भारत भाषा प्रहरी : डॉ. वेद प्रताप वैदिक 

स्वतंत्रता के पश्चात भारत में हिंदी और भारतीय भाषाओं के संघर्ष की कहानी भारतीय भाषाओं का स्वतंत्रता-संग्राम  बनकर जिस व्यक्ति के साथ आगे बढ़ती है और भाषायी स्वतंत्रता को व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार मानकर अपना  सफर तय करती है उस व्यक्ति का नाम है – डॉ. वेद प्रताप वैदिक। भाषा के सवाल पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी और डॉ. राम मनोहर लोहिया की परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में डॉ॰ वैदिक का नाम प्रमुख है  ।अपने मौलिक चिंतन, प्रखर लेखन और विलक्षण वक्तृत्व के लिए विख्यात  डॉ॰ वेद प्रताप वैदिक भारतीय विदेश  नीति परिषद के अध्यक्ष, भारत के वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, पटु वक्ता एवं सुविख्यात हिंदी  व भारतीय  भाषा समर्थक हैं। डॉ॰ वेद प्रताप वैदिक का जन्म : 30 दिसम्बर 1944, इंदौर, मध्यप्रदेश  में हुआ।  अंग्रेजी पत्रकारिता के  मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युगारंभ करनेवालों में वे अग्रणी रहे हैं| उन्होंने हिन्दी समाचार  एजेन्सी  भाषा के संस्थापक सम्पादक के रूप में एक दशक तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में काम किया।  वे नवभारत टाइम्स के संपादक (विचार) भी रहे हैं| वे भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष तथा नेटजाल डाट काम के संपादकीय निदेशक हैं ।

वैदिक जी अनेक भारतीय व विदेशी शोध-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ रहे हैं। भारतीय विदेश नीति के चिन्तन और संचालन में उनकी भूमिका उल्लेखनीय है। ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा विषय में ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ से पीएच0डी0, संस्कृत, फारसी और रूसी भाषा का विशेष प्रशिक्षण  प्राप्त किया है।  अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में अपने अफगानिस्तान सबंधी शोध-कार्य के दौरान न्यूयॉर्क की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएन्टल स्टडीज़, मास्को की विज्ञान अकादमी और काबुल विश्वविद्यालय में अध्ययन करनेवाले डॉ0वैदिक ने लगभग अस्सी देशों की यात्राएँ की हैं| अनेक देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और विदेश मंत्रियों से उनका व्यक्तिगत परिचय है। उन्होंने 1999 में संयुक्तराष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर तीन व्याख्यान दिए तथा 1999 में विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित दक्षिण एशियाई विश्व सम्मेलन में उदघाटन-भाषण दिया|

 1957 में सिर्फ 13 वर्ष की आयु में उन्होंने हिंदी  के  लिये  सत्याग्रह किया और पहली बार जेल गये। उन्हें जवाहरलाल नेहरू  विश्वविद्यालय में उस समय काफी लम्बी लड़ाई लड़नी  पड़ी जब  उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध पर अपना शोध प्रबन्ध  हिन्दी में  प्रस्तुत किया जिसे विश्वविद्यालय प्रशासन ने  अस्वीकार कर  दिया और उनसे कहा कि आप अपना शोध प्रबन्ध  अंग्रेजी में ही  लिखकर दें। वैदिक जी भी अडिग रहे और उन्होंने  संघर्ष शुरू कर  दिया। ‘स्कूल ऑफ इण्टरनेशनल स्टडीज़’  (जे०एन०यू०) ने  उनकी छात्रवृत्ति रोक दी और स्कूल से उन्हें  निकाल दिया। इस  ज्वलन्त मुद्दे को लेकर 1966-67 में भारतीय  संसद में जबर्दस्त  हंगामा हुआ। डॉ॰ राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, आचार्य  क़पलानी, हीरेन मुखर्जी, प्रकाशवीर शास्त्री, अटल बिहारी  वाजपेयी, चन्द्रशेखऱ, भागवत झा आजाद,  हेम बरुआ आदि ने  वैदिकजी का समर्थन किया।  अन्ततोगत्वा  श्रीमती इंदिरा  गांधी की पहल पर ‘स्कूल’ के  संविधान में संशोधन हुआ और  वैदिक को वापस लिया गया।  इसके बाद वे हिन्दी-संघर्ष के    राष्ट्रीय प्रतीक बन गये।

डॉ॰ वैदिक ने पिछले 50 से भी अधिक वर्षों में हिन्दी को    राष्ट्रभाषा   बनाने के लिये अनेकों आन्दोलन चलाए और अपने चिन्तन व लेखन से यह सिद्ध किया कि स्वभाषा में किया गया काम अंग्रेजी के मुकाबले कहीं बेहतर हो सकता है। उन्होंने एक लघु पुस्तिका विदेशों में अंग्रेजी भी लिखी जिसमें तर्कपूर्ण ढँग से यह बताया कि कोई भी स्वाभिमानी और विकसित राष्ट्र अंग्रेजी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा में सारा काम करता है। उनका विचार है कि भारत में अनेकानेक स्थानों पर अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण ही आरक्षण अपरिहार्य हो गया है जबकि इस देश में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। वे कहते हैं- ‘मेरे पासपोर्ट पर भारत एक मात्र ऐसा देश है, जिसकी मोहर उसकी अपनी ज़बान में नहीं है। मैंने क़रीब आधा दर्जन हवाई कंपनियों से विभिन्न देशों की यात्रा की लेकिन उन सब में केवल अपने देश की हवाई कंपनी, एयर इंडिया की विमान परिचारिकाएँ ही एक मात्र ऐसी विमान परिचारिकाएँ थीं जो अपने देशवासियों के साथ परदेसी भाषा में बात करती थीं। यदि इस प्रकार की घटनाओं से किसी देश के नागरिकों का सिर ऊँचा होता हो तो सचमुच भारतीय लोग अपना सिर आसमान तक ऊँचा उठा सकते हैं।‘

डॉ. वैदिक के अनुसार हमारे देश में यह आम धारणा है कि विदेशों में अंग्रेज़ी ही चलती है, अंग्रेज़ी के बिना हम विदेशों से संपर्क नहीं रख सकते, अंग्रेज़ी के जरिए ही विदेशी मुल्कों ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में उन्नति की है। वे कहते हैं, ’इस तरह की दकियानूसी और पिछड़ेपन की बातों पर लंबी बहस चलाई जा सकती है लेकिन यहाँ मैं केवल उन छोटे-मोटे अनुभवों का वर्णन करूँगा जो पूरब और पश्चिम के देशों में भाषा को लेकर मुझे हुए।मैं एशियाई देशों में अफ़ग़ानिस्तान, ईरान और तुर्की गया, यूरोपीय देशों में रूस, चेकोस्लोवेकिया, इटली, स्विटजरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी तथा ब्रिटेन गया तथा यात्रा का अधिकांश भाग अमेरिका और कनाडा में बिताया। इन देशों में से एक भी ऐसा देश नहीं था जिसकी सरकार का काम-काज उस देश की जनता की ज़बान में नहीं होता।‘  

डॉ वैदिक का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान जैसा देश, जहाँ राजशाही थी और जहाँ राज-परिवार के अधिकांश सदस्यों की शिक्षा पेरिस या लंदन में हुई है, वहाँ भी शासन का काम या तो फारसी (दरी) या पश्तो में होता है। उनका कहना है,’ मैंने अफ़ग़ानिस्तान के लगभग सभी प्रांतों की यात्रा की और सभी दूर शासकीय दफ़्तरों में जाने का अवसर मिला, कहीं भी किसी भी दफ्तर में अंग्रेज़ी का इस्तेमाल होते हुए नहीं देखा। बड़े से बड़ा अधिकारी अपनी देश-भाषा का प्रयोग करता है। अफ़ग़ानिस्तान में मैं विदेशी था लेकिन अफ़ग़ान विदेश मंत्रालय ने राज्यपालों के नाम मेरे लिए जो पत्र दिए वे अंग्रेज़ी में नहीं, दरी में थे। इसी प्रकार सोवियत रूस में ‘इंस्तीतूते नरोदोफ आजी के निदेशक ने मस्क्वा के विभिन्न पुस्तकालयों के नाम मुझे जो पत्र दिए, वे रूसी भाषा में थे। इस संस्था के निदेशक प्राचार्य गफूरोव जो कि रूस के श्रेष्ठतम विद्वानों में से एक थे, अंग्रेज़ी नहीं जानते। उनके अलावा अंतर्राष्ट्रीय मामलों के ऐसे अनेकों रूसी विद्वानों से भेंट हुई जो अंग्रेज़ी नहीं जानते। जो अंग्रेज़ी जानते हैं, वे भी अपनी रचनाएँ रूसी भाषा में ही लिखते हैं और फिर उनका अनुवाद होता है। अंग्रेज़ी या फ़्रांसीसी उनके लिए आकलन की भाषा है, सूचना देनेवाला एक माध्यम है, उनकी अभिव्यक्ति को कुंठित करने वाला गलाघोंटू उपकरण नहीं है। मस्क्वा में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थी विज्ञान और इंजीनियरिंग का उच्च अध्ययन कर रहे हैं। उन्हें सारी शिक्षा रूसी भाषा के माध्यम से ही दी जाती है। मस्क्वा में एक-बार हम लोग विज्ञान और तकनीक की प्रदर्शनी देखने गए। वहाँ मालूम पड़ा कि जिस वैज्ञानिक ने अंतरिक्ष यान आदि के आविष्कार किए हैं, उसने अपनी रचनाएँ रूसी भाषा में लिखी हैं। इसी प्रकार जर्मनी और फ्रांस के विश्वविद्यालयों में ऊँची पढ़ाई उनकी अपनी भाषाओं में होती है। विश्वविद्यालयों के कई महत्वपूर्ण प्राचार्य अंग्रेज़ी नहीं बोल सकते थे।‘

भारतीयों के अंग्रेजी प्रेम संबंधी वे अपना एक अनुभव बताते हैं-‘चेकोस्लोवेकिया में वहाँ के प्रसिद्ध जन-नेता और संसद के अध्यक्ष डॉ. स्मरकोवस्की से जब मैं मिलने गया तो उनके विदेश मंत्रालय ने एक ऐसा दुभाषिया भेजा, जो अंग्रेज़ी से चेक में अनुवाद करता था। मैंने कहा, ”मैं भारतीय हूँ, मेरे लिए अंग्रेज़ी वाला दुभाषिया क्यों भेजा? उन्होंने कहा, ”आपके देश से आने वाले विद्वान, नेता और कूटनीतिज्ञ अंग्रेज़ी का ही प्रयोग करते हैं।” यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि डॉ. स्मरकोवस्की जैसे राष्ट्र नेता यूरोपीय होने के बावजूद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग नहीं करते। ‘

 अल्पायु में भाषा के प्रश्न  पर पहली जेल-यात्रा और  फिर उसके बाद भाषा तथा  छात्र-आंदोलनों में अनेक  जेल-यात्राएँ करनेवाले डॉ  वेदप्रताप वैदिक भारतीय  भाषाओं के समर्थन  में अनेक बृहत सम्मेलनों  और आंदोलनों के सूत्रधार  रहे हैं। भारत में अँग्रेजी का भ्रमजाल तोड़ने और भारतीयों को जागरूक करने के लिए उन्होंने दिलो-दिमाग को झरझोर देनेवाली पुस्तिका-‘अंग्रेजी हटाओ – क्यों और कैसे’ लिखी और उसके बाद पिछले वर्ष उन्होंने दो और पुस्तिकाएँ ‘स्वभाषा लाओ ’ तथा ‘मेरे सपनों का विश्वविद्यालय ’  प्रस्तुत की जो अपनी भाषा के महत्व और विश्व में भाषा के सत्य को प्रस्तुत कर अंग्रेजी के भ्रमजाल को तोड़कर भारत में भारतीय भाषाओँ का मार्ग प्रशस्त करती है। अपने निर्भीक वक्तव्यों, बेबाक टिपप्णियों और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की धारा में अपने स्वतंत्र विचारों से अपनी विशिष्ट पहचान बनानेवाले भारतीय भाषाओं के सजग प्रहरी और प्रथम सेनानी हैं। भीष्म पितामह की भांति डॉ. वेदप्रताप वैदिक भारतीय भाषाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारतीय-भाषा प्रेमियों के लिए प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं। एक मार्गदर्शक के रुप में ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई’ को भी निरन्तर उनका सहयोग व मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है। आशा है कि उनका भारतीय भाषा अभियान निश्चय ही हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने के साथ-साथ भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने में सफल होगा।

 –  डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’

वैश्विक हिंदी सम्मेलन 

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