आलोचना अभिव्यक्ति का मतलब अश्लीलता तो नहीं… June 3, 2010 / December 23, 2011 by गिरीश पंकज | 7 Comments on अभिव्यक्ति का मतलब अश्लीलता तो नहीं… -गिरीश पंकज अपने देश में इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जिस तरह की लंपटताई का खेल चल रहा है, उसे देख कर खीझ होती है। कुछ तथाकथित प्रगतिशील लोगों के कारण समाज का एक नया बौद्धिक वर्ग अश्लील अभिव्यक्तियों को ही आधुनिक होने की गारंटी समझ रहा है। आप अपनी तमाम काली […] Read more » Obscenity अभिव्यक्ति अश्लीलता
आलोचना कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150 जयन्ती पर विशेष- दीन-हीन का सम्मान पद है धर्म May 13, 2010 / December 23, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | 1 Comment on कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150 जयन्ती पर विशेष- दीन-हीन का सम्मान पद है धर्म -जगदीश्वर चतुर्वेदी हिंदी के बुद्धिजीवियों में धर्म ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ से ज्यादा महत्व नहीं रखता। अधिक से अधिक वे इसके साथ उपयोगितावादी संबंध बनाते हैं। धर्म इस्तेमाल की चीज नहीं है। धर्म मनुष्यत्व की आत्मा है। मानवता का चरम है। जिस तरह मनुष्य के अधिकार हैं, लेखक के भी अधिकार हैं,वैसे ही धर्म के […] Read more » Rabindranath Tagore कविवर धर्म रवीन्द्रनाथ टैगोर
आलोचना पितृसत्ता से भागते तुलसीदास के आलोचक May 4, 2010 / December 23, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | 1 Comment on पितृसत्ता से भागते तुलसीदास के आलोचक -जगदीश्वर चतुर्वेदी हिन्दी की अधिकांश आलोचना मर्दवादी है।इसमें पितृसत्ता के प्रति आलोचनात्मक विवेक का अभाव है।आधुनिक आलोचना में धर्मनिरपेक्ष आलोचना का परिप्रेक्ष्य पितृसत्ता से टकराए, उसकी मीमांसा किए बगैर संभव नहीं है। मसलन्, अभी तक तुलसी पर समीक्षा ने लोकवादी जनप्रिय नजरिए से विचार किया है और पितृसत्ता को स्पर्श तक नहीं किया है। आधुनिक […] Read more » Tulsidas तुलसीदास पितृसत्ता
आलोचना देरिदा का वायनरी अपोजीशन और तुलसीदास May 3, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | 1 Comment on देरिदा का वायनरी अपोजीशन और तुलसीदास जगदीश्वर चतुर्वेदी• तुलसीदास ने अभिव्यक्ति की शैली के तौर पर रामचरित मानस में वायनरी अपोजीशन की पद्धति का कई प्रसंगों में इस्तेमाल किया है। इस क्रम में रावण और राम दोनों के गुण और अवगुणों की प्रस्तुति को रखा जा सकता है। रावण का राम के प्रत्येक कार्य और अवस्था में विपक्ष में रहना, मन्दोदरी […] Read more » Tulsidas तुलसीदास देरिदा
आलोचना हिन्दी बुद्धिजीवियों का फिलीस्तीन के प्रति बेगानापन April 30, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | Leave a Comment -जगदीश्वर चतुर्वेदी एक जमाना था हिन्दी में साहित्यकारों और युवा राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं में युद्ध विरोधी भावनाएं चरमोत्कर्ष पर हुआ करती थीं, हिन्दीभाषी क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में युद्ध विरोधी गोष्ठियां, प्रदर्शन, काव्य पाठ आदि के आयोजन हुआ करते थे, किंतु अब यह सब परीकथा की तरह लगता है। हिन्दी के बुद्धिजीवियों में अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सरोकारों […] Read more » Filistan फिलीस्तीन हिंदी बुद्धिजीवी
आलोचना कार्ल मार्क्स के बहाने रामचरित मानस की यात्रा April 27, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | 4 Comments on कार्ल मार्क्स के बहाने रामचरित मानस की यात्रा मार्क्सवादी नजरिए से प्राचीन साहित्य की यह सार्वभौम विशेषता है कि इसमें मनुष्य के उच्चतर गुणों का सबसे सुंदर वर्णन मिलता है। उच्चतर गुणों के साथ ही साथ मानवीय धूर्तताओं, कांइयापन और वैचारिक कट्टरता के भी दर्शन होते हैं। देवता की सत्ता के बारे में विविधतापूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है। प्राचीन साहित्य की महान् कालजयी रचनाएं […] Read more » Karl Marx कार्ल मार्क्स रामचरितमानस
आलोचना मूल्यांकन के पोंगापंथी मॉडल के परे हैं तुलसीदास April 24, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | 2 Comments on मूल्यांकन के पोंगापंथी मॉडल के परे हैं तुलसीदास परंपरा और इतिहास के नाम पर हिन्दी का समूचे विमर्श के केन्द्र में तुलसीदास के मानस को आचार्य शुक्ल ने और कबीर को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आधार बनाया। सवाल किया जाना चाहिए कि क्या दलित-स्त्री-अल्पसंख्यकों के बिना धर्मनिरपेक्ष आलोचना संभव है? कबीर के नाम पर द्विवेदीजी की आलोचना दलित साहित्य को साहित्य में […] Read more » Ramcharitmanas तुलसीदास रामचरितमानस
आलोचना रामचरितमानस के नए पैराडाइम की तलाश में April 23, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | Leave a Comment रामचरितमानस लोक-महाकाव्य है। इसके उपयोग और दुरूपयोग की अनंत संभावनाए हैं।लोक-महाकाव्य एकायामी नहीं बल्कि बहुआयामी होता है, इसमें एक नहीं एकाधिक विचारधाराएं होती हैं। इसका पाठ संपूर्ण और बंद होता है किंतु अर्थ-संरचनाएं खुली होती हैं, इसके पाठ की स्वायत्तता पाठ की व्याख्या की समस्त धारणाओं के लिए आज भी चुनौती बनी हुई है। लोक-महाकाव्य […] Read more » Ramcharitmanas रामचरितमानस
आलोचना लोकतांत्रिक आलोचना का परिवेश April 13, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | Leave a Comment आंतरिक गुलामी से मुक्ति के प्रयासों के तौर पर तीन चीजें करने की जरूरत है, प्रथम, व्यवस्था से अन्तर्ग्रथित तानेबाने को प्रतीकात्मक पुनर्रूत्पादन जगत से हटाया जाए, दूसरा, पहले से मौजूद संदर्भ को हटाया जाए, यह हमारे संप्रेषण के क्षेत्र में सक्रिय है। तीसरा, नए लोकतांत्रिक जगत का निर्माण किया जाए जो राज्य और आधिकारिक […] Read more » Criticism जगदीश्वर चतुर्वेदी लोकतांत्रिक आलोचना
आलोचना समीक्षा का अतिवाद है ‘प्रशंसा’ और ‘खारिज करना’ April 2, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | Leave a Comment हिन्दी साहित्यालोचना में मीडिया में व्यक्त नए मूल्यों और मान्यताओं के प्रति संदेह,हिकारत और अस्वीकार का भाव बार-बार व्यक्त हुआ है। इसका आदर्श नमूना है परिवार के विखंडन खासकर संयुक्त परिवार के टूटने पर असंतोष का इजहार। एकल परिवार को अधिकांश आलोचकों के द्वारा सकारात्मक नजरिए से न देख पाना। सार्वजनिक और निजी जीवन में […] Read more » Sahitya साहित्य आलोचना
आलोचना नपुंसक आलोचक और नदारत आलोचना March 29, 2010 / December 24, 2011 by जगदीश्वर चतुर्वेदी | 2 Comments on नपुंसक आलोचक और नदारत आलोचना स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य को लेकर काफी लिखा गया है। खासकर कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कृतियां हैं जो किसी न किसी रूप में साहित्यिक परिदृश्य पर रोशनी डालती हैं। हम खुश हैं कि हमारे पास रामविलास शर्मा हैं, नामवरसिंह हैं, शिवकुमार मिश्र हैं, रमेशकुंतल मेघ हैं, अशोक वाजपेयी हैं। जाहिरा […] Read more » hindi आलोचक आलोचना हिंदी
आलोचना प्रसिद्ध लेखकों के अजब टोटके August 18, 2009 / December 27, 2011 by सरफराज़ ख़ान | Leave a Comment टोटकों का चलन पुराना और अंधविश्वास से जुडा है। मगर हैरत की बात तो यह भी है कि अनेक विश्व विख्यात लेखक भी इन पर यकीन करते थे और लेखन के समय इनका नियमित रूप से पालन करते थे, जो बाद में उनकी आदत में शुमार भी हो गया। महान फ्रांसीसी लेखक एलेक्जेंडर डयूमा का […] Read more » famous writers प्रसिद्ध लेखकों