अज्ञान में जग भासता !

dhyanअज्ञान में जग भासता, अणु -ध्यान से भव भागता;
हर घड़ी जाता बदलता, हर कड़ी लगता निखरता !
निर्भर सभी द्रष्टि रहा, निर्झर सरिस द्रष्टा बहा;
पल पल बदल देखे रहा, था द्रश्य भी बदला रहा !
ना सत रहा जीवन सतत, ना असत था बिन प्रयोजन;
अस्तित्व सब चित से सृजित, हैं सृष्ट सब उससे सृवित !
वह बदलता सब बदलता, बदली नज़र जब देखता;
बदली सरिस जग विहरता, नभ पहुँच कर नव दीखता !
सब पंच-तत्वों का महल, उसकी पहल जाता टहल;
जो पंच इन्द्रिय परसता, ‘मधु’ महा- मन घुल वरसता !
मन ज्ञात है अज्ञात को !
मन ज्ञात है अज्ञात को, अज्ञात ना कुछ ज्ञात को;
चलता है पर अज्ञात सा, रचता जगत अनजान सा !
हर पिपाशा मन हताशा, जो भी रही थी कुयाशा;
थी नियोजित उसकी रही, कर प्रयोजित जाती रही !
है स्व-रूपित भव उसी का, गति संचरी जग ज़मीं  का;
सब सोच उसके विचारे, आ शून्य भागें बिचारे !
जो कुछ रहा उसके ही मन, जो भी तका उसके नयन;
संस्कार हमरे उसी से, संकल्प सजते उसी से !
जब भाव होते तिरोहित, उसमें मिले मन समाहित;
‘मधु’ समझते अज्ञात को, अज्ञात से अभिजात को !
लय प्रलय से बहुधा परे !
लय प्रलय से बहुधा परे, वे विलय करते विचरते;
हर हदों को वे नाख़ते, हर हृदय डेरा डालते !
हर स्थिति हर ही गति, है ज़रूरी जीवन चले;
हैं सिखाते सब समय से, उनकी दिशा जो भी ढले !
मन समर्पित जब हो चले, मर्ज़ी उसी की वह चले;
आनन्द हर पल में लभे, हर क्रिया में सक्रिय रहे !
सौन्दर्य जगती का समझ, सौहार्द्य हर उर परसते;
भक्ति समाहित संस्कृत, भव पार नौका चलाते !
मन अहं से वे हटाते, ना बहम में फिर डूबते !
‘मधु’ जग समझ कर विचरते, वधु बने ना फिर डोलते !

1 COMMENT

  1. शब्दातीत को शब्दो में पकडना जब चाहते।
    शिल्प आर्ष , शब्द सुन्दर, निःसृति कर पाते॥
    इस स्फुरणा के स्रोत को धन्यवाद।

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