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बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागरण

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विनोद बब्बर  79वें स्वतंत्रता दिवस पर भारत की एकता, अखण्डता को अक्षुण रखने के लिए अपना  सर्वोच्च बलिदान देने वाले वीरों, पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए दिन-रात एक करने वाले सभी वैज्ञानिकों, शिक्षकों, सांस्कृतिक राजदूत साहित्यकारों को श्रद्धा से नमन करना कर्मकांड नहीं अपितु हम सब का कर्तव्य है। स्वाभाविक रूप से संपूर्ण राष्ट्र अपने इस कर्तव्य का पालन करेगा। इस अवसर पर देश की भावी पीढ़ी के बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के अभियान को गति देना आवश्यक है। प्रत्येक बालक को अपनी मातृभूमि और श्रेष्ठ सांस्कृतिक मूल्यों के बारे में जानकारी होनी चाहिए। दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक एक स्वर में बताते हैं कि श्रेष्ठ संस्कार प्रदान करने का ‘सही समय’ बचपन ही हो सकता है। केवल भारत ही नहीं, दुनिया का हर विवेकशील राष्ट्र अपने भावी कर्णधारों को स्कूली शिक्षा के साथ राष्ट्रभक्ति के गुणों से भी समृद्ध करने का प्रयास करता है। जापान का वह प्रसंग सर्वविदित है जब स्वामी रामतीर्थ वहां के एक विद्यालय में गए। स्वामी जी ने एक विद्याार्थी से पूछा, ‘बच्चे, तुम किस धर्म को मानते हो? छात्र का उत्तर था, ‘बौद्ध धर्म।’ स्वामी जी ने फिर पूछा, ‘बुद्ध के विषय में तुम्हारे क्या विचार हैं?’ विद्यार्थी ने उत्तर दिया, ‘हर रिश्ते नाते में प्रथम बुद्ध हमारे भगवान हैं।’ इतना कह कर उसने अपने देश की प्रथा के अनुसार भगवान बुद्ध को सम्मान के साथ प्रणाम किया। अनेक प्रश्नों के अंत में स्वामी जी ने पूछा, ‘बेटा, अगर किसी दूसरे देश से जापान को जीतने के लिए एक भारी सेना आए और उसके सेनापति बुद्ध हों तो उस समय तुम क्या करोगे?’ इतना सुनते ही छात्र का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। अपनी लाल-लाल आंखों से स्वामी रामतीर्थ को घूरते हुए उसने जोश से कहा, ‘तब मैं अपनी तलवार से बुद्ध का सिर काट दूंगा।’समाज और राष्ट्र के भावी स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करने में श्रेष्ठ बाल साहित्य और शैक्षिक पाठ्यक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका है। सरकार ने शिक्षा नीति में अनेक महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं लेकिन स्कूली पाठ्यक्रम में देश प्रेम और संस्कृतिके प्रति जागृत करने वाली सामग्री का अभाव दिखाई देता है। बदलते परिवेश में समाज- परिवार भी अपने बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार और विचार रूपी खाद प्रदान करने के प्रति बहुत सजग नहीं है। इसी कारण परिस्थितियां हमारे बच्चों को मोबाइल, इंटरनेट गेम आदि की ओर धकेल रही हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि परिवारों में साहित्य और संस्कृति से संबंधित साहित्य का पठन-पाठन लगभग बंद हो गया है। ऐसे में हमारे बच्चे भी बाल साहित्य की पत्रिकाओं से दूर गेम डाउनलोड करने अथवा यू-ट्यूब पर वह सब देख-सुन रहे हैं जो इस आयु में उनसे दूर होना चाहिए था। ऐसा नहीं है कि इन परिस्थितियों और उनके विस्फोटक परिणाम की जानकारी न हो। परंतु न जाने क्यों अभिभावक, शिक्षक, समाज, सरकार सब लगभग मौन हैं। कटु सत्य तो यह कि कुछ पत्रिकाओं  को छोड़ अधिकांश साहित्यकार भी  देश प्रेम और संस्कृति से संबंधित सरस रचनाएं लिखना भूल दिखावटी प्रेम और तथाकथित आधुनिकता के रंग में रंगा भ्रमित है। ऐसे में जापान जैसी भावना हमारे छात्र में भला कैसे संभव है? उसके लिए तो अपने स्कूली पाठ्यक्रम से बाल-साहित्य, लोक-व्यवहार, खेलों, गीतों, फिल्मों, टीवी चैनलों पर प्रसारित किये जा रहे कार्यक्रमों को राष्ट्रीय चेतना से समृद्ध करना होगा। राष्ट्रीय चेतना के विकास में बाधक उपसंस्कृति को हतोत्साहित करना होगा। ज्ञातव्य है कि महात्मा गांधी भी बच्चों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के प्रबल पक्षधर थे इसलिए उन्होंने बच्चों के लिए धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित बाल पोथी और नीति धर्म नामक पुस्तकें तैयार की।  आश्चर्य है कि हम पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं लेकिन पश्चिम भारत के श्रेष्ठ गुणों को धारण करने की दिशा में अग्रसर है। एक विद्यार्थी के रूप में मुझे विश्व के अनेक देशों में जाने का अवसर मिला। लगभग हर देश में मुझे सम्मान से भारतीय (इण्डियन) के रूप में पहचान  ‘नमस्ते इण्डिया’ सुनने को मिला। विश्व फैशन नगरी मिलान (इटली) के अनुभव ने गौरवांवित होने का अवसर प्रदान किया। सात समुद्र पार, अपने देश की सीमाओं से हजारों मील दूर एक अनजान व्यक्ति के मुख से भारत का गौरव गान सुनना रोमांचित करने वाला क्षण था। वह हमारे भारत की माटी,  हमारे पूर्वज ऋषियों और उनके द्वारा विकसित संस्कृति का अभिषेक था। भारत की गुरुता के प्रमाण रूपी ऐसे एक नहीं, हजारों बल्कि लाखों- करोड़ों उदाहरण यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं।  तब हमारे युवा पीढ़ी को इस गौरव गाथा की जानकारी क्यों नहीं होनी चाहिए? एक घटना का उल्लेख करना आवश्यक समझता हूं जिसके स्मरण मात्र से  दशकों बाद आज भी मन-मस्तिष्क को असीमित उत्साह और ऊर्जा मिलती है। एक बार सर्वत्र मांसाहारी भोजन के कारण बहुत समस्या हो गई तो किसी ने लगभग 10 किमी दूर इण्डियन रेस्टोरेंट की राह दिखाई जहां भारतीय भोजन उपलब्ध था। हम प्रतिदिन शाम को वहां जाते। अपने प्रवास की समाप्ति पर रेस्टोरेंट के स्वामी के मिलने पर यह जानना आश्चर्य हुआ कि वह भारत नहीं, पाकिस्तान से था। ‘आपने अपने प्रतिष्ठान का नाम इण्डियन की बजाय पाकिस्तानी रेस्टोरेंट क्यों नहीं रखा?’ के जवाब में उसका कहना था, ‘तब यहां कौन आएगा!’ उसके ये चार शब्द मेरे देश, मेरी जन्मभूमि की यशोगाथा है। भारत से हजार युद्ध करने का उद्घोष करने वाले सर्वत्र प्रतिष्ठित भारत ब्रांड से अपनी रोजी-रोटी चल रहे हैं। परंतु यदा-कदा जब जब अपने ही देश में कुछ लोगों के मुख से इस महान धरा को काटने अथवा बांटने की बात सुनता हूं तो मन आक्रोश से भर उठता है। समाजशास्त्रियों की विवेचना के अनुसार ‘आत्मगौरव विहीन इन लोगों को यदि ‘सही समय’ अर्थात बाल्य काल में ही राष्ट्रीय चेतना से परिचित कराया जाता तो वेे भ्रामक प्रचार के शिकार नहीं होते।’ वर्तमान में नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं को महत्व दिए जाने की बात तो सराहनीय है लेकिन यह भी देखना होगा कि भारी-भरकम बस्ते में क्या ऐसा कुछ है जो सहजता से बच्चों की सांसों में ‘सबसे पहले देश’ का भाव  जागृत करें। क्या स्कूली पाठ्यक्रम में देश की बलि बेदी पर अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों पर नाखून कटाकर शहीद होने वाले तो हावी नहीं हैं? काले पानी की सेल्यूलर जेल में दो दो उम्र कैद की सजा भुगतने वालों को महत्वहीन और महलों में ‘सजा’ बिताने वालों को देश का एकमात्र उद्धारक बताया जाने की प्रवृत्ति देश की भावी पीढ़ी कोसत्य से बहुत दूर ले जा सकती है। बिना किसी भेदभाव के अमर बलिदानियों के बारे में हर बच्चे को पता होना ही चाहिए। उनके द्वारा सहे अकल्पनीय कष्टों की जानकारी होनी चाहिए। तभी उनके हृदय में देश के लिए कुछ कर गुजरने का भाव जागृत और स्थापित होगा। प्राथमिक स्तर तक प्रत्येक बच्चे को अपने राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय चिन्ह आदि की जानकारी होनी चाहिए। उनके सम्मान का भाव होना चाहिए। प्रत्येक बालक को स्थानीय भाषा में लोकगीतों तथा कहानियों के माध्यम से अपने महान पूर्वजो की गौरव गाथा से परिचित कराय़ा जाना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर उन्हें अनिवार्य रूप से ऐसीे गतिविधियों में शामिल किया जाये जिससे राष्ट्रीय चेतना विकसित हो। विश्वविद्यालय स्तर पर उत्तर के युवाओं के लिए पूर्व या दक्षिण, दक्षिण वालों को उत्तर या पश्चिम, पूर्व वालों को पश्चिम या दक्षिण, पश्चिम वालों कोउत्तर या पूर्व शिविर लगाये जाये जहां वे अपने देश और उसकी माटी की सुगंध को जाने। भारत को जानने के इस अभियान को अनिवार्य बनाया जाए। अध्ययन के साथ गोष्ठियां आयोजित कर छात्रों को प्रतिभागिता के लिए प्रोत्साहित किया जाये। प्रतिभाशाली छात्रों को विदेश बसने की ललक को अपने देश, अपनी माटी के लिए कुछ विशिष्ट करने की ओर मोड़ना है तो कागजी प्रोजेक्टों के स्थान पर कुछ विशिष्ट लेकिन वास्तविक करने की कार्यपद्धति विकसित करनी होगी। ‘यहां सब बेकार है’ का भाव तिरोहित कर ‘यही धरा सबसे न्यारी’ भाव जागरण बिन सकारात्मक बदलाव संभव नहीं। अनियंत्रित सोशल मीडिया पर भी सेंसर जैसा कुछ होना चाहिए ताकि हमारे किशोर और युवा पथभ्रष्ट न हो। पाश्चात् संस्कृति  के बढ़ते प्रभाव के कारण कामुक और देश की गौरवशाली परम्पराओं को कलुषित करने वाली फिल्मों तथा टीवी सीरियलों के प्रसारण की अनुमति नहीं होनी चाहिए। जबकि सामाजिक समरसता, एकता, सौहार्द को बढ़ावा देने वाले गीतों, लघु नाटिकाओं आदि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साहित्य अकादमियों को अपने प्रतिष्ठित पुरस्कारों का निर्णय करते समय समकालीन साहित्य  में एकता, समता, सौहार्द की प्रतिध्वनि को सुनना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि पिछले कुछ समय से समाज में राष्ट्रीयता के महत्व और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जागरण बढ़ा है। भारत हमारा राष्ट्र है हम सबकी पहचान है। इसका भविष्य हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य है इसलिए बाल मन में राष्ट्रीय चेतना के अंकुर रोपित करने के इस महत्वपूर्ण यज्ञ में सरकार, समाज और  भारत के प्रत्येक जागरूक नागरिक को अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी चाहिए। विनोद बब्बर 

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लेख शख्सियत समाज साक्षात्‍कार

फांसी के फंदे को चूमकर शहीद हो गए खुदीराम बोस

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शहादत  दिवस,  11 अगस्त 1908 कुमार कृष्णन  आज की तारीख में आम तौर पर उन्नीस साल से कम उम्र के किसी युवक के भीतर देश और लोगों की तकलीफों, और जरुरतों की समझ कम ही होती है लेकिन खुदीराम बोस ने जिस उम्र में इन तकलीफों के खात्मे के खिलाफ आवाज बुलंद की, वह मिसाल है जिसका वर्णन इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। इससे ज्यादा हैरान करने वाली बात और क्या हो सकती है कि जिस उम्र में कोई बच्चा खेलने-कूदने और पढ़ने में खुद को झोंक देता है, उस उम्र में खुदीराम बोस यह समझते थे कि देश का गुलाम होना क्या होता है और कैसे या किस रास्ते से देश को इस हालत से बाहर लाया जा सकता है। इसे कम उम्र का उत्साह कहा जा सकता है लेकिन खुदीराम बोस का वह उत्साह आज भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ आंदोलन के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है तो इसका मतलब यह है कि वह केवल उत्साह नहीं था बल्कि गुलामी थोपने वाली किसी सत्ता की जड़ें हिला देने वाली भूमिका थी। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि महज उन्नीस साल से भी कम उम्र में उसी हौसले की वजह से खुदीराम बोस को फांसी की सजा दे दी गई लेकिन यही से शुरू हुए सफर ने ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन की ऐसी नींव रखी कि आखिर कार अंग्रेजों को इस देश पर जमे अपने कब्जे को छोड़ कर जाना ही पड़ा। बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में त्रैलोक्य नाथ बोस के घर 3 दिसंबर 1889 को खुदीराम बोस का जन्म हुआ था लेकिन बहुत ही कम उम्र में उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया। माता-पिता के निधन के बाद उनकी बड़ी बहन ने मां-पिता की भूमिका निभाई और खुदीराम का लालन-पालन किया था। इतना तय है कि उनके पलने-बढ़ने के दौरान ही उनमें प्रतिरोध की चेतना भी विकसित हो रही थी। दिलचस्प बात यह है कि खुदीराम ने अपनी स्कूली जिंदगी में ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। तब वे प्रतिरोध जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे, अपने उत्साह से सबको चकित कर देते थे। यही वजह है कि किशोरावस्था में ही खुदीराम बोस ने अपने भीतर के हौसले को उड़ान देने के लिए सत्येन बोस को खोज लिया और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े थे।  तब 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उथल-पुथल का दौर चल रहा था। उनकी दीवानगी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने नौंवीं कक्षा की पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी और अंग्रेजों के खिलाफ मैदान में कूद पड़े। तब रिवोल्यूशनरी पार्टी अपना अभियान जोर-शोर से चला रही थी और खुदीराम को भी एक ठौर चाहिए था जहां से यह लड़ाई ठोस तरीके से लड़ी जाए। खुदीराम बोस ने डर को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया, 28 फरवरी 1906 को  वे सोनार बांग्ला नाम का एक इश्तिहार बांटते हुए पकड़े गए लेकिन उसके बाद वह पुलिस को चकमा देकर भाग निकले। 16 मई 1906 को पुलिस  ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया लेकिन इस बार उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इसके पीछे वजह शायद यह रही होगी कि इतनी कम उम्र का बच्चा किसी बहकावे में आकर ऐसा कर रहा होगा लेकिन यह ब्रिटिश पुलिस के आकलन की चूक थी। खुदीराम उस उम्र में भी जानते थे कि उन्हें क्या करना है और क्यों करना है। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ उनका जुनून बढ़ता गया और 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर आंदोलनकारियों के जिस छोटे से समूह ने बम विस्फोट की घटना को अंजाम दिया, उसमें खुदीराम प्रमुख थे। इतिहास में दर्ज है कि तब कलकत्ता में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट को बहुत ही सख्त और बेरहम अधिकारी के तौर पर जाना जाता था। वह ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों पर बहुत जुल्म ढाता था। उसके यातना देने के तरीके बेहद बर्बर थे जो आखिरकार किसी क्रांतिकारी की जान लेने पर ही खत्म होते थे। बंगाल विभाजन के बाद उभरे जनाक्रोश के दौरान लाखों लोग सड़कों पर उतर गए और तब बहुत सारे भारतीयों को मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर सजाएं सुनाईं। इसके बदले ब्रिटिश हुकूमत ने उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। उसके अत्याचारों से तंग जनता के बीच काफी आक्रोश फैल गया था। इसीलिए युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने किंग्सफोर्ड मुजफ्फरपुर में मार डालने की योजना बनाई और इस काम की जिम्मेदारी खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को दी गई। तब तक बंगाल के इस वीर खुदीराम को लोग अपना आदर्श मानने लगे थे। बहरहाल, खुदीराम और प्रफुल्ल, दोनों ने किंग्सफोर्ड की समूची गतिविधियों, दिनचर्या, आने-जाने की जगहों की पहले रेकी की और अपनी योजना को पुख्ता आधार दिया। उस योजना के मुताबिक दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला भी किया लेकिन उस बग्घी में किंग्सफोर्ड की पत्नी और बेटी बैठी थी और वही हमले का शिकार बनीं और मारी गईं। इधर खुदीराम और प्रफुल्ल हमले को सफल मान कर वहां से भाग निकले लेकिन जब बाद में उन्हें पता चला कि उनके हमले में किंग्सफोर्ड नहीं, दो महिलाएं मारी गईं तो दोनों को इसका बहुत अफसोस हुआ लेकिन फिर भी उन्हें भागना था और वे बचते-बढ़ते चले जा रहे थे। प्यास लगने पर एक दुकान वाले से खुदीराम बोस ने पानी मांगा जहां मौजूद पुलिस को उनपर शक हुआ और खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली। बम विस्फोट और उसमें दो यूरोपीय महिलाओं के मारे जाने के बाद ब्रिटिश हुकूमत के भीतर जैसी हलचल मची थी,  उसमें गिरफ्तारी के बाद फैसला भी लगभग तय था। खुदीराम ने अपने बचाव में साफ तौर पर कहा कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को सजा देने के लिए ही बम फेंका था। जाहिर है, ब्रिटिश राज के खिलाफ ऐसे सिर उठाने वालों के प्रति अंग्रेजी राज का रुख स्पष्ट था, लिहाजा खुदीराम के लिए फांसी की सजा तय हुई। 11 अगस्त 1908 को जब खुदीराम को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया गया, तब उनके माथे पर कोई शिकन नहीं थी, बल्कि चेहरे पर मुस्कुराहट थी। यह बेवजह नहीं है कि आज भी इतिहास में खुदीराम महज ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ नहीं बल्कि किसी भी जन-विरोधी सत्ता के खिलाफ लड़ाई के सरोकार और लड़ने के हौसले के प्रतीक के रूप में ताकत देते हैं। कुमार कृष्णन 

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