आरक्षण के ”जिन्न“ को बोतल से बाहर न निकालें

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-ललित गर्ग-
महाराष्ट्र में आरक्षण की मांग को लेकर मराठा आंदोलन की आग जैसे-जैसे तेज होती जा रही है, एक गंभीर संकट की स्थिति बनती जा रही है। मराठा आरक्षण आंदोलन की मांग को लेकर खुदकुशी एवं आत्मदाह करने की संख्या तो बढ़ ही रही है, मराठा समुदाय के लोग मुंबई में जेल भरो आंदोलन कर रहे हैं, सार्वजनिक सम्पत्ति को व्यापक नुकसान पहुंचा रहे हैं। मराठा आरक्षण की आग से समूचा महाराष्ट्र सुलग उठा है। प्रांत के कई हिस्सों में हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी, सड़क जाम, पुलिस पर हमले, बंद की ताजा घटनाएं ने चिन्ताजनक स्थितियां खड़ी कर रही है। समूचा राष्ट्र आहत है।
गौरतलब है कि सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में 16 फीसदी आरक्षण की मांग को लेकर चालू आंदोलन के ताजा दौर में पिछले एक सप्ताह में प्रांत में व्यापक तनाव, असुरक्षा एवं हिंसा का माहौल बना हैं। राज्य में करीब 30 फीसदी आबादी वाला मराठा समुदाय राज्य की राजनीति में खासा दबदबा रखता है। समुदाय के लोगों ने आरक्षण समेत कई अन्य मांगों के समर्थन में पहले भी मूक मोर्चा निकाला था। लेकिन अब यह आंदोलन हिंसक एवं आक्रामक होता जा रहा है, जो मराठा संस्कृति एवं मूल्यों के विपरीत है।
आरक्षण की नीति सामाजिक उत्पीड़ित व आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की सहायता करने के तरीकों में एक है, ताकि वे लोग बाकी जनसंख्या के बराबर आ सकें। एक समतामूलक समाज बन सके। पर जाति के आधार पर आरक्षण का निर्णय कभी भी गले नहीं उतरा और आज भी नहीं उतर रहा है। जातिवाद सैकड़ों वर्षों से है, पर इसे संवैधानिक अधिकार का रूप देना उचित नहीं माना गया है। हालांकि राजनैतिक दल अपने ”वोट स्वार्थ“ के कारण इसे नकारते नहीं, पर स्वीकार भी नहीं कर पा रहे हैं। और कुछ नारे, जो अर्थ नहीं रखते सभी पार्टियां लगा रही हैं। जो वोट की राजनीति से जुड़े हुए हैं, वे आरक्षण की नीति में बंटे हुए हैं। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रतापसिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशों को बिना आम सहमति के लागू करने की घोषणा कर पिछड़े वर्ग को जाति के आधार पर सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देकर जिस ”जिन्न“ को बोतल से बाहर किया था, उसने पूरे राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया था। देश में उस समय मंडल-कमंडल की सियासत शुरू हुई। वी.पी. सिंह सरकार के निर्णय के खिलाफ आंदोलन भड़क उठा। युवा सड़कों पर आकर आत्मदाह करने लगे थे। शीर्ष अदालत ने फैसला दिया था कि आरक्षण किसी भी स्थिति में 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। आज देश के हालात ऐसे हैं कि हर कोई आरक्षण मांग रहा है। समृद्ध और शिक्षित मानी जाने वाली जातियां भी आरक्षण मांग रही हैं। गुजरात में पटेल, हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन करने लगे। अब महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन चल रहा है। आरक्षण की मांग को लेकर युवा आत्महत्याएं कर रहे हैं। हर कोई आरक्षण के प्याले के रस को पीकर संतुष्ट हो जाना चाहता है। हर समुदाय को लगता है कि सरकारी नौकरी पाकर उनका जीवन स्तर सुधर जाएगा। लेकिन प्रश्न है कि नौकरियां है कहां?
भारतीय लोकतंत्र का यह कड़वा सच है कि जाति के आधार पर आरक्षण का लाभ लेने वाले लगातार फायदा उठाते गए जबकि सवर्ण जातियों के लोग प्रतिभा सम्पन्न होने पर भी किसी तरह के लाभ से वंचित रहे। लोकसभा में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया लेकिन यह कह पाना मुश्किल है कि यह आरक्षण संबंधी समस्याओं का समाधान करने में कितना सक्षम हो पाया। उग्र तरीके से आंदोलन कर रहा मराठा समूह पात्रता की श्रेणी में नहीं आता। ऐसी ही स्थिति अन्य जातियों की भी है। संसद में आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग की गई। आरक्षण संबंधी मांगों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा। यदि एक जाति को आरक्षण दिया जाता है तो अन्य जातीय समूहों के उठ खड़े होने का खतरा पैदा हो जाता है। इसका विरोध आज नेता नहीं, जनता कर रही है। वह नेतृत्व की नींद और जनता का जागरण है। यह कहा जा रहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान विधान में नहीं है। पर संविधान का जो प्रावधान राष्ट्रीय जीवन में विष घोल दे, जातिवाद के वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर दे, वह सर्व हितकारी कैसे हो सकता है।
पं. नेहरू व बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी सीमित वर्षों के लिए आरक्षण की वकालत की थी तथा इसे राष्ट्रीय जीवन का स्थायी पहलू न बनने का कहा था। डाॅ. लोहिया का नाम लेने वाले शायद यह नहीं जानते कि उन्होंने भी कहा था कि अगर देश को ठाकुर, बनिया, ब्राह्मण, शेख, सैयद में बांटा गया तो सब चैपट हो जाएगा। जाति विशेष में पिछड़ा और शेष वर्ग में पिछड़ा भिन्न कैसे हो सकता है। गरीब की बस एक ही जाति होती है ”गरीब“। एक सोच कहती है कि गरीब-गरीब होता है, उसकी कोई जाति, पंथ या भाषा नहीं होती। उसका कोई भी धर्म हो, मुस्लिम, हिन्दू या मराठा, सभी समुदाय में एक वर्ग ऐसा है जिसके पास पहनने के लिए कपड़े नहीं, खाने के लिए भोजन नहीं है। हमें हर समुदाय के अति गरीब वर्ग पर भी विचार करना चाहिए।
आरक्षण किस-किय को दिया जाये, क्योंकि 3000 से अधिक जातियां गिनाई हैं और वे भी सब अलग-अलग रहती हैं। उनमें उपजातियां भी हैं। नई जातियां भी अपना दावा लेकर आएंगी। मुसलमान भी आरक्षण मांग रहे हैं। देश की तस्वीर की कल्पना की जा सकती है। घोर विरोधाभास एवं विडम्बना है कि हम जात-पात का विरोध कर रहे हैं, जातिवाद समाप्त करने का नारा भी दे रहे हैं और आरक्षण भी चाहते हैं। सही विकल्प वह होता है, जो बिना वर्ग संघर्ष को उकसाये, बिना असंतोष पैदा किए, सहयोग की भावना पैदा करता है।
आरक्षण के खिलाफ या पक्ष में अभिव्यक्ति सड़कों पर नहीं हो। क्योंकि यह हिंसा और वैमनस्य को जन्म देती है। राष्ट्रीय जीवन को घायल कर देती है। विचार व्यक्त उपयुक्त मंचों से हो। राष्ट्रीय चर्चा के माध्यम से प्रतिक्रिया हो। अभी क्या देश के जख्म कम हैं? इस आन्दोलन ने कई जलती समस्याओं को पृष्ठभूमि में डाल दिया है। आरक्षण की तात्कालिक प्रतिक्रिया साम्प्रदायिक आधार पर आरक्षण और पृथक मतदान की सामंतवादी नीति के भयानक परिणामों की याद दिलाती है।
परेशानी वाली बात तो यह है कि कभी आरक्षण का विरोध करने वाले मराठा अब आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक एवं आक्रामक हो उठे हैं। सोचनीय बात है कि नौकरियां कम होने की वजह से आरक्षण का कोई फायदा नहीं होने वाला है। सरकारी भर्तियां बन्द हैं। नौकरियां हैं कहां? आरक्षण मिल भी जाए तो रोजगार की गारंटी नहीं है। ऐसी स्थितियों में आरक्षण की मांग के पीछे तथाकथित संकीर्ण एवं विघटनकारी राजनीतिक सोच ही सामने आ रही है। अब वक्त आ गया है कि आरक्षण को लेकर राजनीतिक नजरिये से नहीं बल्कि एक स्वस्थ सोच से विचार किया जाए। आरक्षण का लाभ ले चुके लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका फायदा उठाते आ रहे हैं जबकि आरक्षण उन लोगों को मिलना चाहिए जो गरीब हैं और उनके आर्थिक उत्थान के लिए उन्हें मदद देने की जरूरत है। आरक्षण आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को मिलना ही चाहिए।

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