मंदिर विमर्श पर हंगामा क्यों

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अरविंद जयतिलक

यह चरित्र का दोहरापन है कि एक ओर कांग्रेस और वामपंथी दलों के छात्र संगठन एनएसयूआइ, आइसा, एसएफआइ और सीवाइएसएस दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फेकेल्टी स्थित काॅन्फ्रेंस सेंटर में स्वामी अरुंधति संस्थान द्वारा आयोजित ‘राम मंदिर जन्मभूमिः उभरते परिदृश्य’ सेमिनार का विरोध कर रहे हैं, वहीं चंद रोज पहले जब पश्चिम बंगाल के मालदा और बिहार के पूर्णिया में एक खास समुदाय द्वारा सांप्रदायिक उन्माद का वातारण निर्मित किया गया तो वे चुप्पी साधे रहे। इस तरह के खतरनाक आचरण से देश आश्चर्यचकित है और जानना चाहता है कि राममंदिर पर विमर्श किस तरह अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक, सांप्रदायिक और शिक्षा का भगवाकरण है? वह भी तब जब सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा कहा जा चुका है कि मंदिर निर्माण का कार्य कानून और न्यायालयी आदेश के विरुद्ध नहीं होगा। जहां तक दिल्ली विश्वविद्यालय में सेमिनार के आयोजन का सवाल है तो देश के तमाम विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में इस तरह का वैचारिक आयोजन होता रहा है। कांगे्रस और वामपंथी दलों से जुड़े विचारकों ने तो कई बार ऐसे आयोजनों में देश विरोधी ताकतों मसलन नक्सलवाद और आतंकवाद के समर्थकों को भी जगह दी है जो किसी भी लिहाज से राष्ट्रवाादिता नहीं कहा जा सकता। फिर ऐसे लोगों को राष्ट्रवादी सेमिनारों पर ऊंगली उठाने का हक कैसे है? अगर सुब्रमण्यम स्वामी सेमिनार के जरिए एकराय बनाकर इस विवादित मुद्दे का हल निकालना चाहते हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए न कि विरोध। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों इस विवादित मसले का हल न निकलने देने का व्रत ले लिया है। यह वहीं लोग हैं जो अरसे से इस मुद्दे को उलझाए हुए हैं। याद होगा जब छः दशक बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद दोनों पक्षों के बीच एक बेहतरीन नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद जगी थी। लगा कि दोनों पक्ष आपसी सहमति से अयोध्या विवाद का हल निकल लेंगे। लेकिन कुछ सियासी दलों और मजहबी संगठनों ने उन प्रयासों पर पानी फेर दिया। आज भी उसी तरह का प्रयास हो रहा है। अब सारा दारोमदार उच्चतम न्यायालय पर है कि वह क्या फैसला देता है। बहरहाल फैसला कब आएगा यह कहना तो कठिन है लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले से एक बात स्पष्ट हो चुका है कि विवादित स्थान पर राममंदिर ही था। ऐसे में अगर सुब्रमण्यम स्वामी और हिंदू समुदाय मंदिर स्थापना का संकल्प दोहराता है तो यह किस तरह अनुचित और सांप्रदायिक है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि जहां रामलला की मूर्ति स्थापित है, वहां के मालिक रामलला ही हैं न की कोई और। लेकिन आश्चर्य कि इसके बावजूद भी न्यायालय ने विवादित जमीन को तीन हिस्से में बांटने का फैसला दिया। बहरहाल उस समय न्यायालय के फैसले को दोनों समुदायों ने स्वागत किया और उम्मीद जतायी कि बातचीत से मसले का हल निकल आएगा। अगर इस फैसले में थोड़ी बहुत पंेचीदगियां हैं तो फैसले के आलोक में सुलह समझौते की गुंजाइश बन जाएगी। दोनों समुदायों के कुछ पक्षकारों ने इस विवाद को आपसी समझदारी से सुलझाने का प्रयास भी किया। लेकिन कुछ हठधर्मियों ने निहित स्वार्थ के लिए समझौते के बन रहे माहौल में जहर घोल दिया। उन्होंने कुतर्क परोसा कि कानून का ध्यान रखे बिना आस्था के आधार पर फैसला दिया गया। ऐसी ही कुछ टिप्पणी तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्ष सियासतदानों द्वारा भी सियासी फायदे के लिए की गयी और कहा गया कि अदालती फैसले से मुसलमान ठगा हुआ और आहत महसूस कर रहा है। फिर क्या था अदालती फैसले के खिलाफ मुस्लिम जमात की तल्ख प्रतिक्रियाएं आनी शुरु हो गयी। वे इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने पहुंच गए। हिंदू पक्षकारों में भी इस बात को लेकर बहस तेज हो गयी कि जब इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा विवादित जमीन रामलला का ही माना गया है तो फिर उसे तीन हिस्सो में बांटने का क्या औचित्य था। तर्क-कुतर्क के बीच आज सभी पक्षकार अपनी हठधर्मिता की गठरी के साथ सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर खड़ा फैसले का इंतजार कर रहे हैं। देखा जाय तो यह स्थिति हताशा और निराशा पैदा करने वाली है। इन परिस्थितियों में अगर कोई संस्था राममंदिर निर्माण के लिए सेमिनार आयोजित कर सदभाव का माहौल निर्मित कर रही है तो यह किस तरह अनुचित और सांप्रदायिक है? लेकिन आश्चर्य है कि कुछ संगठन कुतर्कपूर्ण विरोध के जरिए यह साबित करना चाहते हैं कि सामाजिक-धार्मिक सवालों पर वे सियासत से बाज आने वाले नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद उत्पन्न हुई राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बीच जिस तरह राममंदिर निर्माण का विरोध हो रहा है उससे साफ है कि कुछ सियासी जमात और मजहबी संगठन विद्रुप मनोगं्रथियों के केंचुल से बाहर आने को तैयार नहीं हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर सर्वमान्य सहमति न बनाकर और उस फैसले के खिलाफ खड़ा होकर सिद्ध कर रहे हंै कि साझी संस्कृति और सभ्यता की कई परंपरागत मान्यताएं और सुलझे विचार जिनकी दलीलें देकर हम अकसर अपनी आपसी एकता की बात करने से थकते-अघाते नहीं हैं, वह सब खोखली और अपरिपक्व हैं। विश्व के सामने हम बहुपंथी और बहुभाषी होने के बीच एकता के सूत्र में गुंथे होने का भले ही स्वांग रचते फिरे लेकिन हकीकत यह है कि हम धर्म और भाषा के सवाल पर एक दूसरे का सम्मान करने को तैयार नहीं हैं। राम राष्ट्रपुरुष हैं। भारत के आराध्य हैं। भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं। राम के बिना राष्ट्र का वजूद नहीं है। लेकिन विभाजनकारी मनोगं्रथियों और मनोभावों की जकड़नों के कैदी नहीं चाहते हैं कि राम के देश में राम का मंदिर बने। सवाल लाजिमी है कि जब राम के ही जन्मस्थली अयोध्या में उनका मंदिर नहीं बनेगा तो कहां बनेगा? वैवसस्वत मनु द्वारा सरयू तट पर अयोध्या की स्थापना की गयी। अथर्ववेद, स्कंद पुराण, नरसिंह पुराण, बाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस और केनोपनिषद जैसे सैकड़ों ग्रंथों में रामनगरी अयोध्या का उल्लेख है। उच्च न्यायालय के तीनों न्यायाधीशों में से एक न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने फैसले में कहा है कि वह 12 वीं शताब्दी के राममंदिर को तोड़कर बनाया गया था। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा कि वह किसी बड़े हिंदू धर्मस्थल को तोड़कर बनाया गया। न्यायमूर्ति खान ने भी कहा कि वह किसी पुराने ढांचे पर बना था। क्या इन विद्वान न्यायाधीशों के फैसले से स्पष्ट नहीं हो जाता है कि वहां राममंदिर था और बाबर के समय में तोड़कर मस्जिद का स्वरुप दिया गया? अगर ऐसे में देश का बड़ा समुदाय उस स्थान पर अपने आराध्य राम का मंदिर निर्मित करना चाहता है तो यह किस तरह अनुचित है? क्या अच्छा नहीं होता कि मुस्लिम समुदाय विरोध जताने के बजाए आगे बढ़कर राममंदिर निर्माण में सहयोग करता? लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं कर रहा है। जबकि वह अच्छी तरह अवगत है कि मुस्लिम शासक बाबर 1527 में फरगना से भारत आया था। उसने चित्तौड़गढ़ के हिंदू राजा राणा संग्राम सिंह को फतेहपुर सिकरी में परास्त कर दिया। गौरतलब है कि इस युद्ध में बाबर ने तोपों और गालों का प्रयोग किया था जबकि राणा संग्राम सिंह की सेना परंपरागत हथियारों से लड़ी। जीत के बाद बाबर ने इस क्षेत्र का प्रभार मीर बांकी को दे दिया। मीर बांकी ने उस क्षेत्र में मुस्लिम शासन लागू कर दिया। उसने हिंदू नागरिकों को नियंत्रित करने के लिए आतंक का सहारा लिया। तलवार के नोंक पर लाखों हिंदुओं का धर्मान्तरण किया गया। मीर बांकी 1528 में अयोध्या आया और राममंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवाया। 30 अक्टुबर 1990 को विवादित ढ़ांचा गिराए जाने के बाद आज भगवान राम कारसेवकों द्वारा तिरपाल के अस्थायी मंदिर में रह रहे हैं। यह तिरपाल का मंदिर उसी स्थान पर है जहां ध्वंस से पहले रामलला विद्यमान थे। सवाल लाजिमी है कि भारत के राष्ट्रीय नायक कब तक तिरपाल के मंदिर में रहेंगे? निःसंदेह भारत एक लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष राज्य है। न्यायालय का फैसला सर्वोपरि है। लेकिन इस बात की क्या गारंटी कि अगर उच्चतम न्यायालय का फैसला राममंदिर के पक्ष में आता है तो उसका पालन होगा ही। क्या आस्था और कानून का घालमेल करने वाले तथाकथित सेक्यूलर सियासतदान और मजहबी संगठन अपने पूर्वाग्रहों से लैस नजर नहीं आएंगे? शाहबानों प्रकरण में देश देख चुका है कि किस तरह न्यायिक फैसले को प्रभावित करने के लिए धर्म का हवाला देकर उसे अप्रासंगिक बना दिया गया।

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