दलित एक्ट

 डॉ अजय खेमरिया

हां हम मनुवादी है श्रीमान!  अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार अधिनियन जिसे एससी एसटी एक्ट कहा जाता है में देश की सुप्रीम अदालत ने व्यापक संशोधन के आदेश दिए है कोर्ट ने यह माना है कि इस एक्ट का देश भर में दुरूपयोग हुआ है और एक बडा तबका इसके दुष्परिणाम भोग रहा है,कोर्ट ने इस अधिनियम के तहत आरोपी बनाए गए व्यक्ति की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने के साथ उपपुलिस अधीक्षक स्तर के अफसर से जांच के प्रावधान भी कानून में जोड़ने के आदेश देकर अच्छा काम ही किया है,वस्तुतः कानून के जनोन्मुखी होने की समीक्षा सरकारों को करना चाहिये लेकिन यह काम देश की सुप्रीम अदालत ने किया है,लेकिन इसी बीच संसद में कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी के सभी सांसदों ने गांधी जी की प्रतिमा के समक्ष प्रदर्शन कर सरकार को घेरने का प्रयास किया,मोदी सरकार पर आरोप लगा कि उसने जानबूझकर सुप्रीम कोर्ट में कमजोर पैरवी की जिसके चलते इस तरह का आदेश जारी हुआ है,कांग्रेस के अलावा अन्य विपक्षी पार्टियों ने भी इस मामले पर सरकार को आरोपों के कटघरे में खड़ा कर कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की मांग की है।

खबर है कि सांसदों के बढ़ते दबाब औऱ सरकार की दलित विरोधी बनाई जा रही छवि को ध्यान में रख सरकार कोर्ट में रिव्यू पिटीशन फाइल कर एस सी एसटी एक्ट को मूल रूप में बहाल करने का अनुरोध कर सकती है।अगर ऐसा होता है तो यह बेहद दुखद घटनाक्रम होगा और लोकतंत्र में जनभावनाओं को कुचलने जैसा ही होगा ।मैं मप्र के अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि जो प्रदेश कभी कांग्रेस का स्थायी गढ़ हुआ करता था उसी मप्र प्रदेश में काँग्रेज़ की 2003 हुई सत्ता से विदाई का सबसे बड़ा कारण इसी एक्ट को माना जाता है,1999 से 2003 तक पूरे मप्र में इस एट्रोसिटी एक्ट के खुले दुरुपयोग ने मप्र के सामाजिक तानेबाने को तहस नहस करके रख दिया था,ऊपर से दलित एजेंडे पर तब के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह की अबलंबता ने पूरे प्रदेश में अराजकता का माहौल बना दिया था,जनता ने जिस निर्ममता से मप्र में कांग्रेस का सफाया किया था उससे पार्टी आजतक उबर नही पाई है,पूरे प्रदेश में दलित एक्ट के तहत निर्दोष नागरिकों औऱ सरकारी मुलाजिमों पर जमकर अत्याचार हुए,ग्वालियर चम्बल क्षेत्र के मेरे प्रत्यक्ष अनुभव में तमाम कांग्रेसी परिवार तक इस एक्ट की चपेट में आये और परोक्ष रूप से उन्होंने भी 2003 में मप्र से कांग्रेस के सफाये में अपना योगदान दिया।उमाभारती ने इस सामाजिक त्रासदी को जोरदारी से भुनाया औऱ यह भी फेक्ट है कि 2003 के बाद मप्र में इसके दुरुपयोग की घटनाएं तेजी से कम हुई लेकिन एक्ट के प्रावधान ही वस्तुतः इस तरह के है कि कोई भी इसका दुरुपयोग आसानी से कर सकता है चूंकि अभी तक इसमें आरोपित व्यक्ति को जमानत का अधिकार नही था इसलिए इसने सामान्य,पिछड़ा,औऱ अल्पसंख्यक वर्ग के लोगो को बुरी तरह से भयादोहित करके रखा था,मैं कुछ समय पहले एक सरकारी पीजी कॉलेज की गवर्निंग कौंसिल का चेयरमैन था इस दौरान मैंने अपने प्राचार्य को जब कुछ कर्मचारियों पर करवाई के लिये कहा तो उसने हाथ खड़े कर दिये क्योंकि उनमें से अधिकतर आरक्षित वर्ग के थे और प्रंसिपल नही चाहते थे कि उनके ऊपर गिरफ्तारी की तलवार लटके, कमोवेश इसी तरह के हालात सभी सरकारी विभागों में हैं ,कामचोरी औऱ लापरवाही पर एक्शन लेने से पहले सामान्य, पिछड़ा,अल्पसंख्यक वर्ग के अफसर 100 बार सोचते है कि कहीं उनकी झूठी शिकायत इस एक्ट में न कर दी जाए,प्रमोशन में आरक्षण के दंश को तो देश का 65 फीसदी तबका मन मारकर झेल ही रहा है इस एट्रोसिटी एक्ट ने शासन प्रशाशन तंत्र में बड़ी ही अराजकता को जन्म दिया है।दूसरी ऒर सभी सरकारें आंख मीच कर दलित प्रेम के नाम पर देश मे इस जातीय कटुता को बढ़ा रही है,सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के तहत दर्ज मामलों की न्यायालय में दोषसिद्धि के अनुपात को बारीकी से समझा है ,लगभग 60 फीसदी मामलों में आरोपी बरी हो रहे है जाहिर है ये सब दबंग नही रहे होंगे,औऱ आज के जागरूक दौर में ये इतना आसान भी नही रह गया।

मप्र में दिग्विजय सिंह कार्यकाल के दौरान सामान्य वर्ग के साथ बुंदेलखंड में लोधी,यादव,मालवा में पंवार,दांगी,कुर्मी,ग्वालियर ,चम्बल में गुर्जर,यादव,किरार,रावत जैसी बड़ी पिछड़ी जातियों को दलित एक्ट के तहत बड़े पैमाने पर झूठी कार्यवाहियों का सामना करना पड़ा था।इस एक्ट का राजनीतिक रूप से भी व्यापक दुरुपयोग हुआ है अभी हाल ही में मप्र के कोलारस विधानसभा उपचुनाव में मतदान से पूर्व एक ही रात में आधा दर्जन मुकदमें इस एक्ट के तहत दर्ज हुए और पूरे तथ्यों के साथ मे कह सकता हूं कि सभी झूठे औऱ राजनीतिक थे।एक कांग्रेस विधायक के विरुद्ध मामला दर्ज हुआ कि उसने किसी बीजेपी नेता को रोककर जान से मारने की धमकी दी,बीजेपी प्रत्याशी के भाई पर भी तत्काल एक मामला दर्ज हुआ कि उसने एक गांव में दलितों को वोट के लिये धमकाया संयोग से दर्शायी गयी घटना के समय ये महाशय मेरे साथ थे,एक अन्य मामले में कुछ आदिवासियों ने रिपोर्ट की की कुछ लोग उनके गांव में जबरिया शराब और पैसे बांट रहे थे सरपंच सहित 6 लोगो पर एक्ट के तहत अपराध दर्ज हुआ। चुनाव बाद लगभग सभी पीड़ित दलित,आदिवासी ,एसपी के सामने आकर शपथपत्र दे गए कि उनसे धोखे में रिपोर्ट लिखाई गयीं है।लेकिन दर्ज किये जा चुके सभी प्रकरणों में अब कानूनी करवाई प्रावधान अनुसार ही होगी,कोर्ट में प्रकरण चलेगा,गवाहियां होंगी,तब जाकर मामलों से आरोपियों का पिंड छूट सकेगा।कुल मिलाकर दलित एक्ट जिस वास्तविक उत्पीड़न को रोकने के उद्देश्य से लाया गया था उसमें बुरी तरह से नाकाम साबित हुआ है देश की सुप्रीम कोर्ट ने इन्ही हालतों पर गौर कर इसमे संशोधन के निर्देश दिये है जो स्वागतयोग्य तो है ही देश की सामाजिक एकता के लिए भी वक्त की मांग है।इस पूरे प्रकरण में सभी राजनीतिक दलों की भूमिका निंदनीय है क्योंकि देश की अधिसंख्य आबादी पिछड़ी,सामान्य औऱ अल्पसंख्यक जातियों की है और इन्ही बिरादरियों के सांसद, विधायक सर्वाधिक है लेकिन एक भी सांसद ने सार्वजनिक रूप से इस सामाजिक सन्त्रास पर मुह नही खोला जबकि जनता के चुने हुए ये प्रतिनधि सब हकीकत से परिचित है ऐसा सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के लालच में ही हो रहा है।मौजूदा सरकार अगर सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन दायर करती है तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा,क्योंकि यह तय है कि सुप्रीम कोर्ट इसे खारिज ही करेगा तब सरकार संविधान संशोधन लेकर आएगी जैसा पूर्व में होता रहा है तुष्टिकरण के नाम पर।अच्छा होगा कि सामान्य पिछड़ा वर्ग के सांसद देश के सामाजिक सौहार्द को बचाने के लिये इस मामले पर अपनी अंतरात्मा की आवाज को अनसुना करने की जगह मुखरित होकर आगे आएं क्योंकि इससे उपजने वाला अंदरखाने का असन्तोष भविष्य में उन्ही की सियासत को कंटकाकीर्ण बनाने वाला है।जब अंतरात्मा की आवाज पर राज्यसभा में वोट दिए जा सकते है तो इस देश की 65 फीसदी आवादी की आवाज इन चुने हुए प्रतिनधियों को सुनाई नही दे रही हो ऐसा संभव नही।संसदीय राजनीति में जनता के दर्द को लंबे समय तक दबा कर रखना बेहद खतरनाक होता है वोटों की राजनीति के लिये आत्मा को बेचने वाले इसे जल्द समझ ले इसी में देश की भलाई है।

13 COMMENTS

  1. अजय खेमरिया एक अव्वल दर्जे के मनुवादी व्यक्ति हैं सब जानते हैं ,इन्होने अपने जीवनकील में सदैव दलित विरोधी काम किये हैं ,राजनीतिक मूवमेंट के तले अपनी जहरीली सोच को दयनीय और सहानभूती शब्दो में पिरो के अन्य वर्गों के हितैषी बनने का ढोंग कर रहे हैं ।?

  2. पतंग को ऊंचाई पर ले जाने के लिए मंझे को ढीला करना पड़ता है और पतंग जब ज्यादा ऊंचे चढ़ जाती है तो लोग बाग़ उसे आसानी से काट लेते हैं । कहीं आपके युगपुरुष के साथ ऐसा ही तो नहीं होने जा रहा है ? धैर्य रखिए समय किसी को बख्शता नहीं है ? हो सकता है यह मेरा अल्पज्ञान ही हो।

    • डॉ. मधुसूदन जी की कविता, “खोया है गाँव मेरा” पर अपनी टिप्पणी में अपने गाँव को याद कर मैंने बचपन में पतंग उड़ाने की ही बात की है| मुझे खेद है कि लोग बाग़ बन आपने “दलित एक्ट” से मेरी अप्रैल २३ की पतंग, मेरा मतलब टिप्पणी को ही काट दिया| चढ़ी पतंग को काटने की बात की है तो बता दूँ कि आप ठीक कहते हैं, लोग बाग़ ही उसे काटने का काम करते हैं| चरित्रवान प्रतिद्वंद्वी की पतंग के समान अपनी पतंग ऊँचे चढ़ा दो पतंगों को भिड़ाने का काम करते हैं|

      आपने पहले कहा है कि आप न संघी हैं और न ही कांग्रेसी तो क्या आपके भारतीय होने पर मैं समझूँ कि आपके माथे पर कांग्रेस द्वारा लगाई दलित की मोहर है? भले ही आप बार बार उस मोहर को दिखाते अब तक अन्य “दलितों” के कंधों पर सवार रहे हैं लेकिन यदि युगपुरुष मोदी जी द्वारा उंचाई पर ले जाते आपकी पतंग स्वरूपी भारत को आपके लोग बाग़ अभी से न काटें तो अवश्य ही समय के साथ गरीब और असहाय नागरिक आपको नहीं बख्शेंगे! काश आप प्रस्तुत विषय पर मेरे साथ गंभीरता से विवाद करते तो हम दोनों किसी एक निष्कर्ष पर पहुँच विषय को जन-उपयोगी अग्रसक्रिय दृष्टिकोण से देख पाते!

      • बताइए आपका विषय क्या है ? विषय पर केन्द्रित रख कर चर्चा करिए। विषयेतर होकर नहीं।नायक पूजा हमसे नहीं हो सकती।समाज के विद्रूप रंग अगर आप देखना पसंद नहीं करते तो अच्छे रंग कैसे भरे जाएँगें ? मानसिक चित्र और यथार्थ चित्र का अंतर समझना आवश्यक है तभी चर्चा से विषय के निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है।

        • गिरधारी लाल जी, यदि आप मुझसे मेरा विषय पूछते हैं तो तनिक आपके मंझे को कस उंचाई पर उड़ती आपकी पतंग को फिर से नीचे लाते मैं आपसे कहूँगा कि मेरा विषय “दलित एक्ट” है जिसे डॉ. अजय खेमरिया ने बहुत कुशलता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है| जब आप बुद्धिजीवी लोगों में लेखक के विषय को कल की मनुवादी व्यवस्था के तहत देखेंगे तो भला आप विषय पर मेरे दृष्टिकोण को क्या ख़ाक पहचानेंगे! समाज के विद्रूप रंग आप अवश्य देखें और उन्हें ठीक प्रकार समझ उन्हें अच्छे रंगों में परिवर्तित करने की क्षमता आप तभी कर पाएंगे जब उन विद्रूप रंगों से आप स्वयं बाहर आ सकेंगे|

          आप को अचम्भा होगा जब आप कभी समझेंगे कि आपके यथार्थ चित्र ही आपके विद्रूप रंग हैं| मानसिक चित्र तो वे अच्छे रंग हैं जिनसे आपको अब तक वंचित रखा गया है| डॉ. अजय खेमरिया आज समाज में उन्हीं अच्छे रंगों को भरना चाहते हैं और आप हैं कि उनका उपहास करते हैं| पतंग की तरह ऊंची उड़ान (बिखराव) भरते आपके विचारों पर मेरी प्रतिक्रिया को तनिक फिर से देखें और बताएं भारत और भारतवासियों को छोड़ क्यों कोई नायक पूजा करे?

  3. डॉक्टर अजय खेमरिया जैसे बुद्धिजीवियों से मैं यह जानना चाहता हूं कि समाज को आखिरकार कानून की जरूरत क्यों पड़ती है ? समाज की आवश्यकता के अनुरूप ही समाज ही कानून बनाता है और उसे लागू करता है । अब यहां पर विचारणीय बिंदु यह है कि अगर समाज की आवश्यकता के अनुसार कानून बनता है और एक वर्ग अपने अधिकार की रक्षा के लिए उस कानून का अधिकार के रूप में प्रयोग करता है तो आप जैसे बुद्धिजीवी लोग यकायक असहज हो जाते हैं क्योंकि वह मनुवादी व्यवस्था के तहत इसे वह अपनी सामाजिक श्रेष्ठता पर हमला मानते है और यहीं से शुरू हो जाती है कानूनी दांवपेच की लड़ाई । पुलिस प्रशासन की लचर पैरवी और अंधी न्याय व्यवस्था के स्तर पर सत्य उजागर नहीं हो पाता है और दोषी लोग दोषमुक्त हो जाते हैं। इसके बाद मनुवादियों के द्वारा यह दुष्प्रचार किया जाता है कि दलित एक्ट का दलित वर्ग के द्वारा दुरुपयोग किया जाता है : जबकि अथार्थ कुछ दूसरा ही है।चूंकि मामला बहुत ही संवेदनशील है, अतः एकांगी होकर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना दलित वर्ग के प्रति न्याय संगत न होगा ।

    • गिरधारी लाल जी, प्रस्तुत विषय पर विशुद्ध हिंदी शब्दों के ताने-बाने से बुनी आपकी लगभग विश्वसनीय टिप्पणी में कई छेद दिखाई देते हैं| बचपन में टाट-पट्टी पर बैठ अध्यापक जी के सुने वचन मुझे आज भी याद हैं| कहते थे “फटा पहनो, उजला पहनो” परन्तु आपकी टिप्पणी पर तो सत्तर वर्ष पुरानी मनुवादी कांग्रेसी-मैल चढ़ी हुई है| मेरा सुझाव है कि पहले पहल प्रवक्ता.कॉम के इन्हीं पन्नो पर मनमोहन कुमार आर्य जी द्वारा प्रस्तुत आलेख, “वैदिक समाज व्यवस्था में शूद्र वर्ण के कर्तव्य एवं अधिकार” पढ़ आप जन्म-जन्मांतरों की कांग्रेसी-मैल धो डालो तो छोटे-बड़े छेदों पर भी विचार करेंगे|

      • पढ़ लिया है। सलाह के लिए धन्यवाद! आलेख और प्रलेख पढ़ने और लिखने से कदाचित व्यक्ति बदलता होता तो श्री मनमोहन कुमार आर्या जी की प्रस्तुति के अनुसार हिन्दू समाज अब तक बदल गया होता किंतु नहीं । ऐसा शायद इसलिए नहीं की , यहाँ महापुरुषों यथा महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे युगान्तर पुरुषों का अनुसरण व अनुकरण न करके केवल बुद्धि विलास की बातें की जाती है या कहें केवल संकीर्तन किया जाता है।वतौर विमर्श मैं भी वही सोंचता हूँ जो आप सोंच रहे हैं।मेरा आशय किसी अच्छे विचार को मूर्तरूप देने से है न कि केवल गपशप तक सीमित रखने तक।आज का आदमी ६०साल पहले के आदमी से ज़्यादा जटिल है बावजूद अधिक पढ़ा लिखा होने के। इसलिए की मानव मूल्यों का ह्रास हुआ है ।हमारी स्वार्थी प्रवृत्ति कमज़ोर को आगे बढ़ने नहीं देना चाहती है।इसलिए लोकाचार के दुष्प्रभाव से लोकहित आगे नहीं चल पा रहा है । यह यथार्थ है जिसे कल्पना के चश्मे से नहीं देखा जा सकता है। न मैं संघी हूँ और न मैं कांग्रेसी। मैं तो जमीनीस्तर पर मानव मूल्यों का समर्थक हूँ । किसी का अंध भक्त नहीं।

        • गिरधारी लाल जी, यदि आप न संघी हैं न ही कांग्रेसी और फिर भी कांग्रेस द्वारा अब तक रचाए बांटो (और राज करो) संकीर्तन का अनुसरण करते हैं तो आप स्वयं बताएं कि आज सैंकड़ों वर्षों बाद केंद्र में पहली बार युगपुरुष मोदी जी के नेतृत्व में स्थापित राष्ट्रीय शासन द्वारा भारत-पुनर्निर्माण के अवसर पर आप अथवा किसी और को क्या अधिकार है कि उसकी अवहेलना की जाए? श्री मनमोहन कुमार आर्य जी ने प्रवक्ता.कॉम पर बीसियों आलेख लिख एक श्रेष्ठ नागरिक की भांति भारत-पुनर्निर्माण हेतु बहुत ही आवश्यक मानव मूल्यों को समझा हमारे चरित्र को संवारने की चेष्ठा की है और आप हैं कि पंजाबी लोकोक्ति “ਏ ਤਾਂ ਗੱਲ ਮੰਨੀ, ਛੱਲੀ ਕਯੋਂ ਭੰਨੀ” (वो तो ठीक है पर) कहते व्यर्थ ही विभाजनात्मक कांग्रेसी-संकीर्तन कर रहे हैं| अब तक केवल विभिन्न भाषाओं, धर्मों, जातियों व क्षेत्रीय रीती-रिवाज़ों में बंटे भारतीयों में राष्ट्र-भक्तों को अंध भक्त कह आप किसे धोखा दे रहे हैं?

          • यही तो मुश्किल है। हिंदुस्तान में बिना गुण दोष देखे हुए नायक पूजा की जाती है। नायक अर्थात इष्ट में कितनी भी कमी क्यों ना हो ; किंतु हम उसे न देख पाते हैं ना ही बर्दाश्त कर पाते हैं। हो सकता है जो आपने लिखा है वह आपके लिए नितांत सही हो, आवश्यक नहीं है देश के रहने वाले सभी व्यक्ति उसी तरह से सोचे जिस तरह से आप सोच रहे हैं ;क्योंकि सोच यथार्थ पर भी हो सकती है और कल्पना पर भी । कल्नापना पर जीना चाहते हैं तो सब कुछ ठीक है और अगर यथार्थ पर जीना चाहते हैं तो फिर नायक पूजा से हटकर हमें स्वतंत्र रुप से चिंतन करना होगा और मोदी जी की 4 साल की उपलब्धियों को हमें अथार्थ की कसौटी में कसना होगा तभी कोई निर्णायक बात कहीं जा सकती है।

          • गिरधारी लाल जी, अप्रैल १८ की टिप्पणी में आप किस यथार्थ की बात करते हैं? मेरा यथार्थ भले ही कल्पना पर आधारित है, मैं उस यथार्थ को मन में संजोए बैठा हूँ जिसकी मुझे, आपको, व भारतीय जनसमूह को कभी कल्पना करने की अनुमति ही नहीं थी! अनुमति तो छोड़ो, हमें भारतीय मूल की एक सामान्य भाषा से ही वंचित रखा गया जिसके माध्यम द्वारा संगठित हम सब मिल आज “आपके यथार्थ” पर विवाद कर पाते जो वर्तमान इक्कीसवीं शताब्दी के वैश्विक वातावरण में राष्ट्रीय शासन का सहयोग न दे उसे चुनौती देता हमारे द्वार पर खड़ा है| ऐसे में आप किस अदृश्य नायक की पूजा में लगे हैं?

            मैंने अंतरजाल पर पाया है कि एक ही साँस में आप कल के राजपूत राजाओं द्वारा मुगल बादशाहों को अपनी “छोरी” दिए जाने और आज वर्षों से बीच राजनीतिक चौराहे सड़क पर बिठलाए हुए “दलित” की बात करते हैं| मजे की बात तो यह है कि आप दोनों में किसी एक को भी अच्छी तरह नहीं जानते या यूं कहिये कि उनकी व्यक्तिगत स्थिति को नहीं समझते| आज राजा तो रहे नहीं जो आप उनसे पूछें कि वेदों के विपरीत वर्तमान हिन्दू वर्ण व्यवस्था कैसे बन पाई लेकिन मूक बने भारतीय लोकतंत्र में पिछले सत्तर वर्षों से सत्ता में रहे अंग्रेजों के प्रतिनिधि कार्यवाहक कांग्रेस से नहीं पूछेंगे कि “दलित” कहाँ से आया अथवा आज स्वतन्त्र देश में कोई भारतीय नागरिक क्योंकर दलित बना बैठा है| आप मुंह खोलते हैं तो वर्तमान राष्ट्रीय शासन को आपके दलित नहीं बल्कि सभी गरीब नागरिकों के आर्थिक व सामाजिक उत्थान के लिए कोई योगदान न दे सदियों से सामाजिक कुरीतियों के लिए आप केवल युगपुरुष मोदी जी के नेतृत्व से आज केंद्र में स्थापित राष्ट्रीय शासन, राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी व हिन्दू समाज को ही दोषी ठहराते हैं| भारत पुनर्निर्माण में आपकी भर्त्सना नहीं, आपका सहयोग चाहिए|

  4. लेकिन हमारे नेता इस बात को समझने को तैयार नहीं हैं , आज देश में बंद के दौरान जिस प्रकार से गुंडेपन, लूट पात ,गाड़ियों को जलाना , जबरन बंद करवाना हो रहा है तो यह सवाल भी उठता है कि क्या आरक्षण देने का उदेश्य इन गुंडे मवालियों की फौज खड़ा करना था ?क्या अब भी आरक्षण इस कार्य हेतु ही जरुरी है ?हमारे नेतओं ने उस समय भी इस के होने वाले दुष्परिणामों को नहीं सोचा था न आज कजे नेतसोच रहे हैं
    अब यह आरक्षण आज अधिकार् बन गया है जो पहले संविधान ने केवल दस साल के लिए सुरक्षा कवच के रूप में प्रदत किया था
    , यह पूर्व सरकारों की विफलता रही कि उन्होंने शायद कुछ इन के विकशेतु कुछ किया ही नहीं बल्कि हर दस साल बाद इसे विस्तार देती रहीं
    कांग्रेस ने वोट बैंक बनाये रखने के लिए ऐसा किया , फिर अन्य दलों को भी यह सूझ आयी व कांशीराम जैसे नेता भी इसी की वजह से पनपे आज आधे से ज्यादा नेतों की दूकान इसी के नाम पर चल रही है , ये सब दंगा फसाद कर कल खींसे निपोरते हुए बेशर्म हो कर यह बयान देंगे कि हमारा आंदोलन तो शांतिपूर्ण था यह तो अन्य दलों की चाल थी सरकार की विफलता है कि उसने इन्हें नियंत्रित नहीं किया
    यह शत प्रतिशत तय है कि इस देश का विनाश कुछ कारण से ही होगा और उनमें प्रमुख हैं आरक्षण,अल्पसंख्यक तुष्टिकरण,नेता तथा अपराधियों का गठजोड़,,वोट की खातिर वैचारिक सिद्धांतों का अधोपतन
    इन सब के लिए जो बीज हमारी पूर्ववर्ती सरकारों ने जो बोये हैं उसकी फसल आज लहलहा रही है जिसे ये नेता काट रहे हैं , कुछ दिन और काटेंगे फिर ये भस्मासुर किसी दिन इन को ले डूबेगा और राष्ट्र को भी

  5. आज भरत बंद है जिसको देखकर ये नही लगता की ये वाकई कमजोर लोग है जिनको सुरक्षित करने के लीए विशेष कानून की जरुरत है, जो आज पुरे भारत को बंद कर दिए है. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ खड़े है !

    मुझे अब से कुछ महीने पहले का वाकया याद आ रहा है;

    जनवरी के महीने में, मैंने गोरखपुर रेती चौक से एक बड़ा वाला टीन का बक्सा ख़रीदा. बक्सा बड़ा होने के कारन मोटर साईकिल पर ले जाना संभव नहीं था इसलिए एक साईकिल रिक्सा पर रख दिया ताकि घर तक लाया जा सके, धीरे धीरे घर पहुंचे, उसके बाद मैं और रिक्सावला मिलकर उस बक्से को उठाकर घर में ले जाने लगे, अन्दाजातन बक्से का वजन १०-१२ किलो रहा होगा, जिसे मैंने अपने तरफ उठा लीये लेकिन वो रिक्सावला नहीं उठपा रहा था, मैंने कहा क्या भाई इतना भी नहीं उठता तुमसे, उसने जवाब दिया ” साहब ५-६ दिन से बुखार है आज मेडिकल स्टोर से दवाई ली है, पैसा नहीं था इसलिए रिक्सा लेकर चला आया”, मैंने पूछा सरकार की इतनी योजनाए है तुमको कुछ नहीं मिली ? उसने जवाब दिया ” साहब बलिया घर है और मै मिश्रा हूँ जनरल केटेगरी मै अता हूँ, इसलिए मुझे कुछ नहीं मिल सकता, खेतीवाड़ी है नही इसलिए गोरखपुर मै रिक्सा चलाते है, बच्चे सरकारी स्कूल मै पढ़ते है और कहते है की आगे की पढाई नहीं कर पाएंगे क्योकि फीस देने के लीये नहीं है और जनरल कैटेगरी के लीये बिना फीस के कोई गुंजाइस नहीं, मेरा मन भर आया मैं सोचने लगा वाकई हमारे देश की व्यवस्था सबके लीये सामान है? जहाँ जरुरतमंदो के बजाय जाती के आधार पर सरकारी सहायता मिलती है.

    सायद ये सत्य है की कोई भी सरकार के लीए इस सच्चाई के लीए कुछ करना उसी प्रकार है जैसे ” बिल्ली के गले मै घंटी बाधना ” ! क्या वाकई हमरा देश विकास कर रहा है जहाँ एक तरफ जाती पति का नाम लेने पर केस हो जाता है वही दूसरी तरफ सरकारी फायदे के लीए लोग जनमते ही अपने बच्चो को जाती के हिसाब से (ऐसी / एसटी/ ओबीसी) सर्टिफिकेट बनवाने लगते है ताकि स्कूल, कॉलेज से लेकर सरकारी नौकरी तक सारा सरकारी फायदा लिया जा सके, कुछ तो तीसरी पीढ़ी मै भी लेने लगे है!

    आखिर कब तक ये चलता रहेगा? क्या जाती – पाती के आधार पर सब कुछ आनेवाले दिनों मै बट जायेगा ? आखिर एक देश मै रहकर अलग – अलग कानून क्यों? जब पूरा देश हमारा है फिर हर आदमी सामान अधिकार से क्यों नही रह – वस सकता है? हर जरुरतमंदो को सामान सहायता क्यों नही मिलती? आज इतने तोड़ फोड़ के बावजूद कोई कुछ बोलता क्यों नही ?

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