गुजरात में मुस्लिम तुष्टिकरण से उभरती कांग्रेस

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प्रमोद भार्गव

गुजरात में इसी साल अंत में विधानसभा के चुनाव होने हैं। हार्दिक पटेल द्वारा पटेल-पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग में बड़ा आंदोलन खड़ा कर देने के बाबजूद भाजपा कमोबेश बेफिक्र है। इधर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में यात्रा कर ऐसे संकेत दिए हैं कि कांगे्रस मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति से उभरते हुए भाजपा को उसी के हथियार से पराजित करना चाहती है। हालांकि शंकरसिंह वाघेला द्वारा कांग्रेस छोड़ने के बाद गुजरात में कांग्रेस का कोई धनी-धोरी दिखाई नहीं दे रहा है। कांगे्रस के राज्यसभा सदस्य अहमद पटेल की पहुंच सीधे सोनिया गांधी तक है, लेकिन राहुल की इस यात्रा में हैरानी में डालने वाली बात यह रही कि अहमद राहुल की यात्रा में कहीं दिखाई नहीं दिए। इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती कि कांग्रेस तुष्टिकरण की नीति से निजात पाने की राह पर चल पड़ी है। इधर भाजपा के लिए गुजरात का चुनाव प्रतिष्ठा से जोड़ा है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह का गृहराज्य गुजरात ही है। इन दोनों नेताओं इसी राज्य से राजनीति शुरू कर अखिल भारतीय राजनीति में जोरदार पैठ बनाई है।

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से करारी मात खाने के बाद कांग्रेस शायद इस कवायद में है कि गुजरात के विधानसभा चुनाव में भाजपा को वोटों के ध्रुवीकरण का अवसर नहीं मिले। लिहाजा राहुल गांधी ने गुजरात की इस चुनाव पूर्व यात्रा में लोहे से लोहा काटने की सुनियोजित चाल चल दी है। राहुल ने प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर में चुनाव अभियान शुरू करने के बाद कई दुर्गा देवियों के मंदिर में माथा टेका और पुजारियों से आशीर्वाद लिया। इस समय शारदेय नवरात्र चल रहे हैं, इसलिए दुर्गा मंदिरों में स्वाभाविक रूप से श्रद्धालुओं की उमड़ रही भीड़ को लुभाने का उन्हें मौका मिल गया। मंदिरों में राहुल की इस पूजा-अर्चना को कांग्रेस के बदले रुख के रूप में देखा जा रहा है।

इस यात्रा की रेखांकित करने वाली बात यह भी रही कि इस दौरान राहुल न तो किसी मस्जिद में गए न ही कांग्रेस का कोई मुस्लिम नेता उनके साथ था। यहां तक कि गुजरात के सबसे बड़े मुस्लिम चेहरे के रूप में जाने जाने वाले अहमद पटेल भी उनकी यात्रा में कहीं दिखाई नहीं दिए। इस लिहाज से कांग्रेस के कई बड़े नेता राहुल की इस रणनीति को पार्टी की परंपरागत धार्मिक छवि बदलने का प्रयास मान रहे हैं। भाजपा का भी इस बदलाव से चिंतित होना स्वाभाविक है। दरअसल पिछले लोकसभा और गुजरात के विधानसभा चुनाव में सोनिया गांधी, मोदी और शाह पर तीखे सांप्रदायिक हमले करती रही हैं। लेकिन इन हमलों के बरक्ष कांग्रेस को परिणाम नहीं मिले। इसके उलट भाजपा ने कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाए, इनका कांग्र्रेस ने माकूल जवाब नहीं दिए थे, क्यांकि कांग्रेस को डर था कि कहीं मुस्लिम मतदाता नाराज न हो जाएं। दरअसल ‘सबका साथ, सबका विकास‘ नारे के आधार पर भाजपा ने लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधानसभा में जिस तरह से बड़ी जीतें हासिल की है, उससे यह साफ हो गया है कि मुस्लिमों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किए बिना भी स्पष्ट बहुमत से जीत प्राप्त की जा सकती है। शायद भाजपा की इन्हीं विजयों ने कांग्रेस को आइना दिखाने का काम किया है, नतीजतन कांग्रेस तुष्टिकरण से मुक्ति की राह पर चलती दिखाई देती लग रही है। राहुल की सभाओं में भीड़ भी खूब उमड़ी। जबकि उन्हें खुली जीप में खड़े होकर शोभा यात्रा की इजाजत नहीं थी। लेकिन उन्होंने राजनीति चतुराई से काम लेते हुए बैलगाड़ी से यात्रा निकाली, जो जनता को खूब लुभाई।

राहुल गांधी की यात्रा की प्रतिक्रिया स्वरूप ही भाजपा ने सतर्कता बरतते हुए आनन-फानन में गुजरात के नाराज मतदाताओं को लुभाने की दृष्टि से दो अहम् फैसले ले लिए है। मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने राज्य मंत्री मंडल की बैठक बुलाकर एक तो आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण देने का फैसला ले लिया है, दूसरे हार्दिक पटेल द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर गुजरात में आंदोलन के बाद जो हिंसा भड़की थी और जो निजी व सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया था, इनमें नामजद दोषियों से जुड़े पुलिस प्रकरण वापस लेने की पहल की है। हालांकि इन फैसलों के बाबजूद यह गारंटी से नहीं कहा जा सकता है कि विजय रूपाणी जिताऊ मुख्यमंत्री साबित होंगे। कमोबेश यही स्थिति पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की है। उनकी तो अमित शाह से भी पटरी मेल नहीं खाती है। मतदाता को आकर्षित करने की क्षमता भी आनंदीबेन में नहीं है। साफ है कि गुजरात में पार्टी के पास ऐसे कद्दावर नेता का अभाव है, जिसके करिश्माई नेतृत्व में पार्टी चुनाव जीत सके।

गुजरात में नेतृत्व के इसी संकट से कांग्रेस दो-चार हो रही है। कांग्रेस छोड़ने से पहले तक शंकरसिंह वाघेला एक ऐसे कद्दावर नेता थे, जिनसे मोदी और शाह भी सशंकित रहते थे। किंतु अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव के दौरान वाघेला ने 15 विधायकों के साथ कांग्रेस से तौबा कर ली थी। इनमें से 14 ने तत्काल भाजपा की सदस्यता ले ली थी। दरअसल वाघेला चाहते थे कि कांग्रेस उन्हें चुनाव नेतृत्व की जिम्मेबारी सौंपे। यदि ऐसा हो जाता तो वही जीत की स्थिति में गुजरात के भावी मुख्यमंत्री मान लिए जाते। उनसे ही भाजपा के बरक्ष विकल्प की उम्मीद थी। किंतु उन्हें चुनाव नेतृत्व की कमान सौंपी जाए, इसमें सबसे बड़े रोड़ा अहमद पटेल थे। इसीलिए वाघेला ने अहमद को शिकस्त देने के नजरिए से ऐन राज्यसभा चुनाव के बीच में 15 विधायकों सहित कांग्रेस छोड़ी, जिससे अहमद पटेल पराजित हो जाएं। अहमद पटेल हार जाते यदि कांग्रेस से भाजपा में आए विधायकों ने वोट देने की गोपनीयता को भंग न किया होता। अब यदि राहुल गांधी कांग्रेस के पक्ष में जनाधार बढ़ाने का कोई उपक्रम कर भी लेते हैं तो उसके परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आना मुश्किल है, क्योंकि वाघेला ने नए मोर्चे का गठन चुनाव लड़ने के लिए कर लिया है। यह मोर्चा कांग्रेस के वोटों में सेंध लगाने का काम करेगा।

भाजपा गुजरात में नेतृत्व के संकट से तो जूझ रही है, उसे जीएसटी और नोटबंदी का दंश भी झेलना पड़ सकता है। इन दोनों उपक्रमों से भाजपा का परंपरागत वोट जबरदस्त ढंग से प्रभावित हुआ है। जीएसटी के विरोध में व्यापारियों ने लंबे समय तक कारोबार बंद रखकर हड़ताल भी की लेकन पार्टी ने कोई तब्बजो नहीं दी। जीएसटी और नोटबंदी से गुजरात का कपड़ा और सराफा व्यापार लगभग चौपट हो गया है। इनसे गुजरात के जिला सहकारी बैंक और संस्थाएं भी प्रभावित हुईं। कृषि मंडियों में किसानों की उपज एक तो बड़ी मात्रा में खरीदी नहीं गई, दूसरे नोटबंदी के चलते बाजिव दाम भी नहीं मिले। गुजरात भाजपा ने जातीय आंदोलन से जोड़े लोगों और नेताओं को लुभाने की दृष्टि से सवर्ण आरक्षण और आपराधिक मामले वापस लेने की पहल भले ही कर दी हो, लेकिन ऐसे आरक्षण विधेयक न्यायालय की देहरी पर जाकर अकसर दम तोड़ देते हैं। वैसे भी अब चुनाव इतने निकट आ गए हैं कि गुजरात सरकार को यदि इस विधेयक को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जाती है तो पैरवी करने का मौका भी नहीं मिलेगा, क्योंकि चुनाव की घोशणा होते ही, आचार संहिता लागू हो जाएगी। बहरहाल गुजरात चुनाव में इतना तो तय हो गया है कि मुकाबला बहुकोणीय होगा, ऐसे में जीत की बाजी किसके हाथ लगती है, फिलहाल एकाएक कहना मुश्किल है।

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