आज कुछ आभास उनका !

आज कुछ आभास उनका, आत्म उर में हो गया;
विश्व के इन चराचर बिच, उन्हीं का नाटक हुआ !

रूप रंग आए सजे सब, रंग मंचों पर चढ़े;
अड़े ठहरे खड़े ठिठुरे, ठिठोली होली किए !
रहा दिग्दर्शन उन्हीं का, प्रणेता वे ही रहे;
काल की हर एक झाँकी के, रचयिता वे रहे !

चित्र सब वैचित्र्य ले के, थिरकते जगती रहे;
चित्त सारे चितेरे बन, उन्हीं को देखे रहे !
आहटों की ओट सिमटे, समाए सुर सर्वदा;
उठक बैठक प्रभु कराए, हाथ ‘मधु’ रख दे दुआ!

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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