प्रमोद भार्गव
श्रावकों, कलश में भरे इस अमृत को अगर आप अलौकिक पेय द्रव्य न मानकर चलें, तो आपको इस पदार्थ को समझने में ज्यादा आसानी होगी। हम सभी सुनते-पढ़ते चले आ रहे हैं कि वैदिक देवता सोमरस पीते थे। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसे सोमलता नामक वनस्पति से बनाने का उल्लेख है। इसलिए सोमलता और उससे निर्मित पेय को इस पृथ्वी की वस्तु मानने की जरूरत है। सच्चाई तो यह है कि सोमलता धरती पर ही पैदा होने वाली अन्य लताओं की तरह एक बेल थी, जिसके वर्तमान में भी उपलब्ध होने के दावे किए जाते रहे हैं। प्राचीन काल में सोमलता को कूट कर उसका रस निकाला जाता था। इस रस की गुणवत्ता बढ़ाने और इसे स्वादिष्ट बनाने के लिए, इसमें कुछ और मेवों, मिष्ठानों व पेयों का मिश्रण किया जाता था।
ऋग्वेद में कुल 1028 सूक्त हैं। इनमें से 122 सूक्त सोम के लिए समर्पित हैं। ऋग्वेद में सोम रस बनाने की विधि, उपकरण और उसके पान के तरीकों का भी उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट होता है कि धन्वन्तरि जो अमृत लेकर देव-दानवों के स्वागत के लिए उपस्थित हुए, वह अमृत कुछ और नहीं, बल्कि यही सोम रस था। गोया, धन्वन्तरि वैद्य और अमृत से जुड़ी जो भी घटनाएं हैं, वे भी इसी पृथ्वी पर घटित हुईं थीं। घटना स्थल क्षीर सागर के उस पार, अर्थात ईरान-पर्शिया का क्षेत्र था। दरअसल देव-दानव समुद्र पार करते हुए मध्य एशियाई देशों में पहुंचे थे। उन्हें यहीं धन्वन्तरि मिले, यहीं मिला अमृतरूपी वह सोमरस जो मनुष्य को बलवान, बुद्धिवर्धक, निरोगी और दीर्घजीवी बनाता था।
श्रावकों आप भली-भांति जानते हैं कि हमारा शरीर को पोषण का एक हिस्सा वनस्पतियों से प्राप्त करता है। विविध प्रकार की वनस्पतियां शरीर के भिन्न-भिन्न अंग-उपांगों तथा अवयवों को शक्ति और ऊर्जा प्रदान करती हैं। रुधिर की शुद्धि और वृद्धि वनस्पतियों से ही होती है। कुछ जड़ी-बुटियां हृदय के लिए लाभदायी हैं तो कुछ गुर्दे, यकृत व फेफड़ो के लिए। इसी क्रम में सोमलता बुद्धि तथा पौरुषवर्धक है।
अमृत रूपी सोमरस का अविष्कार धन्वतरि ने कब किया या किस ज्ञान परंपरा से किया, यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन धन्वन्तरि से संपर्क व संवाद के बाद देव व दानवों ने पाया कि ऐसी अनेक वनस्पतियां ईरान व पर्शिया क्षेत्र में विद्यमान थीं, जो अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु के कारण उत्तरी भारत में पैदा नहीं होती थीं। इनमें से ही एक सोमलता थी। इसमें उम्र बढ़ाने के साथ असरकारी रोग-निवारक गुण भी थे। शरीर में अपूर्व और अपार शक्ति के गुणों के कारण देव व दानव इसके इतने प्रशंसक एवं भोगी हो गए कि सोमरस की यज्ञों में आहुति तक दी जाने लगी।
हालांकि ताजा शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि ईरान में जरथुस्त्र के प्रादुर्भाव के बहुत पहले से ही सोम की आहुति अग्नि में दी जाती थी। इसे ‘होम‘ कहते थे। जरथुस्त्र का जन्म ईसा से सात सदी पहले माना जाता है।‘ अवेस्ता में इसका उल्लेख मिलता है।
अलबत्ता ऋग्वेद में मिलने वाले सोम वर्णनों के आधार पर यह सुनिष्चित होता है कि वेद-संहिताओं की रचना होने से बहुत पहले भारत भूखंड में सोमरस का प्रयोग होता चला आ रहा था। ऋग्वेद में सोमरस की प्रक्रिया का वर्णन इतना विषद और स्पष्ट है कि उन मंत्रों की रचना के समय तक निश्चय ही सोम-प्रथा ने एक परंपरा का रूप ले लिया था। जहां तक अग्नि में सोम की आहुति देने का सवाल है, तो मैं बता दूं, इस प्रथा का आरंभ भारत में मुजवंत अथवा मुंजवंत पर्वत पर हुआ था। अब भारत के नक्षे पर यदि आप इस पर्वत को ढूढेंगे तो नहीं मिलेगा, क्योंकि भारत विभाजन के बाद अब यह पंजाब के उत्तरी भाग अर्थात पाकिस्तान में स्थित है। यहीं से सोमरस का प्रचलन पूरे भारत में फैला था।
ऋग्वेद में एक से लेकर 28 सूक्तों में सोमरस बनाने की पद्धति का विस्तार से वर्णन है।
यत्र ग्रावा पृथुबुघ्न, ऊघ्र्वो भवति सोतवे।
उलूखलसुतानाम वेद्विन्द्र जल्गुलः।
अर्थात, हे इन्द्र ! जहां सोमरस चुआने के लिए बड़े मूल वाला पत्थर उठाया जाता है, वहां ओखल से निचोड़े गए सोमरस का पान करो।
ऋग्वेद में दिए सोमरस तैयार करने की विधि के अनुसार घने वनों में नैसर्गिक रूप से उगने वाली लता को काट कर सोम निर्माण स्थल पर लाया जाता था। जिस प्रकार के रस की आवष्यकता होती थी, उसी के अनुसार लता का आगे अथवा पीछे का भाग पत्तों व षाखाओं समेत लिया जाता था। इसे शुद्ध जल में धोकर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाता था। इन्हें ‘अंशु‘ कहते थे। इन टुकड़ों को पत्थरों से निर्मित विशाल उलूखलों अर्थात ओखलियों में डालकर पत्थर के ही मूसलों से कूटा जाता था। कूटकर इसे गाढ़ी लुगदी या चटनी में बदल दिया जाता था। इस चटनी को ऊन या मलमल के कपड़े में डालकर निचोड़ा जाता था। निचोड़ने के बाद जो बहुत थोड़ा रस निकलता था, उसे ‘पवमान‘ या ‘पुनान‘ कहते थे। इसका अर्थ ‘स्वच्छ द्रव‘ होता है। द्रव को एक छोटे बर्तन में रख दिया जाता था। इस बर्तन को ‘पात्र‘ कहते थे। इसमें पवमान की 90 से लेकर 100 बूंदें ही आती थीं। इसे उपयोग की दृष्टि से वगीकृत करते हुए ‘शुक्र‘ अथवा ‘शुचि‘ कहा गया है। यही शुक्र दरअसल यथार्थ में सोमरस या अमृत है। तीक्ष्ण स्वाद के कारण इसका इसी रूप में सेवन संभव नहीं है। इसलिए इसे शुद्ध जल, दूध, दही अथवा जौ या चावल के माढ़ के साथ पीने की विधि का वर्णन है। जब इसे उक्त द्रव्यों में से किसी एक में मिश्रित कर लिया जाता था, तब इसका नामाकरण ‘आशिर‘ किया गया है और इसे कलश जैसे जिस पात्र में रखा जाता है, उसे ‘द्रोण‘ कहा गया है। संपूर्ण वैदिक साहित्य में ‘सोमरस‘ षब्द का उपयोग ‘पेय-रस‘ के रूप में हुआ है। इसीलिए ऋग्वेद में कहा भी गया है,
‘यत्र द्राविव जघानाधिशवण्या कृता।
उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गूलः।
अर्थात हे इन्द्र ! जहां से सोम कूटने के दो फलक दो जंघाओं की तरह रखे होते हैं, वहां जाकर उलूखलों से निचोड़े गए सोमरस का पान करो।
दरअसल ऋग्वेद में सोमरस की उपयोगिता और उसके शरीर पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभावों की महिमा का वर्णन इतने गुणात्मक ढंग से किया गया है कि इसे सांसरिक लोग दिव्य अथवा अलौकिक वस्तु मान बैठने के भ्रम में हैं। दरअसल वेदों में उल्लेख है कि इन्द्र महादानव वृत्र का नाश करने में सफल, सोमरस पान के कारण ही हुए थे। इसलिए भी लोगों ने इसे एक ऐसा पेय मान लिया है, जिससे जीवन नश्ट नहीं होता। इस अमृतपान से मनुष्य अक्षुण बना रहता है। लेेकिन हम जानते हैं, जिन भी देव और दानवों ने समुद्र-मंथन के बाद अमृत पान किया, उनमें से आज एक भी इस धरा पर जीवित दिखाई नहीं देता है। इंद्र जैसे देव जहां सोम का सेवन वीर्यवृद्धि, कामशक्ति और स्फूर्ति बनाए रखने के लिए करते थे, वहीं ऋषि-मुनि इसका सेवन बुद्धि व चेतना के विकास के लिए करते थे। दीर्घायु के लिए भी सोम का सेवन होता रहा हैं।
प्रमोद भार्गव