“आर्यसमाज और गुरुकुल”

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मनमोहन कुमार आर्य

आर्यसमाज वेद वा वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार का अद्वितीय व अपूर्व आन्दोलन है जो पूरे संसार के मनुष्यों का कल्याण करना चाहता है। यदि हम विचार करें कि मनुष्यों का सर्वोपरि व प्रमुख धर्म क्या है तो हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि परमात्मा ने मनुष्यों को वेद प्रदान कर उन्हें उनका सच्चा धर्म ही प्रदान किया है। हमारे उच्च कोटि के ऋषि, मुनियों व विद्वानों ने सृष्टि के आरम्भ काल से लेकर महाभारतकाल तक वेदों की सूक्ष्म व गहन रूप से परीक्षा की और पाया कि सम्पूर्ण वेद व इसमें दी गई शिक्षायें ही संसार के सभी मनुष्यों का एकमात्र धर्म है। वेद की शिक्षाओं का पालन करने से मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। इनकी प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसी लिए परमात्मा ने मनुष्यों को मनुष्य जन्म दिया है जिससे सभी मनुष्य विद्या प्राप्त कर वेदों के अनुसार पुरुषार्थ पूर्वक जीवन बिता कर इन चार उपलब्ध्यिं को प्राप्त कर जीवन को कृतकार्य करे। महाभारत काल तक वेद मत ही सारे संसार में चला है। इसका कारण वेदों का सर्वांश में सत्य होना व मानव सहित प्राणिमात्र का हितकारी होना है। संसार के सभी लोगों को इसी मत को अपनाना चाहिये। इसी में उनका कल्याण है। अन्य मत-संप्रदायों में फंस कर मनुष्य का हित न होकर अहित ही होता है क्योंकि वह न तो ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का यथार्थ ज्ञान वा विद्या को ही प्राप्त कर पाता है और न ही उसे मनुष्य जीवन के लक्ष्य मोक्ष व  इस मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का ही ज्ञान होता है, प्राप्ति होना तो सर्वथा असम्भव ही है।

 

वेद और आर्यसमाज की जो मान्यतायें हैं, महर्षि दयानन्द उनका मूर्तरूप वा आदर्श उदाहरण हैं। वैदिक धर्म का उद्देश्य मनुष्य को राम, कृष्ण, चाणक्य व दयानन्द जैसा मनुष्य बनाना है जो कि केवल वेद की शिक्षाओं से ही बन सकते हैं अन्य किसी मत मतान्तर व उनकी मान्यताओं के आधार पर नहीं बन सकते। आर्यसमाज ने वेदों का प्रचार किया जिससे हमें स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, देवतास्वरूप भाई परमानन्द, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, स्वामी सर्वदानन्द, स्वामी सर्वानन्द आदि अनेक विद्वान व महात्मा मिले हैं। आज भी आर्यसमाज में अनेक सत्पुरुष हैं जो वेद की मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। देहरादून में ही हमें स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती और आचार्य आशीष दर्शनाचार्य आदि योग्य विद्वान और वेदभक्त उपलब्ध हैं। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी भी इसी श्रृंखला में उच्च कोटि विद्वान हैं जिन्होंने संस्कृत का उच्चस्तरीय ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को श्रेय मार्ग पर चलाने के लिए संसार के सभी प्रलोभनों का त्याग कर गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली का विस्तार करने का संकल्प लिया और आज उनके द्वारा देश भर में आठ गुरुकुल चलाये जा रहे हैं। आचार्य डा. धनंजय आर्य स्वामी प्रणवानन्द जी के सुयोग्य शिष्य हैं। डा. धनंजय जी ने अपना जीवन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के प्रचार, प्रसार, उन्नयन आदि में समर्पित किया हैं। आपको 21-22 वर्ष की आयु में गुरुकुल पौंधा का आचार्य बनाया गया था। आपने 18 वर्षों में गुरुकुल पौंधा को बिना सरकारी सहायता अपने पुरुषार्थ एवं बौद्धिक क्षमता से विद्या की उन्नति के शिखर पर पहुंचायां हैं। वेद प्रेमी जनता स्वामी प्रणवानन्द जी के कार्यों के महत्व को जानती है और उन्हें सहयोग प्रदान करती है जिससे देश में वेद के विद्वान व वैदिक धर्म के सुयोग्य प्रचारक बनाने का महनीय कार्य किया जा रहा है। आज भी हमारे पास अनेक वैदिक विद्वान हैं जो सभी हमारे गुरुकुलों की देन हैं। स्वामी सत्यपति जी, डा. रघुवीर वेदालंकार, पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिय, डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री, डा. सोमदेव शास्त्री आदि वैदिक विद्वानों सहित हमारे पास डा. सूर्यादेवी चतुर्वेदा, डा. प्रियंवदा वेदभारती, डा. नन्दिता शास्त्री, डा. अन्नपूर्णा जी आदि उच्च कोटि की वेद विदुषियां देवियां हैं। इन सब विद्वानों और वेद विदुषि देवियों से आर्यसमाज संसार में गौरवान्वित है।

 

गुरुकुल संसार की ऐसी शिक्षण संस्था हैं जहां वेदों एवं प्रमुख वैदिक साहित्य का अध्ययन कराया जाता है। वेदों के अध्ययन में प्रमुख वेदों के व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरुक्त का अध्ययन है। इन ग्रन्थों का अध्ययन आर्यसमाज के देश भर में चलने वाले लगभग 200 गुरुकुलों में कराया जाता है। महर्षि दयानन्द की विद्या, वेद प्रचार और उनके पुरुषार्थ का ही परिणाम है कि आज उनके अनुयायी देश भर में बड़ी संख्या में गुरुकुल चला रहे हैं और इन गुरुकुलों से वेदज्ञान का संरक्षण हो पा रहा है। गुरुकुल में वेदें के विद्वान आचार्य ब्रह्मचारियों को संस्कृत का व्याकरण पढ़ाते हैं। व्याकरण पढ़ने से विद्यार्थियों में यह योग्यता आ जाती है कि वह वेदों के मन्त्रों को पदच्छेद कर उनके पदार्थों वा शब्दों की संगति लगाकर उनका मनुष्य के लिए लाभ व हितकारी अर्थ कर सकें। अनेक विद्वानों ने वेदों पर हिन्दी में भाष्य रचना की है। यह सभी भाष्यकार गुरुकुलों में अध्ययन कर ही बने हैं। अतीत में विदेशी व स्वदेशी वेद विरोधियों ने वैदिक साहित्य को अकथनीय हानि पहुंचाई हैं। हमारे तक्षशिला व नालन्दा के विशाल पुस्तकालयों को जलाया गया। अंग्रेजों ने भी पुस्तकालय जलायें हैं। इस पर भी आज हमारे देश में प्राचीनकाल की अनेक पाण्डुलिपियां आदि हस्तलिखित ग्रन्थ विद्यमान हैं जिनका अध्ययन कर अनुवाद किया जाना है। यह कार्य यदि कोई करेगा तो वह गुरुकुल में शिक्षित संस्कृत के विद्वान ही कर सकते हैं। संस्कृत के विद्वानों ने वेद, दर्शन, उपनिषदों आदि ग्रन्थों का भाष्य तो किया ही है इसके साथ भी वैदिक साहित्य पर अनेक प्रकार से शोध कार्य किये हैं। इन शोध कार्यों व इनका लाभ वेद प्रेमी जनता तक पहुंचाया जाना था परन्तु व्यवस्था की खामियों के कारण यह शोध कार्य विश्वविद्यालयों वा महाविद्यालयों की आलमारियों में बन्द पड़े हैं। कुछ ही ग्रन्थों का प्रकाशन होकर पाठकों तक पहुंच सके हैं। इस कार्य को जनता तक पहुंचना चाहिये। इसकी अनेक विद्वान आवश्यकता अनुभव करते हैं।

 

गुरुकुल हैं तो वहां से संस्कृत के विद्वान निकलेंगे और वह वेदों का अध्ययन व प्रचार कर सकते हैं। गुरुकुलों से निकले विद्वान ही पौरोहित्य कर्म को भली भांति कर सकते हैं। वह महाविद्यालयों में प्रवक्ता बन सकते हैं, हिन्दी पत्रकारिता में अग्रणीय भूमिका निभा सकते हैं और लेखन व प्रकाशन सहित सभी कार्य कर सकते हैं। स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण जी आर्यसमाज के गुरुकुलों की ही देन हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो सफलतायें प्राप्त की हैं उनका अधिकांश श्रेय आर्यसमाज को है और प्रसन्नता की बात है कि हमारे यह दोनों आचार्य आर्यसमाज के योगदान को स्वीकार करते हैं। यह दोनों महानुभाव आर्यसमाज के कामों को प्रशंसनीय रूप से आगे बढ़ा रहे हैं। वेद प्रचार में शिथिलता का कारण आर्यसमाज में संगठन में खामियां व कुछ छद्म लोग हैं। इसके बावजूद भी आर्यसमाज और गुरुकुल मिलकर देश से अज्ञान व अविद्या सहित अन्धविश्वास व कुरीतियां दूर करने में देश की अग्रणीय संस्था की भूमिका निभा रहे हैं जबकि अन्य संस्थायें अन्धविश्वासों को बढ़ा रही हैं। यह भी बता दें कि वेद वा आर्यसमाज के सभी सिद्धान्त ज्ञान-विज्ञान पर आधारित हैं और सभी सत्य व सर्वश्रेष्ठ हैं। सभी मनुष्यों को इनको जानना चाहिये और पालन भी करना चाहिये। इन्हीं को अपनाने से देश व विश्व का कल्याण हो सकता है। संसार की उन्नति सत्य सिद्धान्तों से ही होगी और आर्यसमाज ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो शत-प्रतिशत सत्य सिद्धान्तों और मानव कल्याण को ही अपना उद्देश्य व आदर्श मानती है। इस कार्य में गुरुकुलों की प्रमुख भूमिका है। आर्यसमाज और गुरुकुलों का परस्पर गहरा अटूट व दृढ़ सम्बन्ध है। दोनों एक दूसरे के पूरक व सहयोगी हैं। आर्यसमाज के लिए ही गुरुकुल हैं और गुरुकुलों की सफलता ही आर्यसमाज की सफलता है। सभी आर्यसमाजों और ऋषिभक्तों को गुरुकुलों के संचालन में सहयोग करना चाहिये। हम तो यह भी चाहते हैं कि सभी आर्यसमाजों में एक संस्कृत का योग्य आचार्य होना चाहिये जो सभी सदस्यों व अन्य संस्कृत प्रेमियों को संस्कृत भाषा का अध्ययन कराये जिससे भविष्य में आर्यसमाज के सभी अनुयायी संस्कृत के अच्छे जानकार बन सकें और हमारे समाज के अन्य लोग भी संस्कृत पढ़कर संस्कृत व वैदिक संस्कृति का विस्तार करने में अपना योगदान कर सकें।

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