जलालशाह और मीरबाकी द्वारा कपटपूर्ण ढ़ंग से मस्ज्दि का निर्माण


 राम जन्मभूमि मन्दिर का सच्चा इतिहास
डा. राधेश्याम द्विवेदी
वैदिक नगर वास्तु-परम्परा कालिदास के रघुवंश में चतुर्मुखी तोरण-धारिणी ब्रह्मा के रूप में प्राप्त है। ब्रिटिश और मुसलमानी अभिलेखों में भी इस स्थान को ‘रामजन्मभूमि’ या ‘जन्मभूमि’ या जन्मस्थान के रूप में उल्लेख है। इस स्थान के विवादित ढाँचे की रचना पूर्वकालिक विष्णु-हरि मन्दिर के ध्वंसावशेष का प्रयोग करते हुए की गई है। इसे बाबर के सेनापति मीरबाकी और जलालशाह द्वारा कपटपूर्ण ़ढ़ंग से मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद का निर्माण कराया गया था। उस समय आक्रमणकारी की जघन्य बर्बरता का उल्लेख सन्त तुलसीदास जी ने अपने ‘तुलसी दोहा शतक’ में किया है –
तुलसी अवधहिं जड़ जवन अनरथ किए अनखानि।
राम जनम महि मन्दिरहिं तोरि मसीत बनाय॥
कवितावली में तुलसीदास जी ने हक जताते हुए लिखा है ‘माँगि के खैबो मसीत को सोइबो’। प्राचीन मन्दिर के अवशेष विवादित ढाँचे में अलंकृत स्तंभ व प्रस्तर खण्डों पर हिन्दू प्रतीकों का अंकन प्रयुक्त हुए थे। 6 दिसंबर 1992 को सन्दर्भित ढाँचे की दी्वार के मलबे से प्राप्त 12वीं शती का संस्कृत में लिखा अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें गाहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र के राज्यकाल (1114-1155) में साकेत के मण्डलपति मेघसुत द्वारा विष्णु-हरि के भव्य मन्दिर बनाए जाने का उल्लेख है। जिसे आयुषचन्द्र ने पूरा कराया था। इसी मन्दिर को मीरबाकी ने ध्वस्त किया था। अभिलेख में मेघसुत के पूर्व के राजाओं द्वारा भी मन्दिर को रचे जाने और संवारे जाने का उल्लेख है । अति प्राचीन कालीन अयोध्या के उद्धार का श्रेय जनश्रुति में पौराणिक परम्परा के आधार पर ‘विक्रमादित्य’ को है। ‘विक्रमादित्य’ विरुद वाला सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय हैं। 2003 के पुरातात्विक उत्खननों में गुप्तकालीन ईंटें, कलाकृतियाँ एवं चन्द्रगुप्त का सिक्का भी मिला है। रामजन्मभूमि स्थल पर प्राचीनतम मन्दिर का निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय (लगभग 375-414 ई,) तक सिद्ध होता है। जयपुर के सवाई राजा जयसिंह ने मुगल पीढ़ी के छठे बादशाह फर्रुखशियर से रामजन्मभूमि स्थल की 983 इलाही वर्गगज भूमि प्राप्त कर राम मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया था। संबन्धित प्रपत्र जयपुर के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। 
मन्दिर के जीर्णोद्धार के आदेश पर मस्जिद का निर्माण :-
राम मंदिर को लेकर बाबर का एक पुराना पत्र भी प्राप्त हुआ है। आजमगढ़ निवासी एवं राजशाही व्यवस्था के समय ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे राय साहब राय रासबिहारी लाल के पौत्र राय अनूप कुमार श्रीवास्तव के पास एक महत्वपूर्ण अभिलेख प्राप्त हुआ है। अभिलेख में बाबर ने खुद रामजन्म भूमि के बारे में लिखा है। बाबर ने ऐसा कहा था रामजन्म भूमि के बारे में बाबर द्वारा अपने सेनापति को भेजा गया था। आदेश बताए जा रहे उक्त अभिलेख में फारसी भाषा में यह उल्लेख है कि अयोध्या की उस इमारत का जीर्णोद्धार कराया जाए, जो हिन्दुओं के देवता के अवतार (जन्म) लेने की जगह है। दावा है कि इस आदेश के बाद ही 935 हिजरी में मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया।
जलालशाह फकीर की कुटिल चाल :-
जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ था उस समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी। महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थी और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्याति प्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा। यह सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी,हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना। अतः जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।
सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा, बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित कर दी और खुद हिमालय की और तपस्या करने चले गए।
मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े हो गए। जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए. जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय भीटी के राजपूत राजा महताब सिंह, बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे, अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हे ंये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर 1 लाख चैहत्तर हजार लोगो केसाथ बाबर की सेना के 4 लाख 50 हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
रामभक्तों ने सौगंध ले रखी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे। रामभक्त वीरताके साथ लड़े 70 दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत सभी 1 लाख 74 हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया । मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नीव में लखौरी इंटों केसाथ ।
लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखा है कि एक लाख चैहतर हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया. बाराबंकी गजेटियर में लिखा है कि जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बनाके लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने केलिए दी गयी थी।
अयोध्या उत्खनन में मंदिर के प्रमाण मिले:-
1. सर्वप्रथम उत्खनन 1967-70
अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में कइयों बार (5 बार) खुदाई हुई। सवाल एक था, मस्जिद के नीचे मंदिर है या नहीं, मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई या नहीं। जब पहली बार खुदाई हुई तो विवादित जमीन पर बाबरी मस्जिद खड़ी थी और 5वीं बार जब खुदाई हुई तब बाबरी मस्जिद का नामो निशान नहीं था। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970 में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ। उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-
प्रथम काल
उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं। जमाव के ऊपरी स्तर से 6 मानव आकृति की मृण्मूर्तियाँ मिली हैं। परवर्ती स्तरों से अयोध्या के दो जपनदीय सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ लोहे की वस्तुएँ भी मिली हैं। सीमित क्षेत्र में उत्खनन होने के कारण कोई भी संरचनात्मक अवशेष नहीं मिल सके।
द्वितीय काल
इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के आधारयुक्त लम्बवत् धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में हड्डी का एक कंघा, पक्की मिट्टी के लोढ़े, गोमेद के मनके और मिट्टी की मानव और पशु आकृतियाँ भी हैं। इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि एक आयताकार पक्की ईटों (35×25×5 सेमी.) की संरचना तथा एक मृतिकावलय कूप (रिंगवेल) है। इस सरंचना की आंतरिक माप पूर्व से पश्चिम 88 सेमी. है।
तृतीय काल
इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं। इस काल से सात पक्की ईटों की संरचनाओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्खनन से प्राप्त ये सभी संरचनाएँ, प्रारम्भिक संरचनाओं से निकाली गई ईटों से निर्मित हैं।
2. दूसरी बार उत्खनन 1975-77:-
अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों 1975-1976 तथा 1976-1977 में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों- रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया। इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है। यहाँ से प्राप्त मृण्भांड श्रावस्ती, पिपरहवा और कौशांबी से समानता ग्रहण किए हुए हैं। उत्खननकर्ताओं ने इस प्रथम काल को सातवीं शताब्दी ई. पू. में निर्धारित किया है।
स्तरों के अनुक्रम से ज्ञात होता है कि इस टीले पर बस्तियों का क्रम तीसरी शताब्दी ई. तक अविच्छिन्न रूप से जारी था। उत्खनन से पता चलता है कि प्रारम्भिक चरण में मकानों का निर्माण बाँस, बल्ली, मिट्टी तथा कच्ची ईंटों से किया जाता था। जन्मभूमि क्षेत्र से ईंटों की एक मोटी दीवार मिली है। जिसे उत्खाता महोदय ने क़िले की दीवार से समीकृत किया है। इस दीवार के ठीक नीचे कच्ची ईंटों से निर्मित एक अन्य दीवार के भी अवशेष मिले हैं। इस तल के ऊपरी स्तर का विस्तार, जो रक्षा प्राचीरों के बाद का है, तीसरी शताब्दी ई. पू. से प्रथम शताब्दी ई. के मध्य माना गया है। खुदाई में यहाँ से कुछ मृतिका वलय कूप तथा क़िले की दीवार के बाहर की ओर परिखा (खाई) के अवशेष भी मिले हैं।
हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन:-
हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कुषाण शासक वासुदेव की एक मिट्टी की मुहर (दूसरी शती ई.), इसी काल का मूलदेव का एक सिक्का तथा एक भूरे रंग की केश-विहीन जैन मृण्मूर्ति है।[3] हनुमानगढ़ी से प्राप्त अन्य मृण्मूर्तियाँ पहली-दूसरी शताब्दी ई. पू. की हैं। ये मृण्मूर्तियाँ अहिच्छत्र, कौशांबी, पिपरहवा और वैशाली आदि क्षेत्रों से प्राप्त मृण्मूर्तियों के समान ही हैं। इस प्रकार की मृण्मूर्तियों को वासुदेवशरण अग्रवाल ने विजातीय प्रकार से अभिहित किया है।
महत्त्वपूर्ण उपलब्धि: आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति:-
इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार सरयू नदी के जलमार्ग द्वारा गंगा नदी से सम्बद्ध था। यह व्यापार मुख्यत: छपरा और पूर्वी भारत के ताम्रलिप्ति से होता था। अभी भी सरयू और गंगा नदी में बड़ी नावों से पूर्वी भारत से व्यापार होता है। रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति आतंरिक व्यापार का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। उल्लेखनीय है प्रायद्वीपीय भारत में इस प्रकार के मृण्भांड कभी-कभी पृष्ठ प्रदेशों (जैसे-ब्रह्मगिरि और सेगमेडु) में भी मिलते हैं।
ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन:-
आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन: 11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भी मिले हैं। अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं। अयोध्या तथा अन्य स्थानों के उत्खनन के आधार पर इसका काल 7वीं शताब्दी ई. पू. निर्धारित किया गया है।
3. तीसरी बार उत्खनन 1979-1980 :- 
श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में यह उत्खनन कार्य 1979-1980 में पुन: प्रारम्भ हुआ। इस उत्खनन के प्रारम्भिक चरणों से अच्छी तरह पकाए गए एवं चमकदार उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड (एन. बी. पी. बेयर) मिले हैं। इस मृण्भांड संस्कृति के काल में निर्मित मकानों में मुख्यत: कच्ची ईंटों का प्रयोग मिलता है। मकानों में मृत्तिका वलय कूपों का प्रावधान था। इस संस्कृति के पश्चात् यह स्थान शुंग, कुषाण, और गुप्त एवं मध्य कालों में आबाद रहा। उत्खनन में कच्ची ईंटों से निर्मित एक शुंग-कालीन दीवार भी मिली है। इसके अतिरिक्त गुप्तकालीन भवन का एक भाग तथा कुछ तत्कालीन मृण्भांड भी मिले हैं, जो श्रृंगवेरपुर और भारद्वाज आश्रम के मृण्भांडों के समतुल्य हैं।
4. 4थी बार बार सीमित क्षेत्र में उत्खनन 1981-81:-
1981-1982 ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700-800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था। महात्मा बुद्ध की प्रमुख शिष्या विशाषा ने यहीं पर दीक्षा ग्रहण की थी, जिसकी स्मृतिस्वरूप विशाखा ने अयोध्या में मणि पर्वत के समीप एक बौद्ध मठ की स्थापना की थी। सम्भव है कि कालान्तर में समय-समय पर सरयू नदी के घारा परिवर्तन के कारण प्राचीन अयोध्या नगरी का कुछ क्षेत्र नदी द्वारा नष्ट कर दिया गया हो।
5. पांचवी बार सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन 2002-03 :-
2003 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से खुदाई हुई।भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में 2002-2003 ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है। उत्खनन में उपलब्ध प्रथम काल की सामग्री एक सीमित क्षेत्र से ही प्राप्त हैं। संरचनात्क क्रियाकलापों से परे प्रथम काल की संस्कृति इस क्षेत्र के अन्य उत्खनित पुरास्थलों श्रृंगवेरपुर, हुलासखेड़ा, सोहगौरा, नरहन और राजघाट के समान है। इस नवीन पुरातात्विक साक्ष्य एवं अन्य स्थलों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ से प्राप्त पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति, के साक्ष्य भारतीयों के आस्था एवं विश्वास को पुष्ट करते हैं। इस प्रमाण से हमें रामकथा और अयोध्या की प्राचीनता को कृष्ण, महाभारत और हस्तिनापुर के पूर्व के होने का सबल आधार मिलता है।
अयोध्या में मिले थे 3-3 मंदिर के प्रमाण:-
सब से नीचे की सतह पर मिला एक नौवी शती का शिव मंदिर उस के उप्पर मिला ईंटों से बनाहुआ का मंदिर और सब से उप्पर था 1200 में बनाया गाया पत्थर का मंदिर । इसी मंदिर को बाबर के आदेश पर तोड़ दिया गया था और जमीन पर इसी के स्तंभों को रख कर इसी में मन्दिर का बाकि मलबा भर केमस्जिद बनाई गयी। जिसे बनाने में मंदिर की ही ईंटें , मूर्तियाँ और मलबा प्रयोग किया गया ।
85 पिलर बेस मिले :- ASI की टीम को एक दो नहीं पूरे चौदह पिलर मिले। सारे पिलर मंदिर के थे लेकिन इन पर बाबरी मस्जिद खड़ी थी। काले पत्थर के इन पिलर्स पर हिन्दू पूजा पद्धति के चिन्ह भी साफ दिख रहे हैं। इन पत्थर के पिलर्स पर मूर्तियां भी हैं। किसी मस्जिद में हिन्दू मान्यताओं के निशान का क्या मतलब? 1977 में मस्जिद के बाहर पिलर बेस मिले जो एक लाइन में थे और बराबर दूरी पर थे। इस तरह के पिलर बेस और उसकी संरचना मंदिरों में मंडप बनाने के लिए इस्तेमाल होती है। चूंकि उस वक्त बाबरी ढ़ाचा खड़ा था इसलिए ये पता नहीं लगाया जा सका कि ये पिलरबेस कहां तक जाते हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। चूंकि बाबरी ढ़ांचा 1992 में जमींदोज हो चुका था इसलिए इस बार खुदाई उस जगह पर भी हुई जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी। खुदाई में सबसे पहले पिलरबेस मिले। 1977 में दस पिलरबेस मिले थे लेकिन 2003 में 85 पिलरबेस मिले। यानि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी और उसके पिलर्स का इस्तेमाल हुआ और मंडप के खंभों को तोड़ पर उस जमीन को समतल कर दिया गया।
अनेक हिन्दू मूर्तियों के अवशेष ;-बाबरी मस्जिद के नीचे से भगवान राम के मंदिर के सबूत मिलने अभी तो शुरू हुए थे। ऐसा हुआ मानो अयोध्या की जमीन खुद राम के सबूत पेश कर रही हो। उमामहेश्वर की मूर्ति जिसके हाथ में त्रिशूल है, कुबेर की मूर्ति, देवी-देवताओं की मूर्ति, भगवान शिव का वाहन नंदी, पत्थरों पर मौजूद कमल की आकृति इन सभी पुरातत्वों को उसी विवादित हिस्से की खुदाई कर निकाला गया जहां राम मंदिर औऱ बाबरी मस्जिद का विवाद चल रहा है।
इस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गौरवयुक्त धर्म-स्थली को बहस और मुकदमों से निजात मिलनी चाहिए। इतिहास के नजरिए से मुकम्मल न्याय यही होगा कि रामजन्मभूमि स्थल पर मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया जाय।

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