तब मैं 11वीं का छात्र था और हास्टल में रहा करता था। मेरा हास्टल और इंटर कालेज मेरे गांव से 30 से 35 किमी ही दूर था और वह सरकारी था। इसलिए वहां मेश आदि की कोई सुविधा नहीं थी। लिहाजा खाना आदि हम लोग स्वयं बनाते थे और उसके लिए राशन पानी यहां तक कि दो चार दिनों की साग सब्जी भी घर से साथ मे बोरी में भरकर ले आया करता था।
अमूमन मैं हर शनिवार को घर चला जाया करता था और प्रत्येक सोमवार को यह क्रम दोहराता था। ठीक इसी तरह एक सोमवार की सुबह मैं चावल आटा आदि घर से बस से लेकर निकला और मेजारोड चौराहे(इलाहाबाद) पर उतरकर इंटर कालेज की ओर जाने वाली ऑटो में सवार हो गया।
ऑटो की फर्श कुछ खराब थी और बोरी को घसीटकर अंदर करने के दौरान वह फट गई जिससे कम से कम किलो भर चावल ऑटो की फर्श पर ही बिखर गया। यूँ तो ऑटो में कम से कम 7 से 8 लोग सवार थे। पर उनमे एक गोरे-चिट्टे गठीले शरीर वाले चन्दनधारी बुजुर्ग भी मौजूद थे।
देखने पर उनका चेहरा रौबीला लगता था और सफेद कलर के नील चढे कुर्ता धोती पर ब्लैक कलर की जैकेट उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा रहा थी। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि वे, बड़े और सभ्य व्यक्तित्व वाले आदमी लगते थे।
चूंकि चावल ऑटो की फर्श पर बिखर गया था और ज्यादा लोगों के होने की वजह से उनके जूते-चप्पल आदि की जद में आकर और भी गंदा हो गया था। चावल की यह दशा देखकर उन बुजुर्ग व्यक्ति ने मुझसे कहा- इसे उठा लो। इसका अपमान हो रहा है, तो मैंने बड़ी बेपरवाही या यूं कहें कि नवाबी में कहा कि अरे इसकी कोई जरूरत नहीं?
तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया न देकर शांति से मुझसे पूछा बेटा जी, आपका घर कहाँ हैं? तो मैंने अपने गांव का नाम बता दिया। इसके जवाब में वे मेरे दादा जी का नाम लेते हुए मुझसे पूछते हैं कि क्या आप उस गांव में उनको जानते हैं? तो मैंने कहा कि जी मैं उनका नाती ही हूँ।
उन्होंने कहा फिर तब तो ठीक है। आखिर जमीनदार साहब के नाती हो। इतने थोड़े से चावल से आपको क्या फर्क पड़ता है? मैंने कहा जी ऐसा ही कुछ समझिये और फिर बात आई गई पार हो गई। मैंने उनसे उनका परिचय जानने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और तब तक मेरे कालेज वाला स्टैंड भी आ गया था और वहीं ऑटो का स्टाप भी हो जाता था।
मैं स्टैंड पर उतरकर भाई का वेट करने लगा ताकि वह आये और हम दोनों साथ मे पकड़कर अपना समान रूम पर पहुँचा सके? अभी मैं भाई का इंतजार करते हुए ऑटो स्टैंड पर चहलकदमी कर ही रहा था कि मेरी निगाह ऑटो वाले बुजुर्ग पर पड़ी जो ऑटो में ही मौजूद थे और उसकी फर्श पर बैठकर चावल को बटोरकर , एक एक दाने को बिन बिन कर अपने स्वच्छ कुर्ते की दोनों जेब मे भर रहे थे।
मुझे उन्हें ऐसा करते देख पहले तो आश्चर्य हुआ, पर तुरंत अपनी गलती का भी एहसास हो गया। मैने ऑटो में वापस जाकर उनका हाथ पकड़ते हुए कहा कि गलती हो गई अंकल। अब इस चावल को मुझे बटोर लेने दीजिये। मैं ऐसा कभी दुबारा नहीं करूंगा। जवाब में उन्होंने कहा कि अगर ऐसा है तो फिर ठीक है। पर आज यह चावल मुझे ही बटोरने दीजिये।
लेकिन भविष्य में याद रखिये, जिस चावल को आपने खराब समझकर पड़ा रहने दिया, उससे एक दिन में दो व्यक्तियों का पेट भरा जा सकता है और बेटा जी जिंदगी बहुत बड़ी होती है। भगवान न करे। आपकी जिंदगी में ऐसा कोई दिन आये, जिस दिन आपको खाना न मिले, उस दिन आपको इस खराब चावल की कीमत समझ मे आएगी।
मैने कहा अंकल मैं समझ गया और मैं आपसे वादा करता हूं कि मैं ऐसी गलती अब कभी नहीं करूंगा और सम्भव होगा तो अपने आस-पास के लोगों को भी अन्न को बर्बाद न करने के लिए जागरूक करता रहूंगा।खैर, मेरी बात पर उन्होंने कुछ नही कहा, हल्का सा मुस्कराये व मेरे कन्धे पर हाथ फेरते हुए कुर्ते की जेब मे चावल भरकर अपने गंतव्य की ओर निकल गए। मैं उन्हें किसी अपराधी की तरह दूर तक जाते हुए देखता रहा।
उसके बाद कई दिनों तक उनकी सादगी और मेरी अकड़ मुझे धिक्कारती रही, लेकिन उनका चेहरा, उनकी सीख मुझे एक इंसान होने के मर्म को समझाती रही। मैं इस बात से भी परेशान था कि आखिर वह व्यक्ति था कौन? जो मेरे दादा जी को जानता था और यह भी दुख था कि मैंने उनका परिचय क्यों नहीं जाना?
पर जो भी था। वास्तव में एक नया और आंख खोल देने वाला अनुभव था। मैं अपनी जवानी की पहली दहलीज पर था और यह छोटी सी समझ मुझे इतने साल लगातार स्कूल जाने के बाद भी नही आ सका थी।
हां। यह अलग बात है कि स्कूल की किताबों में परोपकार और पंचतंत्र की ढेरों कहानियां पढ़ डाली थी और राम, कृष्ण और गौतम बुद्ध मेरे आदर्श बन चुके थे। पर यह कुछ अलग था। बिल्कुल अलग था। एकदम अलग था। शायद यह वाकया मेरे लेखन कार्य का अंकुरण काल भी था।
दीपक पाण्डेय
सब एडिटर, नोएडा.
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