आज का युग आधुनिक युग कहलाता है जहां क्या वृद्ध, क्या युवा और क्या बच्चे, सभी पाश्चात्य संस्कारों में दीक्षित हो रहे हैं। दूर के ढोल सुहावने की भांति बिना जाने समझे पाश्चात्य जीवन शैली उन्हें अच्छी लगती है और वेश-भूषा और विचार ही नहीं भाषा और भोजन आदि भी उनका बिगड़ रहा है वा बिगड़ गया है। यह लोग भारतीय वैदिक संस्कृति से दूर होकर अपने जीवन की सुख शान्ति भंग कर लेते हैं और बाद में रोगी व तनाव से ग्रस्त होकर असमय मृत्यु का ग्रास बनते हैं। आज की युवा पीढ़ी आध्यात्मिक मूल्यों से सर्वथा शून्य देखी जाती है। किसी को न तो वेद और उसकी शिक्षाओं सहित उनके महत्व का ज्ञान है और न ही ईश्वर व आत्मा के स्वरूप का ज्ञान है। आज की युवा पीढ़ी को जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य का भी पता नहीं है। उन्हें यह भी पता नहीं कि उनका यह जन्म उनके पूर्वजन्म का पुनर्जन्म है और इस जन्म में जब भी उनकी मृत्यु होगी उनके ज्ञान, संस्कार और कर्मानुसार उनका पुनः पुनर्जन्म अर्थात् नया जन्म होगा। जन्म-मरण और पुनर्जन्म की यह यात्रा हमेशा चलती रहेगी। इसे विश्राम मिलेगा तो प्रलय अवस्था में या फिर मोक्ष की अवस्था में। यही कारण है कि महाभारतकाल से पूर्व के समय में हमारे देश में वेदों के आधार पर मनुष्यों की जीवन शैली हुआ करती थी और उस समय सभी लोग वैदिक रीति से गुरुकुलों में पढ़ते थे और उनको वेद में वर्णित ईश्वर व आत्मा के सत्य स्वरूप सहित अपने कर्तव्य-कर्मों का ज्ञान होता था और उसके अनुसार ही उनका आचरण भी हुआ करता था।
सन्तान वैदिक संस्कारों से युक्त हो इसके लिए ऋषि दयानन्द ने वेद के आधार पर मनुष्य के गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त 16 संस्कारों का विधान किया है। यदि माता-पिता चाहते हैं कि उनके घर में संस्कारित सन्तान आये तो उन्हें सन्तान के जन्म से बहुत पहले अपने आचार व विचारों पर ध्यान देना होगा। उन्हें वैदिक धर्म व संस्कृति का अध्ययन कर उसकी मान्यताओं एवं सिद्धान्तों पर आचरण करना होगा। यदि वह ऐसा करते हैं अर्थात् वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार अपना जीवन बनाते हैं तो अनुमान किया जा सकता है कि उनके घर में संस्कारवान् आत्मा पुत्र व पुत्री के रूप में जन्म ले सकती है। इसमें एक मुख्य बात यह होती है कि अच्छी सन्तान की प्राप्ति के लिए माता पिता को संयमित जीवन व्यतीत करना चाहिये। इसी को ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य में संयम के साथ जीवन व्यतीत करते हुए वेदों का अध्ययन करना व ईश्वरोपासना आदि कर्मों का अनिवार्य रूप से आचरण करना आवश्यक होता है। ऋषि दयानन्द ने गर्भाधान संस्कार का विधान संस्कार विधि पुस्तक में किया है जो इस विषय के प्राचीन आचार्यों के विधानों के अनुकूल है। इसे विस्तार से जानने के लिए संस्कार विधि में इस संस्कार का अध्ययन करना चाहिये। संस्कार विधि पर आर्यसमाज के उच्च कोटि के कीर्तिशेष विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने संस्कार भास्कर टीका लिखी है। वहां इस संस्कार के समर्थन में अनेक जानकारियां एवं प्रमाण दिये गये है। उसका अध्ययन करने से लाभ होता है। सुसन्तान के निर्माण के लिए माता-पिता को अपनी सन्तान के पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार भी करना चाहिये। श्रेष्ठ बालक व बालिका के निर्माण के लिए माता-पिता को आधुनिक शिक्षा सहित उन्हें संस्कृत भाषा, व्याकरण सहित वेदादि ग्रन्थों का अध्ययन भी कराना चाहिये। पाठ्य ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं व्यवहारभानु आदि ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं।
आर्यसमाज के अनेक विद्वानों महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी ब्रह्ममुनि, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती आदि ने लघु ग्रन्थों की रचनायें की हैं। उनकी शिक्षा व पाठ भी बच्चों को कराया जाना चाहिये। बच्चों को योगासनों सहित ध्यान का अभ्यास भी कराया जाये तो यह उनके जीवन में उपयोगी होता है। बच्चों को भोजन में देशी गाय का दुग्ध व यथोचित मात्रा में फलों का सेवन भी कराया जाना चाहिये। माता-पिता द्वारा सदाचार के नियमों की शिक्षा भी बच्चों को दी जानी चाहिये। बच्चे जीवन में चोरी, व्यभिचार, असत्य कथन आदि न करें, इसके दुष्परिणामों से भी बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार ज्ञान दिया जाना चाहिये। बच्चों को बचपन से ही माता-पिता द्वारा अपने साथ बैठाकर सन्ध्या व यज्ञादि कराये जाने चाहियें। इससे बच्चे इन्हें सीख जाते हैं और उन पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं। बच्चों को स्वाध्याय की आदत भी डालनी चाहिये। माता-पिता उन्हें बच्चों से संबंधित किसी वैदिक सदाचार की पुस्तक का वाचन करने के लिए कह सकते हैं और उसकी बातों को उन्हें समझा भी सकते हैं। यह बातें देखने में तो मामूली हैं परन्तु इनका प्रभाव सारे जीवन भर रहता है। बच्चों को व्यायाम व योगासन भी सीखाने आवश्यक है। यह अभ्यास भी उनके बलशाली व स्वस्थ जीवन का आधार बनता है। बच्चों को अच्छे विचार ही मिले, बुरे विचार न मिलें, इसके लिए बच्चों को बुरे स्वभाव वाले अध्यापकों व पारिवारिक जनों की संगति से दूर रखना चाहिये। उन्हें पढ़ाने वाले अध्यापक वा अध्यापिकायें सज्जन व चरित्रवान् होने चाहियें। उनका व्यवहार अपने शिष्यों पर माता-पिता व आदर्श आचार्य के अनुरूप होना चाहिये। बच्चे जब कुछ बड़े हों और उनमें समझने की क्षमता हो तो उन्हें मूर्तिपूजा के दोषों के बारे में भी संक्षिप्त रूप से बता देना चाहिये। बच्चे बड़े होकर फलित ज्येतिष व जाति-पांति आदि अनुचित विचारों व व्यवहारों में न फंसे, इसका भी आवश्यकतानुसार ज्ञान बच्चों को कराया जाना चाहिये। माता-पिता को अपने सन्तानों को टीवी, मोबाइल आदि की लत से भी बचाना चाहिये। वह कम्प्यूटर व इण्टरनैट आदि का दुरुपयोग न करें व कुसंगति में न फंसे, इसका भी उन्हें विशेष ध्यान रखना है। बच्चों को यह बताया जाना चाहिये कि उन्हें अपने माता-पिता सहित सभी आचार्यों एवं बड़ों के प्रति आदर भाव रखना है व उन्हें सम्मान देना है।
यदि इतना भी हम करते हैं तो हमें लगता है कि यह बच्चे की उन्नति व सर्वांगीण विकास में सहायक हो सकता है। बचपन में ही बच्चों को बाल सत्यार्थप्रकाश व बाल ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित ऋषि दयानन्द कृत व्यवहारभानु व संस्कृत वाक्य प्रबोध का अध्ययन कराया जाना चाहिये। इन ग्रन्थों की शिक्षाओं से बच्चों को परिचित करा देना लाभदायक होता है। यदि बच्चें बचपन में इन तीन ग्रन्थों को पढ़ व समझ लेंगे तो इससे उन्हें जीवन भर अनेक प्रकार से लाभ होगा और वह अज्ञान व अन्धविश्वासों से बच सकते हैं। इस प्रकार से माता-पिता अपने बच्चों का निर्माण करें और साथ ही संस्कृत व हिन्दी के अध्ययन सहित आधुनिक विषय अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, इंजीनियरिंग, मेडीकल शिक्षा आदि का अध्ययन करें तो भी वह जीवन में सफल हो सकते हैं। हम आशा करते हैं कि आज के समय में यदि माता-पिता अपने बच्चों के निर्माण में उपुर्यक्त बातों का ध्यान रखेंगे तो उनके बच्चों को लाभ होगा। हमने कुछ प्राथमिक बातें ही लिखी हैं। इन्हें जान लेने व बड़े होने पर अच्छे आर्यसमाजों में जाने से हम समझते हैं कि बच्चे व समाज दोनों को ही लाभ होगा।