मनोज कुमार
नव-भारत के निर्माण की बात चल पड़ी है और इस दिशा में सकरात्मक प्रयास भी आरंभ हैै। यह पहल एक समय के बाद अपना आकार लेगी लेकिन इस महादेश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग निवास करते हैं जिन तक विकास की रोशनी भी नहीं पहुंच पाती हैै। सौ साल पहले भी वे विकास से वंचित थे और आज भी उनकी हालत में बहुत सुधार प्रतिबिम्बित नहीं होता हैै। समाज के इस अंतिमजन की हितचिंतक के रूप में भारत वर्ष के महान समाजसेवी पंडित दीनदयाल ने जो प्रयास किया था, आज समाज उसका अनुकरण कर रहा हैै। यह सच है कि अंतिमजन की चिंता जिस तरह महात्मा गांधी किया करते थे, कमोवेश उस दौर के सारे लोगों ने किया। यही कारण है कि आहिस्ता आहिस्ता बदलाव दिख रहा हैै। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन सर्वकालिक और सामयिक हैै। यही कारण है कि अंतिमजन की चिंता को समाज ने बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा और उसे अपनाने की कोशिश की। विकास का पैमाना जो भी हो लेकिन सबको साथ लेकर नहीं चला गया तो विकास के सारे पैमाने बेमानी हो जाते हैंै। पंडित दीनदयाल की प्रेरणा से ही वर्तमान मोदी सरकार ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात कही हैै। आज पंडितजी के जन्मदिन के अवसर पर जब हम उनका स्मरण करते हैं तो एक संत के रूप में उनकी छवि हमारे मन के भीतर समा जाती हैै। ऐसा संत जिसने स्वयं के पुरुषार्थ से, बचपन के संकट और भविष्य की चुनौती को अवसर में बदल कर लोगों को जीने का रास्ता दिखाया।
भारत वर्ष में जितने महापुरुषों ने जन्म लिया उनमें एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। एक सच्चे राष्ट्रवादी के रूप में समाज उन्हें याद करता हैै। राजनीति में उच्च से उच्चतर पद पाने के अनेक अवसर उनके समक्ष थे लेकिन उन्होंने हमेशा अपने को एक राष्ट्र सेवक के रूप में ही स्थापित किया। उन्होंने भारत के लिये चिंता की और कहा कि भारत की सांस्कृतिक विविधता ही उसकी असली ताकत है और इसी के बूते पर वह एक दिन विश्व मंच पर अगुवा राष्ट्र बन सकेगा। दशकों पहले उनके द्वारा स्थापित यह विचार आज मूर्तरूप ले रहा हैै।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बाल्यकाल बेहद कष्टों में गुजरा। बहुत छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया था। अपने प्रयासों से उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हासिल की। वे चाहते थे कि समाज में शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार हो ताकि लोग अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो सकें। उन्हें इस बात का रंज रहता था कि समाज में लोग अधिकारों के प्रति तो चौंकन्ने हैं लेकिन कर्तव्य पूर्ति की भावना नगण्य हैंै। उनका मानना था कि कर्तव्यपूर्ति के साथ ही अधिकार स्वयं ही मिल जाता हैै। उन्होंने अपने जीवनकाल में एकात्म मानववाद का जो सिद्वांत प्रतिपादित किया, वह आज भी सामयिक बना हुआ हैै।
एकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण। उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक हैै। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती हैै। जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुंच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता हैै। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैै। सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता हैै। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं.दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होंने कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती हैै। इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता हैै। संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बंधन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति हैै। इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया हैै। जब हम कहते हैं कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही हैै। उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति से होगी।
पूरी दुनिया के साथ आज भारत वर्ष में भी बदलाव दिख रहा हैै। युवाओं के भीतर राष्ट्र को लेकर भाव जागा हैै। यह सच है कि पूरी दुनिया में जहां भी परिवर्तन हुआ है, युवावर्ग ने ही किया हैै। इस युवा सोच पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय की छाप अलग से दिखती हैै। उनके द्वारा बताये गए रास्ते आज उनके हमारे बीच नहीं होने के बाद भी पथप्रदर्शक के रूप में हमें राह दिखा रहा हैै। यह रास्ता कई कई मोड़ से चलते हुए उस नए भारत की तरफ ले चलता है जिसकी कल्पना पंडित उपाध्याय के साथ भारतीयता के महामनाओं ने की थी। समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता हैै। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे। इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक व पत्रकार आदि जैसी प्रतिभाएं छुपी थीं। उन्होंने ‘चंद्रगुप्त नाटक’ लिख डाला था। वे मानते थे कि समाज तक सूचना पहुंचाने और उन्हें जागरूक बनाने के लिये पत्रकारिता से अलग और श्रेष्ठ माध्यम कुछ भी नहीं हैै। इसी सोच के साथ उन्होंने लखनऊ में राष्ट्रधर्म नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ (साप्ताहिक) तथा ‘स्वदेश’ (दैनिक) की शुरुआत की। पंडितजी ने अपने जीवन में जो सुशासन का रास्ता बताया था और अंतिम जन की चिंता करते थे, आज वह समय आ गया है कि हम उनके बताये रास्ते पर चलें और उनके सपनों को साकार करें। आज जरूरत है कि हम उनके बताये रास्ते पर चलें और भारत की सांस्कृतिक विविधता को विस्तार देकर एक नये भारत का निर्माण करें।