राकेश कुमार आर्य

राकेश कुमार आर्य

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उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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लेखक - राकेश कुमार आर्य - के पोस्ट :

समाज

‘न्यू इंडिया’ और गांवों की समृद्घि का रास्ता

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अब पुन: 'न्यू इंडिया' को भी अंग्रेजी में अभिव्यक्ति देना जंचता नहीं है। फिर भी 'न्यू इंडिया' अर्थात 'नव भारत' के निर्माण में गांव की भूमिका पर हम केन्द्र सरकार और राज्य सरकार दोनों से निवेदन करेंगे कि इस कार्य के लिए गांव को गंवारों का या पिछड़े लोगों का झुण्ड मानने की मानसिकता से इस देश के शिक्षित वर्ग को निकालने का प्रयास किया जाए। गांव के विकास की बात यहीं से प्रारंभ हो। देश का शिक्षित वर्ग आज भी गांव के लोगों से और गांव के परिवेश से वैसी ही घृणा करता है जैसी अंग्रेज किया करते थे। विदेशी शिक्षा को देश में लागू करोगे तो ऐसे ही परिणाम आएंगे। गांव के प्रति ऐसी घृणास्पद मानसिकता के परिवर्तित करने के लिए शिक्षा का भारतीयकरण किया जाए।

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विविधा

निजी अनुभवों की सांझ-2

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बिजली की चोरी होती है-कर्मचारियों की कृपा से! सरकारी प्रयास होते हैं-मीटर लगाने के, जिससे इसे रोका जा सके। किंतु सारे प्रयास निरर्थक हो जाते हैं। कानून बनाये जाते हैं, मानव की दुष्प्रवृत्तियों को सद्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने के लिए। पर एक समय आता है कि कानून की तनी हुई चादर में से भी छिद्र कर दिये जाते हैं और कानून की ओजोन की परत को तोडक़र मानवीय स्वभाव की पराबैंगनी किरणें सीधे पडक़र मानव को ही तंग व परेशान करती हैं। यह सांप छछूंदर का खेल है, जिसमें कानून व्यक्ति को गलत कार्यों को करने से रोकना चाहता है और व्यक्ति उल्टे कानून के बढ़ते हाथों को (अपनी ओर बढऩे से) रोकना चाहता है।

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विविधा

महंगी होती चुनावी व्यवस्था

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हमें इस समय अपनी चुनावी प्रक्रिया में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। इसके लिए उचित होगा कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं सहित अधिकतर चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था पर गंभीरता से विचार किया जाए। इससे हम चुनावों पर व्यय होने वाली बड़ी धनराशि को बचा सकते हैं। चुनाव आयोग को बार-बार सरकारी कर्मियों को उनके सरकारी कार्य रूकवाकर उन पर अपना डंडा चलाने का अधिकार अभी लगभग वर्ष भर कहीं न कहीं मिला रहता है। यदि चुनाव एक साथ होते हैं तो चुनाव आयोग सरकारी कर्मियों का कार्य रूकवाने से दूर रहेगा।

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विविधा

निजी अनुभवों की सांझ-1

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चिकित्सक के पास आप जाएं। जिस दुकान से दवाइयां आएंगी वहां चिकित्सक महोदय का कमीशन तय है। इसलिए दवाइयां आपको महंगी लिखी जाएंगी। यह जानते हुए भी कि महंगी दवाइयां शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। फिर भी भारी और महंगी दवाई क्रय करने के लिए आपको बाध्य किया जाएगा। जिससे आप उन्हें क्रय करें और चिकित्सक का कमीशन ठीक बन सके। रक्त परीक्षण, मधुमेह परीक्षण, सीटी स्कैन आदि के लिए आपको एक चिकित्सक महोदय दूसरे चिकित्सक के लिए संस्तुति प्रदान कर देंगे। इस मानवीय दृष्टिकोण के पीछे भी 'कमीशन' का भूत छिपा होता है।

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विविधा

गांधीवाद की परिकल्पना-8

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हमारी सरकारों ने गांधीवाद का चोला पहनकर सूचना पाने वाले को उस व्यक्ति का मौलिक अधिकार माना है। यह कैसी घोर विडंबना है कि सूचना पाने का अधिकार देकर भी उसे सही सूचना (इतिहास की सही जानकारी) से वंचित रखा जा रहा है। इस भयंकर और अक्षम्य षडय़ंत्र पर से पर्दा उठना चाहिए कि वे कौन लोग हैं जो हमारे सूचना पाने के मौलिक और संवैधानिक अधिकार में बाधक हैं? ऐसा नाटक अब बंद होना चाहिए, जिससे पर्दे के पीछे से सत्य, अहिंसा और बंधुत्व के कोरे आदर्शों की भी हत्या की जा रही है। किंतु फिर भी देश पर गांधीवाद के आदर्शों को लपेटा जा रहा हो और उसे बलात् थोपा जा रहा हो।

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विविधा

गांधीवाद की परिकल्पना-7

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नैतिक मूल्यों के आधार बनाकर भी गांधीवाद का एक धूमिल चित्र भारत में गांधीवादियों ने खींचने का प्रयास किया है। गांधीजी भारतीय राजनीति को धर्महीन बना गये। वह उसे संप्रदाय निरपेक्ष नहीं बना सके, अपितु उसे इतना अपवित्र करन् दिया है कि वह सम्प्रदायों के हितों की संरक्षिका सी बन गयी जान पड़ती है। इससे भारतीय राजनीति पक्षपाती बन गयी। जहां पक्षपात हो वहां नैतिक मूल्य ढूंढऩा 'चील के घोंसले में मांस ढूढऩे के बराबर' होता है। नैतिक मूल्य, नीति पर आधारित होते हैं नीति दो अक्षरों से बनी है-नी+ति। जिसका अर्थ है एक निश्चित व्यवस्था। नीति निश्चित व्यवस्था की संवाहिका है, ध्वजवाहिका है और प्रचारिका है।

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विविधा

गांधीवाद की परिकल्पना- 5

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गांधीजी को लोकतंत्र का प्रबल समर्थक भी कहा जाता है। उनके चहेते शिष्य जवाहरलाल ने इस बात का बहुत बढ़-चढक़र प्रचार किया। जबकि उस समय की परिस्थिति गत साक्ष्य यह सिद्घ कर रहे हैं कि गांधीजी का लोकतंत्र में नही अपितु अधिनायकवाद में दृढ़ विश्वास था। अब संक्षिप्त चर्चा इस पर करते हैं। भारतीय समाज में ऐसे व्यक्ति को बुद्घिमान माना जाता है जो देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार उचित निर्णय लेने में सक्षम और समर्थ होता है तथा अपने कार्य को निकालने में सफल होता है। गांधीजी भारतीय समाज व संस्कृति के इस तात्विक सिद्घांत को पलट देना चाहते थे।

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