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धर्म-अध्यात्म

सूर्य के उत्तरायण में आगमन का खगोलीय पर्व है मकर सक्रांति!

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डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट 14 जनवरी को मकर संक्रांति मनाई जा रही है। इस दिन पुण्य काल प्रातः काल 09 बजकर 03 मिनट से लेकर संध्याकाल 05 बजकर 46 मिनट तक है। इस अवधि में स्नान-ध्यान, पूजा, जप-तप और दान कर सकते हैं। वहीं, महा पुण्य काल सुबह 09 बजकर 03 मिनट से लेकर 10 बजकर 48 मिनट तक है। इस दौरान पूजा और दान करने से सूर्य देव की विशेष कृपा प्राप्त होगी। सूर्य देव सुबह 09 बजकर 03 मिनट पर धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करेंगे। सूर्य देव के राशि परिवर्तन करने की तिथि पर ही मकर संक्रांति मनाई जाती है।    महाभारत काल में मकर संक्रांति दिसंबर में मनाई जाती थी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि छ्ठी शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के समय में 24 दिसंबर को मकर संक्रांति मनाई गयी थी। अकबर के समय में 10 जनवरी और शिवाजी महाराज के काल में 11 जनवरी को मकर संक्रांति मनाये जाने का उल्लेख मिलता है।  मकर संक्रांति की तिथि का यह रहस्य इसलिए है क्योंकि सूर्य की गति एक साल में 20 सेकंड बढ जाती है। इस हिसाब से 5000 साल के बाद संभव है कि मकर संक्रांति जनवरी में नहीं, बल्कि फरवरी में मनाई जाने लगे। मकर सक्रांति को देश मे विभिन्न नामो से जाना जाता है।तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। मकर संक्रान्ति पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं, यह भ्रान्ति है कि उत्तरायण भी इसी दिन होता है किन्तु मकर संक्रान्ति उत्तरायण से भिन्न है।  हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का विशेष महत्व माना गया है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं। धार्मिक मान्‍यताओं के अनुसार सूर्य का उत्तरायण होना बहुत ही शुभ माना जाता है। इस दिन गंगा नदी या पवित्र जल में स्नान करने का विधान है। साथ ही इस दिन गरीबों को गर्म कपड़े, अन्न का दान करना शुभ माना गया है। संक्रांति के दिन तिल से निर्मित सामग्री ग्रहण करने शुभ होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार असुरों पर भगवान विष्णु की विजय के तौर पर भी मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है।गरीब और असहाय लोगों को गर्म कपड़े का दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। इस माह में लाल और पीले रंग के वस्त्र धारण करने से भाग्य में वृद्धि होती है। माह के रविवार के दिन तांबे के बर्तन में जल भर कर उसमें गुड़, लाल चंदन से सूर्य को अर्ध्‍य देने से पद सम्मान में वृद्धि होने के साथ शरीर में सकारात्मक शक्तियों का विकास होता है। साथ ही आध्यात्मिक शक्तियों का भी विकास होता है।कहते है कि मकर संक्रांति के दिन भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का संहार उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर फेंका था। भगवान की जीत को मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। मकर संक्रांति से ही ऋतु में परिवर्तन होने लगता है। शरद ऋतु का प्रभाव कम होने लगता है और इसके बाद बसंत मौसम का आगमन आरंभ हो जाता है। इसके फलस्वरूप दिन लंबे और रात छोटी होने लगती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव के घर जाते हैं। ऐसे में पिता और पुत्र के बीच प्रेम बढ़ता है। ऐसे में भगवान सूर्य और शनि की अराधना शुभ फल देने वाला होता है। संक्रांति का यह पर्व भारतवर्ष तथा नेपाल के सभी प्रान्तों में अलग-अलग नाम व भांति-भांति के रीति-रिवाजों द्वारा भक्ति एवं उत्साह के साथ धूमधाम से मनाया जाता है।भारत में इसके विभिन्न नाम है छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और जम्मू में मकर सक्रांति,तमिलनाडु मेंताइ पोंगल, उझवर तिरुनल गुजरात, उत्तराखण्ड में उत्तरायण, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में माघी,असम में भोगाली बिहु ,कश्मीर में शिशुर सेंक्रात ,उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में खिचड़ी,पश्चिम बंगाल में पौष संक्रान्ति ,कर्नाटक में मकर संक्रमण व पंजाब में लोहड़ी रूप में मनाया जाता है।तो आइए इस खगोलीय परिवर्तन का स्वागत मकर सक्रांति रूप में कर अपने बड़ो का सम्मान करें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। असहायों की सहायता करें।डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोके

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कला-संस्कृति धर्म-अध्यात्म

प्रयागराज में आयोजित हो रहे महाकुम्भ मेले का आध्यात्मिक एवं आर्थिक महत्व

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हिंदू सनातन संस्कृति के अनुसार कुंभ मेला एक धार्मिक महाआयोजन है जो 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है। कुंभ मेले का भौगोलिक स्थान भारत में चार स्थानों पर फैला हुआ है और मेला स्थल चार पवित्र नदियों पर स्थित चार तीर्थस्थलों में से एक के बीच घूमता रहता है, यथा, (1) हरिद्वार, उत्तराखंड में, गंगा के तट पर; (2) मध्य प्रदेश के उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर; (3) नासिक, महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर; एवं (4) उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक अदृश्य सरस्वती के संगम पर।  प्रत्येक स्थल का उत्सव, सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की ज्योतिषीय स्थितियों के एक अलग सेट पर आधारित है। उत्सव ठीक उसी समय होता है जब ये स्थितियां पूरी तरह से व्याप्त होती हैं, क्योंकि इसे हिंदू धर्म में सबसे पवित्र समय माना जाता है। कुंभ मेला एक ऐसा आयोजन है जो आंतरिक रूप से खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्मिकता, अनुष्ठानिक परंपराओं और सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के विज्ञान को समाहित करता है, जिससे यह ज्ञान में बेहद समृद्ध हो जाता है। कुम्भ मूल शब्द कुम्भक (अमृत का पवित्र घड़ा) से आया है। ऋग्वेद में कुम्भ और उससे जुड़े स्नान अष्ठान का उल्लेख है। इसमें इस अवधि के दौरान संगम में स्नान करने से लाभ, नकारात्मक प्रभावों के उन्मूलन तथा मन और आत्मा के कायाकल्प की बात कही गई है। अथर्ववेद और यजुर्वेद में भी कुम्भ के लिए प्रार्थना लिखी गई है। इसमें बताया गया है कि कैसे देवताओं और राक्षसों के बीच समुद्र मंथन से निकले अमृत के पवित्र घड़े (कुम्भ) को लेकर युद्ध हुआ। ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर कुम्भ को लालची राक्षसों के चंगुल से छुड़ाया था। जब वह इस स्वर्ग की ओर लेकर भागे तो अमृत की कुछ बूंदे चार पवित्र स्थलों पर गिरीं जिन्हें हम आज हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज के नाम से जानते हैं। इन्हीं चार स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष पर बारी बारी से कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।    कुम्भ मेला दुनिया में कहीं भी होने वाला सबसे बड़ा सार्वजनिक समागम और आस्था का सामूहिक आयोजन है। लगभग 45 दिनों तक चलने वाले इस मेले में करोड़ों श्रद्धालु गंगा, यमुना और रहस्यमयी सरस्वती के पवित्र संगम पर स्नान करने के लिए आते हैं। मुख्य रूप से इस समागन में तपस्वी, संत, साधु, साध्वियां, कल्पवासी और सभी क्षेत्रों के तीर्थयात्री शामिल होते हैं।  कुंभ मेले में सभी धर्मों के लोग आते हैं, जिनमें साधु और नागा साधु शामिल हैं, जो साधना करते हैं और आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग का अनुसरण करते हैं, संन्यासी जो अपना एकांतवास छोड़कर केवल कुंभ मेले के दौरान ही सभ्यता का भ्रमण करने आते हैं, अध्यात्म के साधक और हिंदू धर्म का पालन करने वाले आम लोग भी शामिल हैं। कुंभ मेले के दौरान अनेक समारोह आयोजित होते हैं; हाथी, घोड़े और रथों पर अखाड़ों का पारंपरिक जुलूस, जिसे ‘पेशवाई’ कहा जाता है, ‘शाही स्नान’ के दौरान चमचमाती तलवारें और नागा साधुओं की रस्में, तथा अनेक अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां, जो लाखों तीर्थयात्रियों को कुंभ मेले में भाग लेने के लिए आकर्षित करती हैं। महाकुंभ मेला 2025 प्रयागराज में 13 जनवरी, 2025 से 26 फरवरी, 2025 तक आयोजित होने जा रहा है। यह एक हिंदू त्यौहार है, जो मानवता का एक स्थान पर एकत्र होना भी है। 2019 में प्रयागराज में अर्ध कुंभ मेले में दुनिया भर से 15 करोड़ पर्यटक आए थे। यह संख्या 100 देशों की संयुक्त आबादी से भी अधिक है। यह वास्तव में यूनेस्को द्वारा अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में सूचीबद्ध है। कुंभ मेला कई शताब्दियों से मनाया जाता है।प्रयागराज कुंभ मेले का सबसे पहला उल्लेख वर्ष 1600 ई. में मिलता है और अन्य स्थानों पर, कुंभ मेला 14वीं शताब्दी की शुरुआत में आयोजित किया गया था। कुंभ मेला बेहद पवित्र और धार्मिक मेला है और भारत के साधुओं और संतों के लिए विशेष महत्व रखता है। वे वास्तव में पवित्र नदी के जल में स्नान करने वाले पहले व्यक्ति होते हैं। अन्य लोग इन साधुओं के शाही स्नान के बाद ही नदी में स्नान कर सकते हैं। वे अखाड़ों से संबंधित हैं और कुंभ मेले के दौरान बड़ी संख्या में आते हैं। घाटों की ओर जाते समय जब वे भजन, प्रार्थना और मंत्र गाते हैं, तो उनका जुलूस देखने लायक होता है। कुंभ मेला प्रयागराज 2025 पौष पूर्णिमा के दिन शुरू होता है, जो 13 जनवरी 2025 को है और 26 फरवरी 2025 को समाप्त होगा। यह पर्यटकों के लिए भी जीवन में एक बार आने वाला अनुभव है। टेंट और कैंप में रहना आपको एक गर्मजोशी भरा एहसास देता है और रात में तारों से भरे आसमान को देखना अपने आप में एक अलग ही अनुभव है। कुंभ मेले में सत्संग, प्रार्थना, आध्यात्मिक व्याख्यान, लंगर भोजन का आनंद सभी उठा सकते हैं। महाकुंभ मेला 2025 में गंगा नदी में पवित्र स्नान, नागा साधु और उनके अखाड़े से मिलें। बेशक, यह कुंभ मेले का नंबर एक आकर्षण है। कुंभ मेले के दौरान अन्य आकर्षण प्रयागराज में घूमने लायक जगहें हैं जैसे संगम, हनुमान मंदिर, प्रयागराज किला, अक्षयवट और कई अन्य। वाराणसी भी प्रयागराज के करीब है और हर पर्यटक के यात्रा कार्यक्रम में वाराणसी जाना भी शामिल है। महाकुम्भ 2025 में आयोजित होने वाले कुछ मुख्य स्नान पर्व निम्न प्रकार हैं –  मुख्य स्नान पर्व  13.01.2025  मकर संक्रान्ति  14.01.2025  मौनी अमावस्या  29.01.2025  बसंत पंचमी  03.02.2025  माघी पूर्णिमा  12.02.2025  महाशिवरात्रि  26.02.2025 प्रयागराज का अपना एक एतिहासिक महत्व रहा है। 600 ईसा पूर्व में एक राज्य था और वर्तमान प्रयागराज जिला भी इस राज्य का एक हिस्सा था। उस राज्य को वत्स के नाम से जाना जाता था और उसकी राजधानी कौशाम्बी थी, जिसके अवशेष आज भी प्रयागराज के दक्षिण पश्चिम में स्थित है। गौतम बुद्ध ने भी अपनी तीन यात्राओं से इस शहर को सम्मानित किया था। इसके बाद, यह क्षेत्र मौर्य शासन के अधीन आ गया और कौशाम्बी को सम्राट अशोक के एक प्रांत का मुख्यालय बनाया गया। उनके निर्देश पर कौशाम्बी में दो अखंड स्तम्भ बनाए गए जिनमें से एक को बाद में प्रयागराज में स्थानांतरित कर दिया गया। प्रयागराज राजनीति और शिक्षा का केंद्र रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाता था। इस शहर ने देश को तीन प्रधानमंत्रियों सहित कई राजनौतिक हस्तियां दी हैं। यह शहर साहित्य और कला के केंद्र के साथ साथ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का भी केंद्र रहा है। प्रयागराज में आयोजित हो रहे महाकुम्भ का आध्यात्मिक महत्व तो है ही, साथ ही, आज के परिप्रेक्ष्य में इस महाकुम्भ का आर्थिक महत्व भी है। प्रत्येक 3 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होने वाले कुम्भ के मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु ईश्वर की पूजा अर्चना हेतु प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक एवं उज्जैन में पहुंचते हैं। प्रयग्राज में आयोजित तो रहे महाकुम्भ की 44 दिनों की इस इस पूरी अवधि में प्रतिदिन एक करोड़ श्रद्धालुओं के भारत एवं अन्य देशों से प्रयागराज पहुंचने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है, इस प्रकार, कुल मिलाकर लगभग 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुगण उक्त 44 दिनों की अवधि में प्रयागराज पहुंचेंगे। करोड़ों की संख्या में पहुंचने वाले इन श्रद्धालुगणों द्वारा इन तीर्थस्थलों पर अच्छी खासी मात्रा में खर्च भी किये जाने की सम्भावना है। जिससे विशेष रूप से स्थानीय अर्थव्यवस्था को तो बल मिलेगा ही, साथ ही करोड़ों की संख्या में देश में रोजगार के नए अवसर भी निर्मित होंगे एवं होटल उद्योग, यातायात उद्योग, पर्यटन से जुड़े व्यवसाय, स्थानीय स्तर के छोटे छोटे उद्योग एवं विभिन्न उत्पादों के क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यापारियों के व्यवसाय में भी अतुलनीय वृद्धि होगी। इस प्रकार, देश की अर्थव्यवस्था को भी, महाकुम्भ मेले के आयोजन से बल मिलने की भरपूर सम्भावना है।   (केंद्र सरकार एवं उत्तरप्रदेश सरकार की महाकुम्भ मेले से सम्बंधित वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग इस लेख में किया गया है।)   प्रहलाद सबनानी

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कला-संस्कृति धर्म-अध्यात्म

हर समस्या का समाधान है गीता

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डा. विनोद बब्बर  विश्व के श्रेष्ठ ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित गीता महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है। किन्तु इसका प्रभाव भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में है। विश्व की अधिकांश प्रमुख भाषाओं के साहित्य को प्रभावित करने वाली गीता के महत्व को इसी बात से जाना जा सकता है कि श्रीकृष्ण जैसे प्रबंध शास्त्री का सर्वाेत्तम शोध-ग्रंथ है। कारागार में जन्म से एक ग्वालो के बीच पलने वाले श्रीकृष्ण ने अपने प्रबंधन कौशल के बल पर ही सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र को संगठित करने में सफलता हासिल की। यह श्रीकृष्ण का प्रबंधन कौशल ही था कि कंस के राज्य में रहते हुए भी समस्त संसाधनों के बल पर कंस की शक्ति को कमजोर करते रहे। बिना गद्दी पर बैठे महाभारत जैसे युद्ध के सूत्रधार बने। हम कृष्ण को एक विचारक व प्रबंध शास्त्री  मानते हुए अपने कर्तव्यों का निर्धारण करें ताकि हम किसी भी प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ न हों। त्यजेद् एकं कुलंस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद्।ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे  पृथ्वी  त्यजेद्।।अर्थात हमें कुल या परिवार के हित के लिए अपने हित का त्याग करने, ग्राम के हित के लिए कुल के हित का त्याग करने व जनपद के हित के लिए ग्राम के हित का त्याग करने व आत्मा अर्थात समस्त प्राणी-मात्र के हित के लिए पृथ्वी का त्याग करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।वर्तमान को ज्ञान और प्रबंधन का युग माना जाता है। प्रबंधन की न्यूनता, अव्यवस्था, भ्रम, बर्बादी, अपव्यय, विलंब ध्वंस तथा हताशा को जन्म देती है। सफल प्रबंधन हेतु मानव, धन, पदार्थ, उपकरण आदि संसाधनों का उपस्थित परिस्थितियों तथा वातावरण में सर्वाेत्तम संभव उपयोग किया जाना अनिवार्य है। किसी प्रबंधन योजना में मनुष्य सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता है। अतः, मानव प्रबंधन को सर्वाेत्तम रणनीति माना जाता है।वैज्ञानिक, सूचना प्रोद्यौगिकी, सेवा ही नहीं, आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञान और उसके प्रसार के नित्य नये साधन सामने आ रहे हैं। परंतु बढ़ती भौतिक सुविधाओं के बावजूद जीवन लगातार बहुआयामी व जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। कहीं भी शान्ति एवं संतुष्टि दिखाई नहीं देती। कारण प्रबंधन की अनुपस्थिति अथवा कमजोर प्रबंधन। प्रबंधन केवल बाहरी ही नहीं आतंरिक भी। हम प्रबंधन को आधुनिकता की देन माना जाता हैं जबकि राम और कृष्ण साहित्य प्रबंधन के श्रेष्ठ स्रोत हैं। आवश्यकता है इस तथ्य कोे जानने और व्यवहार में लाने की कि स्नेह और सद्भाव की बांसुरी से काम चलाने की हरसंभव कोशिश करो। और मजबूरी में बांसुरी को छोड़ ‘बांस’ भी घुमाना पड़े तो उसके लिए भी स्वयं को सक्षम बनाओं।जनसामान्य गीता को धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथ मानता है। अधिकांश घरों में गीता तो है पर अलमारी की शोभा बढ़ाने के लिए।  पढ़ी बहुत कम जाती है। जितना पढ़ी जाती है, समझी उससे भी कम जाती है। जितनी समझी जाती है आचरण में उससे भी कम दिखाई देती है। इसीलिए किसी शोकसभा में पंडित जी को ‘आत्मा की अमरता और संसार की नश्वरता’ पर गीता के  श्लोक बोलते देख अक्सर यह मान लिया जाता हैं कि गीता शोक को दूर भगाने वाला ग्रन्थ है। जबकि योगीराज श्रीकृष्ण ‘क्लैव्यं मा स्म गमः’ (कायरता और दुर्बलता का त्याग करा)े का उदघोष करते हुए आत्मविश्वास जगाते हैं कि  ‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परंतप’ (हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता संभव नहीं है) वास्तविक में गीता केवल धार्मिक ग्रन्थ मात्र नहीं, बल्कि कालजयी प्रबंधन ग्रन्थ हैं। जिसकी उपादेयता आचरण में ढालने पर ही सिद्ध हो सकती है।आज के युग में हर क्षेत्र में प्रबंधन का महत्व बढ़ता जा रहा है। सामान्यतः प्रबंधन व्यवसाय से ही जोड़ा जाता है परंतु जीवन का भी प्रबंधन किया जाना चाहिए। जीवन प्रबंधन का विशद ज्ञान देने वाले समसामयिक प्रबंधक व युग प्रवर्तक प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण को रासलीला तक सीमित कर स्वयं को ज्ञान से वंचित करने जैसा है। हालांकि गीता पर दुनिया भर के विद्वानों ने टीका लिखी है। यह गीता की विशेषता है कि सभी को उसमें कुछ विशिष्ट प्राप्त होता है। यदि हम महाभारत के महानायक द्वारा कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को दिये संदेश के निहितार्थ को सीमित अर्थो में ग्रहण करते हैं तो हम अप्रतिम ज्ञान से स्वयं को पृथक करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं करते।अनुभव साक्षी हैं कि हम अपनी क्षमताओं का सम्पूर्णता के साथ सदुपयोग नहीं कर पाते। वास्तव में कोई भी अवतार अपने समय की विसंगतियों को दूर करने के लिए ही आते हैं जैसाकि गीता के चतुर्थ अध्याय के 7वें और 8वें श्लोक में योगीराज श्रीकृष्ण उद्घोष करते हैं-यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। (हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ) मैंनेजमेंट अर्थात् प्रबंधन की दृष्टि से कहे तो, ‘जब -जब मेरे मार्गदर्शन की आवश्यकता होगी, मैं उपलब्ध रहूंगा।’परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ) यहां इसका अर्थ यह भी है, ‘व्यवस्था की बाधाओं को हटाने और उसे सुचारु बनाने के लिए मैं हर समय उपलब्ध हूं।’श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे दोनों महानायकों की एक समान विशेषता है कि वे अपने विरोधी से सुलह-समझौते की आखिरी कोशिश करते  हैं। लेकिन रावण की तरह ही दुर्याेधन भी न माना। मात्र पांच गांव देकर सारा विवाद खत्म करने की बजाय दुर्याेधन श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने की तैयारी करने लगा।  श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनो अपने विरोधी के गुणों का सम्मान भी करते हैं। श्रीराम ने लक्ष्मण को रावण से सीखने के लिए प्रेरित किया तो श्रीकृष्ण लगातार पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और अंगराज कर्ण के गुणों के प्रशंसक रहे। अच्छा काम करने के लिए हमें अपने दुर्बल अहं को दूर करना होगा। कृष्ण कहते हैं -मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, ईर्ष्यालु, पुण्यात्मा और पापात्मा -इन सभी के लिए जिसकी समबुद्धि हो, उसे उत्तम मानना चाहिए। हमें दोनों तरह के लोग मिलेंगे, शायद पापात्मा ज्यादा मिलें, पर जो नापसंद हैं, उनसे नफरत करने की जगह उनके प्रति समबुद्धि रखने से बेहतर काम किया जा सकेगा।शायद ही किसी के मन में संदेह हो कि श्रीराम हनुमान से और श्रीकृष्ण अर्जुन से बेहतर कर सकते थे। परंतु दोनांे ने ही उन्हें तथा कुछ अन्यों को प्रेरित किया। आखिर यही तो प्रबंधन है। प्रबंधन की सर्वाधिक स्वीकार्य परिभाषा के अनुसार ज्व हमज ूवता कवदम इल वजीमते पे बंससमक उंदमहउमदज. कई लोग प्रबंधन से जुड़े होने के बावजूद परिस्थिति के अनुसार व्यवहार नहीं करते। वे हर समय अपने ही प्रभाव में होते हैं। परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करना, अपनी भूमिका को समझना और सामने वाले से कोई काम निकलवाना। ये प्रबंधन (मैनेजमेंट) के गुर (खास नुस्खे) हैं, जो हर व्यक्ति नहीं जानता।‘मैं’ एक हूं लेकिन परिस्थिति के अनुसार ‘मेरी’ भूमिकाएं बदलती रहती है, ‘मुझे’ अपनी भूमिका के अनुसार व्यवहार सीखना चाहिए। गीता प्रमाण है कि अर्जुन के मन में अनेक प्रकार की शंकाएं थीं। अनेकानेक प्रश्न थे। एक योग्य प्रबंधक अपने अधीनस्थों की शंकाओं का निराकरण किये बिना अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण एक श्रेष्ठ प्रबंधक, शिक्षक की तरह  इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। उन्होंने अर्जुन को समझाया- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल पर नहीं। अनेक बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि कार्य करने वाले योजना के सफल होने में संदेह जताते हैं। ऐसी स्थिति में योग्य प्रबंधक हर जिम्मेवारी अपने ऊपर लेते हुए कहता है, ‘तुम घबराओ मत। हर तरह के तनाव और शंकाओं को त्याग कर, जैसे मैं कहता हूं वैसा करो। मैं सब संभाल लूंगा।’ गीता के 18 वें अध्याय के 66 वें श्लोक में यही बात कही गई है-सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज।अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।एक अन्य श्लोक में कहा गया , ‘तू अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।’ यहां एक बात विशेष ध्यान देने की है कि धर्म का अर्थ कर्तव्य है। परिस्थितियों द्वारा सौंपे गए कर्तव्य का शुद्ध अंतकरण से पालन करना धर्म है न कि केवल कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों जाने को धर्म मानना। यथा विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का धर्म और कर्म है देश की रक्षा करना। एक पिता का धर्म अपनी संतान को योग्य बनाना। एक पुत्र का धर्म अपने पूर्वजों की कीर्ति बढाना। आदि आदि।गीताकार कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं। विपरीत  परिणामों की आशंका के कारण जिम्मेदारी से भागना मूर्खता है। अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।महाभारत के महानायक ने गीता के रूप में जो प्रबंधन का शास्त्र हमें सौंपा है उससे हमें अनन्त सूत्र मिलने हैं जिनमें दो अति महत्वपूर्ण हैं- एक- श्रेष्ठ पुरुष (उच्चाधिकारी) अपने पद व गरिमा के अनुसार व्यवहार करे तो सामान्यजन (अधीनस्थ कर्मचारी अथवा कार्यकर्ता) उसी का अनुसरण करते हैं। यदि वे अनुशासित रहते हुुए मेहनत और निष्ठा से काम करे तो संस्था का उच्च शिखर को स्पर्श तय है। विपरीत आचरण पर उसे डूबने से बचाया नहीं जा सकता। दूसरा- प्रतिस्पर्धा के दौर में कुछ चतुर लोग अपना काम तो निकालने के लिए अपने साथियों को हतोत्साहित करते हैं। लेकिन प्रबंधन की दृष्टि से अनुकरणीय और अभिनन्दनीय वही है जो वर्तमान में दूसरो का प्रेरणा स्रोत होते हुए भविष्य का उदाहरण रूपी उज्ज्वल नक्षत्र बनता है। गत दिवस गीता प्राकट्य नगरी कुरुक्षेत्र में अपने एक सप्ताह के प्रवास के दौरान विदेशी यात्रियों के दल से संवाद हुआ। उन्होंने पूछा, ‘गीता क्यों जरूरी है?’ तो मैंने उनसे पश्चिमी देशों में तेजी से बढ़ रहे अवसाद और अवसाद के कारण वहां करोड़ो डालर/ यूरो की दवाओं का व्यापार होने की चर्चा करते हुए कहा, ‘आपके देशों में परीक्षा अथवा प्रेम में असफलता पर आत्महत्या के मामले भी बहुत होते हैं क्योंकि वहां प्रतिकूल परिस्थितियों को सहज स्वीकार करने का अभ्यास नहीं है। जबकि गीता ने हमें सिखाया है कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं। यदि किसी कारण से कर्म फल आपेक्षा से कम अथवा शून्य हो तो भी हम बहुत विचलित नहीं होते। आंसू पोंछ कर आगे बढ़ना हमारे डीएनए में हैं जो हमें गीता ने सिखाया है। आज गीता प्राकट्य स्थली पर आप चिंतन-मनन करें कि आपको एक ‘गीता’ चाहिए या हजारों अस्पताल और टनों अवसाद की दवाएं चाहिए।’ कहना न होगा, दुनिया भर के लोग भारतीय संस्कृति के उन्नायक हमारे देवालयों का महत्व जानकर अभिभूत हो ‘हरे कृष्णा, हरे रामा’ गाते- झूमते दिखाई देते है। डा. विनोद बब्बर 

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