आमिर खान साहब, ऑल इज वेल बोलिए..ऑल इज वेल

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जब देश में मंडल कमीशन को लागू किया गया था तब कई लोग यह कहते थे कि अब इस देश में रहने का कोई फायदा नहीं है. यह देश अब रहने लायक नहीं है. यहां अब कुछ नहीं हो सकता है. हालांकि उनकी बातों में दर्द भी था, भविष्य को लेकर चिंता भी थी और उनके तर्क में दम भी था. लेकिन हर तार्किक बात सही नहीं होती है. आज हम यह कह सकते हैं कि जो लोग ऐसा कहते थे, वो गलत थे. आज उनकी बातें बेहूदी और वाहियात नजर आती हैं. भारत मंडल कमीशन के बाद और भी तेजी से आगे बढ़ा है. आमिर खान का बयान सुनकर ये बातें याद आ गईं. फिल्म स्टार आमिर खान ने कहा कि उनकी पत्नी वर्तमान माहौल से इतनी परेशान हो गईं कि उन्होंने भारत छोड़ने का फैसला कर लिया था. बकौल आमिर खान वह भी दुविधा में पड़ गए थे. किरण राव की बातों में भी दर्द है, चिंता है और तर्क है लेकिन 1991 के छात्रों की तरह, भारत छोड़ने वाली किरण राव की बात भी उसी तरह बेहूदी और वाहियात है. लेकिन इसमें किरण राव या आमिर खान की गलती नहीं है. दरअसल, यह माहौल का नतीजा है. यह आजादी के बाद से देश पर “हावी संवाद” यानि “डोमिनेन्ट डिस्कोर्स” का नतीजा है.

सन 2000 में जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्य़ालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की जीत हुई थी तब कई वामपंथी छात्राओं ने ऐसी ही प्रतिक्रिया दी थी कि हे भगवान अब क्या होगा…परिषद वाले अब ड्रेस कोड लगाएंगे.. छात्रों के छात्रावास में लड़कियों का प्रवेश बंद हो जाएगा.. रात में अब लड़कियां कैम्पस में घूम नहीं पाएंगी. उनमें कुछ हमारी मित्र भी थीं. अब जेएनयू में पढ़ने वाली छात्राएं कोई बेवकूफ तो होती नहीं हैं लेकिन लेकिन फिर भी उन लोगों के मन में संदेह था. पांच महीने गुजरने के बाद जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो वो बातचीत में कहती थीं कि उनकी सारी धारणाएं गलत साबित हुईं. इसी तरह जब अटल जी के नेतृत्व में बीजेपी की जीत हुई थी तब देश के सबसे “सेकुलर टीवी चैनल” के न्यूजरूम में लोग रोने लग गए थे. चैनल के न्यूजरूम में लड़कियां वही बात कह रही थीं जैसा कि जेएनयू की छात्राओं ने की थी. यह टीवी चैनल आजकल प्रवर्तन निदेशालय के निशाने पर है. लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत से उसी तरह लोग भ्रमित हो गए हैं. कई लोग तो चुनाव से पहले ही विरोध कर रहे थे. चुनाव से पहले ही ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित डॉ. यूआर अनंतमूर्ति ने तो ऐलान कर दिया था कि अगर नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो वह देश में नहीं रहेंगे. लोकसभा के चुनाव ने इनकी नींद उड़ा दी. बीजेपी को बहुमत मिलना इनके लिए अविश्वसनीय था. इसके बाद लगातार महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, झारखंड और हरियाणा में मिली जीत ने इन्हें अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर कर दिया. अस्तित्व की लड़ाई की यह खासियत होती है कि इसमें सर्वस्व दांव पर लगाया जाता है. इन लोगों ने प्रजातंत्र और देश की अस्मिता को ही दांव पर लगा दिया. इस डिस्कोर्स की वजह से बने महान कलाकारों, लेखकों, विचारकों के गैंग ने “इनटॉलरेंट इंडिया” और “अवॉर्ड वापसी” का झंडा बुलंद कर रखा है. अब सवाल यह है कि ये लोग भ्रमित क्यों हैं?

विडंबना यह है कि भारत में हावी संवाद ( डोमिनेन्ट डिस्कोर्स) का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इसमें प्राचीन भारत और हिंदू सभ्यता से जुड़ा हर प्रतीक या चिन्ह अनैतिक है. बुरा है. असहिष्णु है. प्रतिगामी है. निरर्थक है. जहरीला है और सदा घृणा करने योग्य है. यह बातें स्कूल और कॉलेजों में परत दर परत छात्रों के दिमाग में बिठाई जाती हैं. यह इस हिसाब से किया जाता है कि लोगों को पता भी नहीं चलता और पढ़ने लिखने वाले लोग मानसिक गुलामी के शिकार हो जाते हैं. इस संवाद और इसके द्वारा तय मापदंडों को ही एकमात्र सत्य मान लेते हैं. इस संवाद में हिंदू प्रतीकों की अवमानना ही श्रेष्ठता के लक्षण हैं. हिंदू प्रतीकों से घृणा करना ही बुद्धिमत्ता की निशानी बन गई है. चूंकि इस संवाद का चरित्र वामपंथी है तो इसमें वाद और प्रतिवाद का होना भी जरूरी है. इस संवाद ने भारत में अपने हिसाब से सेकुलरिजम, सोशलिजम, सोशल-जस्टिस, प्रगतिशीलता और आइडिया ऑफ इंडिया को परिभाषित किया और इसका वाहक बन गया. इसे कांग्रेस, वामपंथी पार्टियों और दूसरे क्षेत्रीय दलों का संरक्षण प्राप्त है. आजादी के बाद से ही इस संवाद का लालन-पालन राज्यसत्ता व सरकारों के द्वारा किया गया है. मजेदार बात यह है कि इसके विरोध में जो भी सामने आता है उसे प्रतिवाद घोषित कर दिया जाता है. उसे नापाक घोषित कर दिया जाता है. चूंकि, शिक्षा व्यवस्था की वजह से लोग मानसिक गुलाम पहले से बने होते हैं तो सभी लोगों को लगता है कि यही सच है. जिन लोगों को अचानक भारत असहिष्णु नजर आने लगा है उनसे सिर्फ एक ही सवाल है कि पिछले 18 महीने में ऐसा क्या हो गया है जो पहले कभी नहीं हुआ? कौन सी ऐसी अनोखी घटना-दुर्घटना देश के अंदर हो गई कि लोग अवार्ड वापस करने लगे? अगर इस सवाल का जवाब है तो आमिर खान की बातें सही हैं अन्यथा यह एक वाहियात बकवास है. अब सवाल यह है कि इनकी परेशानी क्या है?

आजादी से लेकर अब तक कभी किसी ने इस डोमिनेंट डिस्कोर्स को चुनौती नहीं दी. सोशल मीडिया और खासकर मोदी सरकार के आने के बाद से इस डिसकोर्स की नींव हिल गई है. इनके निशाने पर सोशल मीडिया है जहां इनकी हर बात को आम लोगों से चुनौती मिल रही है. लोगों के सवालों के सामने यह निरुत्तर हो गए हैं. सोशल मीडिया पर इनकी हर दलील का जवाब दलील से और हर तथ्य का जवाब तथ्य से मिल रहा है. यही इनकी परेशानी है. इन महान दार्शनिक लोगों को यह बात समझ में नहीं आई है कि इनफार्मेशन एज में किसी भी एक डिस्कोर्स का प्रभुत्व अब संभव नहीं है. जिस दिन से इन विद्वानों को लगा कि सोशल मीडिया पर उनकी दाल नहीं गलने वाली है तब से उन्होंने अपने बंदूक की नली को मोदी सरकार की तरफ मोड़ दिया है. मजेदार बात यह है कि ये लोग दिन-रात सार्वजनिक रूप से सरकार को गालियां भी देते हैं और यह भी कहते हैं कि सरकार असहिष्णु है. आमिर खान ने जब यह बयान दिया था तब उनके सामने केंद्र सरकार के कई मंत्री मौजूद थे.. बीजेपी के नेता थे. आमिर खान यह बयान सबके सामने दिया. दिन भर मीडिया में इसे बार बार चलाया भी गया. इससे यह बात सिद्ध होती है कि देश में न तो सरकार असहिष्णु है और न ही भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई खतरा है. देश में अगर वामपंथी सरकार होती या फिर आमिर खान किसी समाजवादी-राज्य में ऐसा बयान देते तो वो बयान देने के बाद अपने घर वापस नहीं जा पाते.
वैसे भी किसी भी राजनीतिक मुद्दे पर फिल्म स्टारों के बयान को आखिरी नहीं मानना चाहिए. ये फिल्मी दुनिया के सितारे हैं न कि असल जिंदगी के. आमिर खान का बयान बचकाना है. आमिर खान ने पति-पत्नी की बातों को सार्वजनिक किया है. इसलिए आमिर खान को सुझाव देना गलत नहीं होगा. आमिर खान को किरण राव की बातों से परेशान नहीं होना चाहिए. आमिर खान को किरण राव की भ्रमित मनोदशा को समझना चाहिए. किरण राव भी उन जेएनयू की छात्राओं और सेकुलर चैनल के पत्रकारों की तरह हैं. किरण राव की स्कूलिंग कोलकाता के लोरेटो हाउस में हुई. यह एक क्रिशचियन मिशनरी स्कूल है. कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने सोफिया कॉलेज मुंबई से की है. यह भी एक क्रिशचियन मिशनरी कॉलेज है. मास-कम्यूनिकेशन की पढ़ाई किरण राव ने जामिया मिलिया इस्लामिया से की. अब इसके आगे कुछ बोलने की जरूरत नहीं है. आमिर खान को यह बात समझ में नहीं आएगी क्योंकि वह स्वयं ही डोमिनेन्ट डिस्कोर्स के गुलाम हैं. अगर आमिर खान को किरण राव के भ्रम के कारणों का पता होता तो वह विवादित बयान नहीं देते और किरण राव से कहते “ऑल इज वेल.. ऑल इज वेल.. ऑल इज वेल..”

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  1. डाक्टर मनीष कुमार आप जे.एन,यू.में अध्ययन करने के बाद भी बर्बाद नहीं हुए,यह भारत का सौभाग्य है,पर आप पर जे. एन यू ने अपना छाप छोड़ा है,नहीं तो आप यह नहीं कहते,”विडंबना यह है कि भारत में हावी संवाद ( डोमिनेन्ट डिस्कोर्स) का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इसमें प्राचीन भारत और हिंदू सभ्यता से जुड़ा हर प्रतीक या चिन्ह अनैतिक है. बुरा है. असहिष्णु है. प्रतिगामी है. निरर्थक है. जहरीला है और सदा घृणा करने योग्य है. यह बातें स्कूल और कॉलेजों में परत दर परत छात्रों के दिमाग में बिठाई जाती हैं. यह इस हिसाब से किया जाता है कि लोगों को पता भी नहीं चलता और पढ़ने लिखने वाले लोग मानसिक गुलामी के शिकार हो जाते हैं. इस संवाद और इसके द्वारा तय मापदंडों को ही एकमात्र सत्य मान लेते हैं. इस संवाद में हिंदू प्रतीकों की अवमानना ही श्रेष्ठता के लक्षण हैं. हिंदू प्रतीकों से घृणा करना ही बुद्धिमत्ता की निशानी बन गई है. चूंकि इस संवाद का चरित्र वामपंथी है तो इसमें वाद और प्रतिवाद का होना भी जरूरी है. इस संवाद ने भारत में अपने हिसाब से सेकुलरिजम, सोशलिजम, सोशल-जस्टिस, प्रगतिशीलता और आइडिया ऑफ इंडिया को परिभाषित किया और इसका वाहक बन गया. इसे कांग्रेस, वामपंथी पार्टियों और दूसरे क्षेत्रीय दलों का संरक्षण प्राप्त है. आजादी के बाद से ही इस संवाद का लालन-पालन राज्यसत्ता व सरकारों के द्वारा किया गया है.”
    पर वास्तिवकता यह नहीं है.आज भी भारत में ऐसे लोग मौजूद हैं,जिन्होंने औपचारिक शिक्षण भी लिया है,डिग्रियां भी हासिल की हैं,पर इन सबसे परेहैं.पर आप जैसा प्रतिक्रिया वादी यह नहीं समझ सकता.
    अगर मैं यह कहूँ कि भारत कभी सहिष्णु था हीं नहीं ,तो शायद यह गलत लगे,पर सत्य यही है.बदलाव केवल यही आया है कि आज यह असहिष्णुता बढ़ गयी है.उसका कारण यह है कि जो मुखर हैं या गलत काम कर रहे हैं,उनको या तो सरकार से बढ़ावा मिल रहा है या सरकार चुप है,अतः लोग भयानक रूप से डरे हुए हैं और यह डर आपातकाल के जमाने से भी ज्यादा है.मैं केवल अपने एक आलेख का अंश यहां उद्धृत करना चाहूँगा,” उसको यह नहीं समझ में आ रहा है कि क्या आज की परिस्थितियां आपातकाल से भी खराब है?इसका उत्तर बिना विवाद हाँ है.लोग डरे हुए हैं और उनको पता भी नहीं चल रहा है कि वे क्यों डरे हुए हैं?आपातकाल में भी लोग डरे हुए थे. हो सकता है इससे ज्यादा डरे हुए हों,पर उनको पता था कि वे क्यों डरे हुए हैं?उस समय उन्हें पता था कि उन्हें शासन से डरना चाहिए,क्योंकि वह किसी को भी बिना कारण पूछे जेल भेज सकता हैं,पर जिंदगी जाने का डर नहीं था. आज तो वातावरण यह है कि लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सुरक्षित है और कहाँ सुरक्षित है? कबतक सुरक्षित है?कहीं भी कभी भी किसी की हत्या हो सकती है और शासन उस पर कार्रवाई करेगा कि नहीं उसकी इच्छा पर निर्भर है.वह इसपर निर्भर है कि किसकी हत्या हुई है और हत्यारा कौन है? ज्वलंत प्रश्नों पर प्रधान मंत्री की चुप्पी वातावरण को और भयावह बना रही है.ऐसा कभी भी नहीं हुआ था,एक लेखक मार दिया जाता है,क्योंकि उसकी विचार धारा हमारे रास्ते का रोड़ा बन रही है.आगे एलान भी कर दिया जाता है कि उसी विचार धारा वाले दूसरे की भी हत्या कर दी जाएगी .आखिर विचार वैभिन्य से इतना डर क्यों?आखिर सबको भेड़ बनाने की यह योजना क्यों?एक मुसलमान की हत्या केवल अफवाह के कारण कर दी जाती है और उसको उचित सिद्ध करने की भी कोशिश की जाती है.दोनों घटनाएँ दो जगह घटती है,पर क्या ये दोनों व्यक्ति मात्र हैं क्या आम जनता के निरीहता के प्रतीक नहीं हैं.क्या आम आदमी ने अपने को कभी इतना निरीह महसूस किया था?मैंने आपातकाल देखी है .और उसका अपने ढंग से दूसरों के साथ कन्धा मिला कर विरोध भी किया था, क्योंकि मालूम था कि ज्यादा से ज्यादा क्या होगा और कौन उसको अंजाम देगा?,पर आज तो यह भी मालूम नहीं है कि अंत क्या होगा?यह अनिश्चितता वातावरण को और भयावह बना रही है.”
    क्या आप अब भी कहना चाहेंगे कि आमिर खान या उनके जैसे अन्य लोगों का डर नाजायज है.

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