बोडोलैंड समझौताः शांति का रास्ता

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प्रमोद भार्गव

त्रिपक्षीय समझौते के बाद करीब पांच दशक से अलग बोडोलैंड विवाद का शांतिपूर्ण हल हो गया। हिंसक इबारतें लिखने वाला यह आंदोलन अब गांधीवादी अहिंसा के रास्ते चलते हुए क्षेत्रीय विकास से जुड़ेगा। गांधीजी की पुण्यतिथि 30 जनवरी को सभी आंदोलनकारी गुटों ने खतरनाक हथियार भी असम के आला अधिकारियों को समर्पित कर दिए। इस नजरिए से यह समझौता स्वागत योग्य है। गृहमंत्री अमित शाह की मौजूदगी में प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन ‘नेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी)‘ एवं केंद्र व राज्य सरकार के बीच समझौता हुआ। इस मौके पर असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल भी उपस्थित थे। संधि पर एनडीएफबी के चारों गुटों के नेता रंजन डैमारी, गोविंदा बासुमतारी, धीरेन बारो एवं बी.साओरैगरा, गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव सत्येंद्र गर्ग और असम के मुख्य सचिव संजय कृष्ण ने हस्ताक्षर किए। समझौते पर अखिल असम बोडो छात्र संगठन और यूनाइटेड बोडो पीपुल्स आर्गेनाइजेशन (एबीएसयू) ने भी हस्ताक्षर किए हैं। एबीएसयू 1972 से ही पृथक बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था। हालांकि पृथक बोडोलैड की पहली मांग 1967 में उठी थी। 27 साल में यह तीसरा समझौता है। इस दौरान अलग राज्य की मांग को लेकर जो प्रदर्शन हुए, उनमें बड़े पैमाने पर हिंसा के कारण जानमाल का नुकसान तो हुआ ही करीब चार हजार लोगों के साथ 239 सुरक्षाकर्मियों की भी जान चली गयी।पूर्वोत्तर का यह सबसे बड़ा व प्रमुख राज्य जिस तरह की राजनीति का सामना करता रहा है, उसके चलते उग्रवादी गुटों को पनपने के अवसर मिलते रहे। यह स्थिति इसलिए भी बनी क्योंकि केंद्र व राज्य सरकारें समस्या से जुड़े मुद्दों का बातचीत से समाधान निकालने की बजाय आंदोलन को सेना व सुरक्षा बलों से कुचलने में लगी रही। अलगाव की इस आग में घी डालने का काम पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन भी करते रहे। इन देशों ने विद्रोहियों को एके-47 जैसे घातक हथियारों के साथ गोला-बारूद व आर्थिक मदद की। असम की सीमा बांग्लादेश के साथ चीन से भी जुड़ी है। बोडो ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाली सबसे बड़ी जनजाति है। यही इलाका बांग्लादेश के घुसपैठियों की सबसे बड़ी शरणगाह है। इन घुसपैठियों ने अनधिकृत रूप से प्रवेश किया और इनकी खेती की जमीन व जंगल से जुड़े अन्य संसाधनों पर भी अधिकार करते चले गए। जब भारतीय मूल के वाशिदों पर आजीविका का संकट घिरने लगा तो असंतोष, आक्रोश व हिंसा के हालात निर्मित होने लगे। इस टकराव को बनाए रखने के मूल में असम की वे कांग्रेस सरकारें भी रहीं, जो वोट की राजनीति के चलते घुसपैठियों को वैध नागरिकता देने के उपाय करती रहीं।1985 में यह समस्या जब भयावह हो गई तो इसी की कोख से घुसपैठियों के विरोध में छात्र आंदोलन उपजा और वह राजनीतिक दल ‘असम गण परिषद्‘ के रूप में अस्तित्व में आ गया। 1985 में इस दल ने कांग्रेस को शिकस्त दी और छात्र नेता प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री बने। इसी समय घुसपैठियों को खदेड़ने का पहला समझौता परिषद् और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के रहते हुए हुआ था।इसके बाद राज्य में शांति स्थापना के लिए पहला बोडो समझौता 1993 में एबीएसयू से हुआ था, जिसके तहत सीमित राजनीतिक अधिकारों वाली बोडोलैंड स्वायत्त परिषद् गठित की गई थी। 2003 में दूसरा समझौता हुआ। इसके अंतर्गत असम के चार जिलों कोकराझार, चिरांग, बस्का, और उदगगुडी को मिलाकर बोडोलैंड क्षेत्रीय जिले (बीटीएडी) का दर्जा दिया गया। साथ ही बोडोलैंड टेरिटोरियल परिषद् (बीटीसी) बनाई गई। अब जो तीसरा समझौता हुआ है, वह व्यापक है। क्योंकि यह सभी उन प्रमुख आंदोलनकारी संगठनों के साथ मिलकर किया गया है, जिनकी पहचान उग्रवादी संगठनों के रूप में थी। इन सभी संगठनों ने परस्पर सहमति से अलग बोडोलैंड राज्य की मांग छोड़ दी है। समझौते से उम्मीद है कि अब असम में शांति, सद्भाव और एकजुटता तो दिखाई देगी ही बोडो व अन्य जनजातियों की अनूठी संस्कृति व भाषाओं की भी रक्षा होगी। समझौते की शर्तों के अनुसार अब बीटीसी को केंद्र सरकार विधायी, कार्यकारी प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियां देगी। बीडीएडी आंतरिक विषय तय करने के साथ बोडो पाठशालाओं का प्रांतीयकरण करने का काम करेगी। इसके लिए एक अलग निदेशालय बनेगा। बोडो आंदोलन में मारे गए लोगों के लिए पांच-पांच लाख रुपए मुआवजे के रूप में मिलेंगे। एडीएफबी कैडर का पुर्नवास होगा। बोडो जनजाति बहुल क्षेत्रों में विकास के लिए तीन वर्षों में 1500 करोड़ रुपए दिए जाएंगे। जाहिर है, यह संधि नरेंद्र मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि है।बीती शताब्दी में असम बांग्लादेशी घुसपैठियों के चलते लगातार प्रभावित होता रहा है। इसी प्रतिक्रिया में असम अंदोलन की पृष्ठभूमि से कई उग्रवादी संगठन बने। उल्फा यानी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम इस दृष्टि से प्रमुख उग्रवादी संगठन रहा है। इसकी पृष्ठभूमि फिरंगी हुकूमत में ही तैयार हो गई थी। असम राजपत्र के मुताबिक 1826 में असम को अंग्रेजों ने भारत के भौगोलिक नक्शे में दर्ज किया था। इसके पहले इसपर चार साल बर्मा का शासन रहा। बाद में एक संघि के तहत इसे असम ईस्ट इंडिया कंपनी के सुपुर्द कर दिया गया। उल्फा ने यह संधि कभी स्वीकार नहीं की। लिहाजा वह स्वतंत्र असम की मांग करता रहा। आजादी के बाद पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आईएसआई ने उल्फा के तंत्र को उकसाने का काम किया। आईएसआई बेरोजगारों के समूहों को धन और हथियार मुहैया कराकर हिंसा के लिए उकसाता  रहा। उल्फा ने एक दृष्टि पत्र जारी कर असम को स्वतंत्र राज्य बनाने की मांग को दरकिनार करते हुए स्वतंत्र राष्ट्र की मांग तक कर डाली थी। उल्फा के ज्यादातर सदस्य हिंदू समुदायों से थे, बावजूद वह पाकिस्तान की शह पर देश की अखंडता को चुनौती देता रहा था।एनडीएफबी भी उल्फा की तर्ज का ही उग्रवादी संगठन था। इसे सोंगबिजित गुट के नाम से जाना जाना गया। सोंगबिजित बोडो नहीं कार्बी आदिवासी हैं। ये अपने मकसद की पूर्ति के लिए बोडो और गैर बोडो के बीच हमला कर विभाजित रेखा खींचते रहे थे। सांप्रदायिक संघर्ष के लिए अल्पसंख्यक मुस्लिमों पर भी कई हमले बोले। आदवासी बंगाली और नेपाली भी इनकी क्रूरता के शिकार हुए हैं। संप्रभु बोडोलैंड राज्य की स्थापना के उद्देश्य से ये ऐसे संगठन थे, जो पूर्वोत्तर से जुड़ी शांति वार्ताओं में कभी शामिल नहीं हुए। स्वतंत्र बोडोलैंड के मकसद से बीएलटी यानी बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स भी हथियारबंद गिरोह के रूप में वजूद में था। हालांकि एनडीएफबी के बड़े हिस्से ने बोडो स्वायत्त परिषद् की स्थापना के साथ हिंसा का रास्ता छोड़ दिया था लेकिन इसका सोंगबिजित गुट आंतक में भागीदार बना रहा।जाहिर है ये ऐसे आतंकी गुट हैं, जो देश के भीतर असम आंदोलन की कोख से उपजे और बड़े उग्रवादी संगठनों में बदलते चले गए। नरेंद्र मोदी सरकार ने कठोर निर्णय लेते हुए एनडीएफबी के खिलाफ ऑपरेशन ऑलआउट शुरू कर दिया था। पुलिस, अद्धसैनिक बल और सेना के संयुक्त अभियान में 9000 जवान लगाए थे। सरकार ने इस बाबत भूटान और म्यांमार सरकारों को भी सचेत कर दिया था। क्योंकि ये वारदातों को अंजाम देकर इन देशों की सीमा में घुस जाते थे। इस अभियान का विस्तार अरूणाचल प्रदेश तक था। इसी का परिणाम है कि इन उग्रवादी गुटों की कमर टूटती चली गई और वे समझौते को विवश हुए।असम में अक्सर बड़ी हिंसक वारदातें बांग्लादेशी घुसपैठियों और मूल बोडो आदिवासियों के बीच होती थीं। बांग्लादेश के साथ भारत की कुल 4097 किमी लंबी सीमापट्टी है, जिसपर जरूरत के मुताबिक सुरक्षा के इंतजाम नहीं हैं। ब्रह्मपुत्र नदी का चौड़ा पाट ही दोनों देशों की सीमा तय करता है। नतीजतन गरीबी और भूखमरी के मारे बांग्लादेशी, असम में घुसे चले आते हैं। हालांकि एनआरसी व सीएए कानून के वजूद में आने के बाद ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि घुसैठिये बांग्लादेश की ओर लौटने भी लगे हैं। दरअसल इन घुसपैठियों को कांग्रेसी और यूडीपी अपने-अपने वोटबैंक बनाने के लालच में भारतीय नागरिकता का सुगम आधार उपलब्ध कराते रहे हैं। नतीजतन देश में घुसपैठियों की तादाद चार करोड़ से भी ज्यादा हो गई। बोडो और दूसरे जनजातीय समूहों के बीच भी खूनी टकराव होता रहा है। यहां खास बात है कि विवाद स्थानीय आदिवासियों और घुसपैठी मुसलमानों के बीच रहा है। इन मूल निवासियों की शिकायत थी कि सीमा पार से आए घुसपैठी मुसलमान उनके जीवनयापन के संसाधनों पर लगातार कब्जा रहे हैं और यह सिलसिला 1950 के दशक से जारी है। अब तो आबादी के घनत्व का स्वरूप इस हद तक बदल गया है कि इस क्षेत्र की कुल आबादी में मुस्लिमों का प्रतिशत 40 हो गया है।इस समझौते से असम का उग्रवाद तो समाप्त होगा ही इनकी संस्कृति और भाषा की भी सुरक्षा होगी। असम देश का एक ऐसा राज्य है, जहां यात्री मंदिरों, नदियों और चाय बागानो को तो देखने जाते ही थे, अब यहां की लोककला व संगीत से जुड़ी सांस्कृतिक चेतना से भी परिचित होंगे। यहां अनेक ऐसे आश्रम, मठ, अनाथालय व शिक्षा के केंद्र हैं, जो बेसहारा लोगों को सहारा देते हैं। इनके संरक्षण में बोडो, गारो, राभा, चकमा, हाजोंग, खासी, जैन्तियां, कुकी, मिसाव, दिमास, कचारी, जोगबे, लेगथांग, सुकते, थाडु, मिकीर, मिरी, होजाई, बोरो एवं सिंटेग सहित अन्य वनवासी समूह लग जाएंगे। इन जाति समूहों की संख्या 32 लाख से भी ज्यादा है। इन सभी का अपना अलग-अलग लोक साहित्य व लोकनृत्य हैं।असम के उत्तर-पूर्व सीमांत में निवास करने वाली कार्बी जनजाति की तो कार्बी भाषा में गीतात्मक रामायण भी है, इसे ‘छाबिन आलुन‘ नाम से जाना जाता है। यह रामकथा 14वीं शताब्दी में लिखी गई थी। इस रामायण के पहले पाठ का 1976 में और दूसरे पाठ का 1986 में प्रकाशन दिफू साहित्य सभा ने किया है। साफ है, इस प्रदेश में धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, संगीत और साहित्य की धारा प्राचीनकाल से ही बनी हुई है। समझौते में इनके संरक्षण की शर्त रखी गई है।

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