जादू वह, जो सिर चढ़ बोले

-विजय कुमार-
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दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देशभक्तों की सशक्त सरकार बन गयी है। एक अंग्रेजी कहावत charity begins at home के अनुसार अच्छे काम घर से ही प्रारम्भ होते हैं। इसलिए मोदी ने वंशवाद से मुक्ति का अभियान भा.ज.पा. से ही प्रारम्भ किया है। राजस्थान में वसुंधरा राजे ने लोकसभा की सभी 25 सीट जीती हैं। इससे पूर्व विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने विशाल बहुमत पाया था; पर मोदी ने उन्हें नाराज करके भी उनके तीसरी बार सांसद बने बेटे दुष्यंत को मंत्री नहीं बनाया। यह बड़े साहस की बात है। इस कारण राजस्थान का प्रतिनिधित्व भी मंत्रिमंडल में बहुत कम है। इसी प्रकार हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल के तीसरी बार सांसद बने बेटे अनुराग ठाकुर, उ.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के दूसरी बार सांसद बने पुत्र राजवीर सिंह तथा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के पहली बार सांसद बने पुत्र अभिषेक सिंह को भी मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला।

यद्यपि मंत्री बने पीयूष गोयल और धर्मेन्द प्रधान के पिता वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं; पर ऐसे किसी व्यक्ति को नरेन्द्र मोदी ने मंत्री नहीं बनाया, जिसके पिता या माता इस समय भी राजनीति में हैं। जिन दलों से भा.ज.पा. का गठबंधन था, उनमें अकाली दल से बनी मंत्री हरसिमरत कौर के पति और ससुर पंजाब में क्रमशः उपमुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री हैं। लो.ज.पा. से मंत्री बने रामविलास पासवान के पुत्र और भाई भी सांसद हैं। ये दोनों दल वस्तुतः निजी दुकानें ही हैं। मोदी ने 75 वर्ष से बड़े अनुभवियों को भी मंत्रिमंडल में नहीं लिया। यह भी बहुत अच्छा कदम है। राजनीति से अवकाशप्राप्ति की भी कुछ सीमा होनी चाहिए। यदि आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में यह परम्परा चल निकले, तो देश का बहुत भला होगा। मोदी ने सभी सांसदों और मंत्रियों को यह निर्देश दिया है कि वे अपने परिजनों को सचिव या प्रतिनिधि न बनाएं। उ.प्र. में बाराबंकी की युवा सांसद प्रियंका रावत ने अपने पिता को ही प्रतिनिधि नियुक्त कर लिया था; पर मोदी की डांट से उसने अगले ही दिन अपने कदम वापस ले लिये। इस सख्ती का बाकी दलों पर भी असर जरूर होगा। ऐसा लगता है कि भारत में लोकतंत्र के तो अच्छे दिन आ ही गये हैं। देर-सबेर जनता के भी अच्छे दिन जरूर आएंगे।

चुनाव की धूल बैठ जाने के बाद यदि ठंडे दिमाग से पूरे परिदृश्य पर विचार करें, तो कुछ बातें ध्यान में आती हैं। भा.ज.पा. को इस बार बढ़त मिलने का मुख्य कारण यह रहा कि उसने समय रहते अपना ठीक सेनापति चुन लिया। यदि यह निर्णय और चार-छह महीने पहले हो जाता, तो उसे 300 से अधिक स्थान मिलते। देश बदलाव चाहता तो था; पर इसके लिए कोई विश्वसनीय नेता सामने नहीं था। नरेन्द्र मोदी ने इस कमी को भी दूर कर दिया। यद्यपि अपनी आदत के अनुसार लालकृष्ण आडवाणी ने इसमें बहुत रोड़े अटकाये; पर संघ का हाथ पीठ पर होने के कारण राजनाथ सिंह ने यह निर्णय लेकर इसकी सार्वजनिक घोषणा की। इससे देश भर के कार्यकर्ता उत्साहित होकर फिर मैदान में डट गये।

यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड की हार से कार्यकर्ता हतोत्साहित हो गये थे; पर मोदी के देशव्यापी प्रवास ने माहौल बदल दिया। म.प्र. और छत्तीसगढ़ में जहां भा.ज.पा. शासन की वापसी हुई, वहां राजस्थान में भी भा.ज.पा. की सरकार बन गयी। दिल्ली में यदि छह माह पहले ही सेनापति का निर्णय हो जाता, तो वहां भी पूर्ण बहुमत मिलता। जो छीछालेदर अरविंद केजरीवाल की अब हो रही है, वह तभी हो जाती। अर्थात युद्ध में पर्याप्त समय पूर्व ऐसे सेनापति का चयन हो जाना चाहिए, जिस पर जनता और कार्यकर्ता भरोसा कर सकें। अब जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां अभी से सेनापति घोषित कर देने चाहिए, जिससे वे समय से पूर्व ही रणनीति बना सकें।

यह चुनाव नरेन्द्र मोदी की कुशल रणनीति के लिए भी याद किया जाएगा। यद्यपि मोदी पिछले तीन वर्ष से इस दिशा में काम कर रहे थे; पर सेनापति घोषित होते ही वे मैदान में कूद पड़े। उन्होंने जहां एक ओर सभी राज्यों में सार्वजनिक सभाओं को सम्बोधित किया, वहां छात्र, पूर्व सैनिक, महिला, अध्यापक, किसान, उद्योगपति, वकील आदि समूहों के बीच भी अपने विचार रखे। चुनाव घोषित होने से पहले ही उन्होंने देश का एक दौरा कर डाला। इससे सब ओर उनके नाम और विचारों की चर्चा होने लगी। लोग उनके समर्थक और विरोधी गुटों में बंट गये। इससे उन्हें लाभ ही हुआ।

मोदी ने पत्र, पत्रिकाओं, रेडियो और दूरदर्शन से लेकर मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के सभी साधनों का भरपूर उपयोग किया। इससे धीरे-धीरे माहौल ऐसा बना कि बाकी सब दल उनके भाषणों पर प्रतिक्रिया करने तक ही सीमित रह गये। मोदी ने तकनीक के महारथियों को अपने साथ रखा, जो उन्हें हर भाषण से पहले अद्यतन जानकारी से लैस कर देते थे। इसका शिक्षित वर्ग और युवाओं में काफी प्रभाव पड़ा। आंकड़े बताते हैं कि युवाओं और विशेषकर पहली बार वोट देने वालों के अधिकांश वोट मोदी को मिले हैं।

किसी भी युद्ध में सेनापति के मनोबल का पूरी सेना और अंततः युद्ध के परिणाम पर बहुत प्रभाव पड़ता है। मोदी ने पूरे अभियान में जहां अपना मनोबल सदा ऊंचा बनाये रखा, वहां अपने सहयोगियों का मनोबल भी गिरने नहीं दिया। अपने पर हुए हर वार को हथियार बनाकर उन्होंने विरोधियों को ध्वस्त कर दिया। मणिशंकर अय्यर की ‘चाय विक्रेता’ वाली टिप्पणी से पूरे देश में ‘चाय पर चर्चा’ चल पड़ी। यही हाल प्रियंका वडेरा की ‘नीच’ वाली टिप्पणी का हुआ। इससे एक ओर जहां भा.ज.पा. कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा, वहां अनुभवहीन सेनापति के नेतृत्व में लड़ रही कांग्रेस हताश हो गयी। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ के अनुसार उसने चुनाव के बीच में ही हार मान ली। ऐसे में परिणाम उनके विरुद्ध जाना ही था।

यद्यपि युवाओं ने जाति की सीमा तोड़कर इस बार मोदी के पक्ष में वोट दिये हैं; पर जाति भारत की वास्तविकता है, यह भी नहीं भूलना चाहिए। उ.प्र. और बिहार में प्रभावी वोट बैंक वाले कुछ जातीय दलों से हुए समझौते ने इन राज्यों में भा.ज.पा. की जीत का आधार मजबूत किया है। कर्नाटक में पिछले विधानसभा चुनाव में येदियुरप्पा के कारण लिंगायत वोटों के अभाव में भा.ज.पा. पराजित हुई थी। लोकसभा चुनाव से पहले दोनों को यह सच समझ में आ गया। अर्थात जहां संघ और समविचारी संगठनों के विस्तार से राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार जरूरी है; वहां जमीनी राजनीति के लिए हर जाति और क्षेत्र में भा.ज.पा. के प्रभावी नेता भी खड़े होने आवश्यक हैं। राजनीति में जिसे ‘सोशल इंजिनियरिंग’ कहा जाता है, उसका महत्व कम नहीं हुआ है। यदि इस पर ध्यान नहीं दिया, तो बहुत तेजी से चढ़ा ग्राफ उतनी ही तेजी से गिर भी सकता है। 1977 के बाद 1980 और 1984 के बाद 1989 के चुनाव इसके उदाहरण हैं।

जहां तक भावी रणनीति की बात है, तो लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे वयोवृद्धों को आदर सहित अनिवार्य अवकाश देना होगा। दूसरी ओर केरल, तमिलनाडु, उड़ीसा, बंगाल आदि जिन राज्यों में भा.ज.पा. को विशेष सफलता नहीं मिली, वहां 40 से 50 वर्ष की अवस्था वाले जुझारू नेताओं को आगे लाना होगा, जिससे वे अगले आठ-दस साल में वहां भी भा.ज.पा. को नंबर एक पर ला सकें। एक समय जब भा.ज.पा. केे लोकसभा में दो ही स्थान रह गये थे, तब संघ ने अ.भा.विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि वाले कई युवाओं को राजनीति में भेजा था। श्री आडवाणी ने उन्हें हिन्दूवादी एजेंडे के साथ राजनीति के गुर सिखाये थे। वही लोग अब भा.ज.पा. को संगठन और सत्ता के स्तर पर संभाल रहे हैं। यद्यपि कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवार के बोझ से स्वयं ही डूबने को है, फिर भी ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ तथा सभी राज्यों में भा.ज.पा. की प्रभावी उपस्थिति के लिए ऐसी योजना फिर से कार्यान्वित करनी होगी।

कुछ लोग पूछते हैं कि यह सफलता संघ के हिन्दू विचार की है या मोदी के विकासवादी एजेंडे की ? सच तो यह कि इन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता। यदि भारत की मूल हिन्दू पहचान ही नहीं रही, तो बिजली, सड़क, रेल, तार, विद्यालय और अस्पतालों का विकास तो अंग्रेज भी कर ही रहे थे। उन्हें भगाने के लिए लाखों लोगों ने जान क्यों दी ? भारत यदि शरीर है, तो हिन्दुत्व उसकी आत्मा। आत्माहीन शरीर का स्थान घर नहीं, शमशान घाट होता है।

यह समझना बहुत आवश्यक है कि एक सुदृढ़ नींव पर ही विशाल भवन खड़ा होता है। जैसे बिना नींव के भवन नहीं बनता, ऐसे ही बिना भवन के केवल नींव का भी कोई महत्व नहीं है। इसलिए मोदी और संघ परिवार दोनों को संतुलन बनाकर चलना होगा। जब हमने मोदी को प्रधानमंत्री बनाया है, तो उन पर विश्वास कर, भारतीय समाज और संविधान की जटिलताओं को देखते हुए उन्हें आवश्यक समय देना ही होगा। किसी गलती पर बच्चे के कान खींचने का अर्थ कान उखाड़ लेना नहीं है। मोदी को हिन्दुत्व की नींव पर विकास का महल बनाना है। उन्हें सदा यह ध्यान रखना होगा कि जो विश्वास संघ परिवार और देश ने उन पर किया है, वह खंडित न हो।

इस वर्ष कई राज्यों में चुनाव होने हैं। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में मुद्दे और मतदाता की सोच अलग-अलग होती है। अतः आत्ममुग्ध भा.ज.पा. वाले इन्हें रसगुल्ला न समझें। उन्हें जमीनी सच समझकर ठोस रणनीति बनानी होगी। इन राज्यों में जीत से उसे राज्यसभा में भी बढ़त मिल जाएगी। तब उन विषयों पर भी कानून बन सकेंगे, जिनसे भा.ज.पा. की अलग पहचान बनी है।

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