मोदी को निर्दोष मानने के बाद

अवधेश कुमार

2 जी स्पेक्ट्रम पर संसद का गतिरोध, नीरा राडिया टेप, फिर वाराणसी विस्फोट, दिग्विजय सिंह के बयान… आदि घटनाओं के बीच जिस एक घटना पर आवश्यक चर्चा नही हो पा रही है वह है उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल (स्पेशल इन्वेस्टिगेटिंग टीम) की रिपोर्ट में नरेन्द्र मोदी को दंगा कराने के आरोप से मुक्त करना। वास्तव में यह अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। निस्संदेह, इससे उन लोगों की त्रासदी और पीड़ा कम नहीं होगी, जिनके परिजन उस बहशी क्रूरता का शिकार हो गए। किंतु यह अलग विचार करने का पहलू है। दंगों के बाद से मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को इसका सक्रिय अपराधी साबित करने की जो कोशिशें हुई उसके इस पहलू से लेना-देना नहीं। इस रिपोर्ट के बाद ऐसी कोशिशों पर विराम लग जाना चाहिए। गुजरात दंगा संबंधी मामले की कानूनी यात्राओं से देश वाकिफ है। बेस्ट बेकरी संबंधी जाहिरा शेख का मामला एक समय सबसे ज्यादा सुर्खियों मे रहा। नरौड़ा पाटिया, बिल्किस प्रकरण… ऐसे सभी मामलों में मोदी को अपराधी साबित करने की कोशिशें विफल हो गईं। विरोधियों की अपीलों का ही असर था कि उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई के पूर्व प्रमुख आर. के. राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल की नियुक्ति की और उसके कार्यो की मॉनिटरिंग की। इस दल ने ही मंत्रियों सहित कई नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर उन्हें जेल में डाला, स्वयं मोदी से कई घंटों तक पूछताछ की। अगर यह कह रहा है कि गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में मोदी या उनके कार्यालय की भूमिका का प्रमाण नहीं है तो इसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है।

किंतु कुछ लोग शायद ही इसे स्वीकार करें। 2002 का गुजरात दंगा केवल गुजरात नहीं, पूरे देश पर एक त्रासदपूर्ण कलंक है। यह हमारे देश की सांप्रदायिक एवं सामाजिक सद्भाव को धक्का पहुंचाने वाली ऐसी वारदात थी, जिसके अपराधियों को कतई बख्शा नहीं जाना चाहिए। किंतु अगर लक्ष्य दंगा पीड़ितों को वास्तविक न्याय एवं असली दोषियाेंं को सजा दिलवाने की जगह किसी एक व्यक्ति को खलनायक बनाना बन जाए, तो पूरा मामला गलत दिशा में मुड़ जाता है। सीट के गठन से अब तक के प्रवाह पर नजर दौड़ाएं तो साफ हो जाएगा कि उच्चतम न्यायालय या सीट भले सच सामने लाना चाहता था, पर जिनका लक्ष्य केवल मोदी थे, उनने हर अवसर को अपने अनुसार मोड़ने की कोशिश की। 11 मार्च को जब मोदी को सिट ने सम्मन जारी किया तो इसे ऐसे प्रचारित किया गया मानो अब वे जेल गए। मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र की मांग कर दी गई। मोदी के त्यागपत्र की मांग दंगों के समय से ही हो रही है। विरोधियों का सीधा आरोप है कि गोधरा रेल दहन के बाद का दंगा उनके एवं उनके सहयोगियों द्वारा प्रायोजित था। हालांकि सिट के प्रमुख आर. के. राघवन ने कहा था कि उनको सम्मन इसलिए जारी किया गया, क्योंकि अनेक गवाहों ने जो आरोप लगाए हैं उनका जवाब लिया जाए। किंतु इस पर ध्यान देना इनके उद्देश्यों में शामिल था ही नहीं। उच्चतम न्यायालय द्वारा 26 मार्च, 2008 को सिट का गठन हुआ और 27 अप्रैल, 2009 को इसे गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका की जांच का आदेश दिया गया। गुलबर्ग सोसायटी में मारे गए कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने उच्चतम न्याायलय में याचिका दायर की जिसमें उन्होंने अपने पति सहित 38 लोगों की हत्या के लिए मोदी सहित 62 लोगों को जिम्मेवार ठहराया था। बाद में गुलबर्ग सोसायटी में दंगों के बाद लापता 31 लोगों को भी मृत मानकर अहमदाबाद के न्यायालय ने मृतकों की संख्या 69 कर दिया। न्यायालय ने इसे भी सिट को सौंप दिया। वैसे सिट गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड की जांच हाथों पहले से कर रहा था। सिट को उच्चतम न्यायालय ने गोधरा रेल दहन सहित जिन नौ मामलों में आपराधिक छानबीन का आदेश दिया था उसमें गुलबर्ग सोसायटी भी शामिल था। उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद राघवन ने 26 मई, 2009 को बयान दिया था कि अब वे अधिकृत रुप से कह सकते हैं कि हमने उच्चतम न्यायालय की उस याचिका की जांच आरंभ कर दिया है जिनमें प्रमुख राजनेताओं पर आरोप लगाए गए हैं।

सिट ने कभी यह शिकायत नहीं की कि उसे जांच में सरकार से असहयोग मिला। 19 जनवरी, 2010 को उच्चतम न्यायालय ने गुजरात सरकार को यह आदेश दिया था कि उस दौरान मोदी के भाषणों की कॉपी सिट को उपलब्ध कराई जाए ताकि उन पर लोगों को भड़काने का जो आरोप है उसकी सत्यता जांची जा सके। साफ है कि सिट का निष्कर्ष केवल मोदी के जवाबों पर ही आधारित नहीं है, उस दौरान के सारे टेप एवं दस्तावेज उसने देखे, पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों से पूछताछ की, उनकी नोटिंग का पूर्ण अध्ययन किया। न सिट को मोदी का भाषण सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ाने वाला लगा न इसमें हिंसा एवं आगजनी को प्रोत्साहित करने का अंश था। उच्चतम न्यायालय के निर्देश एवं देखरेख में काम करने के कारण इस पर पक्षपात का आरोप लगाना उचित नहीं। किंतु ऐसा भी हुआ। मोदी से पूछताछ के बाद राघवन का बयान था कि पूछताछ करने वाले संतुष्ट हैं किंतु यदि साक्ष्यों को समझने के बाद आवश्यक लगेगा तो फिर उन्हें बुलाया जाएगा। विरोधियों ने प्रश्न उठाया कि राघवन ने क्यों पूछताछ की अध्यक्षता नहीं की? राघवन ने इसे आवश्यक नहीं माना। विरोधी पूछ रहे थे कि मोदी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं हुई? ये भूल गए कि अगर प्राथमिकी दर्ज करना अपरिहार्य होता तो उच्चतम न्यायालय स्वयं इसका आदेश देता। न्यायालय ने ही नानावती आयोग से पूछा कि मोदी से पूछताछ क्यों नहीं की गई? विरोधियों ने सिट की कार्यशैली पर जिस प्रकार प्रश्न उठाना आरंभ किया वह भी दुर्भाग्यपूर्ण था।

दंगों में गुजरात प्रशासन की विफलता को कतई अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उस दौरान मुख्यमंत्री होने के नाते मोदी दोषी थे, इसे भी स्वीकारा जा सकता है। उनके मंत्रियों एवं विधायकों की गिरतारी भी सरकार की भूमिका को संदेह के दायरे में लातीं हैं। हालांकि गुजरात में दंगाेंं का पुराना इतिहास है, पर कई भयावह घटनाएं रोकी जा सकतीं थीं, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन मोदी ने बिल्कुल योजनाबध्द तरीके से एक संप्रदाय विशेष के खिलाफ लोगों को भड़काया, उनके खिलाफ हिंसा को हर तरह से सहयोग दिया, प्रोत्साहित किया, इसके प्रमाण नहीं मिलते। यही सिट ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है। जहां तक गुलबर्ग सोसायटी का प्रश्न है तो नानावती आयोग के सामने तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त एम. के. टंडन ने कहा कि वहां पुलिस बल कायम थी, एवं भीड़ को रोकने के लिए गोली भी चलाई, लेकिन उस पर भी हमला किया गया। टंडन के अनुसार सोसायटी के अंदर से फायरिंग होने के बाद भीड़ हिंसक हो गई। यह पूछने पर कि क्या एहसान जाफरी का कोई फोन उनके पास आया था टंडन ने कहा कि उनके पास पुलिस नियंत्रण कक्ष से संदेश आया था कि पूर्व कांग्रेसी सांसद किसी सुरक्षित जगह जाना चाहते हैं। तो आप गुलबर्ग सोसायटी क्यों नहीं गए? इस पर टंडन का जवाब था कि वे उससे ज्यादा संवेदनशील दरियापुर क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर गए थे एवं वहां दो पुलिस उपाधीक्षक एवं केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की एक कंपनी को भेज दिया। दूसरे पुलिस अधिकारियों की गवाही में भी ऐसी ही बाते हैं। इसका निष्कर्ष हम कुछ भी निकाल सकते हैं, पर कहीं से यह साबित नहीं होता कि मोदी ने किसी पुलिस अधिकारी को गुलबर्ग सोसायटी से दूर रहने को कहा था। बहरहाल, सिट की रिपोर्ट के बाद असली न्याय दिलाने की बजाय एक व्यक्ति को निशाना बनाने का यह सिलसिला बंद होना चाहिए। सिट के दायरे में गोधरा रेल दहन से लेकर दंगों के सभी प्रमुख कांड थे एवं उच्चतम न्यायालय की निगरानी थी। मौजूदा ढांचे में इससे समग्र और विश्वसनीय जांच कुछ नहीं हो सकती। हां, सरकार को यह कोशिश अवश्य जारी रखनी चाहिए ताकि पीड़ित यह न समझें कि उनके साथ दंगों के दौरान हिंसा भी अन्याय हुआ और यह आज तक जारी है। उन्हें महसूस हो कि उनकी पीठ पर सरकार एवं प्रशासन का हाथ है। साथ ही मनुष्यता को शर्मशार करने वाली वैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो इसका भी ध्यान रहना चाहिए। किंतु केवल मोदी को निशाना बनाकर सेक्यूलरवाद का हीरो बने रहने की चाहत वाले अपना रवैया नहीं बदलेंगे तो घाव कभी सूख नहीं पाएंगे।

2 COMMENTS

  1. अरब के क्सिसी रेगिस्तान से शरु हुवा भस्मासुर अब खुद को निगलने लगा है ………………हर कोई खुद को ज्यादा “इमानवाला” बता कर दुसरे को मारने को उद्यत है ……………….अत दोहा पूरा का पूरा फिट बैठता है………..

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