अकेले कानून के दम पर नहीं मिट पायेगा बाल विवाह का दंश

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जग मोहन ठाकन

bal vivah

-अक्षय तृतीया पर विशेष लेख-

बैसाखी का रंग उफान पर है, होली का रंग अभी पूरी तरह से धुला नहीं है । किसान अपनी पकी फसल को बाज़ार में लाकर उल्लास से परिपूर्ण है और किसान के लिए यही समय है अपने दायित्वों से निपटने व ख़ुशी मनाने का। परन्तु कितनी विडम्बना की बात है कि जो किसान अपनी बिना पकी फसल को किसी भी कीमत पर काटने को तैयार नहीं होता, वहीं किसान अपनी स्वयं की उपज यानि संतान को परिपक्व होने से पूर्व ही विवाह के बंधन में बाधने को तैयार हो जाता है। हर वर्ष विशेष अबूझ साहों (निर्विवाद विवाह दिवसों) यथा अक्षय तृतीया, सिली सप्तमी, धुलेहंडी तथा रामनवमी पर हज़ारों अबोध बालक बालिकाओं को उस समय परिणय सूत्र में बांध दिया जाता है जब उन्हें विवाह का अर्थ तक नहीं पता होता। ऐसे अबोध दम्पति कम आयु में प्रजनन के कारण रक्ताल्पत्ता व अन्य संबधित बीमारियों की चपेट में आकर अपने जीवन को अन्धकारमय बना डालते हैं । हालाँकि भारत में लड़की व लड़के के विवाह योग्य आयु तथा उसके उल्लंघन पर कानून का पहरा है, परन्तु अभी भी वास्तविक स्थिति कानून के अनुसार नहीं बन पाई  है। गत एनुवल हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण राजस्थान में एक चौथाई लड़कियां निर्धारित अठारह वर्ष की आयु से पहले ही विवाह के फेरों में डाल दी जाती हैं।

अब प्रश्न उठता है कि क्या केवल कानूनी सख्ती से इन बाल विवाहों को रोक पाना संभव है ? यदि समाज के पिछले प्रवाह पर दृष्टिपात किया जाए तो इसका उत्तर ना और केवल ना में ही प्रकट होता है। भारतीय समाज की परम्परागत सोच तथा बदलाव के प्रति उदासीनता किसी भी कुरीति को जड़ से उखाड़ फेंकने में बाधक बन उसके पोषण में ज्यादा सहायक है। वैसे तो समाज परिस्थितियों के अनुसार अपने आप को ढालने के लिए ही कुछ रीति रिवाजों का निर्माण करता है, परन्तु काल के आगामी खंड में इनकी सार्थकता नहीं होते हुए भी ये प्रचलन में रह जाती हैं। भारतीय समाज में आर्यकाल में न तो औरतों में पर्दा प्रथा थी तथा न ही बाल विवाह। परन्तु मुग़लकाल में जब तत्कालीन शासकों व उनके कारिंदों की सुन्दर लड़कियों पर कुनजर पड़ने लगी तो इज्जत के बचाव के लिए हिन्दू समाज ने बाल विवाह व पर्दा प्रथा को ढाल के रूप में ओढ़ लिया। तत्कालीन समाज की ये आवश्यकता आज आधुनिक समाज में कुरीतियाँ बनकर समाज के विकास में बाधक बन गई हैं ।

कानून की विवशता समाज में जगह जगह स्पष्ट दिखाई देती है ।

सार्वजनिक स्थलों पर धुम्रपान निषेध कानून की किस तरह आये दिन धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, यह एक खुली किताब है। क्या कानून धुम्रपान को रोक पाने में सफल हुआ है या हो पायेगा ? क्या १९७५-७६ में आपातकाल के समय में परिवार नियोजन हेतु की गयी सरकारी जबरदस्ती कोई परिणाम दे सकी ? उस समय प्रतिक्रिया स्वरुप उछले नारे “संजय शुक्ला, बंसी लाल ; नसबंदी के तीन दलाल” ने १९७७ के आम चुनावों में तत्कालीन कांग्रेस सरकार की ही नसबंदी कर दी थी । क्या १९९५ के बाद से पंचायत चुनावों में दो से अधिक बच्चों के माता-पिता पर चुनाव  न लड़ सकने की पाबन्दी बच्चे कम पैदा करने हेतु जन मानस को बाध्य कर सकी ? क्या रिश्वत लेने – देने व दहेज़ मांगने के कुकृत्यों को कानूनी सख्ती रोक पाई है ?

यदि उपरोक्त प्रश्नों पर गौर करें तो हम यह तो नहीं कह सकते कि कानून हर कदम पर असफल रहा है व इसकी कोई भूमिका ही नहीं है । परन्तु इतना अवश्य है कि सामाजिक बुराइयों को रोक पाने में कानून तब तक पूर्ण सफल नहीं हो सकता, जब तक आम आदमी इस हेतु जागरूक व शिक्षित न हो। १९९५-९६ में हरियाणा में बंसी लाल जैसे सख्त मुख्यमंत्री द्वारा लागू की गयी शराब बंदी एक अच्छे उद्देश्य को लेकर प्राम्भ की गई थी, परन्तु लोगों का सहयोग न मिल पाने के कारण पूरी योजना ही टांय-टांय फिस्स हो गई और शराब तस्करी के रूप में एक ऐसी युवा पीढ़ी का सृजन हो गया जो अपराध जगत में सुर्ख़ियों में नाम पाने लगे।

अब समाधान स्वरूप मुद्दा उठता है कि जनमानस को कुरीतियों से छुटकारा दिलाने हेतु कैसे जागृत किया जाए ? कुछ तो परिस्थितियां समय के अनुसार बदलती रहती हैं और समाज अवांछित कुरीतियों को स्वतः ही छोड़ता चला जाता है । हालांकि परिवार नियोजन हेतु सरकार ने भी पूरा प्रचार प्रसार व सुविधाएं उपलब्ध करवाई हैं ,परन्तु शिक्षा के प्रसार के कारण शिक्षित दम्पतियों ने छोटे परिवार के फायदे को समझा और कम संतान पैदा कर उन्हें समुचित शिक्षा व सुविधाजनक लालन पोषण प्रदान कर समाज के अन्य लोगों के सामने भी एक मशाल का कार्य किया। आज भौतिक युग में आगे बढ़ने व सभी सुख सुविधा पाने की ललक में लोगों ने समझा कि बड़े परिवार में बच्चों को आगे बढ़ने के अवसर सीमित रहते हैं अतः “छोटा परिवार-सुख का आधार” मानकर आम आदमी ने इसे स्वीकार करना ही श्रेयष्कर समझा। और आज स्थिति यह है कि जो व्यक्ति ४० वर्ष पहले नसबंदी के नाम पर खेतों में छुप जाते थे वही आज अपने बच्चों को परिवार नियोजन हेतु स्वयं प्रोत्साहित करते हैं।

बाल विवाह मुख्यतः पिछड़े व अशिक्षित समाज में ही अधिक देखने को मिलते हैं । जिन परिवारों में शिक्षा का प्रसार हुआ है तथा लड़कियों को समुचित शिक्षा दी गई है वहां लड़कियां स्वयं ही बाल विवाह के विरोध में आ खड़ी हुई हैं और ऐसे परिवारों में बाल विवाहों की संख्या नाम मात्र को ही रह गई है। अतः शिक्षा  की बाल विवाह जैसी कुरीति को मिटाने में मुख्य भूमिका है।

समाज पर धार्मिक नेताओं का बहुत भारी असर होता है । गुरुओं द्वारा दी गयी सीख के कारण ही आज सिख समाज धुम्रपान से बचा हुआ है । राधास्वामी पंथ ने कितने ही समर्थकों को शराब सेवन जैसी बुराई से छुड़ाया है । स्वामी राम देव के कारण योग के प्रति जनमानस में रूचि बढ़ी है । जातिगत पंचायतों का भी अपने क्षेत्र व सदस्यों में प्रभाव होता है। यदि ये सभी सामाजिक बुराइयों के विरोध में प्रचार करें और लोगों को जागरूक करें तो बहुत सी कुरीतियाँ जड़ से उखाड़ी जा सकती हैं। गैर सरकारी संस्थाओं को भी और ज्यादा आगे आना होगा ताकि समाज को डसने वाली व प्रगति में बाधक बुराइयों को दूर कर समाज को गर्त में जाने से रोका जा सके।

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