स्पष्ट होती है कि सभी युगों में गुरु को सर्वोपरि स्थान दिया गया है. गुरु ही हमे ईश्वर,धर्म,जीव,जगत,शरीर,आत्मा,अध्यात्म सभी के बारे में ज्ञान कराता है,गुरु के बिना हम निरर्थक हैं:- 

इसीलिए कहा गया:-

   “गुरु गोविंद दोउ खड़े,

        काके लागू पाँय।

  बलिहारी गुरु आपनो

       गोविंद दियो बताया।।”

भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्य की परंपरा अति प्राचीन है. इसमें गुरु अपने आध्यात्म ज्ञान को अपने शिष्यों को प्रदान करते रहे हैं। तत्पश्चात वही शिष्य गुरु के रूप में उसे पुनः अपने शिष्यों को प्रदान करते हैं. ज्ञान का क्षेत्र विशाल है जहां शिष्य कला-संगीत साहित्य,ज्योतिष,धर्म,विज्ञान,जीव-आत्मा आदि के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है।

भारतीय इतिहास में गुरु को एक समाज सुधारक के रूप में भी देखा जाता रहा है जो समाज में आदर्श,नैतिकता,मर्यादा,संस्कार,और नई चेतना का संचार करता था, इसीलिए गुरु अर्थात शिक्षक को ब्रह्मा,विष्णु,महेश से भी बड़ा माना गया।

                          गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा की नीव सांसारिकता  से शुरू होकर आध्यात्मिक सार्वभौम परम् आनंद की प्राप्ति तक जाता हैऔर इसी को “मोक्ष या परमधाम कहते हैं”और सभी मानव जीव का एक यही अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।

         गुरु ज्ञान का प्रकाश फैलाने हाथ मे ज्ञान का प्रकाश लेकर खड़ा रहता है,जो अपने शिष्यों को मोह माया की तिलांजली देकर मोक्ष प्राप्त करने अपने साथ चलने का आह्वान करता है।

अर्थात गुरु एक मशाल का प्रतीक है और शिष्य एक प्रकाश का।

और इसीलिए कबीर कहते हैं-

    “कबीरा खड़ा बाजार में,

                 लिया मुराड़ा हाथ।

     जो घर जारय आपना

                 चलय हमारे साथ।।” हम सभी गुरु के बिना हमारा जीवन अधूरा है । वैसे तो किसी भी मनुष्य की पहली गुरु उसकी मां होती है और उसके बाद शिक्षक ।

ऐसी हमारी मान्यता है । 

डिजिटल युग में शिक्षक की भूमिका हुई और अधिक महत्वपूर्ण

-संदीप सृजन

डिजिटल युग ने शिक्षा के परिदृश्य को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया है। पहले शिक्षक कक्षा में ब्लैकबोर्ड और पुस्तकों के माध्यम से ज्ञान प्रदान करते थे किन्तु आज वे डिजिटल उपकरणों, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और ऑनलाइन मंचों के साथ मिलकर छात्रों को भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं। आज जब हम डिजिटल परिवर्तन के शिखर पर हैं, शिक्षक की भूमिका केवल ज्ञान वितरक से बदलकर मार्गदर्शक, परामर्शदाता और नवप्रवर्तक की हो गई है। आज शिक्षक डिजिटल उपकरणों का उपयोग कर शिक्षा को अधिक समावेशी, व्यक्तिगत और प्रभावशाली बना रहे हैं।

डिजिटल युग की शुरुआत इंटरनेट और कंप्यूटर के प्रसार से हुई परन्तु 2020 की कोविड-19 महामारी ने इसे तीव्र गति प्रदान की। ऑनलाइन कक्षाएँ, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म्स ने शिक्षा को घर-घर तक पहुँचाया। युनेस्को की सन् 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व भर में 80% से अधिक छात्र डिजिटल उपकरणों से जुड़े हैं। इस परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका केंद्रीय है। वे अब केवल लेक्चर देने वाले नहीं, अपितु डिजिटल सामग्री निर्माता (कंटेंट क्रिएटर) हैं  जो वीडियो,इंटरएक्टिव क्विज और वर्चुअल रियलिटी के माध्यम से शिक्षा प्रदान करते हैं।

ऐतिहासिक दृष्टि से, शिक्षा हमेशा तकनीकी प्रगति से प्रभावित रही है। प्राचीन काल में गुरुकुल प्रणाली मौखिक थी, मध्ययुग में पुस्तकों का आगमन हुआ और अब डिजिटल युग में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) और मशीन शिक्षण ने क्रांति ला दी है। ओईसीडी की हाल की रिपोर्ट में उल्लेख है कि शिक्षकों को डिजिटल शिक्षा के लिए प्रशिक्षित करना आवश्यक है, ताकि वे छात्रों को जोखिमों से बचाते हुए लाभ प्रदान कर सकें।

डिजिटल युग में शिक्षक की प्राथमिक भूमिका मार्गदर्शक की है। वे छात्रों को ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित और निर्देशित करते हैं, न कि केवल सूचना प्रदान करते हैं। आज फ्लिप्ड क्लासरूम में छात्र घर पर वीडियो देखते हैं और कक्षा में विचार-विमर्श करते हैं। शिक्षक यहाँ मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं, जो छात्रों की जिज्ञासा को सही दिशा देते हैं। दूसरी भूमिका परामर्शदाता की है। डिजिटल युग में सूचनाओं की प्रचुरता के बावजूद, छात्रों को सही दिशा की आवश्यकता होती है। शिक्षक व्यक्तिगत शिक्षण पथ तैयार करते हैं, जहाँ एआई के माध्यम से छात्र की कमजोरियों का विश्लेषण होता है और शिक्षक व्यक्तिगत फीडबैक प्रदान करते हैं। तीसरी भूमिका नवप्रवर्तक की है। शिक्षक डिजिटल उपकरणों का उपयोग कर नवीन शिक्षण विधियाँ विकसित करते हैं। उदाहरण के लिए, वर्चुअल रियलिटी के माध्यम से इतिहास की घटनाओं को जीवंत करना या खेल- आधारित शिक्षण द्वारा गणित सिखाना। एक अध्ययन के अनुसार डिजिटल मंच शिक्षकों के ज्ञान साझाकरण को बढ़ावा देते हैं जिससे वे वैश्विक स्तर पर सहयोग कर पाते हैं।

डिजिटल युग में शिक्षकों के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं। सबसे बड़ी चुनौती है डिजिटल  डिवाइड। ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट और उपकरणों की कमी के कारण छात्र पिछड़ जाते हैं। युनेस्को के अनुसार, सन् 2025 में भी विकासशील देशों में 40% शिक्षक डिजिटल उपकरणों से अपरिचित हैं। शिक्षकों को प्रशिक्षण की आवश्यकता है, किन्तु कई देशों में यह अपर्याप्त है। ओईसीडी की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि डिजिटल शिक्षा के लिए शिक्षकों को सक्षम बनाने पर ध्यान देना चाहिए। दूसरी चुनौती साइबर सुरक्षा और गोपनीयता की है। ऑनलाइन कक्षाओं में डेटा लीक का खतरा रहता है। शिक्षकों को छात्रों को साइबर धमकी से बचाने की आवश्यकता है। साथ ही, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उपयोग से साहित्यिक चोरी बढ़ सकती है, जिसके लिए शिक्षकों को मूल्यांकन विधियों में परिवर्तन करना पड़ता है। अनिच्छुक शिक्षकों को प्रौद्योगिकी अपनाने में सहायता की आवश्यकता है।

मानसिक स्वास्थ्य भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। डिजिटल कक्षाएँ शिक्षकों पर अतिरिक्त दबाव डालती हैं, जैसे 24 घण्टे उपलब्धता। एक अध्ययन के अनुसार, कई शिक्षक कार्यभार के कारण तनावग्रस्त हो रहे हैं। चुनौतियों के बावजूद, डिजिटल युग शिक्षकों के लिए अवसरों से परिपूर्ण है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता शिक्षकों को नियमित कार्यों, जैसे ग्रेडिंग या लेसन प्लानिंग से मुक्त करती है जिससे वे रचनात्मकता पर ध्यान दे सकें। कॉमनवेल्थ ऑफ लर्निंग (सीओएल) की सन् 2025 की रिपोर्ट में उल्लेख है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता शिक्षकों को सशक्त बनाती है। उदाहरण के लिए एआई टूल्स छात्रों की प्रगति का अनुसरण करते हैं और शिक्षकों को अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। वर्चुअल रियलिटी और ऑगमेंटेड रियलिटी शिक्षा को गहन बनाते हैं। शिक्षक वर्चुअल टूर्स आयोजित करते हैं, जैसे मंगल ग्रह की सैर या ऐतिहासिक घटनाओं का अनुभव। अमेरिकन एसपीसीसी के अनुसार डिजिटल युग में शिक्षा का विकास हो रहा है जहाँ शिक्षक मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं।

व्यक्तिगत शिक्षण एक बड़ा अवसर है। डिजिटल उपकरण छात्रों की आवश्यकताओं के अनुरूप सामग्री अनुकूलित करते हैं। शिक्षक डेटा एनालिटिक्स का उपयोग कर छात्रों की सहायता करते हैं। लिंक्डइन के एक लेख में सन् 2025 में एआई-पावर्ड क्लासरूम्स की चर्चा है, जहाँ शिक्षक एआई को सहायक के रूप में उपयोग करते हैं। वैश्विक स्तर पर, नाइजीरिया जैसे देशों में टीआरसीएन डिजिटल पोर्टल शुरू कर शिक्षकों को आधुनिक बना रहा है। भारत में, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 डिजिटल शिक्षा पर बल देती है। शिक्षक दिक्षा और स्वयं जैसे मंचों का उपयोग करते हैं। किन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में कनेक्टिविटी की कमी जैसी चुनौतियाँ हैं। सन् 2025 में, भारतीय शिक्षक कृत्रिम बुद्धिमत्ता को एकीकृत कर रहे हैं  परन्तु प्रशिक्षण की कमी एक बाधा है।

कुछ समय में शिक्षक की भूमिका और अधिक विकसित होगी। मेटावर्स में आभासी कक्षाएँ (वर्चुअल क्लासरूम्स) होंगी, जहाँ छात्र अवतार के रूप में भाग लेंगे। शिक्षक कृत्रिम बुद्धिमत्ता के साथ सहयोग करेंगे, किन्तु मानवीय संपर्क का महत्व बना रहेगा। एनसी स्टेट यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता युग में शिक्षकों का मानवीय संबंध अधिक महत्वपूर्ण है। शिक्षकों को निरंतर प्रशिक्षण की आवश्यकता है। सरकारों को निवेश करना चाहिए, जैसे ग्लोबल पार्टनरशिप फॉर एजुकेशन (जीपीई) जो प्रौद्योगिकी सहायता प्रदान करता है। भविष्य में, शिक्षक सृजन अर्थव्यवस्था (क्रिएटर इकोनॉमी) का हिस्सा बनेंगे, जैसे सेजटूलर्न मंच पर पाठ्यक्रम बनाकर आय अर्जित करेंगे।

डिजिटल युग में शिक्षक की भूमिका पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। वे सृजनकर्ता हैं, जो डिजिटल उपकरणों के माध्यम से शिक्षा को सशक्त बनाते हैं। चुनौतियाँ हैं, परन्तु अवसर अधिक हैं। समाज को शिक्षकों का समर्थन करना चाहिए, ताकि वे छात्रों को भविष्य के लिए तैयार कर सकें। जैसा कि हायर एजुकेशन रिव्यू में उल्लेखित है, शिक्षक शिक्षण के मार्गदर्शक, सहयोगी और आजीवन शिक्षार्थी हैं। अंततः, डिजिटल युग शिक्षक को एक सुपरहीरो बनाता है, जो प्रौद्योगिकी और मानवता के बीच संतुलन स्थापित करता है।

 संदीप सृजन

गुजरा वोटर यात्रा का “कारवां”, अब सिर्फ नफरत का “गुबार” 

प्रदीप कुमार वर्मा

पीएम नरेंद्र मोदी के विरुद्ध “तू-तड़ाक” की भाषा का इस्तेमाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिवंगत मां के विरुद्ध भद्दी गालियों का चलन, कांग्रेस नेता राहुल गांधी का भावी पीएम के रूप में ऐलान, राजद नेता तेजस्वी यादव द्वारा खुद को सीएम घोषित करने की कशमकश और ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ जैसे नारों का प्रयोग। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की अगुवाई में बिहार में वोटर अधिकार यात्रा का यही फलसफा देखने को मिला। कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा मतदाताओं के अधिकारों के प्रति जागरूकता के लिए निकाली गई वोटर अधिकार यात्रा एक प्रकार से अपने उद्देश्य से कोसों दूर रही।

विपक्ष द्वारा चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा करने की नाकाम कोशिश भी वोटर अधिकार यात्रा में दिखी। वहीं, प्रधानमंत्री समेत भाजपा तथा अन्य के विरुद्ध राजनीतिक घृणा का एक नया चेहरा भी सामने आया। कांग्रेस और राजद जहां वोटरों के अधिकार से इस यात्रा को जोड़ रही है। वहीं, भाजपा सहित समूचे एनडीए के नेताओं का आरोप है यह घुसपैठियों को बचाने की यात्रा है। कुल मिलाकर बिहार चुनाव में वोटर अधिकार यात्रा का कारवां गुजर चुका है और अपने पीछे राजनीतिक नफरत का गुबार छोड़ गया है।

           कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन की बिहार में करीब एक पखवाड़े की वोटर अधिकार यात्रा सोमवार को समाप्त हो गई। यह यात्रा राज्य के 25 जिलों और 110 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरी। राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ सासाराम से शुरू हुई थी और पटना में समाप्त हुई। करीब एक हजार 300 किलोमीटर लंबी इस यात्रा का मकसद उन लाखों मतदाताओं के लिए आवाज उठाना था, जिनके नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए हैं। इस यात्रा से बिहार का मतदाता कितना जागरूक हुआ है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन वोटर अधिकार यात्रा के दौरान कई विवाद हुए और राजनीति के कई स्याह चेहरे यात्रा के दौरान देखने को मिले। वोटर अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए “तू-तड़ाक” की भाषा का इस्तेमाल किया। हद तो तब हो गई जब कांग्रेस और राजद के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिवंगत मां को भी गाली दी गई जिसके चलते राहुल गांधी की इस वोटर अधिकार यात्रा के ” निहितार्थ” को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।

           बिहार में पिछले करीब चार दशकों में कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई है। बिहार की राजनीति में वर्तमान में कांग्रेस राजद की अगुवाई वाले महा गठबंधन का हिस्सा है। बिहार में अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन की तलाश लेकर कांग्रेस ने वोटर अधिकार यात्रा शुरू की।  इस यात्रा ने राहुल गांधी को विपक्ष के मुख्य चेहरे के तौर पर स्थापित किया, इसमें कोई दो राय नहीं है। यह भी सत्य है कि वोटर अधिकार यात्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भी उत्साहित किया है। यात्रा के जरिए देश के मुख्य विपक्षी दलों ने भी अपनी एक जुटता दिखाने की कोशिश की और यात्रा के दौरान इन दलों के नेताओं ने अपनी सक्रिय सहभागिता निभाई। वोटर अधिकार यात्रा में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा, कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, रेवंत रेड्डी, अशोक गहलोत, केसी वेणुगोपाल, सिद्धारमैया शामिल हुए। आरजेडी से तेजस्वी यादव पूरे समय यात्रा में रहे और लालू प्रसाद यादव भी इसमें बीच में शामिल हुए।

      वोटर अधिकार यात्रा में समाजवादी पार्टी से अखिलेश यादव, डीएमके के एमके स्टालिन और कनिमोझी, झारखंड मुक्ति मोर्चा से हेमंत सोरेन, तृणमूल कांग्रेस से यूसुफ पठान और ललितेश त्रिपाठी, एनसीपी (शरद पवार) से सुप्रिया सुले और जितेंद्र आव्हाड, शिवसेना (यूबीटी) से संजय राउत, वामपंथी पार्टियों से दीपांकर भट्टाचार्य (सीपीआई-एमएल), डी राजा (सीपीआई), एमए बेबी (सीपीआई-एम) और वीआईपी से मुकेश सहनी भी शामिल हुए। लेकिन वोटर अधिकार यात्रा के दौरान समय-समय पर हुए विवादों के चलते इस यात्रा के उद्देश्य और औचित्य पर भी सवाल उठने लगे। वोटर अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी द्वारा ऐलान किया गया था कि इस यात्रा के माध्यम से जिन लोगों के वोट काटे गए हैं, उनकी पहचान कर उनको सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के सामने पेश किया जाएगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

एक विवाद उस समय भी आया जब दक्षिण भारत के नेताओं ने वोटर अधिकार यात्रा में शिरकत की जिसको लेकर भाजपा और जनता दल यूनाइटेड ने उन पर निशाना साधा। यात्रा से पूर्व दक्षिण भारत के नेताओं ने बिहारी लोगों पर कथित अपमानजनक टिप्पणी की थी जिसको लेकर भी यात्रा के दौरान काफी “तनाव” देखने को मिला। इस यात्रा के दौरान कुछ विवाद भी हुए। राहुल गांधी के काफिले में एक पुलिस कांस्टेबल घायल हो गया। बीजेपी ने इस मुद्दे पर हमला किया। दरभंगा में एक रैली के दौरान पीएम मोदी के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी की गई। कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध उपयोग की गई तू-तडाक की भाषा को लेकर लोगों में काफी रोष देखने को मिला तथा राहुल के इस तेवर की खूब आलोचना भी हुई। बीजेपी को इससे विपक्ष पर हमला करने का मौका मिल गया और उसने इसकी कड़ी आलोचना की। पटना में पक्ष-विपक्ष के पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच झड़प भी हुई, जिससे तनाव बढ़ गया। कई राजनीतिक प्रेक्षकों ने राहुल गांधी की इस भाषा को सभ्य और शुचिता की राजनीति से परे बताया।

कांग्रेस और राजद की वोटर अधिकार यात्रा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिवंगत मां के अपमान के रूप में भी याद किया जाएगा। कांग्रेस और राजद के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिवंगत मां के लिए भद्दी गलियों का इस्तेमाल वर्तमान की घृणित राजनीतिक सोच को बताता है। भाजपा अब इस अपमान के लिए कांग्रेस तथा आरजेडी पर हमलावर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम में भावुक होते हुए कहा कि उनकी मां का राजनीति से कोई लेना देना नहीं, वह  सशरीर मौजूद नहीं है। इसके बाद भी उसे गाली दी गई। बिहार की मां-बहन और बेटियां इस अपमान को कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे। अपनी मां के अपमान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस भावुक अपील ने बिहार चुनाव के पहले नजर एक नया राजनीतिक विमर्श सेट कर दिया है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि जब-जब कांग्रेस सहित विपक्ष ने नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाया है, तब तब विपक्ष को इसका नुकसान उठाना पड़ा है।

          वोटर अधिकार यात्रा के दौरान वोट चोरी के जो भी सबूत दिखाए गए, वह या तो पड़ताल के बाद में गलत निकले या फिर चुनाव आयोग से लेकर लोगों द्वारा इन्हें नकार दिया गया। वोटर अधिकार यात्रा में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के बीच में अच्छी केमिस्ट्री देखने को मिली। जिससे बिहार चुनाव के दौरान महा गठबंधन में सीटों के बंटवारे तथा वोट ट्रांसफर को लेकर एक सुखद संकेत माना जा रहा है लेकिन इसके उलट कई कोशिशों के बावजूद भी राहुल गांधी और कांग्रेस द्वारा तेजस्वी यादव को सीएम फेस घोषित नहीं किए जाने को लेकर भी महा गठबंधन में चल रही खींचतान भी सामने आई। वोटर अधिकार यात्रा से उत्साहित कांग्रेस का कहना है कि हमने बिहार की धरती से “चुनावी क्रांति” का आगाज किया है और यह मैसेज पूरे देश में जाएगा। उधर भाजपा का कहना है कि संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल उठाना यह कांग्रेस की पुरानी परिपाटी रही है जिसे लोकतंत्र के लिए सही नहीं माना जा सकता। बिहार की सत्ता पर काबिज जनता दल यूनाइटेड का कहना है कि यह एक चुनावी नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है।

प्रदीप कुमार वर्मा