ढाई सालों में भी कोविड से निपटने के मुकम्मल इंतजामात नहीं कर पाया चीन!

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लिमटी खरे

नवंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत से निकले कोरोना कोविड 19 ने दुनिया के कमोबेश हर देश को अपने संक्रमण की जद में लिया है। 2022 में दुनिया के अधिकांश देश इस गंभीर बीमारी से लगभग उबर चुके हैं या उबरने की तैयारी में हैं। इसके बाद भी चीन जहां से कोविड 19 निकला था वही देश दो सालों के अंतराल के बाद इस गंभीर बीमारी से अब बुरी तरह जूझता ही नजर आ रहा है। वैसे देखा जाए तो दुनिया के अनेक देशों में कोविड की स्थिति अब गंभीर बनी हुई है, पर इसके साथ ही चीन से जिस तरह की खबरें बाहर आ रहीं हैं, वे कर किसी को सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि चीन जैसा देश जो जीरो कोविड नीति पर अमल कर रहा था वहां की स्थितियां आखिर विकराल रूप कैसे लेती जा रही हैं!

चीन के एक बहुत बड़े व्यवसायिक शहर शंघाई जिसे चीन की आर्थिक राजधानी भी कहा जाता है में जिस तरह के हालात हैं वह वाकई चिंता की बात मानी जा सकती है। चीन के शंघाई और अन्य शहरों में लोग बुरे हालातों से जूझ रहे हैं। दुनिया भर में चीन में इस महामारी से ज्यादा उससे निपटने के तरीके पर सवालिया निशान लगते दिख रहे हैं। यह आलम तब है जबकि शंघाई में लगभग एक माह पूर्व फैले संक्रमण के बाद कोरोना के प्रोटोकॉल को बहुत ही कड़ाई के साथ लागू किया गया था। लगभग 24 दिनों से बहुत ही सख्त लाकडाऊन के बाद भी नए प्रकरणों की तादाद में कमी आती नहीं दिख रही है। हाल ही में बीते शनिवार को 23 हजार तो रविवार को 25 हजार कोविड के केस उस शहर में मिले हैं जिस शहर की आबादी ढाई करोड़ के लगभग है।

भारत में तीन तीन लहरें अभी तक आ चुकी हैं, जिसमें से दूसरी लहर बहुत ही भयावह मानी जा सकती है। भारत ने जीरो कोविड नीति का पालन करने के बजाए इससे संक्रमित लोगों के इलाज और इसको फैलने से कैसे रोका जाए इस पर ज्यादा ध्यान दिया। भारत में टीकाकरण पर जोर दिया गया, जिसका नतीजा है कि आज भारत में तीसरी लहर लगभग निष्प्रभावी ही दिखी। देश में तालाबंदी की गई पर कोई भूखा मरने पर मजबूर नहीं हुआ। उधर, चीन से जो खबरें आ रही हैं उसके अनुसार कोविड को लेकर तालाबंदी और क्वारंटीन के बहुत ही सख्त प्रावधानों के कारण चीन की आर्थिक राजधानी शंघाई में लोग घरों में कैद हैं और उनके भूखे मरने की नौबत भी आती दिख रही है। चूंकि सब जगह तालाबंदी है इसलिए लोगों को खाने पीने की चीजें भी नहीं मिल पा रहीं हैं।

अब हम अगर चीन की जीरो कोविड नीति की चर्चा करें तो कोविड से निपटने में चीन और दीगर देशों में एक बहुत बड़ा बुनियादी अंतर हमें दिखाई देता है। चीन ने शुरूआत से ही जीरो कोविड नीति का पालन करना आरंभ किया था। चीन में तालाबंदी और क्वारंटीन को ही अस्त्र बनाया गया था। शुरूआती दौर में चीन को इसका बहुत फायदा भी मिला था, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। चीन से निकले कोविड पर चीन ने बहुत जल्दी काबू पा लिया था और विश्व भर में उसकी प्रशंसा हो रही थी। चीन के इस माडल को न्यूजीलैण्ड ने भी अपनाया था, पर जब न्यूजीलैण्ड के आर्थिक हितों पर लाकडाऊन के चलते कुठाराघात होना आरंभ हुआ तब उसने इस मार्ग को छोड़ना ही बेहतर समझा।

चीन शुरूआत में आए अच्छे परिणामों से आशान्वित दिखा और उसने इसी नीति को शिरोधार्य किया जो अब तक जारी है। चीन ने कोविड नियंत्रण के मामले में दुनिया के चौधरी अमेरिका से भी अपने आप को बेहतर ही बताया, क्योंकि चीन के मुकाबले में अमेरिका में ज्यादा जानें गईं थीं। देखा जाए तो चीन लकीर के फकीर की तर्ज पर ही चलता दिख रहा है, क्योंकि चीन की इस तरह की नीति से वहां के नागरिकों की जिंदगी बुरी तरह प्रभावित होती दिख रही है। चीन की अर्थव्यवस्था भी डगमगाती ही दिख रही है। विश्व बैंक की इस साल की आर्थिक वृद्धि दर में भी कमी आई है। 2021 में यह दर 8.1 फीसदी थी जो अब घटकर पांच फीसदी हो चुकी है। कच्चे और सस्ते माल का सबसे बड़ा निर्यातक चीन को ही माना जाता था, पर जीरो कोविड नीति के कारण चीन में निर्यात की सप्लाई चेन भी बुरी तरह प्रभावित हुए बिना नहीं है।

चीन के कुछ शहरों में एक तरह का आपातकाल ही प्रभावी होता दिख रहा है। अस्पतालों में चिकित्सक और पैरामेडिकल स्टॉफ की कमी है, जिसके कारण कोविड और अन्य बीमारियों के मरीजों की देखभाल भी उचित तरीके से नहीं हो पा रही है। कोविड के मामले में चीन के हालात बद से बदतर ही होते जा रहे हैं। चीन की जीरो कोविड नीति की जिद ही चीन के वर्तमान हालातों के लिए जवाबदेह मानी जा सकती है। इसलिए बेहतर यही होगा कि चीन भी अन्य देशों की तरह अपनी सोच रखे और अगर वह भी यह ठान ले कि कोविड के साथ ही जीना है इसलिए कम से कम नुकसान और बचाव के तरीके अपनाकर कैसे अपने नागरिकों को बचाया जा सकता है तो यह चीन के बहुत ही उचित होगा।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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