चीन ने रोका ब्रह्मपुत्र का पानी

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tibetप्रमोद भार्गव
आखिरकार उरी हमले के बाद कूटनीतिक चाल चलते हुए पाकिस्तान ने चीन को अपने हितों के लिए ढाल बना ही लिया। चीन ने हताशा से घिरे और दुनिया से अलग-थलग पड़ गए मित्र को संजीवनी देते हुए भारत में जलार्पूिर्त करने वाली ब्रह्मपुत्र नदी की एक सहायक नदी जियाबुकू का पानी रोक दिया। इस नदी पर चीन 74 करोड़ डाॅलर ( करीब 5 हजार करोड़ रुपए) की लगत से जल विद्युत परियोजना के निर्माण में लगा है। जून 2014 में षुरू हुई यह परियोजना 2019 में पूरी होगी। दरअसल भारत पर दबाव बनाने की पाक पर इस रणनीतिक हरकत की आशंका इसलिए है, क्योंकि पाक ने हाल ही में कहा है कि अगर भारत ने सिंधु नदी का पानी रोका तो वह चीन के जरिए ब्रह्मपुत्र का पानी रुकवा देगा। पानी रोके जाने के बाद उक्त आशंका हकीकत में तब्दील हो गई है।
ब्रह्मपुत्र का पानी रुक जाने से हमारे पूर्वोत्तर के राज्य असम, सिक्किम और अरुणाचल में पानी का संकट उत्पन्न होना तय है। एशिया की सबसे लंबी इस नदी की लंबाई 3000 किमी है। तिब्बत से निकलने वाली इस नदी को यहां यारलुंग झांगबों के नाम से जाना जाता है। इसी की सहायक नदी जियाबुकू है। जिस पर चीन हाइड्रो प्रोजेक्ट बना रहा है। दुनिया की सबसे लंबी नदियों में 29वां स्थान रखने वाली ब्रह्मपुत्र 1625 किमी क्षेत्र में तिब्बत में ही बहती है। इसके बाद 918 किमी भारत और 363 किमी की लंबाई में बांग्लादेश में बहती है। तिब्बत के जाइगस में यह परियोजना निर्माणाधीन है। यह स्थल सिक्किम के एकदम निकट है। जाइगस के आगे से ही यह नदी अरुणाचल में प्रवेष करती है। असम में ब्रह्मपुत्र का पाट 10 किमी चौड़ा है। जब यह बांध पूरा बन जाएगा, तब इसकी जल ग्रहण क्षमता 29 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी रोकने की होगी। ऐसे में चीन यदि बांध के द्वार बंद रखता है तो भारत के साथ बांग्लादेश को जल की कमी का संकट झेलना होगा और बरसात में एक साथ द्वार खोल देता है तो इन दोनों देशों की एक बढ़ी आबादी का बाढ़ का सामना करना होगा। ये हालात इसलिए उत्पन्न होंगे, क्योंकि जिस ऊंचाई पर बांध बंध रहा है, वह चीन के कब्जे वाले तिब्बत में है, जबकि भारत और बांग्लादेश बांध के निचले स्तर पर हैं। ब्रह्मपुत्र पर बनने वाली यह तिब्बत की सबसे बड़ी परियोजना है। भारत ने इस पर चिंता जताई थी, लेकिन चीन ने कतई गौर नहीं किया।
समुद्री तट से 3300 मीटर की ऊंचाई पर तिब्बती क्षेत्र में बहने वाली इस नदी पर चीन ने 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत तीन पनबिजली परियोजनाएं निर्माण के प्रस्ताव स्वीकृत किए हैं। चीन इन बांधों का निर्माण अपनी आबादी के लिए व्यापारिक, सिंचाई, बिजली और पेयजल समस्याओं के निदान के उद्देष्य से कर रहा है, लेकिन उसका इन बांधों के निर्माण की पृष्ठभूमि में छिपा अजेंडा, खासतौर से भारत के खिलाफ रणनीतिक इस्तेमाल भी है। दरअसल चीन में बढ़ती आबादी के चलते इस समय 886 शहरों में से 110 शहर पानी के गंभीर संकट से जूझ रहे हैं। उद्योगों और कृशि संबंधी जरूरतों के लिए भी चीन को बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत है। चीन ब्रह्मपुत्र के पानी का अनूठा इस्तेमानल करते हुए अपने शिनजियांग, जांझु और मंगोलिया इलाकों में फैले व विस्तृत हो रहे रेगिस्तान को भी नियंत्रित करना चाहता है। चीन की यह नियति रही है कि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पड़ोसी देशों की कभी परवाह नहीं करता है।
चीन ब्रह्मपुत्र के पानी का मनचाहे उद्देष्यों के लिए उपयोग करता है तो तय है। अरुणाचल में जो 17 पनबिजली परियोजनाएं प्रस्तावित व निर्माणाधीन हैं, वे सब अटक जाएंगी। ये परियोजनाएं पूरी हो जाती है और ब्रह्मपुत्र से इन्हें पानी मिलता रहता है तो इनसे 37,827 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा। इस बिजली से पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में बिजली की आपूर्ति तो होगी ही, पश्चिम बंगाल और ओड़ीसा को भी अरुणाचल बिजली बेचने लग जाएगा। चीन अरुणाचल पर जो ढेढ़ी निगाह बनाए रखता है, उसका एक बड़ा करण अरुणाचल में ब्रह्मपुत्र की जलधारा ऐसे पहाड़ व पठारों से गुजरती है, जहां भारत को मध्यम व लघु बांध बनाना आसान है। ये सभी बांध भविश्य में अस्तित्व में आ जाते हैं और पानी का प्रवाह बना रहता है तो पूर्वोत्तर के सातों राज्यों की बिजली, सिंचाई और पेयजल जैसे बुनियादी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
चीन के साथ सुविधा यह है कि वह अपनी नदियों के जल को अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानकर चलता है। पानी को एक उपभोक्ता वस्तु मानकर वह उनका अपने हितों के लिए अधिकतम दोहन में लगा है। बौद्ध धर्मावलंबी चीन परंपरा और आधुनिकता के बीच मध्यमार्गी सांमजस्य बनाकर चलता है। जो नीतियां एक बार मंजूर हो जाती हैं, उनके अमल में चीन कड़ा रुख और भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाता है। इसलिए वहां परियोजना के निर्माण में धर्म और पर्यावरण संबंधी समस्याएं रोड़ा नहीं बनती। नतीजतन एक बार कोई परियोजना कागज पर आकार ले लेती है तो वह आरंभ होने के बाद निर्धारित समयवाधि से पहले ही पूरी हो जाती है। इस लिहाज से ब्रह्मपुत्र पर जो 2.5 अरब किलोवाट बिजली पैदा करने वाली परियोजना निर्माणाधीन है, उसके 2019 से पहले ही पूरी होने की उम्मीद है। इसके उलट भारत में धर्म और पर्यावरणीय संकट परियोजनाओं को पूरा होने में लंबी बाधाएं उत्पन्न करते रहते हैं। देश की सर्वोच्च न्यायालयों में भी इस प्रकृति के मामले वर्षों लटके रहते हैं। पर्यावरण संबंधी कागजी खानापूर्ति की जरूरत चीन में नहीं पड़ती है।
2015 में जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन यात्रा पर गए थे, तब असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने उनसे आग्रह किया था कि ब्रह्मपुत्र नदी के जल बंटवारे के मुद्दे का समाधान निकालें। लेकिन इस मुद्दे पर द्विपक्षीय वार्ता में कोई प्रगति हुई हो, ऐसा देखने में नहीं आया। जबकि चीन और भारत के बीच इस मुद्दे पर विवाद और टकराव बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पानी के उपयोग को लेकर कई संधियां हुई हैं। इनमें संयुक्त राष्ट्र की पानी के उपभोग को लेकर 1997 में हुई संधि के प्रस्ताव पर अमल किया जाता है। इस संधि के पारूप में प्रावधान है कि जब कोई नदी दो या इससे ज्यादा देशों में बहती है तो जिन देशों में इसका प्रवाह है, वहां उसके पानी पर उस देश का समान अधिकार होगा। इस लिहाज से चीन को सोची-समझी रणनीति के तहत पानी रोकने का अधिकार है ही नहीं। इस संधि में जल प्रवाह के आंकड़े साझाा करने की शर्त भी शामिल है। लेकिन चीन संयुक्त राष्ट्र की इस संधि की शर्तों को मानने के लिए इसलिए बाध्यकारी नहीं है, क्योंकि इस संधि पर अब तक चीन और भारत ने हस्ताक्षर ही नहीं किए हैं।
2013 में एक अंतरमंत्रालय विशेष समूह गठित किया गया था। इसमें भारत के साथ चीन का यह समझौता हुआ था कि चीन पारदर्षिता अपनाते हुए पानी के प्रवाह से संबंधित आंकड़ों को साझा करेगा। लेकिन चीन ने इस समझौते का पालन नहीं किया। वह जब चाहे तब ब्रह्मपुत्र का पानी रोक देता है, अथवा इकट्ठा छोड़ देता है। पिछले वर्षों में अरुणाचल और हिमाचल प्रदेशों में जो बाढ़ें आई हैं, उनकी पृष्ठभूमि में चीन द्वारा बिना किसी सूचना के पानी छोड़ा जाना रहा है। नदियों का पानी साझा करने के लिए अब भारत को चाहिए कि वह चीन को वार्ता के लिए तैयार करे। इस वार्ता में बांग्लादेश को भी शामिल किया जाए। क्योंकि ब्रह्मपुत्र पर बनने वाले बांधों से भारत के साथ-साथ बांग्लादेश भी बुरी तरह प्रभावित होगा। इसके आलावा लाओस, थाईलैंड व वियतनाम भी प्रभवित होंगे। लेकिन ये देश पाकिस्तान की तरह चीन के प्रभाव में हैं, इसलिए चीन इनके साथ उदरता बनाए रखेगा। भारत और बांग्लादेश के साथ यही उदारता दिखने में आए, यह मुश्किल है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संधि की शर्तों को चीन भी स्वीकार करे, इस हेतु भारत और बांग्लादेश इस मसले को संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक मंच पर उठाएं, यह जरूरी हो गया है। इस मंच से यदि चीन की निंदा होगी तो उसे संधि की शर्तों को दरकिनार करना आसान नहीं होगा।

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  1. दरअसल भारत, पकिस्तान और नेपाल जैसे देशों में पश्चिम नियंत्रित मिडिया देश की विदेश नीति और देश हित पर हावी रहती है. भारत में मीडिया का चीन विरोधी प्रोपगंडा भी उसी का नतीजा है. किसी भी रन आफ रिभर जल विद्युत परियोजना में नदी का जल उसी नदी में निसर्ग किया जाता है तो उससे नीचे के तटीय राज्यो के हित में कोई प्रतिकूल प्रभाव नही पड़ता. हथियार बिक्री पर जिन देशों की अर्थव्यवस्था टिकी है वे चाहते है कि दक्षिण एशिया में भीषण युद्ध हो. वे किसी के मित्र नही है, उनका उद्देश्य तो बस युद्ध करवाना और हथियार बेच कर लाभ कमाना है. जिस प्रकार मिडिया और विपक्ष ने पहले पाकिस्तान के विरुद्ध सैनिक कारवाही के लिए सरकार पर दवाब बनाया फिर सर्जिकल स्ट्राइक का वोदियो जारी करने का दवाब बना रही है उसे देख स्पस्ट लगता है कि वे लोग किसी प्रकार युद्ध करवाने की मंशा पाले हुएः है.

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