क्षितिज के पार 

 आत्‍माराम यादव पीव

दूर क्षितिज के पार शून्य में
ऑखें भेदना चाहती है व्योम को
पुच्छल छल्लों का बनता बिगड़ता गुच्छा
ऑखों की परिधि में आवद्घ रहकर
थिरकता हुआ ओझल हो जाता है
ऑखें कितनी बेबश होती है
अपनी पूर्ण क्षमता के
उन गुच्छों के स्वरूप को
थिर देखने को उत्सुक ।
अनवरत चल पडता है
उन छल्लों का शक्तिस्त्रोत
ऑखों से फूटता
अज्ञात यात्रा की ओर
यह क्रमवार शाश्वती सिलसिला जारी रहता है
ऑखों के बंद हो जाने तक।
व्योम के इस मायाबी करतब को
“पीव” स्थिर देखने तक की
क्षमता नहीं रखती ये ऑखें
फिर भेदने का बल कहॉ से पायेगी?

दो

निकट अपनी नजरों के नीचे
ठोस जड़ में
ऑखें भेदना चाहती है
वसुन्धरा को।
जन्म-मरण का बनता बिगड़ता जीवन
ऑखों की परिधि के पार रहकर
अपार की यात्रा पर चला जाता है।
ऑखें कितनी लाचार होती है
क्षणिक मुस्कान संजाये
नित नव शस्य अंकुरण को
अमरत्व चिर देखने को आकुल।
अनवरत चल पड़ता है
जीवन का शक्ति स्त्रोत ऑखों में
रहस्य की प्यास जगाये चिन्मय की ओर
क्रमवार कटते जन्मों का
यह सिलसिला जारी रहता है
वसुन्धरा पर जीवन रहने तक
वसुन्धरा के इस अनन्त तन का
स्पर्शित जीवन मंचन देखने तक की
उम्र नहीं रखती ये ऑखें
“पीव” फिर शाश्वत वसुन्धरों को
भेदने की उम्र कहॉ से पायेगी?

तीन

निकट अपने कदमों के नीचे सतह में
ऑखें भेदना चाहती है वसुन्धरा को।
चेतना का आभासित बनता बिगड़ता रूप
जन्ममृत्यु के दोराहे पर चलकर
अज्ञेय से उदघाटित हो
अज्ञात में विसर्जित हो जाता है।
ऑखे अज्ञेय के लिये हर्षित
और अज्ञात पर विकलित होती है
उसे सदा चिरायु देखने को॥
अनवरत चल पडता है जीवन मरण का
अज्ञेय-अज्ञात का
उदघाटित समर्पित सिलसिला।
ऑखें वसुन्धरा के इस
अजीव सतही करतब को
देखने की क्षमता तक खो देती है
“पीव” मृत्यु वरण तक
फिर भेदने का सामर्थ कहॉ से पायेगी?

चार

रूप लावण्य के पार
अन्तस सौन्दर्य में
ऑखे भेदना चाहती है
इस नश्वर तन को।
एक अपूर्व सौन्दर्य का
अद्भुत बनता बिगडता स्वरूप
अस्तित्व के रूप में
लावण्य से सॅवरकर
जाति वर्ण और रंग के
क्षुद बंधन से मुक्त हो जाता है।
ऑखे श्वेत श्याम रंग
और जाति भेद के लिये
कितनी कुंठित होती है
अपनी क्षुद्र लकीरों में
उसे अपने में असीम देखने को।
अनवरत चल पडता है
असीम देखने को
सीमित पक्षपात का
संकीर्ण द्वन्दातीत भेद करता
अंतहीन बौद्विक सिलसिला।
ऑखें नश्वर तन के
इस विचित्र दायरों को
मृकदृष्टा बन तोड़ने तक की
ताकत खो देती है
फिर “पीव” भेंदने का
आग्रह कहॉ से पायेगी?

पॉच
विराट अस्तित्व के पार
महाशून्य में
ऑखे भेदना चाहती है
ज्ञात-अज्ञात गृहों को।
प्रकाश के चमकते संकेतों में
टिमटिमाते समूह
रात के घने अंधियारे में
केंन्द्रित होकर
दिवस के पराभौतिक दर्पण में
बोझिल हो जाते है।
ऑखें कितनी लाचार होती है
दिवस के उजले दर्पण में
उनकी छाया तक को खोजने को।  
निमग्न संकेतों का
अनवरत चल पडता है
इन टिमटिमातें गृहों का
लौकिक नजरों से दिवस में
तलाशने का असंभवी दौर॥ 
ऑखें ज्ञात-अज्ञात ग्रहों को
अनंत अधियारे में देखकर भी
पहचानने में समर्थ नहीं होती है।
फिर “पीव” दिन के उजियारे
दर्पण में कैसे देख पायेगी?

छह

लहरों के करोड़ो
मदमस्त लहराते हाथ
सिन्धु के बाहुपाश में
आलिंगनबद्घ होकर
उसके बलशायी अंक में
लीन हो जाते है।
ऑखें कितनी हैरान होती है
असीमित सिन्धु में
उसके महाकाय स्वरूप में
लहरों को खोजती ।
सिन्धु के अन्तस में छिपा
लहरों का विपुल वैभवसमृद्विगार
और कोटिशः जीवराशि
जीते है अपनी पूर्णता को।
ऑखें सिन्धु की इस
शक्ति संपन्नता को देखती है
लहरों में अपलक देखकर भी
ऑखें इस विस्मय से
तृप्त नहीं होती है
फिर पीव अनन्त गहराईयों को
कैसे देख पायेगी?

सात

अव्यक्त वृक्ष के पार
उसके अन्तस में
ऑखें भेदना चाहती है
एक बीज को।
सृष्टिकर्ता का रचित
विस्मयकारी कुतुहल
बीज के अन्तस वृत में
समाहित होकर
उसका रहस्यमयी विराट
स्वरूप छिप जाता है।
ऑखें जिज्ञासाओं से हतप्रद होकर
बीज के स्वरूप को
तलाशती खो जाती है।
बीज के हृदय में
अप्रगट विशालकाय
अदृश्य वृक्ष और
अगणित फलों-पत्तों की
छिपी आकृतियों को
ऑखें बीज की जीवन क्षमता को
देखती है फल-फूल पेड पौधों में।
समृष्टि का जगत देखकर भी
अन्जान रहती है ऑखें

फिर “पीव” बीज के हृदय में,
झॉकने की नजरें कहॉ पायेगी?

आठ

शरीर के पार
सौन्दर्य में
ऑखें भेदना चाहती है
नर-नारी के तन को।
अलौकिक सत्ता के
सुन्दरतम जीवित तन में
अद्भुत रूप रचना में
तलाशती है अपनी कामना
आसक्त पंचतत्वी आवरण पर
थिर हो जाती है नजरें।
सृष्टिकर्ता की
इन ऋचाओं में
अवाक सी
अपनी वासना से
अनिर्णित
ये नजरें
थमती नहीं है
पावन निर्दोष तन पर
दृष्टि डाले बिना।
पथराई सी
चकराई सी
ये नजरें
पीव अपनी पूर्णता का
उदघोष तक नहीं कर पाती
“पीव” फिर तन से अपनी
आसक्ति कैसे पूर्ण कर पायेगी?

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