पर्यावरण लेख प्रकृति से खिलवाड़ की चेतावनी August 12, 2025 / August 12, 2025 by प्रमोद भार्गव | Leave a Comment संदर्भः उत्तराखंड में बादल फटने से हुई ताबाहीप्रमोद भार्गवभारतीय दर्शन के अनुसार मानव सभ्यता का विकास हिमालय और उसकी नदी-घाटियों से माना जाता है। ऋषि -कश्यप और उनकी दिति-अदिति नाम की पत्नियों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और सभ्यता के क्रम की शुरूआत हुई। एक बड़ी आबादी को शुद्ध और पौश्टिक पानी देने के लिए […] Read more » Warning against messing with nature प्रकृति से खिलवाड़
मनोरंजन लेख विधि-कानून आखिर कितना उपयोगी साबित होगा ओपन बुक असेसमेंट ? August 12, 2025 / August 12, 2025 by सुनील कुमार महला | Leave a Comment सुनील कुमार महला आज हम इक्कीसवीं सदी में सांस ले रहे हैं और इस सदी की आवश्यकताओं के मद्देनजर हमारे देश में नई शिक्षा नीति-2025 भी लागू की गई है, जो कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का ही एक उन्नत रूप या संस्करण है, लेकिन इसमें भारतीय शिक्षा प्रणाली को अधिक समावेशी, लचीला और कौशल आधारित(स्किल […] Read more » After all how useful will open book assessment ओपन बुक असेसमेंट
लेख जीवन का दूसरा अवसर प्रदान करता है अंगदान August 12, 2025 / August 12, 2025 by कुमार कृष्णन | Leave a Comment विश्व अंगदान दिवस – १३ अगस्त कुमार कृष्णन अंगदान और प्रत्यारोपण हर वर्ष हजारों लोगों को जीवन का दूसरा अवसर प्रदान करता है। अमीर और गरीब के बीच भारी असमानता, मानव अंगों की मांग और देश में प्रौद्योगिकी की उपलब्धता जैसे कारणों से मानव अंगों का व्यापार जहां कुछ लोगों को धन प्रदान करता है […] Read more » Organ donation gives a second chance to life अंगदान विश्व अंगदान दिवस - १३ अगस्त
लेख युवाः वर्तमान की क्रांति एवं शांति के वाहक August 11, 2025 / August 11, 2025 by ललित गर्ग | Leave a Comment अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस, 12 अगस्त 2025 पर विशेष – ललित गर्ग – अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस केवल एक कैलेंडर की तारीख नहीं है, बल्कि यह हमें याद दिलाता है कि आज की दुनिया में परिवर्तन का सबसे बड़ा वाहक युवा हैं। यह दिन संयुक्त राष्ट्र ने युवाओं के अधिकार, अवसर और योगदान को मान्यता देने के […] Read more » अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस
लेख आज़ाद भारत और 15 अगस्त August 11, 2025 / August 11, 2025 by शम्भू शरण सत्यार्थी | Leave a Comment शम्भू शरण सत्यार्थी हर साल जब 15 अगस्त आता है, पूरा देश गर्व और देशभक्ति की भावना से भर जाता है। यह दिन भारत के इतिहास का सबसे सुनहरा दिन है क्योंकि 15 अगस्त 1947 को हमारा देश गुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर आज़ाद हुआ था। यह दिन केवल एक तारीख नहीं है, यह बलिदान, […] Read more » आज़ाद भारत और 15 अगस्त
लेख बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागरण August 11, 2025 / August 11, 2025 by डा. विनोद बब्बर | Leave a Comment विनोद बब्बर 79वें स्वतंत्रता दिवस पर भारत की एकता, अखण्डता को अक्षुण रखने के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले वीरों, पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए दिन-रात एक करने वाले सभी वैज्ञानिकों, शिक्षकों, सांस्कृतिक राजदूत साहित्यकारों को श्रद्धा से नमन करना कर्मकांड नहीं अपितु हम सब का कर्तव्य है। स्वाभाविक रूप से संपूर्ण राष्ट्र अपने इस कर्तव्य का पालन करेगा। इस अवसर पर देश की भावी पीढ़ी के बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के अभियान को गति देना आवश्यक है। प्रत्येक बालक को अपनी मातृभूमि और श्रेष्ठ सांस्कृतिक मूल्यों के बारे में जानकारी होनी चाहिए। दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक एक स्वर में बताते हैं कि श्रेष्ठ संस्कार प्रदान करने का ‘सही समय’ बचपन ही हो सकता है। केवल भारत ही नहीं, दुनिया का हर विवेकशील राष्ट्र अपने भावी कर्णधारों को स्कूली शिक्षा के साथ राष्ट्रभक्ति के गुणों से भी समृद्ध करने का प्रयास करता है। जापान का वह प्रसंग सर्वविदित है जब स्वामी रामतीर्थ वहां के एक विद्यालय में गए। स्वामी जी ने एक विद्याार्थी से पूछा, ‘बच्चे, तुम किस धर्म को मानते हो? छात्र का उत्तर था, ‘बौद्ध धर्म।’ स्वामी जी ने फिर पूछा, ‘बुद्ध के विषय में तुम्हारे क्या विचार हैं?’ विद्यार्थी ने उत्तर दिया, ‘हर रिश्ते नाते में प्रथम बुद्ध हमारे भगवान हैं।’ इतना कह कर उसने अपने देश की प्रथा के अनुसार भगवान बुद्ध को सम्मान के साथ प्रणाम किया। अनेक प्रश्नों के अंत में स्वामी जी ने पूछा, ‘बेटा, अगर किसी दूसरे देश से जापान को जीतने के लिए एक भारी सेना आए और उसके सेनापति बुद्ध हों तो उस समय तुम क्या करोगे?’ इतना सुनते ही छात्र का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। अपनी लाल-लाल आंखों से स्वामी रामतीर्थ को घूरते हुए उसने जोश से कहा, ‘तब मैं अपनी तलवार से बुद्ध का सिर काट दूंगा।’समाज और राष्ट्र के भावी स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करने में श्रेष्ठ बाल साहित्य और शैक्षिक पाठ्यक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका है। सरकार ने शिक्षा नीति में अनेक महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं लेकिन स्कूली पाठ्यक्रम में देश प्रेम और संस्कृतिके प्रति जागृत करने वाली सामग्री का अभाव दिखाई देता है। बदलते परिवेश में समाज- परिवार भी अपने बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार और विचार रूपी खाद प्रदान करने के प्रति बहुत सजग नहीं है। इसी कारण परिस्थितियां हमारे बच्चों को मोबाइल, इंटरनेट गेम आदि की ओर धकेल रही हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि परिवारों में साहित्य और संस्कृति से संबंधित साहित्य का पठन-पाठन लगभग बंद हो गया है। ऐसे में हमारे बच्चे भी बाल साहित्य की पत्रिकाओं से दूर गेम डाउनलोड करने अथवा यू-ट्यूब पर वह सब देख-सुन रहे हैं जो इस आयु में उनसे दूर होना चाहिए था। ऐसा नहीं है कि इन परिस्थितियों और उनके विस्फोटक परिणाम की जानकारी न हो। परंतु न जाने क्यों अभिभावक, शिक्षक, समाज, सरकार सब लगभग मौन हैं। कटु सत्य तो यह कि कुछ पत्रिकाओं को छोड़ अधिकांश साहित्यकार भी देश प्रेम और संस्कृति से संबंधित सरस रचनाएं लिखना भूल दिखावटी प्रेम और तथाकथित आधुनिकता के रंग में रंगा भ्रमित है। ऐसे में जापान जैसी भावना हमारे छात्र में भला कैसे संभव है? उसके लिए तो अपने स्कूली पाठ्यक्रम से बाल-साहित्य, लोक-व्यवहार, खेलों, गीतों, फिल्मों, टीवी चैनलों पर प्रसारित किये जा रहे कार्यक्रमों को राष्ट्रीय चेतना से समृद्ध करना होगा। राष्ट्रीय चेतना के विकास में बाधक उपसंस्कृति को हतोत्साहित करना होगा। ज्ञातव्य है कि महात्मा गांधी भी बच्चों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के प्रबल पक्षधर थे इसलिए उन्होंने बच्चों के लिए धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित बाल पोथी और नीति धर्म नामक पुस्तकें तैयार की। आश्चर्य है कि हम पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं लेकिन पश्चिम भारत के श्रेष्ठ गुणों को धारण करने की दिशा में अग्रसर है। एक विद्यार्थी के रूप में मुझे विश्व के अनेक देशों में जाने का अवसर मिला। लगभग हर देश में मुझे सम्मान से भारतीय (इण्डियन) के रूप में पहचान ‘नमस्ते इण्डिया’ सुनने को मिला। विश्व फैशन नगरी मिलान (इटली) के अनुभव ने गौरवांवित होने का अवसर प्रदान किया। सात समुद्र पार, अपने देश की सीमाओं से हजारों मील दूर एक अनजान व्यक्ति के मुख से भारत का गौरव गान सुनना रोमांचित करने वाला क्षण था। वह हमारे भारत की माटी, हमारे पूर्वज ऋषियों और उनके द्वारा विकसित संस्कृति का अभिषेक था। भारत की गुरुता के प्रमाण रूपी ऐसे एक नहीं, हजारों बल्कि लाखों- करोड़ों उदाहरण यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। तब हमारे युवा पीढ़ी को इस गौरव गाथा की जानकारी क्यों नहीं होनी चाहिए? एक घटना का उल्लेख करना आवश्यक समझता हूं जिसके स्मरण मात्र से दशकों बाद आज भी मन-मस्तिष्क को असीमित उत्साह और ऊर्जा मिलती है। एक बार सर्वत्र मांसाहारी भोजन के कारण बहुत समस्या हो गई तो किसी ने लगभग 10 किमी दूर इण्डियन रेस्टोरेंट की राह दिखाई जहां भारतीय भोजन उपलब्ध था। हम प्रतिदिन शाम को वहां जाते। अपने प्रवास की समाप्ति पर रेस्टोरेंट के स्वामी के मिलने पर यह जानना आश्चर्य हुआ कि वह भारत नहीं, पाकिस्तान से था। ‘आपने अपने प्रतिष्ठान का नाम इण्डियन की बजाय पाकिस्तानी रेस्टोरेंट क्यों नहीं रखा?’ के जवाब में उसका कहना था, ‘तब यहां कौन आएगा!’ उसके ये चार शब्द मेरे देश, मेरी जन्मभूमि की यशोगाथा है। भारत से हजार युद्ध करने का उद्घोष करने वाले सर्वत्र प्रतिष्ठित भारत ब्रांड से अपनी रोजी-रोटी चल रहे हैं। परंतु यदा-कदा जब जब अपने ही देश में कुछ लोगों के मुख से इस महान धरा को काटने अथवा बांटने की बात सुनता हूं तो मन आक्रोश से भर उठता है। समाजशास्त्रियों की विवेचना के अनुसार ‘आत्मगौरव विहीन इन लोगों को यदि ‘सही समय’ अर्थात बाल्य काल में ही राष्ट्रीय चेतना से परिचित कराया जाता तो वेे भ्रामक प्रचार के शिकार नहीं होते।’ वर्तमान में नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं को महत्व दिए जाने की बात तो सराहनीय है लेकिन यह भी देखना होगा कि भारी-भरकम बस्ते में क्या ऐसा कुछ है जो सहजता से बच्चों की सांसों में ‘सबसे पहले देश’ का भाव जागृत करें। क्या स्कूली पाठ्यक्रम में देश की बलि बेदी पर अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों पर नाखून कटाकर शहीद होने वाले तो हावी नहीं हैं? काले पानी की सेल्यूलर जेल में दो दो उम्र कैद की सजा भुगतने वालों को महत्वहीन और महलों में ‘सजा’ बिताने वालों को देश का एकमात्र उद्धारक बताया जाने की प्रवृत्ति देश की भावी पीढ़ी कोसत्य से बहुत दूर ले जा सकती है। बिना किसी भेदभाव के अमर बलिदानियों के बारे में हर बच्चे को पता होना ही चाहिए। उनके द्वारा सहे अकल्पनीय कष्टों की जानकारी होनी चाहिए। तभी उनके हृदय में देश के लिए कुछ कर गुजरने का भाव जागृत और स्थापित होगा। प्राथमिक स्तर तक प्रत्येक बच्चे को अपने राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय चिन्ह आदि की जानकारी होनी चाहिए। उनके सम्मान का भाव होना चाहिए। प्रत्येक बालक को स्थानीय भाषा में लोकगीतों तथा कहानियों के माध्यम से अपने महान पूर्वजो की गौरव गाथा से परिचित कराय़ा जाना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर उन्हें अनिवार्य रूप से ऐसीे गतिविधियों में शामिल किया जाये जिससे राष्ट्रीय चेतना विकसित हो। विश्वविद्यालय स्तर पर उत्तर के युवाओं के लिए पूर्व या दक्षिण, दक्षिण वालों को उत्तर या पश्चिम, पूर्व वालों को पश्चिम या दक्षिण, पश्चिम वालों कोउत्तर या पूर्व शिविर लगाये जाये जहां वे अपने देश और उसकी माटी की सुगंध को जाने। भारत को जानने के इस अभियान को अनिवार्य बनाया जाए। अध्ययन के साथ गोष्ठियां आयोजित कर छात्रों को प्रतिभागिता के लिए प्रोत्साहित किया जाये। प्रतिभाशाली छात्रों को विदेश बसने की ललक को अपने देश, अपनी माटी के लिए कुछ विशिष्ट करने की ओर मोड़ना है तो कागजी प्रोजेक्टों के स्थान पर कुछ विशिष्ट लेकिन वास्तविक करने की कार्यपद्धति विकसित करनी होगी। ‘यहां सब बेकार है’ का भाव तिरोहित कर ‘यही धरा सबसे न्यारी’ भाव जागरण बिन सकारात्मक बदलाव संभव नहीं। अनियंत्रित सोशल मीडिया पर भी सेंसर जैसा कुछ होना चाहिए ताकि हमारे किशोर और युवा पथभ्रष्ट न हो। पाश्चात् संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण कामुक और देश की गौरवशाली परम्पराओं को कलुषित करने वाली फिल्मों तथा टीवी सीरियलों के प्रसारण की अनुमति नहीं होनी चाहिए। जबकि सामाजिक समरसता, एकता, सौहार्द को बढ़ावा देने वाले गीतों, लघु नाटिकाओं आदि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साहित्य अकादमियों को अपने प्रतिष्ठित पुरस्कारों का निर्णय करते समय समकालीन साहित्य में एकता, समता, सौहार्द की प्रतिध्वनि को सुनना चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि पिछले कुछ समय से समाज में राष्ट्रीयता के महत्व और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जागरण बढ़ा है। भारत हमारा राष्ट्र है हम सबकी पहचान है। इसका भविष्य हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य है इसलिए बाल मन में राष्ट्रीय चेतना के अंकुर रोपित करने के इस महत्वपूर्ण यज्ञ में सरकार, समाज और भारत के प्रत्येक जागरूक नागरिक को अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी चाहिए। विनोद बब्बर Read more » Awakening national consciousness in the minds of children बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागरण
लेख शख्सियत समाज साक्षात्कार फांसी के फंदे को चूमकर शहीद हो गए खुदीराम बोस August 11, 2025 / August 11, 2025 by कुमार कृष्णन | Leave a Comment शहादत दिवस, 11 अगस्त 1908 कुमार कृष्णन आज की तारीख में आम तौर पर उन्नीस साल से कम उम्र के किसी युवक के भीतर देश और लोगों की तकलीफों, और जरुरतों की समझ कम ही होती है लेकिन खुदीराम बोस ने जिस उम्र में इन तकलीफों के खात्मे के खिलाफ आवाज बुलंद की, वह मिसाल है जिसका वर्णन इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। इससे ज्यादा हैरान करने वाली बात और क्या हो सकती है कि जिस उम्र में कोई बच्चा खेलने-कूदने और पढ़ने में खुद को झोंक देता है, उस उम्र में खुदीराम बोस यह समझते थे कि देश का गुलाम होना क्या होता है और कैसे या किस रास्ते से देश को इस हालत से बाहर लाया जा सकता है। इसे कम उम्र का उत्साह कहा जा सकता है लेकिन खुदीराम बोस का वह उत्साह आज भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ आंदोलन के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है तो इसका मतलब यह है कि वह केवल उत्साह नहीं था बल्कि गुलामी थोपने वाली किसी सत्ता की जड़ें हिला देने वाली भूमिका थी। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि महज उन्नीस साल से भी कम उम्र में उसी हौसले की वजह से खुदीराम बोस को फांसी की सजा दे दी गई लेकिन यही से शुरू हुए सफर ने ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन की ऐसी नींव रखी कि आखिर कार अंग्रेजों को इस देश पर जमे अपने कब्जे को छोड़ कर जाना ही पड़ा। बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में त्रैलोक्य नाथ बोस के घर 3 दिसंबर 1889 को खुदीराम बोस का जन्म हुआ था लेकिन बहुत ही कम उम्र में उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया। माता-पिता के निधन के बाद उनकी बड़ी बहन ने मां-पिता की भूमिका निभाई और खुदीराम का लालन-पालन किया था। इतना तय है कि उनके पलने-बढ़ने के दौरान ही उनमें प्रतिरोध की चेतना भी विकसित हो रही थी। दिलचस्प बात यह है कि खुदीराम ने अपनी स्कूली जिंदगी में ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। तब वे प्रतिरोध जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे, अपने उत्साह से सबको चकित कर देते थे। यही वजह है कि किशोरावस्था में ही खुदीराम बोस ने अपने भीतर के हौसले को उड़ान देने के लिए सत्येन बोस को खोज लिया और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े थे। तब 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उथल-पुथल का दौर चल रहा था। उनकी दीवानगी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने नौंवीं कक्षा की पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी और अंग्रेजों के खिलाफ मैदान में कूद पड़े। तब रिवोल्यूशनरी पार्टी अपना अभियान जोर-शोर से चला रही थी और खुदीराम को भी एक ठौर चाहिए था जहां से यह लड़ाई ठोस तरीके से लड़ी जाए। खुदीराम बोस ने डर को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया, 28 फरवरी 1906 को वे सोनार बांग्ला नाम का एक इश्तिहार बांटते हुए पकड़े गए लेकिन उसके बाद वह पुलिस को चकमा देकर भाग निकले। 16 मई 1906 को पुलिस ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया लेकिन इस बार उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इसके पीछे वजह शायद यह रही होगी कि इतनी कम उम्र का बच्चा किसी बहकावे में आकर ऐसा कर रहा होगा लेकिन यह ब्रिटिश पुलिस के आकलन की चूक थी। खुदीराम उस उम्र में भी जानते थे कि उन्हें क्या करना है और क्यों करना है। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ उनका जुनून बढ़ता गया और 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर आंदोलनकारियों के जिस छोटे से समूह ने बम विस्फोट की घटना को अंजाम दिया, उसमें खुदीराम प्रमुख थे। इतिहास में दर्ज है कि तब कलकत्ता में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट को बहुत ही सख्त और बेरहम अधिकारी के तौर पर जाना जाता था। वह ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों पर बहुत जुल्म ढाता था। उसके यातना देने के तरीके बेहद बर्बर थे जो आखिरकार किसी क्रांतिकारी की जान लेने पर ही खत्म होते थे। बंगाल विभाजन के बाद उभरे जनाक्रोश के दौरान लाखों लोग सड़कों पर उतर गए और तब बहुत सारे भारतीयों को मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर सजाएं सुनाईं। इसके बदले ब्रिटिश हुकूमत ने उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। उसके अत्याचारों से तंग जनता के बीच काफी आक्रोश फैल गया था। इसीलिए युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने किंग्सफोर्ड मुजफ्फरपुर में मार डालने की योजना बनाई और इस काम की जिम्मेदारी खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को दी गई। तब तक बंगाल के इस वीर खुदीराम को लोग अपना आदर्श मानने लगे थे। बहरहाल, खुदीराम और प्रफुल्ल, दोनों ने किंग्सफोर्ड की समूची गतिविधियों, दिनचर्या, आने-जाने की जगहों की पहले रेकी की और अपनी योजना को पुख्ता आधार दिया। उस योजना के मुताबिक दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला भी किया लेकिन उस बग्घी में किंग्सफोर्ड की पत्नी और बेटी बैठी थी और वही हमले का शिकार बनीं और मारी गईं। इधर खुदीराम और प्रफुल्ल हमले को सफल मान कर वहां से भाग निकले लेकिन जब बाद में उन्हें पता चला कि उनके हमले में किंग्सफोर्ड नहीं, दो महिलाएं मारी गईं तो दोनों को इसका बहुत अफसोस हुआ लेकिन फिर भी उन्हें भागना था और वे बचते-बढ़ते चले जा रहे थे। प्यास लगने पर एक दुकान वाले से खुदीराम बोस ने पानी मांगा जहां मौजूद पुलिस को उनपर शक हुआ और खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली। बम विस्फोट और उसमें दो यूरोपीय महिलाओं के मारे जाने के बाद ब्रिटिश हुकूमत के भीतर जैसी हलचल मची थी, उसमें गिरफ्तारी के बाद फैसला भी लगभग तय था। खुदीराम ने अपने बचाव में साफ तौर पर कहा कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को सजा देने के लिए ही बम फेंका था। जाहिर है, ब्रिटिश राज के खिलाफ ऐसे सिर उठाने वालों के प्रति अंग्रेजी राज का रुख स्पष्ट था, लिहाजा खुदीराम के लिए फांसी की सजा तय हुई। 11 अगस्त 1908 को जब खुदीराम को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया गया, तब उनके माथे पर कोई शिकन नहीं थी, बल्कि चेहरे पर मुस्कुराहट थी। यह बेवजह नहीं है कि आज भी इतिहास में खुदीराम महज ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ नहीं बल्कि किसी भी जन-विरोधी सत्ता के खिलाफ लड़ाई के सरोकार और लड़ने के हौसले के प्रतीक के रूप में ताकत देते हैं। कुमार कृष्णन Read more » Khudiram Bose became a martyr by kissing the noose of hanging खुदीराम बोस
लेख गंदगी और बंदगी एक साथ कैसे? August 11, 2025 / August 11, 2025 by डॉ.वेदप्रकाश | Leave a Comment डॉ.वेदप्रकाश विगत दिनों एक समाचार पढ़ा- साढ़े चार करोड़ कांवड़ यात्री धर्मनगरी में छोड़ गए 10 हजार मीट्रिक टन कूड़ा। यह समाचार हाल ही में संपन्न हुई कांवड़ यात्रा के संबंध में था। समाचार के विश्लेषण में आगे लिखा था- 11 जुलाई से कांवड़ यात्रा विधिवत रूप से शुरू हुई थी। यात्रा का आधा पड़ाव पूरा होने के बाद कांवड़ यात्रियों ने खाद्य पदार्थ,प्लास्टिक की बोतलें, चिप्स और गुटके के रैपर्स, पॉलिथीन की थैलियां, पुराने कपड़े, जूते- चप्पल आदि सामान कूड़ेदान में डालने के बजाय सड़क और गंगा घाटों पर ही फेंक दिया। हर की पैड़ी के संपूर्ण क्षेत्र में गंदगी फैली है। मालवीय घाट, सुभाष घाट, महिला घाट, रोड़ी बेलवाला,पंतद्वीप, कनखल, भूपतवाला, ऋषिकुल मैदान, बैरागी कैंप आदि क्षेत्रों में गंदगी पसरी है। गौरतलब यह भी है कि हरिद्वार में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण द्वारा प्लास्टिक पर प्रतिबंध के बाद भी कांवड़ यात्रा के दौरान पॉलीथिन और प्लास्टिक का कारोबार जमकर हुआ। क्या यह प्रशासन की मिलीभगत नहीं है? संयोग से इस दौरान मुझे भी हरिद्वार और ऋषिकेश गंगा स्नान एवं दर्शन के लिए जाने का सौभाग्य मिला। परमार्थ निकेतन ऋषिकेश में विश्व प्रसिद्ध गंगा आरती के समय प्रतिदिन की भांति पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी उन दिनों भी विशेष रूप से अपने उद्बोधन में कह रहे थे- घाटों पर गंदगी न करें, कूड़ा कूड़ेदान में डालें, प्लास्टिक का प्रयोग न करें, मां गंगा में पुरानी कांवड़ और पुराने कपड़े आदि न फेंके। प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग न हो, इसके लिए उन्होंने एक विशेष अभियान के अंतर्गत कपड़े के लाखों थैले बंटवाए। जगह-जगह स्वच्छ पेयजल हेतु व्यवस्थाएं की। तदुपरांत भी गंगा घाटों पर गंदे कपड़े, कूड़ा और प्लास्टिक की बोतलें सहजता से इधर-उधर पड़ी दिखाई दे रही थी। यहां समझने की आवश्यकता है कि गंदगी न करना, स्वच्छता रखना, प्रकृति- पर्यावरण, नदी और जल स्रोतों को दूषित न करना अपने आप में एक बड़ी भक्ति अथवा बंदगी है। अनेक स्थानों पर लोग भंडारे और अन्य कार्यक्रमों के आयोजन करते हैं, जिसमें प्लास्टिक की प्लेट, चम्मच, गिलास आदि के रूप में ढेर कूड़ा दाएं बाएं बिखरा पड़ा रहता है। भंडारा करना और अन्य धार्मिक आयोजन हर्षोंल्लास से करना बहुत अच्छी बात है लेकिन गंदगी के लिए भी सजग होना पड़ेगा। एक नागरिक के रूप में हमें यूज एंड थ्रो की संस्कृति को छोड़ना होगा। तीर्थ स्थानों पर अथवा कहीं भी गंदगी फैलाना हमें बंदगी की भावना से दूर करता है। विगत दिनों प्रयागराज में महाकुंभ मेले का आयोजन हुआ। मेले में प्रतिदिन सैकड़ों मीट्रिक टन कूड़ा निकलता था, लेकिन प्रशासन की समुचित योजना और सजगता होने से मेला क्षेत्र लगातार स्वच्छ रहा। कुछ ही स्थानों पर प्लास्टिक की थैलियां, बोतलें और कूड़ा दिखाई दिया। भारत विविधताओं का देश है। यहां विभिन्न जातियां, मत- संप्रदाय एवं पर्व- उत्सव हैं। समूचे देश में विभिन्न नदियों एवं स्थानों पर अनेक तीर्थ हैं। जहां प्रतिदिन भारी संख्या में श्रद्धालु एवं तीर्थयात्री पहुंचते हैं। क्या अपनी इन पवित्र यात्राओं पर जाते समय हम प्रकृति-पर्यावरण और तीर्थों को गंदा न करने और स्वच्छ रखने का संकल्प नहीं ले सकते? स्वच्छता की दृष्टि से लगातार प्रयास करते हुए इंदौर देश का सबसे स्वच्छ शहर बना हुआ है जबकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कई जगह कूड़े के पहाड़ बन चुके हैं। लगातार बढ़ती जनसंख्या के बीच शासन- प्रशासन की भी अपनी सीमाएं हैं। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति को यह संकल्प लेना होगा कि मेरा कूड़ा मैं ही संभालूं। हरिद्वार और ऋषिकेश की यात्रा के संबंध में गांधी जी ने लिखा है- गंगा तट पर जहां पर ईश्वर दर्शन के लिए ध्यान लगाकर बैठना शोभा देता है- पाखाना, पेशाब करते हुए बडी संख्या में स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं…जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझकर पीते हैं, उसमें फूल, सूत, गुलाल,चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गई… मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदा पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है जोकि एक बड़े से बड़ा अपराध है। आज भी गंगोत्री धाम से लेकर गंगासागर तक मां गंगा, यमुनोत्री से लेकर प्रयागराज संगम तक मां यमुना, कृष्णा, कावेरी, मंदाकिनी, ब्रह्मपुत्र आदि विभिन्न ऐसी नदियां हैं जिनमें व्यापक स्तर पर भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रदूषण और गंदगी फैलाई जा रही है। इस गंदगी के लिए न तो प्रशासन सजग है और न ही लोग। दिल्ली, हरियाणा और फिर उत्तर प्रदेश, वृंदावन में भी मां यमुना के किनारे गंदगी सहज ही देखी जा सकती है। यद्यपि भारत सरकार नमामि गंगे मिशन के अंतर्गत गंगा व अन्य नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रयास कर रही है तथापि अभी स्थिति में अधिक बदलाव नहीं हुए हैं। स्वच्छता ही सेवा, सेवा ही धर्म आदि महत्वपूर्ण सूत्रों का व्यवहार में आना अभी बाकी है। परमार्थ निकेतन में मां गंगा आरती के समय पूज्य मुनि चिदानंद सरस्वती जी, विभिन्न संत एवं भारतवर्ष की ज्ञान परंपरा के अनेक ग्रंथ लगातार यह कह रहे हैं कि- नदियां जीवनदायिनी हैं, प्रकृति-पर्यावरण के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं है, नदियां बचेंगी तो जीवन बचेगा, संतति बचेंगी,संस्कृति बचेगी। पूज्य स्वामी चिदानंद जी अपने उद्बोधन में अक्सर कहते हैं- गंदगी और बंदगी एक साथ नहीं हो सकती। जब आप गंदगी को छोड़ देंगे, स्वच्छता को अपना लेंगे, तो बंदगी की राह बहुत आसान हो जाएगी। आइए खूब बंदगी करें, खूब तीर्थ करें, खूब स्नान करें लेकिन प्रकृति-पर्यावरण और नदियों को गंदा न करें। यदि प्लास्टिक की बोतलें, थैली अथवा कुछ कूड़ा हमारे पास है तो उसे यहां वहां न फेंके, कूड़ेदान में डालें ताकि उसे उचित व्यवस्था में ले जाकर समाप्त किया जा सके। डॉ.वेदप्रकाश Read more » गंदगी और बंदगी
लेख प्रकृति के पुत्र और संस्कृति के प्रहरी हैं आदिवासी August 8, 2025 / August 8, 2025 by ललित गर्ग | Leave a Comment विश्व आदिवासी दिवस- 9 अगस्त 2025– ललित गर्ग – विश्व आदिवासी दिवस, 9 अगस्त, केवल एक संवैधानिक औपचारिकता नहीं, बल्कि यह सभ्यता की जड़ों और संवेदनशीलता के स्रोत को स्मरण करने का दिन है। यह दिन न केवल आदिवासियों के अस्तित्व, अधिकारों यानी जल, जंगल, जमीन और उनके जीवन की रक्षा का उद्घोष है, बल्कि […] Read more » Tribals are the sons of nature and guardians of culture विश्व आदिवासी दिवस- 9 अगस्त
कविता भजन : प्रभु शरणम August 8, 2025 / August 8, 2025 by नन्द किशोर पौरुष | Leave a Comment तर्ज : बच्चे मन के सच्चे दोहा: ईश कृपा बिन गुरु न मिले, गुरु बिन मिले न ज्ञानज्ञान बिना आत्मा न मिले, सुन ले चतुर सुजान।।दुःख रूप संसार यह,जन्म मरण की खान।।हमे निकालो दया कर, मेरे गुरुवार जल्दी आन।। बिन हरी भजन न होगा जीव तेरा कल्याण |गुरु कृपा बिन है नहीं यह इतना आसान […] Read more » भजन : प्रभु शरणम
लेख सफाई कर्मियों को भी चाहिए मौत के खतरों से आजादी August 8, 2025 / August 8, 2025 by प्रवक्ता ब्यूरो | Leave a Comment ओ पी सोनिक राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 120 से अधिक सीवर कर्मियों की मौतें हो चुकी हैं जो देश के विभिन्न शहरों की अपेक्षा सबसे ज्यादा हैं, यानी कि देश की राजधानी दिल्ली सीवर कर्मियों की मौतों के मामले में डैथ केपिटल बनती नजर आ रही है। दिल्ली उन […] Read more » Sanitation workers also need freedom from the dangers of death दिल्ली सीवर कर्मियों की मौतों के मामले में डैथ केपिटल
लेख कुपित कुदरत का कहर या लापरवाही ? August 8, 2025 / August 8, 2025 by डॉ घनश्याम बादल | Leave a Comment डॉ घनश्याम बादल अपने नैसर्गिक एवं नयनाभिराम प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता के सेव उत्पादन के लिए प्रसिद्ध उत्तरकाशी गंगोत्री मार्ग का पर्यटकों का बेहद पसंदीदा हॉल्ट कैंप धराली आज सन्नाटे से घिरा है । वहां पर बसे हुए सत्तर अस्सी परिवारों में से अधिकांश के घर, दुकानें व होम स्टे तबाह हो गए […] Read more » उत्तरकाशी गंगोत्री मार्ग