गजल विविधा तरोताज़ा सुघड़ साजा July 19, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment तरोताज़ा सुघड़ साजा, सफ़र नित ज़िन्दगी होगा; जगत ना कभी गत होगा, बदलता रूप बस होगा ! जीव नव जन्म नित लेंगे, सीखते चल रहे होंगे; समझ कुछ जग चले होंगे, समझ कुछ जग गये होंगे ! चन्द्र तारे ज्योति धारे, धरा से लख रहे होंगे; अचेतन चेतना भर के, निहारे सृष्टि गण होंगे ! […] Read more » तरोताज़ा सुघड़ साजा
गजल अज्ञान में जग भासता ! July 3, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | 1 Comment on अज्ञान में जग भासता ! अज्ञान में जग भासता, अणु -ध्यान से भव भागता; हर घड़ी जाता बदलता, हर कड़ी लगता निखरता ! निर्भर सभी द्रष्टि रहा, निर्झर सरिस द्रष्टा बहा; पल पल बदल देखे रहा, था द्रश्य भी बदला रहा ! ना सत रहा जीवन सतत, ना असत था बिन प्रयोजन; अस्तित्व सब चित से सृजित, हैं सृष्ट सब […] Read more » अज्ञान में जग भासता
गजल अनुभूत करना चाहते July 2, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment अनुभूत करना चाहते अनुभूत करना चाहते, कब किसी की है मानते; ना जीव सुनना चाहते, कर के स्वयं ही समझते ! ज्यों वाल बिन अग्नि छुए, माँ की कहाँ है मानता; जब ताप को पहचानता, तब दूर रहना जानता । एक बार जब कर गुज़रता, कहना किसी का मानता; सुनना किसी की चाहता, सम्मान करना […] Read more » अनुभूत करना चाहते
गजल विविधा सुलगा हुआ जग लग रहा July 1, 2015 / June 30, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment सुलगा हुआ जग लग रहा, ना जल रहा ना बुझ रहा; चेतन अचेतन सिल-सिला, पैदा किया यह जल-जला । तारन तरन सब ही यहाँ, संस्कार वश उद्यत जहान; विधि में रमे सिद्धि लभे, खो के भरम होते सहज । आत्मीय सब अन्तर रहे, माया बँधे लड़ते रहे; जब भेद मन के मिट गये, उर सुर […] Read more » सुलगा हुआ जग लग रहा
गजल हर एक पल कल-कल किए June 30, 2015 / June 30, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment हर एक पल कल-कल किए, भूमा प्रवाहित हो रहा; सुर छन्द में वह खो रहा, आनन्द अनुपम दे रहा । सृष्टि सु-योगित संस्कृत, सुरभित सुमंगल संचरित; वर साम्य सौरभ संतुलित, हो प्रफुल्लित धावत चकित । आभास उर अणु पा रहा, कोमल पपीहा गा रहा; हर धेनु प्रणवित हो रही, हर रेणु पुलकित कर रही । […] Read more » हर एक पल कल-कल किए
गजल विविधा छलका रहा होगा झलक June 30, 2015 / June 30, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment छलका रहा होगा झलक, प्रति जीव के आत्मा फलक वह मूल से दे कर पुलक, भरता हरेक प्राणी कुहक । कुल-बिला कर तम- तमा कर, कोई हृदय में सिहा कर; सिमटा कोई है समाया, उमगा कोई है सिधाया । सुध में कोई बेसुध कोई, रुधता कोई बोधि कोई; चलते रहे चिन्ता दहे, चित शक्ति को […] Read more » छलका रहा होगा झलक
गजल नज़्म June 23, 2015 by प्रवक्ता.कॉम ब्यूरो | Leave a Comment -राघवेन्द्र कुमार “राघव”- किसी की तासीर है तबस्सुम, किसी की तबस्सुम को हम तरसते हैं । है बड़ा असरार ये, आख़िर ऐसा क्या है इस तबस्सुम में ।। देखकर जज़्ब उनका, मन मचलता परस्तिश को उनकी । दिल-ए-इंतिख़ाब हैं वो, इश्क-ए-इब्तिदा हुआ । उफ़्क पर जो थी ख़ियाबां, उसकी रंगत कहां गयी । वो गवारा […] Read more » Featured गजल तबस्सुम नज़्म
गजल रहते हुए भी हो कहां June 22, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | 1 Comment on रहते हुए भी हो कहां -गोपाल बघेल ‘मधु’- (मधुगीति १५०६२१) रहते हुए भी हो कहाँ, तुम जहान में दिखते कहाँ; देही यहाँ बातें यहाँ, पर सूक्ष्म मन रहते वहाँ । आधार इस संसार के, उद्धार करना जानते; बस यों ही आ के टहलते, जीवों से नाता जोड़ते । सब मुस्करा कर चल रहे, स्मित-मना चित तक रहे; जाने कहाँ तुम […] Read more » Featured गजल रहते हुए भी हो कहां
गजल खोया हूं मैं June 22, 2015 / June 22, 2015 by प्रवक्ता.कॉम ब्यूरो | Leave a Comment –मनीष सिंह- खोया हूँ मैं हक़ीक़त में और फ़साने में , ना है तुम बिन कोई मेरा इस ज़माने में। तुम साथ थे तो रौशन था ये जहाँ मेरा , अब जल जाते हाथ अँधेरे में शमा जलाने में। यूँ तो मशरूफ कर रखा है बहुत खुद को , फिर भी आ […] Read more » Featured खोया हूँ मैं गजल
गजल दिल का घाव नासूर बना November 27, 2014 / November 27, 2014 by सविता मिश्रा | Leave a Comment उफ़ अपने दिल की बात बतायें कैसे दिल पर हुए आघात जतायें कैसे| दिल का घाव नासूर बना अब मरहम लगायें कैसे कोई अपना बना बेगाना दिल को अब यह समझायें कैसे| कुछ गलतफहमी ऐसी बढ़ी बढ़ते-बढ़ते बढती गयी रिश्तें पर रज जमने सी लगी दिल पर पड़ी रज को हटायें कैसे| उनसे बात हुई […] Read more » दिल का घाव नासूर बना
गजल इंतज़ार September 26, 2014 by अश्वनी कुमार | Leave a Comment इंतज़ार… इंतज़ार इंतज़ार बाक़ी है. तुझे मिलने की ललक और खुमार बाक़ी है. यूँ तो बीती हैं सदियाँ तेरी झलक पाए हुए. जो होने को था वो ही करार बाक़ी है. खाने को दौड़ रहा है जमाना आज हमें. *1यहाँ पे एक नहीं कितने ही जबार बाक़ी है. वोही दुश्मन है, […] Read more » इंतज़ार
गजल हर शख्स तो बिकता नहीं है September 22, 2014 by राजेश त्रिपाठी | Leave a Comment राजेश त्रिपाठी खुद को जो मान बैठे हैं खुदा ये जान लें। ये सिर इबादत के सिवा झुकता नहीं है।। वो और होंगे, कौड़ियों के मोल जो बिक गये। पर जहां में हर शख्स तो बिकता नहीं है।। दर्दे जिंदगी का बयां कोई महरूम करेगा। यह खाये-अघाये चेहरों पे दिखता नहीं है।। पैसे से न […] Read more » हर शख्स तो बिकता नहीं है