‘क्या हम मनुष्य हैं?’

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-मनमोहन कुमार आर्य-
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मनुष्य कौन है, कौन नहीं? मनुष्य किसे कहते हैं व मनुष्य की परिभाषा क्या हैं? हम समझते हैं कि यदि सभी मत-मतान्तरों के व्यक्तियों से इसकी परिभाषा बताने को कहा जाये तो सब अपनी-अपनी अलग परिभाषा करेंगे। वह सब ठीक भी हो सकती हैं परन्तु हम अनुभव करते हैं कि सर्वांगपूर्ण परिभाषा वह नहीं दे सकेंगे। परन्तु जब हम अन्य मत व देशवासियों द्वारा दी जाने वाली सभी सम्भावित मनुष्य की परिभाषाओं पर विचार कर महर्षि दयानन्द की परिभाषा पर विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि महर्षि दयानन्द की परिभाषा सबसे भिन्न व सर्वांगपूर्ण परिभाषा है। आईये, देखते हैं कि महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की क्या परिभाषा की है? महर्षि दयानन्द स्वमन्तव्यामन्तव्य में मनुष्य की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख व हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से डरता रहे। इतना ही नहीं, किन्तु अपने सर्वसामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वह महा अनाथ, निर्बल और गुण रहित क्यों न हों उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे।’

इसी क्रम में महर्षि दयानन्द ने भृतहरि महाराज, महाभारत एवं उपनिषद् आदि के कुछ प्रसिद्ध ष्लोक व वाक्य लिखे हैं जो सभी अत्यन्त महत्वपूर्ण, उपयोगी एवं आचरणीय हैं। मनुष्य की यह परिभाषा महर्षि दयानन्द, वैदिक काल व महाभारत काल के अनेक ऋषियों पर सत्य चरितार्थ होती है। देश की आजादी के लिए साम्राज्यवादी अंग्रेजों के विरूद्ध क्रान्ति की गतिविधियों से जुड़ें अनेक व सभी क्रान्तिकारियों पर भी इस परिभाषा का प्रभाव देखा जा सकता है। आईये, हम महर्षि दयानन्द की परिभाषा पर विचार करते हैं।

पहले हम महर्षि दयानन्द की परिभाषा की पहली पंक्ति के शब्दों को लेते हैं। महर्षि लिखते हैं कि ‘मनुष्य’ उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् दूसरों के सुख-दुःख व हानि-लाभ को समझे। महर्षि के इन शब्दों का विशेष महत्व है। महर्षि ने देखा था कि हम लोग प्रायः मननशील वा मनस्वी नहीं थे। आज भी धर्म-कर्म के क्षेत्र में यही स्थिति जारी है। हमें अर्थात प्रत्येक व्यक्ति वा मनुष्य को मननशील होकर सत्यासत्य का निर्णय करने की क्षमता से युक्त होना चाहिये, यही मननशील होने का मुख्य प्रयोजन है जिससे कोई हमारा शोषण न कर सके या हम किसी का अन्धभक्त न बन सकें। ईश्वर से हमें बुद्धि व मन इसलिए मिला है कि हम सत्य व असत्य को जानें, सत्य को स्वीकार करें व असत्य का त्याग करें। यदि हमारे अन्दर यह गुण आ जाये तो हमारे व्यक्तित्व व चरित्र का सकारात्मक निर्माण व उन्नति होती है और इसके विपरीत यदि हम किसी गुरू, धार्मिक या राजनैतिक, के अन्धानुयायी हो जाते हैं तो हमारा नैतिक वा चारित्रिक पतन होता है। मनन का अर्थ एक-एक करके सभी उपयोगी विषयों का चिन्तन करना होता है। इसके लिए स्वाध्याय भी सहायक है और किसी विषय के विशेषज्ञ से वार्तालाप या उपदेश श्रवण भी उपयोगी होता है। हम समझते हैं कि महाभारत काल से लेकर सन् 1875 तक, देश व विश्व के लोगों का दुर्भाग्य था कि उनके पास सत्यार्थ प्रकाश जैसा कोई ग्रन्थ नहीं था। सन् 1875 में सत्यार्थ प्रकाश अस्तित्व में आया और तब से जिन लोगों ने इसका अध्ययन किया व इसे अपने जीवन का अंग बनाया, उनके जीवन व कार्य में एक नवीनता, विशेषता व अन्यों से गुण-कर्म-स्वभाव में भिन्नता व अन्तर दिखाई दिया। हमारा निजी मत है कि महर्षि दयानन्द ने जो सन्ध्या व यज्ञ की विधि लिखी है व अपने ग्रन्थों में इन यज्ञों पर प्रकाश डाला है, जो लोग इन्हें जानते व समझते हैं व इसको दैनन्दिन व समय-समय पर करते-कराते रहते हैं उनके जीवन अन्य अपने निकटस्थों, परिवार व समाज से कुछ अन्तर लिये हुए होते हैं। ऐसे लोगों का वर्तमान जीवन भी अच्छा व्यतीत होता है और इसके बाद के जीवन में भी उनका पुनर्जन्म संवरता व उन्नत होता हे।

महर्षि दयानन्द के समय में हमारे भारत के लोग दूसरों के सुख-दुःख व हानि लाभ को स्व-आत्मवत् नहीं समझते थे। बहुत से लोगों को अपना हित व स्वार्थ ही प्यारा होता है। वह अपने स्वार्थ व हित से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। वह यह विचार नहीं करते कि उनके कार्यों से दूसरों के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है या पड़़ सकता है। इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं होती। उन लोगों को तो यह भी विदित नहीं होता कि वह गलती पर हैं। वह अपनी अज्ञानता के वशीभूत होकर अपनी हित साधना व स्वार्थ सिद्धि के कार्यों में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों से जहां एक ओर कुछ व कई लोगों का अहित होता है व उनके स्वार्थों को हानि पहुंचती हैं, वहीं दूसरी ओर इस मनुष्य के स्वभाव मनुष्यता के दर्शन न होकर उनमें पशुता के दर्शन होते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने साहित्य में लिखा है कि जो मनुष्य केवल अपने ही स्वार्थ में प्रवृत होता है व दूसरों के हितों की अनदेखी करता है, मानो वह पशुओं का भी बड़ा भाई है। पशुओं का अपना एक स्वभाव होता है। कुछ पूर्ण शाकाहारी हैं तो कुछ पूर्ण मांसाहारी। इनमें एक ही जाति के पशुओं के स्वभाव में कुछ भिन्नता वाले पशु होते हैं। पशु तो पशु हैं, इनमें बुद्धि नहीं हैं। मनुष्य को परमात्मा ने बुद्धि दी है जिससे वह मननशील होता है अर्थात चिन्तन व मनन करता है या कर सकता है। यदि वह ऐसा नहीं करता व एकतरफा अपनी स्वार्थ सिद्धि में ही लगा रहता है तो मननशील न होने के कारण वह पशु श्रेणी में आता है। स्व-आत्मवत् अन्य प्राणियों के सुख-दुःख व हानि-लाभ को समझना धर्म है और उसके विपरीत आचरण अधर्म है। दूसरों के प्रति सहानुभूति व संवेदना का व्यवहार करना ही स्वात्मवत् व्यवहार है। अतः मननषील होकर विवेक बुद्धि से स्व-आत्मवत् स्वभाव व कर्मों का करना ही मनुष्य का स्वात्मवत् एक गुण व धर्म है। हम सभी को इसे जानकर व आचरण में धारण कर अपने जीवन को सफल बनाना है।

मनुष्य होने की एक कसौटी उसका अन्यायकारी बलवान से न डरना और धर्मात्मा निर्बल से भी डरना महर्षि दयानन्द बताते हैं। अन्याय करना अधर्म का प्रतीक है और न्याय धर्म का प्रतीक होता है। न्याय व अन्याय का बोध सत्यार्थ प्रकाशदि ग्रन्थ, न्याय दर्शन व समस्त वैदिक साहित्य को पढ़ने से होता है। वैदिक विद्वानों की शरण में जाने व उनके उपदेशामृत से भी न्याय व अन्याय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। न्याय व धर्म एक दूसरे के पूरक वा पर्याय हैं व इसी प्रकार अन्याय व अधर्म भी एक दूसरे के पूरक वा पर्याय हैं। अन्यायकारी बलवान से न डरने का मतलब है कि अपने प्राणों की चिन्ता छोड़ अन्यायकारियों से धर्मात्माओं की रक्षा करना, उन्हें अज्ञान, अन्याय व शोषण आदि से मुक्त करना व कराना है। अन्यायकारी प्रायः असत्य का आचरण करते हैं व मनुष्य वह है जो अन्याय का त्याग कर न्याय, पक्षपातरहित होकर आचरण करें। यही सत्याचरण व धर्म होता है। आज समाज में सर्वत्र अन्याय, अत्याचार, पक्षपात, स्वार्थ, शोषण व अज्ञानता व्याप्त है। एक बहुत बड़ी चुनौती आज मननषील व विवेकशील मनुष्यों पर है कि वह व्यवस्था में सुधार करें। स्वामी दयानन्द ने अपने समय की व्यवस्था में जो-जो असत्य व बुराइयां देखी थी, उनका निर्भीकता से दिग्दर्शन कराया था और असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन किया था।

आज भी आवश्यकता है कि हम असत्य से समझौता करने व मौन रहने की अपेक्षा उसका प्रकाश व प्रचार करें और मन, वाणी, वचन व कर्म, लेखनी व उपदेश आदि से जो भी बन बड़े उसे निर्भिकता से करना चाहिये। ऐसा करना ही अज्ञान, अन्याय, अभाव, स्वार्थ व शोषण से मुक्त समाज का आधार हो सकता है। महर्षि दयानन्द ने धर्मात्माओं से डरने की जो बात कही है उसके पीछे यह कारण अनुभव होता है कि धर्मात्माओं में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान व बल छुपा होता है। यदि हम डरेंगे तो उनके निकट होकर उनकी संगति से लाभ उठा सकते हैं और नहीं डरेंगे तो उनसे अन्याय कर बैठेंगे जिससे वर्तमान व भविष्य में हमारी ही हानि है, अर्थात् धर्मात्मा को प्राप्त होने वाले ज्ञान व अपवर्ग से हम वंचित रहेंगे। इसके साथ अधर्मात्मा अर्थात अधर्मी होने से हमें अवनति, आध्यात्मिक व समाजिक, का सामना करना होगा।

मनुष्य की परिभाषा में महर्षि दयानन्द ने यह भी जोड़ा है कि ‘इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्वसामर्थ्य से धर्मात्माओं कि चाहे वह महा अनाथ, निर्बल और गुण रहित क्यों न हों उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे।’ अनाथ, निर्बल व गुण रहित धर्मात्माओं की रक्षा, उन्नति व प्रियाचरण से हमें धर्मात्माओं का आशीर्वाद व शुभकामनायें प्राप्त होती हैं जिससे हमारी आयु, विद्या, धन व बल में वृद्धि होती है। धर्मात्माओं की रक्षा व उन्नति होने से इनकी संख्या बढ़ेगी व अधर्मियों की संख्या में कमी आयेगी। यदि हम एक भी धर्मात्मा बनाने में सफल होते हैं तो इसका अर्थ है कि हमने एक अधर्मात्मा को कम किया है। अब यह हो सकता है कि यह धर्मात्मा न जाने कितने धर्मात्मा बना दें। गुरू विरजानन्द व स्वामी दयानन्द का उदाहरण हमारे सामने हैं। गुरू विरजानन्द ने एक धर्मात्मा स्वामी दयानन्द को बनाया और स्वामी दयानन्द ने गुरू के सन्देश को न केवल देश में ही अपितु सारे संसार में प्रचारित व प्रसारित कर दिया। महर्षि दयानन्द आगे कहते हैं कि अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे। इसका कारण है कि अधर्मी मनुष्य समाज में नहीं होने चाहिये और यदि वह हों तो अलग-थलग पड़ जायें और विवश होकर अपना आचरण बदल लें। यदि उनके प्रति अच्छा व्यवहार करेंगे तो समाज में असमानता व असन्तुलन उत्पन्न होगा जो कि ईष्वर और वेद की शिक्षाओं के विरूद्ध है। महर्षि मनु ने इसी लिए कहा है कि जो मनुष्य वेदाध्ययन व सन्ध्योपासना, यज्ञ आदि नहीं करता वह जीवित ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। वह द्विजों के अधिकारों से वंचित हो जाता है अथवा उसको वंचित कर देना चाहिये। ऐसा तभी सम्भव है जबकि हमारा राजा वेदों का विद्वान व उनका आचरण करने के प्रति कटिबद्ध हो। प्रयास करने से कार्य की सफलता सहित सभी कुछ सम्भव है। हमारा राजा वेदों का विद्वान होगा तभी सभी को पूर्ण सुख होने की सम्भावना होती है। ऐसा होने पर ही वेदानुसार आध्यात्मिक क्रान्ति सम्भव है। इसके बिना देश व समाज सफलता के शिखर पर नहीं पहुंच सकते। जब देष भर में सभी वेदाज्ञा का पालन करने वाले धार्मिक होंगे तभी सर्वत्र सुख व शान्ति हिलोरे लेगीं। हम समझते हैं कि अधर्मी चक्रवर्ती राजा व अधर्मी महाबलवान व गुणवान लोगों को प्रजा के द्वारा विरोध, अवनति और अप्रियाचरण से ही बदला जा सकता है या उन्हें सत्य के आचरण में प्रवृत्त किया जा सकता है। अपने समय की परिस्थितियों व इतिहास की घटनाओं का अध्ययन व मूल्यांकन कर ही महर्षि दयानन्द ने यह पंक्तियां लिखी हैं। मनुष्य के बारे में इतना लिखने के बाद भी महर्षि दयानन्द कुछ छूट देते हुए प्रतीत होते हैं और कहते हैं कि यदि उन्होंने जो कर्तव्य कहे हैं, वह न कर सकें तो कम से कम सभी मनुष्यों से जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा करनी चाहियेे। हम समझते हैं कि संसार के सभी देषों में न्याय व्यवस्था स्थापित है जिसका एक मात्र उद्देष्य ही अन्यायकारियों को अन्याय न करने देना, उनके बल की हानि करना और न्यायकारियों के बल व सामर्थ्य की उन्नति करना ही है। महर्षि दयानन्द के समय में विदेशी सरकार थी जो यहां के मनुष्यों के प्रति अन्याय का व्यवहार करती थी। देशवासियों को अंग्रेजों के विरूद्ध आन्दोलन करने के लिए प्रेरणा स्वरूप ही यह वाक्य लिखे गये थे। हम समझते हैं कि आर्य समाज के अनुयायियों पर इन पंक्तियों का प्रभाव पड़ा भी था इसी कारण आजादी के आन्दोलन में आर्य समाज के अनुयायियों की संख्या 80 प्रतिषत व इससे भी अधिक स्वीकार की गई है।

इन विचारों का ही परिणाम है कि महर्षि दयानन्द के दो साक्षात शिष्यों महादेव गोविन्द रानाडे और श्यामजी कृष्ण वर्मा व उनके शिष्यों गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गांधी तथा वीर विनायक सावरकर आदि द्वारा अंहिसात्मक एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन की नींव पड़ी जिसे अनेक देशवासियों ने सिंचित किया, पल्लवित व पोषित किया और देश को स्वतन्त्रता की प्राप्ति हुई। अतः सभी को अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति करने का सदैव प्रयत्न करना चाहिये जिससे देश की आजादी सुरक्षित रहे।

महर्षि दयानन्द मनुष्य के गुणों या कर्तव्यों का उल्लेख कर अन्त में कहते हैं कि इस काम, अन्याय को समाप्त करने में, चाहे किसी मनुष्य को कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे उसके प्राण भी भले ही चले जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे। हम आज के समाज में मनुष्यों में महर्षि दयानन्द द्वारा परिभाषित मनुष्यों के गुणों व विशेषताओं का प्रायः अभाव ही देख रहे हैं। इसी कारण देश में नाना प्रकार की समस्यायें हैं। हम समझते हैं कि यदि हम महर्षि दयानन्द की परिभाषा के अनुरूप मनुष्य बनायें तो देश की सारी समस्यायें हल हो सकती हैं और यह विष्व के लिए एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। हम पाठकों से अनुरोध करते हैं कि वह सत्यार्थ प्रकाष के अध्ययन के साथ मनुष्य की पूरी परिभाषा को पढ़े। महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की उपर्युक्त परिभाषा के अतिरिक्त शास्त्रों के जिन श्लोकों व संस्कृत के वाक्यों को लिखा है, उन पर भी मनन करना चाहिये और उसे क्रियान्वित करने में अपना सहयोग देना चाहिये।

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