क्या वाकई बाढ़, एक आपदा है ?

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113 अक्तूबर: अंतर्राष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण दिवस

जवाब आया कि बाढ़, प्राकृतिक होती है और कृत्रिम कारणों से भी, किंतु यह सदैव आपदा ही हो, यह कहना ठीक नहीं। आपदा के आने का पता नहीं होता; कई नदियों में तो हर वर्ष बाढ; आती है। पता होता है कि एक महीने के आगे-पीछे बाढ़ आयेगी ही; तो फिर यह आपदा कहां हुई ? भारत में आज कितने ही इलाके ऐसे हैं, जहां बारिश में बाढ आती है और बारिश गुजर जाने के मात्र तीन महीने बाद ही नदियां सूख जाती हैं और भूजल खुद में एक सवाल बनकर सामने खङा हो जाता है। इसे आपदा क्यों कहें ? क्या ऐसी बाढ़ को आपदा कहने की की बजाय, पानी का कुप्रबंधन नहीं कहना चाहिए ? फिर ख्याल आया कि भाई, बाढ भी तो जरूरी है। प्राकृतिक बाढ अपने साथ लाती है उपजाऊ मिटट्ी, मछलियां और सोना फसल का। बाढ़ ही नदी और उसके बाढ क्षेत्र के जल व मिट्टी का शोधन करती है। बाढ के कारण ही आज गंगा का उपजाऊ मैदान है। बंगाल का माछ-भात है। तभी तो कितने इलाके इंतजार करते हैं कि बाढ़ आये, समृद्धि लाये। मेरे जैसे सोचते हैं कि बाढ़ आये और दिल्ली की यमुना की गंदगी को अपने साथ बहा ले जाये।

कैसे घटे वेग और टिकने के दिन ?

जाहिर है कि यदि आपदा का न्यूनीकरण करना है, तो बाढ़ नहीं, उसके जरूरत से ज्यादा वेग और टिकने के दिनों के कारणों में घटोत्तरी करनी होगी। बाढ़ के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए पूर्व तैयारियां क्या हों ? बाढ़ से तत्काल राहत की योजना जरूरी है, किंतु बाढ वेग निवारण की दीर्घकालिक योजना इससे भी ज्यादा जरूरी है। विचार के विषय ये होने चाहिए।

कृत्रिम कारणों ने बढ़ाया दुष्प्रभाव

स्पष्ट है कि बाढ नुकसान नहीं करती है; नुकसान करती है बाढ की तीव्रता और टिकाऊपन। नदी मध्य निर्मित बांध इस नुकसान को रोकते नहीं, बल्कि और बढाते ही हैं। नदी प्रवाह मार्ग में बनने वाले कृत्रिम जलाशय, गाद बढाते हैं। बढती गाद नदी का मार्ग बदलकर, नदी को विवश करती है कि वह हर बारं नये क्षेत्र को अपना शिकार चुनेे। नया इलाका होने के कारण जलनिकासी में वक्त लगता है। बाढ टिकाऊ हो जाती है। पहले तीन दिन टिकने वाली बाढ अब पूरे पखवाडे कहर बरपाती है। नदी को बांधने की कोशिश बाढ की तीव्रता बढाने की दोषी हैं। तीव्रता से कटाव व विनाश की संभावनायें बढ जाती हैं। पूरा उत्तर बिहार इसका उदाहरण है। कोसी की बाढ़ गवाह है कि बाढ की समस्या का समाधान नदियों को तटबंधों में बांधने में नहीं, बल्कि मुक्त करने में ही है। नदी को नहर या नाले का स्वरूप देने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। ’रिवर फं्रट डेवल्पमेंट’ के नाम पर कुछ दीवारें और चमकदार इमारतें खङी कर लेना खुद को धोखा देना है। हालांकि ये बातें देश के अनपढ भी जानते हैं, लेकिन उनकी मानने वालों की संख्या कम होती जा रही है। विकास की असल पढाई के रास्ते में सर्वाधिक तोङक तथ्य यही है।

पहाङी बाढ़ को सांस्कृतिक आङ

गलती यह हुई कि नव सभ्यता का निर्माण करते वक्त हमने संस्क्ृति के पुराने संदेशंों की अनदेखी की। इसी कारण हमने सघन हिमालय पर्वतमाला पर सघन व विशाल वनराशि के रूप में फैली शिवजटा को खोलने में संकोच नहीं किया। वनराशि पानी को बांधकर रखती है। यह बात हमने याद रखना जरूरी नही समझा। हमने उत्तराखण्ड के जंगल निःसंकोच काटे। यह नहीं कि जहां बाझ, बुंरास, अखरोट जैसे चैङे पत्ते वाले पेङ चाहिए, उस उत्तराखण्ड में पानी सोखने व एसिड छोङने वाले चीङ के जंगल लगा दिए। पत्थरों के चुगान और रेत के खदान से मुनाफा भी निःसंकोच कमाया। देवभूमि में इंसानी गतिविधियां भी बेरोकटोक ही चलाई। मुझे यह लिखते हुए गर्व होता है कि मेरे जैसे अध्ययनकर्ता को भी अंगूठा छाप लोगों ने ही सिखाया है कि बाढ और सुखाड के कारण कमोबेश एक जैसे ही होते हैं। उपाय भी एक जैसे ही हैं। उन्हे अपनायंे।
जलनिकासी का परंपरागत मार्गों को उत्तराखण्ड में गाड-गदेरे के नाम से जाना जाता है। चाल-खाल जलसंचयन के परंपरागत ढांचों के नाम हैं। बाढ का विनाश कम करने के लिए, उत्तराखण्डवासी ऊपर पहाङियों में परंपरागत चाल-खाल बनाते रहे हैं। इन्ही ढांचों में रुककर पानी, नीचे नदी में बाढ नहीं आने देता था। यह तर्क, मैदानी नदियों पर भी इतना ही लागू होता है। ताल, पाल, झाल, जाबो, कूळम, आपतानी, आहर पाइन…. जाने कितने ही नाम व स्वरूप के साथ देश के हर इलाके में ऐसे परंपरागत ढांचे मौजूद हैं।

कुछ जरूरी काम

नदियों में आने से पहले और बाद में बारिश के पानी को अपने अंदर रोककर रखने वाली ऐसी जलसंरचनाओं को कब्जामुक्त कर पुनः जीवित करना होगा। जलनिकासी के परंपरागत मार्ग में खङे अवरोधों को हटाना होगा। स्थानीय भू सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए बडे पेड व जमीन को पकडकर रखने वाली छोटी वनस्पतियांे के सघनता बढाने की योजना बनानी होगी। खनन की नियंत्रित करना होगा और इसके लिए अपने दैनिक जीवन में उपभोग को। विपरीत काम को रोकने और अनुकूल काम को बढ़ाने के लिए जन जुङाव जरूरी है। इससे उत्तराखण्ड में मिट्टी के क्षरण की सीमा लांघ चुकी रफ्तार भी कम होगी और विनाश भी कम होगा। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय पहाङ में भी यही हैं और मैदान में भी।

तात्कालिक राहत हेतु जरूरी पूर्व तैयारी

बाढ नुकसान कम करे; इसके लिए परपंरागत बाढ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नये इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ के परंपरागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ कब आयेगी। वहां जरूरत बाढ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिए एहतियाती कदमों की हैं: पेयजल हेतु सुनिश्चित हैंडपम्पों को ऊंचा करना। जहां अत्यंत आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना। मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिए सरकार द्वारा जरूरतमंदों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊंचा स्थान देखकर वहां हर साल के लिए अस्थाई रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा। मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम। ऊंचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देसी दवाइयों का ज्ञान। कैसी आपदा आने पर क्या करें ? इसके लिए संभावित सभी इलाकांे में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबंधकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जायें व संसाधन दिए जायें। परंपरागत बाढ क्षेत्रों में बाढ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले संभावित इलाकों में जलसंरचना ढांचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। केदारनाथ धाम का गांधी सरोवर यदि पुख्ता हदबंदी हुई होती, तो विनाश इतना अधिक नहीं होता।

मूल सुधरे, तो विनाश थमे

कहना न होगा कि लोगों को जोङे और समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ और सुखाड से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर सुधार करना होगा। बिजली बनाने के लिए पवन, सौर और भू-तापीय ऊर्जा बेहतर व स्वच्छ विकल्प हैं। इनसे कोई विस्थापन या विनाश नहीं होता। नदियों को धरती के उपर से नहीं, बल्कि धरती के भीतर से जोडने की जरूरत है। वर्षा जल संचयन के छोटी-छोटी संरचनायें ही नदी जोङ का सही विकल्प हैं। नदियों में जल की मात्रा और गुणवत्ता.. दोनो को संयमित करने के लिए लौटना फिर छोटी संरचनाओं और वनस्पतियों की ओर ही होगा। इन्हे जानने के लिए किसी आयोग सा उच्च स्तरीय समूह की जरूरत नहीं है। हां! इन्हे लागू करने के लिए जरूरत समर्पित एक समूह नहीं, कई हजार समूहों की जरूरत इस देश को है। यदि मनरेगा के तहत् हो रहे पानी व बागवानी के काम को ही पूरी ईमानदारी व सूझबूझ से किया जाये, तो न ही बाढ बहुत विनाशकारी साबित होगी और न ही सूखे से लोगों के हलक सूखेंगेे; तब न नदी जोड की जरूरत बचेगी, न भूगोल उजडेगा और देश भी कर्जदार होने से बच जायेगा। उद्योगों को भी पानी होगा और नदियां भी बर्बाद होने से बच जायेंगी।.. तब बाढ विनाश नहीं, विकास का पर्याय बन जायेगी। यह संभव है; बशर्ते नींव, नीति और नीयत तीनो ईमानदार हो।

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